मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच जीतन राम मांझी के लगभग 9 महीने के कार्यकाल को छोड़ दें तो नीतीश कुमार 2005 से लगातार मुख्यमंत्री की कुर्सी में काबिज हैं। नीतीश कुमार पहली बार साल 2000 में बिहार के मुख्यमंत्री बने। मगर उनकी यह सरकार सात दिनों से अधिक टिक नहीं सकी। नीतीश के सात दिनों के सीएम बनने का किस्सा रोचक है। वह दिल्ली से पटना लौट रहे थे। मगर एक बड़े नेता का फोन आता है और सबकुछ बदल जाता है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार सरकार बनाने का दावा पेश करने के पक्ष नहीं थे। रामविलास पासवान उनके खिलाफ थे।
2000 विधानसभा चुनाव से पहले एनडीए में सीटों के बंटवारे पर विवाद मच गया था। दिल्ली स्थित लाल कृष्ण आडवाणी के आवास पर गठबंधन दलों की एक बैठक बुलाई गई। मगर यहां भी सहमति नहीं बन सकी। नीतीश की समता पार्टी ने 122 सीटें मांगी। दूसरी तरफ शरद यादव और रामविलास पासवान अधिक सीटों पर अड़े थे। भाजपा ने नीतीश को पहले 108 और बाद में 90 सीटों का प्रस्ताव दिया। नतीजा यह हुआ कि लगभग 74 सीटों पर गठबंधन के ही प्रत्याशी आमने-सामने थे। सभी दलों ने अपना-अपना प्रचार किया और नतीजा त्रिशंकु विधानसभा के तौर पर सामने आया।
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2000 विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की समता पार्टी ने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के तहत चुनाव लड़ा। समता पार्टी को 34, जेडीयू को 21 और बीजेपी को 67 सीटों पर जीत मिली। एनडीए के हिस्से में कुल 122 सीटें आईं। दूसरी तरफ लालू प्रसाद यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल और सीपीएम ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था। आरजेडी को सबसे अधिक 124 सीटों पर जीत मिली। मतलब एनडीए से दो सीटें अधिक। बावजूद इसके आरजेडी को सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया। सीपीएम को दो सीटों पर जीत मिली थी। बहुमत का आकंड़ा 163 था। बहुमत साबित करने की खातिर एनडीए को 41 और राजद-सीपीएम गठबंधन को 37 सीटों की जरूरत थी।
लालू को मौका नहीं देना चाहता था NDA
नीतीश कुमार नहीं चाहते थे कि एनडीए सरकार बनाने का दावा पेश करे। उन्हें लगता था कि 41 विधायकों को जुटा पाना आसान नहीं है। दूसरी तरफ एनडीए के कुछ नेताओं को लगता था कि लालू को गद्दी पर बैठने का एक और मौका नहीं देना चाहिए। सबकी निगाह 20 निर्दलीय और कांग्रेस के नेताओं पर टिक गई थी। एनडीए के दिग्गजों का मानना था कि अगर कांग्रेस ने लालू का समर्थन किया तो पार्टी में फूट पड़ सकती है। झारखंड मुक्ति मोर्चा का भी समर्थन मिलने की उम्मीद थी, उसके कुल 12 विधायक थे।
जब नीतीश के पास पहुंचा NDA नेता का फोन
चुनाव से पहले एनडीए ने किसी का भी नाम सीएम पद के तौर पर घोषित नहीं किया था। भाजपा ने अपना सीएम बनाने से मना कर दिया। अब मैदान में मुख्य मुकाबला जेडीयू के रामविलास पासवान और समता पार्टी के नीतीश कुमार के बीच था। मगर अधिकांश नेता पासवान के समर्थन में नहीं थे। नीतीश कुमार का पलड़ा भारी था। मगर नीतीश कुमार दावेदारी पेश करने के पक्षधर नहीं थे। वह दिल्ली से पटना जाने के लिए इंदिरा गांधी हवाई अड्डे पर पहुंचे। तभी उनका फोन बजता है। दूसरी तरफ एनडीए का एक कद्दावर नेता होता है। उस नेता ने नीतीश कुमार से तुरंत लौटने और एक अहम बैठक में हिस्सा लेने की अपील की।
नीतीश कुमार और उभरता बिहार किताब में पत्रकार अरुण सिन्हा लिखते हैं, 'रामविलास पासवान का भाजपा नेताओं के साथ गुपचुप एक समझौता हो गया था कि वह उनका नाम प्रस्तावित करेंगे और वह इनकार कर देंगे। इसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने पासवान के नाम का प्रस्ताव रखा और पासवान ने इसे अस्वीकार कर दिया। बाद में नीतीश कुमार के नाम के प्रस्ताव को सभी ने स्वीकार कर लिया।'
राज्यपाल विनोद पांडे ने तोड़ी परंपरा
बाद में विधायक दल की बैठक पटना में हुई। इसमें नीतीश कुमार को नेता चुना गया। सबसे अधिक सीटों पर राजद गठबंधन को जीत मिली थी। परंपरा के मुताबिक सबसे पहले आरजेडी को सरकार बनाने का न्योता मिलना चाहिए था, लेकिन बिहार के तत्कालीन राज्यपाल विनोद पांडे ने प्रथा से उलट कदम चला। अरुण सिन्हा लिखते हैं, 'राज्यपाल विनोद पांडे ने केंद्र में वाजपेयी सरकार के स्पष्ट निर्देश पर राबड़ी के दावे की उपेक्षा कर दी और नीतीश को सरकार बनाने का न्योता भेजा।'
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सात दिनों से ज्यादा नहीं टिकी नीतीश सरकार
3 मार्च 2000 को पहली बार नीतीश कुमार ने सीएम पद की शपथ ली। सात दिनों में उन्हें बहुमत साबित करना था। मगर नीतीश सरकार बहुमत नहीं साबित कर सकी। 10 मार्च को नीतीश कुमार को अपना पद छोड़ना पड़ा। बाद में कांग्रेस की मदद से आरजेडी ने सरकार बनाई। 11 मार्च को राबड़ी देवी ने तीसरी बार सीएम पद की शपथ ली और वह 6 मार्च 2005 तक इस पद पर बनी रहीं।