रूस ने 3 जुलाई 2025 को अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को मान्यता दे दी। इसके साथ ही रूस अगस्त 2021 में अफगानिस्तान की सत्ता में आने वाले तालिबानी सरकार को मान्यता देने वाला पहला देश है। रूस ने तालिबान को मान्यता देते हुए कहा था कि उसके इस फैसले से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय सहयोग को बढ़ावा मिलेगा। जबकि अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय ने इसे 'बहादुरी भरा फैसला' बताया।
इसका एक दूसरा पक्ष ये है कि रूस एक दशक से भी ज्यादा समय से तालिबान के साथ बातचीत की नींव रख रहा था। रूस यह तब कर रहा था जब तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता में आया भी नहीं था। विशेषज्ञों का मानना है कि यह कदम मॉस्को की सुरक्षा और भू-राजनीतिक चिंताओं से उपजा है। डॉन की खबर के मुताबिक 2015-16 में रूस ने तालिबान के साथ औपचारिक रूप से संपर्क स्थापित करना शुरू कर दिया था।
तालिबान के एक अधिकारी के मुताबिक, इस दौरान तालिबान के बड़े नेताओं ने रूस की गुप्त यात्राएं की थीं। 2021 में सत्ता संभालने के बाद से रूस ने ना केवल तालिबान के साथ लगातार संपर्क बनाए रखा है, बल्कि तालिबान को मुख्यधारा में लाने और मान्यता का रास्ता खोलने के लिए शासन, आतंकवाद-रोधी और मानवाधिकारों में सुधार के उपाय करने की सलाह भी दे रहा है।
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बता दें कि रूस का यह तालिबान सरकार को मान्यता देने का फैसला एक व्यवस्थित प्रक्रिया का परिणाम है। इसके लिए रूस ने तालिबान के साथ 10 सालों तक बातचीत की है। इसके लिए रूस ने 'मॉस्को फॉर्मेट' फोरम शुरू किया और उसमें तालिबान को भी शामिल किया।
मान्यता देने के पीछे रूस का मकसद?
- अफगानिस्तान को अमेरिका और पश्चिम के करीब आने से रोकना
- सेंट्रल एशिया में धार्मिक उग्रवाद और कट्टरपंथ के प्रसार को रोकना
- तालिबान को अपने खिलाफ इस्तेमाल होने से रोकना
आतंकवाद और उग्रवाद से मुक्ति की चाहत
विशेषज्ञों के मुताबिक, रूस अफगानिस्तान में एक स्थिर सरकार चाहता है। रूस चाहता है कि अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सेनाओं की वापसी के बाद तालिबान आतंकवादी संगठनों, विशेष रूप से आईएस-खुरासान जैसे उग्रवादी संगठनों, नशीले पदार्थों के व्यापार के विरुद्ध कार्रवाई कर सकता है। साथ ही रूस चाहता है कि तालिबान सरकार सेंट्रल एशियाई देशों में धार्मिक उग्रवाद और कट्टरपंथ के प्रसार को रोके।

इसके आलावा रूस, अफगानिस्तान को अमेरिका और पश्चिमी देशों के करीब आने से भी रोकना चाहता है। रूस नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान फिर से अमेरिकियों या पश्चिम के हाथों में जाए। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन, अफगानिस्तान को अपने खिलाफ इस्तेमाल होने से रोककर अपने राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा की रक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं।
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अमेरिका को पीछे ढकेलने की चाल
मॉस्को में अफगानिस्तान के राजनीतिक विशेषज्ञ शेर हसन के मुताबिक, 'अमेरिका भी इसी लक्ष्य के लिए काम कर रहा है।' उन्होंने आगे कहा कि रूस इसको लेकर चिंता में है और अमेरिकियों और उसके पश्चिमी के सहयोगियों को तालिबान से दूर रखने के प्रयास कर रहा है। हसन ने कहा, 'रूस नहीं चाहेगा कि अमेरिका के अफगानिस्तान में सैन्य अड्डे हों या सामरिक हथियार तैनात हों।' उन्होंने आगे कहा कि इससे रूस की सुरक्षा को खतरा पैदा होगा।
साथ ही, मॉस्को अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा के डर से सेंट्रल एशिया में अपने सहयोगियों को आतंकवादियों और उनकी विचारधारा से बचाना चाहता है। शेर हसन ने आगे कहा, 'अगर सेंट्रल एशिया में आतंकवादी विचारधाराएं पनपती हैं और वहां से यह खतरा रूस तक फैलता है, तो रूस को इससे बहुत नुकसान होगा और वह इसे रोक नहीं पाएगा।'
रूस की सोची समझी रणनीति
अफगान मूल के अमेरिकी शिक्षाविद उबैदुल्लाह बुरहानी के मुताबिक, तालिबान सरकार को मान्यता देने का रूस का फैसला एक प्रतीकात्मक संकेत से कहीं ज्यादा है। बुरहानी ने कहा, 'यह एक जानबूझकर किया गया भू-राजनीतिक पैंतरा है जिसका मकसद आंदोलन को अमेरिकी प्रभाव से दूर रखना और सेंट्रल एशिया में चरमपंथी समूहों के प्रसार को रोकना है।' उन्होंने कहा कि सभी देश, विशेष रूप से प्रमुख महाशक्तियां, 'कम से कम अफगानिस्तान को अपने खिलाफ इस्तेमाल होने से रोककर अपने राष्ट्रीय हितों और सुरक्षा की रक्षा करने की कोशिश कर रही हैं।'
वैश्विक मान्यता चाहता है तालिबान
रूस से मान्यता मिलने के बाद तालिबान के नेतृत्व वाली काबुल सरकार के लिए अगला कदम दुनिया के अन्य देशों से वैश्विक मान्यता लेना है। इसमें तालिबान विशेष रूप से पश्चिमी देशों से मान्यता और संयुक्त राष्ट्र में एक सीट प्राप्त करना चाहता है। हालांकि, रूस की तरफ से हरी झंडी मिलने के बाद अन्य देश तालिबान को मान्ता देने के बारे में सोच सकते हैं।