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जातियों की गिनती से क्या होगा, क्या बदलेगा? जातिगत जनगणना की पूरी ABCD

मोदी सरकार ने अगली जनगणना के साथ ही जातिगत जनगणना करवाने का फैसला भी लिया है। यह पहली बार होगा, जब देश में जातियों की गिनती की जाएगी। ऐसे में जानते हैं कि इससे क्या बदल जाएगा?

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प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)

आजाद भारत के इतिहास में पहली बार जातिगत जनगणना होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में बुधवार को हुई कैबिनेट बैठक में इसका फैसला लिया गया। कैबिनेट मीटिंग में तय हुआ कि अगली जनगणना के साथ ही जातियों की गिनती भी होगी। 


केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने इस फैसले की जानकारी देते हुए कहा, कुछ राज्यों ने सर्वे के नाम पर गैर-पारदर्शी तरीके से जातिगत जनगणना करवाई, जिससे समाज में संदेह पैदा हुआ। उन्होंने दावा किया कि सरकार पारदर्शी तरीके से जातिगत जनगणना करवाएगी।


मोदी सरकार के मंत्रियों और उनके सहयोगियों ने इसे ऐतिहासिक कदम बताया है। जबकि, कांग्रेस सांसद राहुल गांधी समेत विपक्षी नेताओं ने कहा कि उनकी पुरानी मांगों को आखिरकार मान लिया गया। हालांकि, सरकार ने यह नहीं बताया है कि जनगणना का काम कब से शुरू होगा। इसे लेकर राहुल गांधी ने कहा कि सरकार को बताना चाहिए कि इसे कब तक कराया जाएगा।

 

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6 दशक बाद होगी जातियों की गिनती

भारत में पहली बार जनगणना 1881 में हुई थी। अंग्रेजों के दौर में होने वाली इस जनगणना में 1881 से 1931 तक जातियों की गिनती भी होती थी। हालांकि, आजादी के बाद 1951 में सरकार ने तय किया कि SC और ST को छोड़कर बाकी किसी भी जाति की गिनती नहीं करवाई जाएगी। 


1961 में केंद्र सरकार ने राज्यों को सर्वे करवाकर OBC जातियों को अपनी लिस्ट में शामिल करने का अधिकार दे दिया। अब 6 दशक से भी ज्यादा लंबा वक्त बीत जाने के बाद सरकार ने जातिगत जनगणना करवाने का फैसला लिया है।


हालांकि, 2011 में विपक्ष के दबाव में तत्कालीन यूपीए सरकार ने सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना करवाई थी लेकिन 2016 में मोदी सरकार ने जातियों को छोड़कर बाकी सारा डेटा सार्वजनिक कर दिया था। सरकार का दावा था कि 2011 में जो सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना हुई थी, उसमें कई खामियां थीं।

 

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जातिगत जनगणना और सियासत

पिछले कुछ सालों में जातिगत जनगणना एक बड़ा सियासी मुद्दा बन गई है। हालांकि, इसकी शुरुआत 80 के दशक में मंडल आयोग की सिफारिशें सामने आने के बाद हो गई थी।


दरअसल, 1951 के बाद से जितनी भी जनगणना हुई है, उसमें SC और ST की जातियों को तो गिना जाता है लेकिन OBC की जातियों की गिनती नहीं की जाती। इस कारण इनकी सही आबादी का अनुमान लगा पाना मुश्किल है। 1990 में केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग बनाया था, जिसे मंडल आयोग के नाम से जाना जाता है।


मंडल आयोग ने देश में OBC की आबादी 52 फीसदी होने का अनुमान लगाया था। इसका आधार 1931 की जनगणना ही थी। मंडल आयोग की सिफारिश पर ही OBC को 27% आरक्षण मिलता है। हालांकि, इस पर सियासत इसलिए बढ़ गई, क्योंकि जानकारों का मानना है कि SC और ST को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है लेकिन OBC आरक्षण का कोई आधार नहीं है।

 

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जातियों की गिनती से क्या होगा?

भारत में जातिगत जनगणना सिर्फ सियासी मुद्दा नहीं है, बल्कि एक सामाजिक मुद्दा भी है। क्योंकि किसी समाज की जनगणना से ही सरकार को नीतियां तैयार करने में मदद मिलती है। 


पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर पूनम मुत्तरेजा ने PTI से कहा कि इससे शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और सामाजिक सुरक्षा जैसी सेवाओं तक पहुंच में जो गैर-बराबरी है, उसे दूर करने में मदद मिलेगी।


जानकारों का मानना है कि जातियों का सटीक डेटा होने से नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की नीतियां तैयार करने में मदद मिल सकती है।


ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया (TRI) के एसोसिएट डायरेक्टर श्रीश कल्याणी ने कहा, 'जातिगत जनगणना सिर्फ एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि यह सबसे ज्यादा हाशिए पर पड़े लोगों, जिनमें दलित, आदिवासी और ग्रामीण महिलाएं शामिल हैं, उनके सामने आने वाली चुनौतियों को समझने की गाइड है।' उन्होंने कहा कि इस तरह के डेटा से सरकारों को समाज की असल जरूरतों के हिसाब से नीतियां तैयार करने में मदद मिलेगी।


कुछ जानकार मानते हैं कि जातिगत जनगणना हाशिए पर पड़े समुदायों की पहचान करने और उन्हें ऊपर उठाने के लिए जरूरी है तो कुछ का मानना है कि इससे समाज में बंटवारा भी बढ़ सकता है।

 

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क्या टूट जाएगी आरक्षण की सीमा?

साल 1992 में इंदिरा साहनी केस में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि देश में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती। 


अभी देश में OBC को 27%, SC को 15% और ST को 7.5% आरक्षण मिलता है। यह आरक्षण उन्हें सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में मिलता है। इनके अलावा 10% आरक्षण आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EWS) को भी मिलता है। इस हिसाब आरक्षण की सीमा 50 फीसदी के पार जा चुकी है। हालांकि, नवंबर 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में आर्थिक रूप से पिछड़े सामान्य वर्ग के लोगों को दिए जाने वाले आरक्षण को सही ठहराया था। कोर्ट ने कहा था कि यह संविधान के मूल ढांचे को नुकसान नहीं पहुंचाता।


अब चूंकि केंद्र सरकार ने OBC जातियों की गिनती करवाने का फैसला भी लिया है तो इस कारण आरक्षण की सीमा टूटने की बात भी कही जा रही है। कई राज्य सरकारों ने अपने यहां आरक्षण की इस सीमा को जब-जब पार किया, तब-तब सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया। हालांकि, जातिगत जनगणना के डेटा के आधार पर आरक्षण की सीमा बढ़ सकती है।

 

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अब आगे क्या होगा?

वैसे तो जनगणना 2021 में हो जानी चाहिए थी लेकिन कोविड के चलते इसमें देरी हुई। इस साल भी जनगणना होने की उम्मीद नहीं है। वो इसलिए क्योंकि जनगणना का बजट और कम हो गया है। दिसंबर 2019 में मोदी कैबिनेट ने 2021 की जनगणना के लिए 8,754.23 करोड़ रुपये की मंजूरी दी थी। इसके अलावा 3,941.35 करोड़ रुपये नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (NPR) के लिए दिए थे। 


2021-22 के बजट में केंद्र सरकार ने जनगणना के लिए 3,768 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। 2025-26 के बजट में जनगणना के लिए 574.80 करोड़ रुपये का ही प्रावधान किया गया है। इसलिए माना जा रहा है कि इस साल भी जनगणना होने की उम्मीद नहीं है।

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