मुगल, अब्दाली और ब्लू स्टार, हरमंदिर साहिब को लगी हर चोट की कहानी
देश
• AMRITSAR 06 Jun 2025, (अपडेटेड 06 Jun 2025, 11:53 AM IST)
हर साल जून का महीना शुरू होते ही 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' चर्चा में आ जाता है। अमृतसर के स्वर्ण मंदिर का इतिहास इस ऑपरेशन से इतर भी है। पढ़िए मुगलों और अब्दाली ने हरमंदिर साहिब पर क्यों और कैसे हमले किए थे।

हरमंदिर साहिब की कहानी, Photo Credit: Khabaraon
तारीख़ 29 सितंबर, 1981, दिल्ली से अमृतसर होते हुए फ्लाइट नंबर IC-423 श्रीनगर जा रही थी। बीच आसमान में हवाई जहाज़ हाईजैक कर लिया गया। श्रीनगर के बजाए इसे पाकिस्तान के लाहौर ले जाया गया लेकिन इस हाइजैक को अंजाम पाकिस्तानी आतंकियों ने नहीं दिया था। बल्कि इसमें पांच खालिस्तानी शामिल थे- गजिंदर सिंह, जसबीर सिंह, करण सिंह, सतनाम सिंह और तजिंदर पाल। ये पांचों 111 यात्रियों और 6 क्रू मेंबर्स के बदले भारत सरकार से सिर्फ एक चीज़ चाहते थे- हत्या के एक आरोपी की रिहाई। दरअसल हाईजैकिंग के ठीक 9 दिन पहले हिंद समाचार समूह के प्रमुख लाला जगत नारायण की हत्या कर दी गई थी। हत्या का आरोप एक खालिस्तानी नेता पर लगा। पुलिस की ओर से धर-पकड़ की कवायद तेज़ होती देख उसने सरेंडर कर दिया। हत्या का यह आरोपी नेता उन पांच हाईजैकर्स की पार्टी का मुखिया था। हालांकि यह करतूत किसी काम ना आई। अगने ही दिन यानी 30 सितंबर को पाकिस्तानी सिक्योरिटी एजेंसियों ने इन पांचों को गिरफ्तार कर लिया। अपने मुखिया को जेल से निकालने की फिराक में हाईजैकर्स गिरफ्तार हुए लेकिन कुछ दिन बाद उनका नेता रिहा हो गया।
एक साल बाद वही नेता अपना ठिकाना बदलता है और पंजाब के अमृतसर स्थित दरबार साहिब परिसर में गुरुनानक निवास के कमरा नंबर 47 में शिफ्ट हो जाता है और 1983 का साल खत्म होते-होते वही नेता दरबार साहिब के सबसे अहम हिस्से यानी अकाल तख़्त साहिब में पहुंच जाता है। वह यहीं से अपने समर्थकों को आदेश देना शुरू करता है। भाषण देना शुरू करता है।
यह भी पढ़ें- सिद्धू मूसेवाला हत्याकांड: क्या एक चुगली की वजह से हुआ था मर्डर?
यह वह दौर था जब पंजाब में हिंसा का तांडव हो रहा था। तांडव भी ऐसा कि 23 अप्रैल, 1983 की सुबह दरबार साहिब की सीढ़ियां एक पुलिस अधिकारी के खून से लाल हो गईं। तत्कालीन डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल ए. एस. अटवाल उस दिन दरबार साहिब दर्शन करने गए थे। प्रार्थना के बाद लौटते वक्त वह दरबार साहिब की सीढ़ियों से उतर ही रहे थे तभी गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई। अटवाल की सुरक्षा में परिसर के बाहर खड़े पुलिस वाले गोली चलते ही भाग गए। सिखों के सबसे पवित्र मंदिर के मुख्य गेट पर अटवाल की लाश दो घंटे तक पड़ी रही। लेकिन किसी की मजाल नहीं थी जो DIG का शव उठा ले जाए। वजह थी, हत्या के पीछे उसी शख्स का नाम जिसे जेल से निकलवाने के लिए हवाई जहाज़ तक हाईजैक कर लिया गया था।
बहरहाल, काफी वक्त डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर ने मंदिर प्रशासन से शव ले जाने देने का आग्रह किया। तब जाकर गेट से ए.एस. अटवाल का शव उठ पाया। एक पुलिस अधिकारी की इस कदर हत्या ने चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक को हिला दिया। पंजाब का यह हाल दिल्ली में बैठीं तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को एक ऐक्शन लेने के लिए मजबूर करने लगा लेकिन ऐक्शन लेने के लिए ट्रिगर बनी एक बस हाइजैकिंग। 5 अक्तूबर, 1983 की रात को सिखों के एक गुट ने कपूरथला जिले में एक बस को हाईजैक कर लिया। अमृतसर से दिल्ली जा रही इस बस में हिंदू और सिख यात्री सवार थे। हाईजैकर्स ने हिंदू यात्रियों को सिखों से अलग कर दिया और हिंदुओं को गोली मार दी। इस हमले में 6 हिंदू मारे गए और एक गंभीर रूप से घायल हो गया। अगली सुबह ख़बर जैसे ही दिल्ली पहुंची इंदिरा गांधी ने पंजाब की तत्कालीन कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया। तत्कालीन मुख्यमंत्री दरबारा सिंह पद से हटा दिए गए। पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया। यह पहला संकेत था, जिससे पता चला कि दिल्ली में बैठी सरकार दरबार साहिब में बैठे खालिस्तानी नेता के खिलाफ ऐक्शन की तैयारी में जुट गई है। तैयारियां हुईं और इसे अमली जामा पहनाया गया 5 जून, 1984 की शाम।
ऑपरेशन ब्लू स्टार
5 जून की तारीख। शाम 7 बजे का वक़्त। इंडियन आर्मी की 16वीं कैवलरी रेजिमेंट के टैंक गोल्डन टैंपल कैंपस की ओर बढ़ने लगे। काली वर्दी पहने पहली बटैलियन और पैराशूट रेजिमेंट के कमांडो परिक्रमा की ओर बढ़ रहे थे लेकिन अचानक दोनों तरफ से गोलियों की बौछार शुरू हो गई। ऑटोमैटिक हथियारों से आर्मी पर लगातार फायरिंग हो रही थी। फायरिंग जब तक नहीं शुरू हुई थी तब तक आर्मी भी गोल्डन टेंपल की पवित्रता और सिख धर्म में उसके महत्व को ध्यान में रखकर आगे बढ़ रही थी लेकिन जैसे ही टारगेट की ओर से फायरिंग खोली गई आर्मी के लिए गोल्डन टेंपल और अकाल तख्त भी एक आम आर्मी टारगेट बन गया और इस टारगेट पर फिर गोली से लेकर गोले तक बरसाए गए। सिखों के सबसे पवित्र स्थल के भीतर घुसकर किए गए इस मिलिट्री ऑपरेशन का नाम था- ऑपरेशन ब्लू स्टार और यह सब जिस खालिस्तानी नेता को खत्म करने के लिए हो रहा उसका नाम था, जरनैल सिंह भिंडरावाले।
यह भी पढ़ें- ओसामा बिन लादेन के आखिरी दिनों की पूरी कहानी क्या है?
यह क़िस्सा है हरमंदिर साहिब यानी गोल्डन टेंपल पर हुए हमलों का। आज न सिर्फ ऑपरेशन ब्लू स्टार की बात होगी बल्कि अहमद शाह अब्दाली की भी बात होगी। कैसे अब्दाली ने दो-दो बार हरमंदिर साहिब पर हमला किया। कैसे इन्हीं हमलों के दौरान एक ईंट का टुकड़ा अब्दाली की नाक पर जा लगा। जो आखिरकार उसकी मौत की वजह बना। कहानी उस छापेमारी की भी बताएंगे जिसकी वजह से पंजाब के मुख्यमंत्री भीम सेन सच्चर को हरमंदिर साहिब में जाकर माफी मांगनी पड़ी थी। साथ ही बात होगी मस्सा रंगड़ से जुड़े किस्से की जिसने एक वक़्त पर हरमंदिर साहिब को शराबियों का अड्डा बना दिया था और फिर कैसे उसके सर को धड़ से अलग कर दिया गया।
कैसे बना हरमंदिर साहिब?
शुरू से शुरू करते हैं। 1469 में जन्मे गुरुनानक देव ने सिख धर्म की शुरुआत की। भक्ति और सेवा की परंपरा में विश्वास रखने वाला धर्म। बाकी धर्मों की कुरीतियों से खुद को दूर रखने वाला धर्म। इसी सिख धर्म के चौथे गुरु हुए रामदास। उनके तीन बेटे थे- पृथ्वी चंद, महादेव और अर्जन मल। कहानी बताती है कि पृथ्वी चंद चाहते थे कि उन्हें पांचवां सिख गुरु बना दिया जाए लेकिन गुरु रामदास को अपने छोटे बेटे से ज्यादा लगाव था। उनका मानना था कि अर्जन मल सिख धर्म के पांचवे गुरु बनने के योग्य हैं। इसकी वजहें भी थीं।
एक बार की बात है। लाहौर में गुरु रामदास के चचेरे भाई सहरीमल के बेटे की शादी होनी थी। सहरीमल ने रामदास को निमंत्रण दिया। उन्होंने सहरीमल से वादा किया कि वह खुद तो नहीं आ सकेंगे लेकिन एक बेटे को जरूर भेजेंगे। इसी वादे के मुताबिक़ गुरु रामदास ने पृथ्वी चंद को लाहौर जाने के लिए कहा लेकिन पृथ्वी चंद को लगा कि कहीं उनकी गैर-मौजूदगी में छोटे भाई अर्जन मल को सिख धर्म का पांचवां गुरु ना बना दिया जाए। इसी डर में पृथ्वी चंद ने शादी में जाने से इनकार कर दिया। जब महादेव को शादी में जाने के लिए कहा तो उन्होंने भी मना कर दिया लेकिन पिता का आदेश जब अर्जन मल को मिला, वह बिना देरी किए लाहौर निकल गए। गुरु रामदास बेहद खुश हुए।
यह भी पढ़ें- इस्लाम vs ईसाइयत: सलादीन ने कैसे जीत लिया था येरुशलम?
अर्जन देव लाहौर चले गए, जहां उनके पिता ने वापस बुलाए जाने तक रहने और लाहौर में सिखों की ज़रूरतों और शिक्षा का प्रभार संभालने के लिए कहा था। दो साल बाद अर्जन मल ने अपने पिता को एक चिट्ठी भेजी। जिसमें एक कविता लिखी हुई थी। जब गुरु रामदास ने चिट्ठी पढ़ी तो भावुक हो गए। गुरु रामदास ने तुरंत बाबा बुद्ध को लाहौर भेजा और अपने बेटे अर्जन को पूरे सम्मान के साथ वापस लाने के लिए कहा। उनके लौटते ही गुरु ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। कुछ ही वक़्त बाद अर्जन मल सिख धर्म के पांचवें गुरु बना दिए गए। और इस तरह वह अर्जन मल से गुरु अर्जन देव बन गए।
गुरु अर्जन देव ने सिख धर्म के लिए कई जरूरी काम किए। जिनमें से एक जो सबसे अहम काम था- अमृतसर में हरमंदिर साहिब या कहें दरबार साहिब का निर्माण। उन्होंने लाहौर के मुस्लिम धर्मगुरु मियां मीर को हरमंदिर साहिब की आधारशिला रखने के लिए बुलाया। इतिहासकार बताते हैं कि इसका आर्किटेक्ट खुद अर्जन देव ने डिज़ाइन किया था। यह उन्हीं का विचार था कि हिंदू परंपरा के अनुसार मंदिर को ऊंचे चबूतरे पर बनाने के बजाय आसपास की जमीन से नीचे की सतह पर बनाया जाए। ताकि भक्तों को प्रवेश के लिए सीढ़ियों से नीचे उतरना पड़े। गोल्डन टेंपल में उन्होंने ४ प्रवेश द्वार बनवाए। जो सिंबल था कि सिख धर्म में हर धर्म के लिए दरवाज़े खुले हुए हैं। 'अ हिस्ट्री ऑफ सिख्स' में खुशवंत सिंह लिखते हैं कि वक़्त के साथ अमृतसर सिखों के लिए उतना ही महत्वपूर्ण हो गया जितना हिंदुओं के लिए बनारस और मुसलमानों के लिए मक्का था।
अकाल तख्त की स्थापना
सिखों के पांचवें गुरु गुरु अर्जुन देव पहले ऐसे सिख गुरु थे जो मुगलों के हाथों शहीद हुए थे। 30 मई, 1606 को चौथे मुग़ल शासक जहांगीर द्वारा दी गई यातानाओं की वजह से गुरु अर्जुन देव शहीद हो गए। उनकी हत्या के बाद 16 जून 1606 को सिख धर्म के छठे गुरु हरगोबिंद सिंह ने दरबार साहिब परिसर में अकाल तख्त की स्थापना की। अकाल तख्त की मूल संरचना गुरु हरगोबिंद, भाई गुरदास और बाबा बुड्ढा ने अपने हाथों से बनाई थी। मंच बनाने के लिए किसी अन्य व्यक्ति या कलाकार को नियुक्त नहीं किया गया था। गुरु हरगोबिंद सिंह ने घोषणा की कि गुरु की सीट अनंत काल तक पंथ की सेवा करेगी। अकाल तख्त में बने मंच की ऊंचाई बारह फीट तक बढ़ा दी गई, असल में यह फैसला मुग़ल बादशाह जहांगीर के शाही आदेश की अवहेलना करते हुए लिया गया था क्योंकि सम्राट के अलावा कोई भी व्यक्ति तीन फीट से ज्यादा ऊंचे मंच पर नहीं बैठ सकता। गुरु हरगोबिंद नियमित रूप से ऊंचे मंच, तख्त पर राजसी गरिमा के सभी चिह्नों के साथ बैठते थे और सिखों के सभी विवादों के लिए न्याय करते थे। अकाल तख्त सिखों के पांच सबसे धार्मिक तख्तों में से श्रेष्ठ है। बाकी चार तख्त हैं केशगढ़ साहिब (आनंदपुर) पटना साहिब, हजूर साहिब और दमदमा साहिब।
यह भी पढ़ें- सद्दाम हुसैन आखिर पकड़ा कैसे गया? पढ़िए उसके अंतिम दिनों की कहानी
गुरु हरगोबिंद सिंह ने ही मीरी और पीरी की प्रथा चलाई। उन्होंने दो तलवारें धारण की जिसमें से एक को मीरी कहा यानी जो लौकिक शक्ति का प्रतीक थी और दूसरी थी पीरी जो आध्यात्मिकता का प्रतीक थी। सिख धर्म का चिह्न इन्हीं मीरी पीरी नाम की दो तलवारों और खंडे से मिलकर बना है। खैर अकाल तख्त तब से ही सिखों के लिए एक पवित्र स्थान बन गया। जहां से सिख धर्म से जुड़े फैसले आज भी लिए जाते हैं।
सबसे पवित्र स्थल को बनाया नशे का अड्डा
मुगल बादशाह अकबर के बाद से मुगल साम्राज्य और सिखों के बीच हमेशा तकरार रही। अकबर के ठीक बाद जहांगीर ने तो अर्जन देव को मृत्यु दंड तक दे दिया और तभी से सिखों के लिए मुगलिया सल्तनल दुश्मन बन गई। इसी दुश्मनी में एक बड़ा मोड़ आया 1738 में। तब हरमंदिर साहिब के प्रबंधक थे मणि सिंह। उन्होंने मुगलों से अमृतसर में दिवाली मेला आयोजित करने की अनुमति मांगी। उन्हें दिवाली मेला के तुरंत बाद राज्य के खजाने में 5000 रुपये जमा करने का वचन देने पर लाइसेंस दिया गया। मणि सिंह को उम्मीद थी कि यह पैसा मेले में आने वाले लोगों के चढ़ावे से जुट जाएगा। उस वक़्त लाहौर का मुगल गवर्नर था ज़कारिया खान। दिवाली से कुछ दिन पहले, ज़कारिया खान ने अमृतसर में सेना उतार दी। सिख दावा करते हैं कि ज़कारिया ने अमृतसर में हमले के लिए सेना भेजी थी जबकि 'अ हिस्ट्री ऑफ सिख्स' में खुशवंत सिंह लिखते हैं कि शहर में व्यवस्था बनाए रखने के लिए सेना भेजी गई। जिसकी वजह से मेले में आने वाले लोग डर गए। इसके साथ एक और चीज़ हुई। मणि सिंह पहले से तय 5000 रुपये जमा नहीं कर पाए। नतीजतन उन्हें गिरफ्तार कर लाहौर ले जाया गया और मौत की सज़ा सुना दी गई।
ज़कारिया इतने पर भी नहीं रुका। उसने सिखों को अपमानित करने का मन बना लिया। उसने अपने एक अधिकारी को अमृतसर भेजा और कहा कि दरबार साहिब परिसर का जिम्मा संभालो। इस अधिकारी का नाम था मस्सा रंगड़। मस्सा रंगर अमृतसर पहुंचा और उसने दरबार साहिब को अपनी अय्याशी का अड्डा बना दिया। परिसर में शराब पीने से लेकर नाच-गाना तक होने लगा। सिख ये सब देख-सुनकर बहुत गुस्से में थे। यह गुस्सा जायज़ भी क्योंकि जिस पवित्र स्थान पर सिख गुरबाणी का जाप किया करते थे वहां अब नाच गाना हो रहा था। गुस्से में ही बीकानेर के दो सिखों ने मस्सा रंगड़ को खत्म करने का प्रण लिया।
कहानी कहती है कि जब ये दोनों सिख हरमंदिर साहिब पहुंचे तो उन्होंने अपने घोड़े दराबर साहिब के गेट पर ही एक पेड़ के साथ बांध दिए। जैसे ये लोग ब्रिज पास कर मस्सा रंगड़ तक पहुंचे तो वह शराब के नशे में धुत्त था, सिगरेट पी रहा था और मुजरा देख रहा था। भाई महताब ने मस्सा रंगड़ के सामने एक थैला खोलते हुए कहा कि वह उसके लिए एक तोहफा लाए हैं जैसे ही मस्सा रंगड़ ने उस थैले में देखना शुरू किया इन दोनों सिखों ने उसके सर को धड़ से अलग कर दिया। मस्से रंगड़ का सर थैले में गिरा और उसका सर लेकर ये दोनों सिख दरबार साहिब से फरार हो गए। इस तरह मस्सा रंगड़ को मारकर दरबार साहिब की बेअदबी का बदला लिया गया।
दरबार साहिब पर अफगानों का हमला
1747 की बात है। पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में सत्ता परिवर्तन हुआ। नादिर शाह के बाद अहमद शाह अब्दाली गद्दी पर बैठा। गद्दी पर कैसे बैठा इसका क़िस्सा भी बेहद दिलचस्प है जो फिर कभी। यहां तो आप यह जानिए कि जब अब्दाली अफगान का बादशाह बना तब उसका सबसा बड़ा टारगेट भारत था। वह भारत में अपना साम्राज्य विस्तार करना चाहता था। इसी नीयत से अब्दाली ने 1747 से 1767 के बीच भारत पर कई बार आक्रमण किया। इनमें से एक हमला 1757 में किया गया था। हमले के बाद अब्दाली भारत में लूट-खसोट मचाकर अफगानिस्तान लौट रहा था लेकिन कुरुक्षेत्र में उनका सामना सिख मिसलों से हो गया। सिख मिसल यानी सिखों का सैन्य समूह। जो मुगलों से लड़ने के लिए बनाई गई सेना थी। ख़ैर, अफगान फौज और सिख मिसलों में लड़ाई हुई। इस लड़ाई में अफगानों की ख़ूब छीछालेदर हुई क्योंकि वह जो धन लूटकर ले जा रहे थे उसे मिसलों ने छीन लिया और बंधकों को भी छुड़ा लिया गया। अफगान इससे घायल थे। अब्दाली ने सिखों से बदला लेने की ठानी और अपने बेटे तैमूर साह को लाहौर का गर्वनर बनाकर अपने पीछे छोड़ गया।
सिखों से बदला लेने के लिए तैमूर ने सिखों के सबसे पवित्र स्थल हरमंदिर साहिब को तोड़ दिया और मंदिर कॉम्पलेक्स को अपने कब्ज़े में ले लिया। जैसे ही यह खबर 75 साल के बुज़ुर्ग बाबा दीप सिंह को तक पहुंची तो वह 500 सिखों को साथ लेकर हरमंदिर साहिब को तैमूर के कब्ज़े से छुड़ाने निकल पड़े। जैसे ही वह अमृतसर के पास पहुंचे उनकी सेना की तादाद बढ़कर 5000 तक पहुंच गई लेकिन उनके सामने अफगानों की एक बड़ी सेना थी। बाबा दीप सिंह और उनकी सेना ने बड़ी बहादुरी से अफगानी फौज का सामना किया इस दौरान बाबा दीप सिंह की गर्दन पर वार हुआ लेकिन वह फिर भी लड़ते रहे और आखिरकार उनकी सिख आर्मी ने हरिमंदिर साहिब को अफगानों के कब्ज़े से मुक्त करवा ही लिया। बाबा दीप सिंह ने दरबार साहिब के सरोवर के पास पहुंचकर आखिरी सांस ली और जिस जगह उन्होंने अपना शरीर त्यागा वहां आज भी उनकी याद में एक पोर्ट्रेट वहां लगा है। जिसमें उनके हाथ में उनका कटा हुआ सिर है और दूसरे हाथ में तलवार। बाबा दीप सिंह शहीद तरना दल के पहले प्रमुख थे। इसके अलावा उनका एक परिचय और है वह दमदमी टकसाल के पहले जत्थेदार भी थे। यह वही दमदमी टकसाल है जिसका 13वां जत्थेदार जरनैल सिंह भिंडरांवाले था।
अब्दाली खार खाए बैठा था। उसे लगातार दो बार सिखों के हाथों मात मिली थी। 1757 की फजीहत के बाद अब्दाली ने बहुत इंतजार नहीं किया और तो और 1761 आते-आते सिख मिसलों ने अब्दाली की सेना को हराकर लाहौर को भी जीत लिया था। लाहौर हारने के कुछ ही वक़्त बाद 1762 में अफगानों ने दोबारा अमृतसर पर चढ़ाई कर दी। फौज ने संगरूर के कूप कलां गांव को चारों तरफ से घेर लिया। अफगानी फौज ने गांव में नरसंहार कर दिया। बच्चे, बूढ़े, महिलाओं को मारा गया। इसे पंजाबी में वड्डा घल्लूघारा कहा गया। हिंदी में जिसका मतलब है बड़ा नरसंहार। सिखों के लिए यu बहुत बड़ा सदमा था लेकिन अब्दाली को ये बहुत बड़ी कामयाबी नहीं लग रही थी। वह हरमंदिर साहिब पर हमला चाहता था। उसे खत्म कर देना चाहता था। वड्डा घल्लूघारा के एक महीने बाद ही अब्दाली की फौज ने हरमंदिर साहिब को बारूद से भर दिया और आग लगा दी। दूसरी तरफ सरहिंद में अब्दाली और सिखों के बीच भी जंग छिड़ी हुई थी। सरहिंद की लड़ाई में सिख बीस साबित हुए। इसी खुशी में सिख मिस्लें दिवाली के मौके पर दरबार साहिब में इकट्ठा हुए और दिवाली मनाई लेकिन तब सिखों का यह सबसे पवित्र स्थल चारों तरफ से टूटा पड़ा था।
1762 की लड़ाई बराबरी की कही जा सकती है क्योंकि एक तरफ सरहिंद में सिखों की जीत हुई थी तो दूसरी तरफ दरबार साहिब को अफगानों ने नुकसान पहुंचाया था। कैलेंडर के पन्नों पर इस लड़ाई को बीते बहुत ज्यादा दिन नहीं हुए थे कि एक राउंड की लड़ाई फिर शुरू हो गई। 1764 में सिख फौज ने सरहिंद पर हमला बोल दिया। इस हमले में अफगानों का गवर्नर जैनुद्दीन खान मारा गया। जैनुद्दीन के खातमे की ख़बर सुनकर अब्दाली फिर से भारत की तरफ निकल पड़ा। अमृतसर पहुंचा और एक बार फिर सिखों से उसका सामना हुआ। सिखों का नेतृत्व कर रहे थे बाबा गुरबक्श सिंह। अब्दाली के हाथों सिखों को एक बार फिर हार का सामना करना पड़ा। गुरबक्श सिंह दरबार साहिब की रक्षा करते हुए कुर्बान हो गए। दूसरी बार के हमले की तरह इस बार भी अफगानों ने दरबार साहिब को निशाना बनाया। एक बार फिर दरबार साहिब टूट-फूट गया। हालांकि, बाद में सिखों ने चंदा करके अपने पवित्र स्थल को दोबारा पहले जैसा रूप दे दिया।
हालांकि, अब्दाली की मौत का कारण भी दरबार साहिब ही बना। किस्सा है कि जब दरबार साहिब में अब्दाली की सेना ने बारूद भरकर उसे उड़ाया तभी एक पत्थर का टुकड़ा उड़कर अब्दाली की नाक पर आ लगा। अब्दाली की नाक कट गई। उसे लगा कि यह मामूली घाव है। लेकिन दिनो-दिन ज़ख़्म बढ़ता गया। अब्दाली की नाक सड़ती गई। बाद में अपनी सड़ी हुई नाक छिपाने के लिए अब्दाली ने एक नकली नाक बनवाई, जिस पर हीरे जड़े थे। हालांकि बाद में यही गली हुई नाक अब्दाली की मौत की वजह बनी। अब्दाली की मौत का एक कारण घुड़सवारी करते हुए घोड़े से गिरना भी बताया जाता है लेकिन असल कारण क्या है यह साफ नहीं है लेकिन उसकी मौत को लेकर ये दो थ्योरीज़ काफी प्रचलित हैं। अहमद शाह अब्दाली की मौत 16 अक्टूबर 1772 को हुई थी।
एक छापेमारी और मुख्यमंत्री की माफी
दरबार साहिब से जुड़ा एक और दिलचस्प किस्सा है जब पंजाब के मुख्यमंत्री को श्रीअकाल तख्त पर माफी मांगनी पड़ी थी। देश आजाद हो चुका था। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार एक अलग तरह की चुनौती का सामना कर रही थी। देश के अलग-अलग हिस्सों से भाषा के आधार पर नए राज्यों के गठन की मांग तेज हो रही थी। ऐसी ही एक मांग पंजाब से उठ रही थी। जो कि पंजाबी सूबा आंदोलन था। मांग यह थी कि पंजाबी भाषी लोगों का एक अलग राज्य बनाया जाए- पंजाब। तब हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश एक ही राज्य थे। बहरहाल, आंदोलन बढ़ता जा रहा था। नारे लग रहे थे- सीने विच्च गोली खावांगे, पंजाबी सूबा बनावांगे।
अमृतसर के तत्कालीन डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर को लगा कि इन नारों से बवाल और बढ़ जाएगा। इसलिए नारों पर बैन लगा दिया गया। पंजाबी सूबा आंदोलन का नेतृत्व कर रहे शिरोमणि अकाली दल ने तब इसे फ्रीडम ऑफ स्पीच पर हमला बताया। हालांकि, बैन के बावजूद ना नारेबाज़ी बंद हुई और ना ही आंदोलन। नतीजा यह हुआ कि मास्टर तारा सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। जो कि उस वक्त सिखों के बड़े नेता थे। तारा सिंह के साथ-साथ शिरोमणि अकाली दल के कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी पूरे पंजाब में हो रही थी। हर दिन क़रीब 50 कार्यकर्ता दरबार साहिब जाते थे। अकाल तख्त के सामने मत्था टेकते थे। फिर गिरफ्तारी देते थे। धीरे-धीरे दरबार साहिब इस आंदोलन का सेंटर प्वाइंट बन गया। गोल्डन टेंपल के चारों तरफ पुलिस की तैनाती बढ़ा दी गई क्योंकि गिरफ्तारी वहीं से होती थी। 4 जुलाई, 1955 के दिन DIG अश्वनी कुमार के नेतृत्व में पुलिस गोल्डन टेंपल के भीतर घुस गई। सुबह 4 बजे अश्विनी कुमार जूता पहनकर अंदर चले गए। लंगर बंद करा दिया। पूरे कैंपस में छापेमारी होने लगी। पूरे दिन यह कार्रवाई चली और 237 लोगों को गिरफ्तार किया गया। इस कार्रवाई ने सिखों को भड़का दिया। उनके गुस्से की वजह गिरफ्तारी नहीं थी। बल्कि अश्विनी कुमार का जूता पहनकर दरबार साहिब के भीतर घुसना था। बवाल बढ़ गया और इतना बढ़ा कि सितंबर के महीने में पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री भीमसेन सच्चर को गोल्डन टेंपल जाकर अकाल तख्त के सामने माफी तक मांगनी पड़ी थी।
एक और माफ़ी
ऑपरेशन ब्लू स्टार। एक ऐसा ऑपरेशन जिसकी परिणति अकाल तख्त पर हमला नहीं था बल्कि देश की प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा गांधी की हत्या था। यह कहानी 1984 से शुरू करने के बजाय 1947 से करते हैं ताकि एक क़िरदार को समझा जा सके। जिसका नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। वही भिंडरावाले जिसे पकड़ने या खत्म करने के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार चलाया गया था।
ऑपरेशन ब्लू स्टार की प्लानिंग हो चुकी थी और अब एग्जिक्यूशन की बारी थी। आर्मी ने चारों ओर से गोल्डन टेंपल को घेर लिया था। 5 जून की सुबह साढ़े 10 बजे का वक़्त। सबसे पहले 20 फौजी परिसर में घुसते हैं और शुरू हो जाता है गोल्डन टेंपल में मिलिट्री ऑपरेशन। 5 जून से 7 जून के बीच इस ऑपरेशन में क्या-क्या हुआ, इसकी डिटेल कहानी किस्सा के किसी और लेख में हम आपको जरूर बताएंगे। एक बात बस इस सिलसिले में यह जोड़ना ज़रूरी है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार की परिणति 31 अक्टूबर, 1984 को दिखी। जब प्राइम मिनिस्टर के ही दो सिख बॉडीगार्ड्स ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। अब उस एक माफ़ी की बात जो ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद मांगी गई।
दरअसल मुगल, अब्दाली और मस्सा रंगड़ तक दरबार साहिब पर इतिहास में कई बार हमले हुए और एक कार्रवाई 1984 के साल में भी हुई लेकिन 1984 का ऑपरेशन ब्लू स्टार एक ऐसा हमला माना गया जिसने पंजाब और दिल्ली के बीच अविश्वास की खाई गहरी की और धार्मिक ताने-बाने को भी कमज़ोर किया। इसी खाई और अविश्वास को कुछ कम करने के लिए ज्ञानी जैल सिंह उसी बरस हरमंदिर साहिब पहुंचे। दो घंटे की इस यात्रा में लगभग एक घंटे उन्होंने सिख संगठनों के नुमाइंदों के साथ बातचीत की और अंत में अकाल तख़्त के नीचे खड़े होकर बोले, “मैं इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के लिए गुरुओं से माफी मांगता हूं।” ज्ञानी जैल सिंह तब राष्ट्रपति थे। अकाल तख्त से राष्ट्रपति की ओर से मांगी गई माफी को सरकार की माफी माना गया। बाद में केंद्र सरकार ने अकाल तख्त और पूरे गोल्डन टेंपल में हुए नुकसान की भरपाई के लिए फंड देने की बात कही लेकिन तब SGPC ने सरकारी फंड लेने से इनकार कर दिया। SGPC ने अपने फंड और सिख समुदाय द्वारा दिए गए चंदों से गोल्डन टेंपल और अकाल तख्त को वह रूप दिया जिसे आज हम सब देखते हैं।
और पढ़ें
Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies
CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap