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लाशें, जानलेवा सर्दी, दुर्गम राह, फिर माउंट एवरेस्ट क्यों आते हैं लोग?

माउंट एवरेस्ट की ऊंचाई 8 हजार मीटर से ज्यादा है। तापमान -40 डिग्री से सेल्सियस से कम। खून जमाने वाली सर्दी में हिमस्खलन, बर्फीले तूफान और खतरनाक फिसलन की चुनौती बनी रहती है। लोग यहां एल्टीट्यूड सिकनेस का भी शिकार हो जाते हैं। यही वजह है कि यहां की चढ़ाई, अब भी दुर्गम समझी जाती है। पढ़ें रिपोर्ट।

Mount Everest

माउंट एवरेस्ट। (Photo Credit: ntb.gov.np)

'मैं फिर आऊंगा और चढ़ूंगा क्योंकि पर्वत होने के कारण तुम और नहीं बढ़ सकते, पर मनुष्य होने के कारण मैं और आगे बढ़ सकता हूं।'

29 मई 1953। दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर एडमंड हिलेरी और शेरपा तेनजिंग नोर्गे के कदम पड़ चुके थे। एडमंड ने दो बार के असफल प्रयासों के बाद जब माउंट एवरेस्ट फतह किया तो यह उनके उद्गार थे। कुछ ऐसा ही तेनजिंग नोर्गे ने भी कहा था। सभ्यता की शुरुआत से ही 'शीर्ष' पर पहुंचने की ललक लोगों में रही है। उन जगहों पर लोग कदम रखना चाहते हैं, जहां पहुंचना दुर्गम माना जाता है। खराब मौसम, माइनस में तपामान और सामने मौत देखकर भी लोगों का हौसला नहीं टूटता, लोग फिर भी 'माउंट एवरेस्ट' फतह करना चाहते हैं।

 

साल 1984 में जब भारत की पहली महिला पर्वतारोही बछेंद्री पाल ने माउंट एवरेस्ट की चोटी पर कदम रखा तो उन्होंने कहा, 'एवरेस्ट पर चढ़ना केवल शारीरिक शक्ति का खेल नहीं है, यह मन की इच्छाशक्ति और दृढ़ संकल्प की जीत है।' जैसी चुनौतियां 1948 में थीं, वैसी ही चुनौतियां इस दुर्गम पर्वत पर आज भी हैं। इन्हीं मुश्किलों को पार पाया है CISF की एक महिला सब इंस्पेक्टर गीता समोटा ने। उन्होंने 29032 फीट ऊंचे माउंट एवरेस्ट पर तिरंगा लहरा दिया है। वह ऐसा करने वाली CISF की पहली अधिकारी बन गई हैं।
 
राजस्थान के सीकर जिले के छोटे से गांव चक की रहने वाली गीता वहीं पली-बढ़ी हैं। कॉलेज में हॉकी प्लेयर रहीं गीता के पैर में ऐसी चोट लगी कि उन्होंने अपना करियर पर्वतारोहण की तरफ शिफ्ट कर लिया। अब उन्होंने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर भी अपने पांव रख दिए हैं। मनुष्यों के माउंट एवरेस्ट विजय के 7 दशक बीत गए हैं लेकिन क्या कठिनाइयां कम हुई हैं? जवाब न में है। 

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CISF सब इंस्पेक्टर गीता समोटा (Photo Credit: CISF

क्यों मुश्किल है माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई?

बछेंद्री पाल, संतोष यादव, अंशु जामसेनपा, अर्जुन वाजपेयी और टीने मेना जैसे पर्वातारोहियों ने माउंट एवरेस्ट फतह करने के बाद जो अपने अनुभव बताए, उन्हें जानकर आप यह समझ सकते हैं कि क्यों माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई इतनी मुश्किल है। माउंट एवरेस्ट धरती की सतह से 8848 मीटर की ऊंचाई पर है। आमतौर पर लोग वैष्णव देवी की आसान चढ़ाई पर हांफ जाते हैं, तब जबकि वहां जाने के लिए चौड़ी राह बनी हुई है। माउंट एवरेस्ट दुनिया के सबसे जोखिमभरे रास्तों में से एक है। 

जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती है, ठंड और खराब मौसम की दुश्वारियां बढ़ती जाती हैं। जितनी ऊंचाई पर आप चढ़ते हैं, ऑक्सीजन कम होती जाती है। जब 8 हजार मीटर से ऊपर के हिस्से में आप पहुंचते हैं तो इसे 'डेथ जोन' कहते हैं। यहां सांस लेने में सबसे ज्यादा मुश्किलें आती हैं। कई ऐसे पर्वतारोही होते हैं, जिनका दिमाग तक काम करना बंद कर देता है। माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई महीनों की तैयारी मांगती है।

 

हफ्तों की चढ़ाई में लोग थक जाते हैं। लंबे समय से चले आने की वजह से नींद और थकावट भी खूब आती है। रास्ते इतने जोखिम भरे हैं कि कहीं जानलेवा फिसलन है, कहीं बर्फीली दरारे हैं। कभी हिमस्खलन की आशंका, कभी खुम्बू आइसफॉल की तरह खड़ी चट्टानें। इतनी ऊंचाई पर लोग ऑक्सीजन सिलेंडर और टेंट भी लेकर नहीं जा सकते। 5 हजार मीटर से ज्यादा की ऊंचाई तक पहुंचते ही फेफड़ों में सूजन, फ्रास्टबाइट जैसी मुश्किलें सामने आने लगती हैं। कई लोगों की इस वजह से मौत भी हो जाती है।  

दुनियाभर के लोग माउंट एवरेस्ट आना चाहते हैं। चोटी पर रास्ता इतना संकरा है कि दो लोग साथ आ नहीं सकते हैं। भीड़ ज्यादा होने से माउंट एवरेस्ट पर भी पर्वतारोहियों का जाम लग जाता है। हाल के दिनों में इसकी भी वजह से लोगों की मुश्किलें बढ़ी हैं।

पर्वतारोही नीतीश सिंह से कहते हैं, 'माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई महीनों की मेहनत मांगती है। मैदानी इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए शारीरिक चुनौतियां सबसे बड़ी बाधा हैं। शेरपा, ऊंचाई पर रहने के अभ्यस्त होते हैं, आम आदमी नहीं। जब लोग 8 हजार मीटर की ऊंचाई पर पहुंचते हैं तो उनका दिमाग तक काम करना बंद कर देता है। कई बार होता है कि आदमी फैसला नहीं ले पाता कि आगे बढ़े, पीछे जाए या वहीं बैठ जाए। शेरपा यही निर्णय लेने में मदद करते हैं।'

पर्वतारोही नितीश सिंह कहते हैं, 'जब मौत सामने खड़ी हो और तुम एक रस्सी के सहारे झूल रहे हो, तो ज़्यादातर लोग सिर्फ इस बात से डरते हैं कि कहीं रस्सी टूट न जाए, कहीं दर्द मौत से पहले न आ जाए। लेकिन मैंने हमेशा ये सीखा है कि डर के आगे जीना है। डर को अपनी कहानी का लेखक मत बनने दो, क्योंकि असली ज़िंदगी वहीं से शुरू होती है जहां तुम डर को पीछे छोड़ देते हो।'


शेरपा कौन होते हैं?
शेरपा नेपाल के हिमालयी क्षेत्र में रहने वाला एक जातीय समूह है। शेरपा शब्द तिब्बती भाषा के शर और पा से बना है, इसका मतलब होता है पूरब के लोग। शेरपा अपनी पर्वतारोहण कला में माहिल होते हैं, उन्हें चोटियों पर चढ़ने का अनुभव होता है। माउंट एवरेस्ट के संदर्भ में वे गाइड और पोर्टर के तौर पर काम करते हैं।  

Photo Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

 


मौत के आंकड़े क्या कहते हैं?
हिमालयन डेटाबेस और कुछ अन्य सोर्स बताते हैं कि साल 1922 से लेकर 2022 तक, माउंट एवरेस्ट पर औसतन हर साल 5 पर्वतारोहियों की मौत हुई है। 1993 से 2022 तक के 30 साल के औसत में यह संख्या 6.2 मृत्यु प्रति वर्ष है। हालांकि, 2023 का मौसम इससे दोगुना घातक होने की ओर बढ़ रहा है। एवरेस्ट के लिए सबसे खतरनाक साल 2014 रहा है। एवरेस्ट के पश्चिमी हिस्से में एक सेराक नाम का एक हिमखंड ढह गया था। खुम्बू हिम प्रपात में कई टन बर्फ गिरी, जिसकी वजह से 16 पर्वतारोहियों की मौत हुई। इससे पहले साल 1996 में 15 पर्वतारोहियों की मौत हुई थी। 

  • 2023: 20 मौतें  
  • 2014: 16 मौतें  
  • 1996: 15 मौतें  
  • 2015: 10-13 मौतें  
  • 1922: 7 मौतें 
  • 1970: 6 मौतें
    सोर्स: हिमालयन डेटाबेस 

 

Photo Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

ग्रीन बूट्स, एक लाश या मंजिल से पहले का पड़ाव
माउंट एवरेस्ट की सबसे चर्चित लाश है ग्रीन बूट्स। एक शरीर जिसके पैरों में हरे रंग की पर्वतारोहण बूट्स हैं। यह लाश सेवांग पलजोर की है। एवरेस्ट की ऊंचाई से महज 200 से 300 मीटर नीचे। लोग उस लाश को मार्क के तौर पर जानते हैं। शायद इतिहास का पहला मामला हो, जब लोगों को लाश से उम्मीद दिखती है कि अब मंजिल करीब है। एक सदी के ज्ञात इतिहास में 343 से ज्यादा लाशें माउंट एवरेस्ट पर पड़ी हैं लेकिन ग्रीन बूट्स् को 2 दशक बाद भी लोग भूल नहीं पाए हैं। बर्फ में जमी लाश है तो उसके खराब होने का खतरा नहीं है। 

एक वक्त तक यह लाश लोगों के ठहरने का पिन पॉइंट बन गई थी। लोग वहां बैठकर आराम करते थे। सेवांग पलजोर, इंडो तिब्बत बॉर्डर के एक जवान थे। साल 1996 में उन्होंने सेवांग मानला और दोर्जो मोरुप के साथ एवरेस्ट की चढ़ाई करने निकले। उनकी मंजिल से ठीक पहले मौत हो गई। इनटू थिन एयर में लेखक जॉन क्राकर ने पूरी कहानी का जिक्र किया है। एक फिल्म भी एवरेस्ट नाम से इस पर बनी। अब उनकी लाश वहां से हटा दी गई है, या फिसलकर थोड़ी नीचे खिसक आई है।

माउंट एवरेस्ट पर ग्रीन बूट्स। यह लाश सेवांग पलजोर की है।

'सुब्रत घोष, माउंट एवरेस्ट और वहीं ठहर जाने का भ्रम'

पर्वतारोही नीतीश कुमार कहते हैं, 'वहां से ऊपर कुछ नहीं है। आप दुनिया के टॉप पर बैठे पर होते हैं, वहां आगे चढ़ने में असक्षम लोग भी नीचे उतरना नहीं चाहते हैं, कोई घर बेचकर आया होता है, कोई जमीनें गिरवी रखकर। जब दुनिया के टॉप पर पहुंचता है तो कई बार वह लौटना ही नहीं चाहता। शेरपा के समझाने को भी लोग नहीं मानते। शेरपा उन्हें ढोकर नहीं ला सकते हैं, लोग वहीं रह जाना चाहते हैं। ऐसा भले ही कम होता है, लेकिन होता है। हो सकता हो कि पश्चिम बंगाल के सुब्रत घोष के साथ भी ऐसा ही हुआ हो। उनकी मौत हिलेरी स्टेप में हुई है। उनके साथ जाने वाले शेरपा ने ही कह दिया कि वह हिलेरी स्टेप से नीचे आने के लिए तैयार ही नहीं हुए। हो सकता है कि वह सोच रहे हों कि अंतिम मंजिल से कौन लौटे। इसका अहसास सिर्फ पर्वतारोही ही समझ सकते हैं।'

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जिन लोगों की मौत हो जाती है, उनकी लाशों का क्या होता है?
माउंट एवरेस्ट पर मरने वालों की लाशें अक्सर वहीं रह जाती हैं, क्योंकि उन्हें नीचे लाना बेहद मुश्किल और खतरनाक है।  जिंदा आदमी के पहुंचने और उतरने की डगर इतनी मुश्किल है तो मुर्दा कैसे लौटें।'डेथ जोन' ऑक्सीजन की कमी और खराब मौसम के कारण शव निकालना जानलेवा हो सकता है। कई लाशें बर्फ में जम जाती हैं या दरारों में फंस जाती हैं। कुछ को शेरपा टीमें भारी मेहनत और लागत से नीचे लाती हैं। एवरेस्ट पर जाने का ही खर्च 20 लाख से 40 लाख रुपये तक पड़ता है, लाशों को लाने में 70 लाख रुपये तक लग जाते हैं। पहाड़ अंतिम मंजिल के तौर पर देखे जाते हैं, इन लाशों की अंतिम गति भी वहीं हो जाती है। शायद यही वजह है कि एवरेस्ट पर 343 से ज्यादा लाशें पड़ी हैं, उन्हें बर्फ ने सहेज रखा है।

माउंट एवरेस्ट पर बिखरी लाशें। (Photo Credit: NYT)

शेरपा वापस क्यों नहीं लाना चाहते हैं लाश?
शेरपा अक्सर लाशों को छूने से बचते हैं, क्योंकि वे इसे अशुभ मानते हैं। शेरपाओं का सांस्कृतिक विश्वास है कि मृतकों की आत्माएं पहाड़ पर रहती हैं, और उन्हें छेड़ना अशुभ हो सकता है।

माउंट एवरेस्ट कैसे जाएं, शर्तें रजिस्ट्रेशन, खर्च से रूट और तैयारियों तक, सब जानिए 
अगर आप माउंट एवरेस्ट जाना चाहते हैं तो नेपाल के कानून के मुताबिक 7 हजार मीटर से ऊंची चोटी पर चढ़ने का अनुभव आपके पास होना चाहिए। शारीरिक और मानसिक तौर पर सेहतमंद हों, महीनों की ट्रेनिंग की हो, दौड़ने, वजन उठाने और हाइकिंग में अभ्यस्थ हों। हाइ एल्टीट्यूड पर आप बर्दाश्त करने में सक्षम हों।  

Photo Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

काठमांडू से बेस कैंप की राह
नेपाल की राजधानी काठमांडू पहुंचिए। काठमांडू से लुक्ला की फ्लाइट लेनी होती है। लुक्ला 2,860 मीटर की ऊंचाई पर है। लुक्ला से बेस कैंप तक पहुंचने में 10 से 12 दिन की ट्रेकिंग करनी पड़ती है। एवरेस्ट बेस कैंप भी 5,364 मीटर की ऊंचाई पर है। बेस कैंप से आगे की चढ़ाई मुश्किल है। यहीं से खुम्बु आइसफॉल की शुरुआत होती है। यह बर्फीली दरारों वाला खतरनाक रास्ता है। कई जगह कैंप बनाए जाते हैं। 6 से 8 हजार मीटर तक की ऊंचाई तक पहुंचने के लिए पर्वतारोही आराम भी करते हैं। पूरी चढ़ाई चढ़ने में 6 से 8 हफ्तों का वक्त लगता है। मौसम के हिसाब से ही आगे की रणनीति तैयार की जाती है। नेपाल में माउंट एवरेस्ट को सागरमाथा भी कहते हैं।

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Photo Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

जाने लिए बेहतर समय क्या है?
मई माउंट एवरेस्ट जाने के लिए सबसे सही मौसम है। आसमान साफ रहता है और बर्फीली हवाओं का खतरा कम रहता है। विदेशी पर्वतारोहियों के लिए वसंत सीजन मार्च से मई तक अब महंगा हो गया है।

खर्च कितना आता है?
नेपाल ने वसंत सीजन के लिए परमीट फीस 36 फीसदी बढ़ा दी है। नई दरें 1 सितंबर 2025 से लागू होंगी। अब मार्च से मई के बीच अगर आप जाना चाहते हैं तो इसके लिए आपके 12.35 लाख रुपये देना होगा। सितंबर से नवंबर में जाना चाहते हैं तो इसके लिए आपको 6.17 लाख रुपये देने होंगे। सर्दी में यह राशि घट जाती है। सर्दी और मानसून सीजन में यहां जाने के लिए आपको 3 लाख रुपये तक खर्च करने पड़ सकते हैं। यह सिर्फ परमिट फीस है। 

क्या करना चाहिए?
माउंट एवरेस्ट पर कचरा मत फैलाइए। कोशिश कीजिए जो साथ लेकर जा रहे हैं, उसे लेकर आएं। प्रदूषण नियंत्रण और जाम की समस्या से बचने के लिए नेपाल सरकार ने 75 दिनों के परमिट को 55 दिनों के लिए सीमित कर दिया है। नए नियमों में कचरा प्रबंधन पर जोर है। पर्वतारोहियों को बायोडिग्रेडेबल बैग में मानव अपशिष्ट बेस कैंप तक लाना अनिवार्य होगा। पिछले साल 421 परमिट जारी हुए, 600 लोग शिखर तक पहुंचे थे और 100 टन कचरा जमा हुआ था। नेपाल सरकार ने अब इससे सबक सीखा है और नए नियम लागू किए हैं।

Photo Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

कितना खर्च आता है?
12 लाख से ज्यादा परमिट फीस और 20 से 25 लाख रुपये ट्रैवल एजेंसियां मांगती हैं। मेडिकल इंश्योरेंस, होटल चार्ज, फ्लाइट, पर्वतारोहण गियर, ऑक्सीजन, ट्रैकिंग इंस्ट्रूमेंट कपड़ों पर कुल मिलाकर 10 लाख रुपये के करीब खर्च हो जाता है। ट्रेनिंग के लिए अलग से पैसे लगते है। कुल लागत 30 लाख से लेकर 70 लाख तक पहुंच सकती है। जो एजेंसियां सस्ते में आपको पहुंचाने का वादा करें, उनके साथ जाने से बचें, क्योंकि आपकी जान, पैसों से ज्यादा जरूरी है।

परमिट कहां से लें?
नेपाल सरकार के पर्यटन मंत्रालय या नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन (NMA) से परमिट जारी होता है। लाइसेंसी ट्रैवल एजेंसी से संपर्क करें। पर्सनल परमिट नहीं जारी होता है। आपके साथ शेरपा अनिवार्य रूप से जाएगा। 

दस्तावेज जिन्हें रखना जरूरी है
अगर आप भारतीय हैं तो आधार कार्ड, पहचान पत्र, मेडिकल सर्टिफिकेट और पिछली चढ़ाइयों का सर्टिफिकेट। नए नियमों के मुताबिक आपके पास 7 हजार मीटर से ऊंची चोटी चढ़ने का अनुभव होना चाहिए, मेडिकल सर्टिफिकेट भी होना जरूरी है। 

किन बातों का ध्यान रखें?
हमेशा अनुभवी शेरपा और लाइसेंस एजेंसी चुनें। ऑक्सीजन सिलेंडर, गर्म कपड़े, मजबूत जूते, और सही गियर चेक करें। यात्रा की शुरुआत से पहले इन्हें जरूर चेक करें। इमरजेंसी रेस्क्यू और मेडिकल इंश्योरेंस की व्यवस्था करें। अगर आप ऊंचाई से डरते हैं तो यात्रा न करें। यात्रा के दौरान भी अगर आपको लगे तो कि तबीयत ठीक नहीं लग रही है तो यात्रा टाल दें, बेस कैंप लौट जाएं। दवाइयां साथ रखें।

यात्रा में अनुभवी शेरपा का होना जरूरी है।  hoto Credit: नेपाल माउंटेनियरिंग एसोसिएशन

एवरेस्ट के लिए किन दवाइयों को साथ रखना जरूरी है
डायमॉक्स: ऊंचाई के डर को कम करता है  
डेक्सामेथासोन: मस्तिष्क की सूजन के इलाज में इस्तेमाल होता है
निफेडिपिन: फेफड़ों की सूजन कम करता है
पेनकिलर, इबुप्रोफेन: सिरदर्द और मांसपेशियों के दर्द के लिए।  
एंटी-डायरिया मेडिसिन: ऊंचाई पर पेट खराब हो सकता है 

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