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Google, TCS  जैसी बड़ी कंपनियां छोटे शहरों की ओर, क्या हैं 10 फायदे?

गूगल, टीसीएस, एचसीएल जैसी बड़ी कंपनियां अब छोटे शहरों में अपने सेंटर खोल रही हैं। जानिए कैसे इससे रोजगार, इन्फ्रास्ट्रक्चर, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और आर्थिक औपचारिकता जैसे 10 क्षेत्रों में हो रहे हैं बड़े बदलाव।

Representional Image । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

भारत का आर्थिक और तकनीकी परिदृश्य अब तेजी से बदल रहा है। एक समय था जब गूगल, टीसीएस, इंफोसिस और एचसीएल जैसी बड़ी टेक कंपनियों के नाम केवल दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु और हैदराबाद जैसे महानगरों से ही जुड़े होते थे। लेकिन अब यह तस्वीर बदल रही है। डिजिटल इंडिया, रिमोट वर्क की स्वीकार्यता और इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार की वजह से ये कंपनियां अब भारत के टियर-2 और टियर-3 शहरों की ओर रुख कर रही हैं। ग्वालियर, भुवनेश्वर, इंदौर, कोयंबटूर, मैसूर, नागपुर, गोरखपुर जैसे शहर अब कॉर्पोरेट इंडिया के नए डेस्टिनेशन बन रहे हैं।

 

यह बदलाव महज ऑफिस लोकेशन की अदला-बदली नहीं है, बल्कि इसके व्यापक सामाजिक और आर्थिक प्रभाव हैं। बीते कुछ वर्षों में भारत की 40% से अधिक नई IT नौकरियां छोटे शहरों में उत्पन्न हुई हैं, जो इस ट्रेंड की ताकत को दर्शाती हैं। कंपनियां अब अपने ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स (GCCs), इनोवेशन हब्स और टेक डेवलपमेंट यूनिट्स को छोटे शहरों में स्थापित कर रही हैं, ताकि लागत में कटौती के साथ-साथ नई प्रतिभाओं को भी मौका मिल सके। राज्य सरकारें भी IT पार्क, SEZ और नीति प्रोत्साहन के माध्यम से इस दिशा में मदद कर रही हैं।

 

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खबरगांव इस लेख में इस बात की पड़ताल करेगा है कि जब बड़ी टेक कंपनियां छोटे शहरों में पहुंचती हैं, तो इससे स्थानीय लोगों, अर्थव्यवस्था, इंफ्रास्ट्रक्चर और पूरे समाज को क्या-क्या लाभ होते हैं।

माइग्रेशन मे कमी

भारत में जब कोई कंपनी किसी छोटे शहर में अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है, तो उसका पहला और सबसे स्पष्ट असर स्थानीय रोज़गार पर दिखाई देता है। जो युवा पहले दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु जाने को मजबूर थे, उन्हें अब अपने ही शहर में या आसपास नौकरी के अवसर मिलने लगे हैं। उदाहरण के तौर पर, जब टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (TCS) ने ग्वालियर और नागपुर में अपनी शाखाएं खोलीं, तो इन शहरों के हजारों युवाओं को घर के पास ही आईटी क्षेत्र में रोजगार मिला। इसी तरह एचसीएल और इंफोसिस जैसे ब्रांड्स भी लखनऊ, विजयवाड़ा और कोयंबटूर जैसे शहरों में बड़ी संख्या में नौकरियों का सृजन कर रहे हैं।

घरों को लौट रहे लोग

इस प्रवृत्ति ने देश में रिवर्स माइग्रेशन की प्रक्रिया को भी तेज कर दिया है। जहां पहले छोटे शहरों के लोग रोजगार के लिए बड़े शहरों की ओर पलायन करते थे, अब वे वापस लौट रहे हैं। भुवनेश्वर, इंदौर और मैसूर जैसे शहरों में बड़ी संख्या में ऐसे आईटी प्रोफेशनल्स लौटे हैं, जो पहले बेंगलुरु या पुणे में कार्यरत थे। इससे न केवल उनके जीवन की गुणवत्ता में सुधार आया है, बल्कि परिवार के साथ रहने और मानसिक शांति जैसी मूल्यवान चीज़ें भी उन्हें प्राप्त हो रही हैं। यह एक सामाजिक परिवर्तन की भी शुरुआत है, जो भारत के पारंपरिक शहरी ढांचे को चुनौती दे रहा है।

शहरों की इकॉनमी को बढ़त

कंपनियों के आगमन से स्थानीय अर्थव्यवस्था में भी नई जान आती है। जब एक बड़ा कॉर्पोरेट हब किसी शहर में बनता है, तो उसके चारों ओर तमाम सहायक व्यवसाय भी जन्म लेते हैं – जैसे रेस्टोरेंट, टैक्सी सेवा, कैफे, इंटरनेट प्रोवाइडर्स, किराए की आवास व्यवस्था, प्लंबर और इलेक्ट्रिशियन सेवाएं, ऑफिस सप्लाई और स्टेशनरी व्यवसाय। यह पूरा इकोसिस्टम एक आर्थिक श्रृंखला के रूप में काम करता है। उदाहरण के लिए, जब एचसीएल ने कानपुर में अपनी यूनिट खोली, तो उस क्षेत्र में कमर्शियल प्रॉपर्टी की कीमतों में तेजी से वृद्धि दर्ज की गई, और छोटे व्यापारियों की आमदनी में भी उल्लेखनीय बढ़ोत्तरी हुई।

इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास

बड़ी कंपनियों की मौजूदगी से स्थानीय इंफ्रास्ट्रक्चर का भी तेजी से विकास होता है। राज्य सरकारें और नगर निगम सड़कों, बिजली, पानी, परिवहन और इंटरनेट कनेक्टिविटी जैसी बुनियादी सेवाओं में निवेश बढ़ाते हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने इंदौर में सुपर कॉरिडोर विकसित किया जहां टीसीएस और इंफोसिस जैसी कंपनियां सक्रिय हैं। इस क्षेत्र में स्मार्ट स्ट्रीट लाइटिंग, हाई-स्पीड इंटरनेट और बेहतर सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था की गई है। इस तरह, एक कंपनी की मौजूदगी पूरे शहर को बेहतर जीवन स्तर की ओर ले जाती है।

एजुकेशन सेक्टर में विकास

तकनीकी कंपनियों की मांग को पूरा करने के लिए शिक्षा क्षेत्र में भी बड़ा बदलाव देखने को मिलता है। कंपनियां स्थानीय कॉलेजों और संस्थानों के साथ मिलकर स्किल डेवलपमेंट प्रोग्राम चलाती हैं। टीसीएस का ‘Ignite’, इंफोसिस का ‘Campus Connect’ और एचसीएल का ‘TechBee’ प्रोग्राम इस दिशा में महत्वपूर्ण उदाहरण हैं। ये प्रोग्राम न केवल युवाओं को नौकरी के लिए तैयार करते हैं, बल्कि उन्हें टेक्नोलॉजी, कम्युनिकेशन और टीमवर्क जैसे आधुनिक कार्यस्थल स्किल्स भी सिखाते हैं। इससे छात्रों का आत्मविश्वास बढ़ता है और उन्हें मेट्रो सिटी में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।

स्टार्टअप को बढ़ावा

जब किसी छोटे शहर में बड़ी कंपनी आती है, तो स्टार्टअप्स को भी नई ऊर्जा मिलती है। टेक्नॉलजी हब बनने से स्थानीय युवाओं में नवाचार की लहर उठती है। उन्हें निवेशकों, मेंटर्स और टेक्नॉलजी तक पहुंच मिलती है, जो पहले केवल बड़े शहरों तक सीमित थी। भुवनेश्वर का KIIT-TBI और रांची का STPI हब इस बात के उदाहरण हैं, जहां SaaS, EdTech और AgriTech स्टार्टअप्स को अच्छा समर्थन मिला है। यह स्थानीय स्तर पर उद्यमशीलता को बढ़ावा देता है और रोजगार सृजन का एक नया स्रोत बनता है।

 

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लाइफस्टाइल में सुधार

इन सभी आर्थिक और तकनीकी पहलुओं के साथ-साथ जीवन की गुणवत्ता में भी सुधार होता है। छोटे शहरों में ट्रैफिक, प्रदूषण और महंगाई अपेक्षाकृत कम होती है, जिससे कर्मचारी अपने परिवार के साथ एक बेहतर जीवन जी पाते हैं। ऑफिस और घर की दूरी कम होने से उन्हें ट्रैवेल में समय और पैसा दोनों की बचत होती है। अध्ययन बताते हैं कि छोटे शहरों में जीवन यापन की लागत 30–50% तक कम होती है, जिससे कर्मचारियों की संतुष्टि और उत्पादकता दोनों बढ़ती है।

महिला सशक्तीकरण

यह ट्रेंड महिला सशक्तीकरण को भी बढ़ावा दे रहा है। रिमोट वर्क और सैटेलाइट ऑफिस की सुविधा के कारण महिलाएं अब अपने घर से या अपने ही शहर में काम कर पा रही हैं। इससे उनकी कार्यबल भागीदारी में वृद्धि हुई है। जहां पहले टियर-2 शहरों में महिला भागीदारी लगभग 20–25% थी, अब यह 35% के करीब पहुंच रही है। इससे सामाजिक ढांचे में भी एक संतुलन पैदा हो रहा है।

क्षेत्रीय असंतुलन में कमी

इस पूरी प्रक्रिया का सबसे बड़ा सामाजिक असर यह है कि भारत में क्षेत्रीय असंतुलन को कम करने की दिशा में एक ठोस कदम बढ़ा है। अब देश की तरक्की केवल महानगरों पर निर्भर नहीं, बल्कि छोटे शहर भी इसमें भागीदार बन रहे हैं। ये शहर अब ‘आपूर्तिकर्ता’ नहीं बल्कि खुद एक आर्थिक ‘केन्द्र’ बनते जा रहे हैं। इससे एक समावेशी, संतुलित और टिकाऊ विकास मॉडल तैयार हो रहा है।

ग्रे इकॉनमी में कमी

टियर-2 और टियर-3 शहरों की बहुत बड़ी आबादी अभी तक अनौपचारिक या नकद आधारित अर्थव्यवस्था पर निर्भर है। छोटे दुकानदार, मकान मालिक, सेवा प्रदाता और स्थानीय ठेकेदार — इनमें से कई अभी तक न तो टैक्स नेट में थे और न ही किसी बैंकिंग सिस्टम से जुड़े थे। लेकिन जब कोई बड़ी कंपनी शहर में आती है, तो वह हर सप्लायर, हर कर्मचारी, हर सेवा प्रदाता से GST नंबर, चालान, बैंक अकाउंट और डिजिटल पेमेंट की मांग करती है।

 

इससे मजबूरन — और फिर धीरे-धीरे स्वाभाविक रूप से — पूरा शहर औपचारिक आर्थिक ढांचे में शामिल होने लगता है। मकान मालिक अब रेंट एग्रीमेंट बनवाते हैं, छोटे सप्लायर्स अब GST रजिस्ट्रेशन करवाते हैं, लोकल इलेक्ट्रिशियन या कैटरिंग सर्विस भी अब इनवॉइस देना सीखती है। इससे सरकार का टैक्स बेस बढ़ता है, बैंकिंग सेक्टर को नए ग्राहक मिलते हैं, और बीमा व पेंशन जैसी सुविधाएं भी इन लोगों तक पहुंचने लगती हैं।

 

यानी कंपनियों की मौजूदगी एक तरह से उस शहर की 'ग्रे इकॉनमी' को व्हाइट ज़ोन में लाकर खड़ा कर देती है — जो भारत जैसे देश के लिए, जहां टैक्स-जीडीपी रेशियो अभी भी केवल 11–12% है, बेहद अहम साबित होता है।

सरकारों का सपोर्ट

राज्य सरकारें इस बदलाव को और प्रोत्साहित करने के लिए नीतिगत प्रोत्साहन भी दे रही हैं। उत्तर प्रदेश, ओडिशा, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और तेलंगाना जैसी सरकारों ने नई आईटी पॉलिसी लागू की है, जिसमें टैक्स सब्सिडी, भूमि रियायत, और तेज लाइसेंस प्रक्रिया जैसे प्रावधान शामिल हैं। मध्य प्रदेश की IT नीति 2022 के अंतर्गत यदि कोई कंपनी छोटे शहर में यूनिट खोलती है, तो उसे 75% तक की सब्सिडी का लाभ मिलता है।

 

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इस तरह देखा जाए तो गूगल, टीसीएस, एचसीएल और अन्य बड़ी कंपनियों का छोटे शहरों की ओर रुख करना केवल व्यापारिक निर्णय नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक क्रांति का रूप ले चुका है। इससे जहां युवाओं को रोजगार, शिक्षा और जीवन की बेहतर गुणवत्ता मिल रही है, वहीं भारत को एक अधिक समावेशी और संतुलित विकास की राह पर आगे बढ़ने का अवसर भी मिल रहा है।

 

अगर यह प्रवृत्ति अगले 5–10 वर्षों तक इसी गति से जारी रही, तो ग्वालियर, भुवनेश्वर, कोयंबटूर और गोरखपुर जैसे शहर भविष्य के मिनी-बैंगलोर बन सकते हैं और देश के विकास को नई गति दे सकते हैं।

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