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भारत पर हमला करने वाले आतंकियों को कौन और कैसे तैयार करता है?

पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद एक बार फिर से पाकिस्तान की भूमिका संदेह के घेरे में है। लंबे समय से पाकिस्तान की शह पर ही ये आतंकी तैयार होते रहे हैं। आइए इनके काम करने का तरीका समझते हैं।

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प्रतीकात्मक तस्वीर, Photo Credit: Grok AI

15 फरवरी, 1989 की बात है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान, अमेरिका और सोवियत संघ के बीच जेनेवा में शांति समझौते के बाद अफगानिस्तान से आख़िरी सोवियत सैनिक लौट गया। काफी हद तक यह अफगानिस्तान के प्रतिरोध का नतीजा था जो सोवियत सेना को लौटना पड़ा लेकिन अफगानिस्तान का रेजिस्टेंस क्या इतना प्रभावी होता अगर उसे पाकिस्तान से सपोर्ट नहीं मिलता! यह पाकिस्तान ही था जिसने अफगानिस्तान को मुजाहिदीन से लेकर हथियार तक सप्लाई किए। हथियारों की सप्लाई इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस यानी ISI के जरिए हो रही थी। 

 

बहरहाल, अफगानिस्तान में तब पाकिस्तान का काम पूरा हो गया और उनके तैयार किए गए मुजाहिदीन खाली हो गए और तब पाकिस्तान आर्मी और ISI ने इन्हें एक एसेट की तरह देखा। जिसका इस्तेमाल वे जम्मू-कश्मीर में कर सकते थे। आजादी के वक़्त से ही चल रही कश्मीर घाटी के सियासी विवाद को गर्म करने के इरादे से मुजाहिदीनों की टुकड़ी को कश्मीर भेजने की योजना बनी। 1989 का टाइमलाइन इस मुद्दे को गर्म करने के लिए सटीक भी था क्योंकि 1987 में हुए जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में धांधली के आरोप लगे थे। आरोप लगा कि कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस को सत्ता में बनाए रखने के लिए चुनाव में गड़बड़ी की गई। तब इस गठबंधन के खिलाफ मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट यानी MUF चुनाव लड़ रहा था। इस फ्रंट में कई अलगाववादी नेता शामिल थे। MUF को इस चुनाव में करारी हार मिली। कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ्रेंस का गठबंधन जीत गया। इसी चुनाव के बाद सैयद सलाहुद्दीन LoC क्रॉस करके गया और हिज्बुल मुजाहीद्दीन से जुड़ गया। सलाहुद्दीन ने भी श्रीनगर की अमीर कदल सीट से चुनाव लड़ा था लेकिन वह भी चुनाव हार गया।

 

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जम्मू-कश्मीर पर जानकारी रखने वाले लेखक और एक्सपर्ट बताते हैं कि इस चुनाव के बाद घाटी में घुसपैठ बढ़ी। हथियारों की बड़ी खेप उतरी और जैसा कि पहले ही बताया कि अफगानिस्तान प्रकरण के बाद इसे मुजाहिदीनों के रूप में ईंधन मिल गया। इस ईंधन से जम्मू-कश्मीर में जो आग लगी वह आज तक नहीं बुझी है लेकिन क्या पाकिस्तान आर्मी और आतंकवादियों के नेक्सस ने सिर्फ कश्मीर में ही आतंक फैलाया है? यह नेक्सस आख़िर है क्या? पॉलिटिकल चैनल के जरिए धार्मिक जंग जैसे हालात पैदा करने के लिए पाकिस्तान में क्या गतिविधियां होती रही हैं? जिहाद का पाठ पढ़ाकर आतंक को खाद-पानी देने की पूरी जुगत क्या है? पाकिस्तान में कैसे होती है मुजाहिदीनों की ट्रेनिंग? आइए इन सारे सवालों के जवाब जानते हैं...

हमास स्टाइल में हुआ पहलगाम अटैक!

 

22 अप्रैल को दोपहर 3 बजे के बाद से ही न्यूज़ चैनल्स से लेकर सोशल मीडिया तक पहलगाम की चर्चा है क्योंकि जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में आतंकी हमला हुआ है। पहलगाम के बैसरन घाटी में पर्यटकों पर हमला हुआ। जिसमें 26 लोगों की मौत हो गई। 2019 में हुए पुलवामा हमले के बाद यह सबसे बड़ा अटैक है और पर्यटकों पर ऐसा हमला तो एक अरसे बाद हुआ है। हमले को लेकर जो बातें अब तक सामने आई हैं, उसमें हाईलाइट है आतंकियों द्वारा पर्यटकों का धर्म पूछना। हमले के वक्त मौजूद लोगों ने बताया है कि एक आतंकवादी ने उनके पति से पहले उनका धर्म पूछा, फिर गोली मार दी। हमले में आतंकियों ने सिर्फ पुरुषों को मारा। महिलाओं को निशाना नहीं बनाया। हमले के बाद इसकी तुलना हमास के स्टाइल ऑफ अटैक से हो रही है। हमास भी अचानक भीड़ पर हमला करता है, धर्म पूछता है और फिर लोगों को मार देता है। 

 

 

यह बात 1989-90 के घटनाक्रम की ओर ही इशारा करती है। जब जम्मू-कश्मीर के घोर राजनीतिक मसले को पाकिस्तान आर्मी की शह पर आतंकवादी संगठनों ने पूरी तरह धार्मिक जंग बना दिया और इस काम के लिए उनकी कई शाखाएं बनी। इस काम में लगाए गए मुजाहिदीनों को वही ट्रेनिंग दी गई जो ISI ने पहले अफगानिस्तान में दे रखी थी। 

 

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कैसे होती है ट्रेनिंग?

 

यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज पर छपे एक रिसर्च पेपर में पाकिस्तान इंस्टिट्यूट ऑफ पीस स्टडीज के डायरेक्टर आमिर राणा के हवाले से जानकारी दी गई है कि पाकिस्तान में मुजाहिदीनों की ट्रेनिंग का प्रॉसेस क्या होता है। 

 

पहले स्टेप में धार्मिक तौर पर ब्रेन वॉश किया जाता है। एक महीने तक रिलिजियस ट्रेनिंग चलती है। दूसरा स्टेप अल’राद होता है। इसमें एक तरह से मिलिट्री ट्रेनिंग का इंट्रोडक्शन होता है। साथ ही ट्रेनी के फिटनेस की जांच होती है ताकि पता चल सके कि उसे ग्राउंड पर उतारा जा सकता है या नहीं। यह प्रोसेस 3 महीने तक चलता है। तीसरे स्टेप में क़रीब 6 महीने तक गुरिल्ला अटैक की ट्रेनिंग दी जाती है। इसके बाद ट्रेनी कैंप के अमीर यानी कमांडर को अपनी वसीयत लिखकर देता है। यानी उससे लिखवाया जाता है कि वह अपनी मर्ज़ी से ही यह राह चुन रहा है। इन तीन स्टेप्स के बाद मुजाहिदीन ग्राउंड पर जाने के लिए तैयार हो जाते हैं लेकिन अगर उसे कुछ स्पेशल ट्रेनिंग देनी हो तो चौथे स्टेप में हाई लेवल कैंप में भेजा जाता है। जहां उसे शक्तिशाली बंदूकों और अन्य हथियारों की ट्रेनिंग दी जाती है। उसके बाद पांचवें स्टेप में कंधे पर रखकर चलाए जाने वाले हथियारों की ट्रेनिंग होती है। आख़िरी यानी छठे स्टेप में टैंक चलाने की ट्रेनिंग मिलती है लेकिन अंतिम दो स्टेप की ट्रेनिंग गिने-चुने मुजाहिदों को ही दी जाती है।

 

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ऑटोमेटिक हथियार और बम बनाने की ट्रेनिंग कुछ ही आतंकी संगठनों के कैंप में मिलती है। जैसे- लश्कर-ए-तैयबा, हिज्ब-उल-मुजाहिदीन और हरकत-उल-जिहाद-ए-इस्लामी। इस बात से आप यह समझ सकते हैं कि पाकिस्तान में रहकर ऑपरेट करने वाले ऐसे कई आतंकी संगठन हैं। जो ख़तरे के पैरामीटर पर अलग-अलग लेवल पर दिखते हैं तो चलिए एक नज़र इन संगठनों पर भी मार लेते हैं।

अल-कायदा

 

अल-कायदा पाकिस्तान से ही ऑपरेट करता है। इससे जुड़े ज्यादातर आतंकी गैर-पाकिस्तानी हैं। इसकी स्थापना 1980 के दशक में ओसामा बिन लादेन ने की थी। यह संगठन बनाया गया था अफगानिस्तान में सोवियत संघ और अमेरिका से लड़ने के लिए। इसी अल-कायदा और ओसामा बिन लादेन ने अमेरिका में 9/11 हमला किया था। जिसके बाद अमेरिका ने पाकिस्तान में घुसकर ओसामा को मार गिराया था। फिलहाल, यह संगठन तालिबान, जैश-ए-मोहम्मद, लश्कर-ए-झांगवी और लश्कर-ए-तैयबा की मदद से काम कर रहा है। इसके आतंकी पाकिस्तान समेत दुनियाभर में कई बड़े हमलों को अंजाम दे चुके हैं। टारगेट क्या है? घोषित तौर पर इस्लामिक सत्ता की स्थापना।

जमात-ए-इस्लामी

 

अव्वल तो इसकी स्थापना एक पॉलिटिकल पार्टी की तरह 1941 में हुई थी। मौलाना अबुल अला मौदूदी ने इसकी शुरुआत अविभाजित भारत के लाहौर जो कि अब पाकिस्तान में है से की थी। इनका मोटिव भी इस्लामिक सत्ता की स्थापना ही है। 1971 में जब बांग्लादेश बनाने की लड़ाई छिड़ी तब यह संगठन पाकिस्तानी सेना के साथ मिलकर लड़ रहा था। जिया-उल-हक के शासनकाल में इनके लड़ाकों को पाकिस्तानी सेना के आधिकारिक सदस्यों के रूप में मान्यता दी गई। 1989 के बाद से यह संगठन ISI के समर्थन से जम्मू-कश्मीर में एक्टिव है। हिज्ब-उल-मुजाहिदीन की शुरुआत जमात-ए-इस्लामी ने ही की। लक्ष्य था एक ऐसा संगठन बनाना जो जिहाद के लिए समर्पित हो। 1989 में ही मोहम्मद अहसान डार के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई। सैयद सलाहुद्दीन जिसकी बात हमने 1987 के विधानसभा चुनाव वाली घटना में की थी, फिलहाल हिज्ब-उल को हेड कर रहा है। 

 

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यूरोपियन फाउंडेशन फॉर साउथ एशियन स्टडीज से जानकारी मिलती है कि कश्मीर में एक्टिव 60 फिसदी मुजाहिदीन हिज्ब-उल से जुड़े हुए हैं। पाकिस्तान से ऑपरेट करने वाले ज्यादातर आतंकी संगठनों के लिए हिज्ब-उल लोकल प्रोवाइडर की तरह काम करता है। बुरहान वानी और जाकिर मूसा इसी संगठन से जुड़े हुए थे।

लश्कर-ए-तैयबा

 

लश्कर-ए-तैयबा का नाम सुनते ही हाफिज मुहम्मद सईद का नाम याद आता है और फिर 26/11। साल 2008 में मुंबई के ताज होटल में 26 नवंबर के दिन जो हमला हुआ उसकी जिम्मेदारी इसी संगठन ने ली थी। जिसकी पुष्टि हमले में पकड़े गए अजमल कसाब ने की थी।  1980 के दशक में इसकी शुरुआत हुई और आज यह कश्मीर में सबसे ज्यादा एक्टिव है। पाकिस्तान में इसके क़रीब 2200 ठिकाने हैं। कश्मीर में आतंकियों को भेजने के लिए 20 से ज्यादा ट्रेनिंग कैंप हैं। लंबे समय तक इस संगठन को ISI ही हर तरह की सुविधा मुहैया कराता रहा है।

पहलगाम में 22 अप्रैल को हुए हमले की जिम्मेदारी जिस द रेजिस्टेंस फोर्स (TRF) ने ली है, वह इसी लश्कर से जुड़ा हुआ है।  

जैश-ए-मोहम्मद

 

मसूद अज़हर ने साल 2000 में इसकी शुरुआत की थी। वही मसूद अज़हर जिसे 1994 में भारत में गिरफ्तार किया गया था लेकिन 1999 में कंधार हाईजैक के बाद उसे रिहा कर दिया गया था। बहरहाल, जैश भी जिहाद फैलाने के लक्ष्य के साथ शुरू हुआ। एक और लक्ष्य है- कश्मीर को पाकिस्तान में शामिल कराना। अपने गठन के एक साल बाद ही अक्टूबर, 2001 में इस संगठन ने जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर अटैक कर दिया था। जिसमें 31 लोग मारे गए थे। अभी इस हमले की खबरें थमी भी नहीं थीं कि जैश ने लश्कर-ए-तैयबा के साथ मिलकर 13 दिसंबर, 2001 के दिन दिल्ली में संसद भवन पर अटैक कर दिया था। 2003 के अंत में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति मुशर्रफ की हत्या के प्रयासों में भी इनका नाम सामने आया था। पाकिस्तान खुद इस संगठन को बैन कर चुका है लेकिन अलग-अलग नामों से जैश आज भी पाकिस्तान में ऑपरेट कर रहा है।

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान

 

तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का गठन 2004 में हुआ था। यह भी अफगानिस्तानी तालिबान की तरह काम करता है। इसकी शुरुआत बेतुल्लाह मसूद ने की थी। जिसे 2009 में अमेरिका ने एक ड्रोन अटैक में मार दिया था। दावा किया जाता है कि तहरीक-ए-तालिबान को ISI के बड़े रिटायर्ड अधिकारियों से फाइनेंशियल सपोर्ट हासिल है और इस सपोर्ट के जरिए यह संगठन पाकिस्तान में तालिबान शासन की स्थापना करने के मंसूबे से कई छोटे-बड़े अटैक कर चुका है। पाकिस्तान में जो भी सेक्युलर-लिबरल विचारों के पैरोकार हैं, वे इस संगठन का निशाना बनते रहे हैं। यह संगठन पाकिस्तान में सेक्युलरिज्म जैसी बातों के सख्त खिलाफ है।

 

TTP ने फरवरी, 2011 में मर्दान इलाके में पाकिस्तानी सेना के कैंपस पर अटैक किया था जिसमें 31 लोग मारे गए थे। TTP के बढ़ते हमलों को देखते हुए पाकिस्तानी सेना ने 2024 में संगठन के 15 लोगों को मार गिराया था। पाकिस्तानी सेना ने TTP के सीनियर कमांडर उस्ताद कुरैशी को मार गिराया था। जवाबी हमले में TTP ने पाकिस्तान के 16 सुरक्षाकर्मियों को मार दिया था। इसके बाद भी TTP ने लगातार हमले किए और सैनिकों के बच्चों तक को मारा।

पाकिस्तान की भूमिका

 

जम्मू और कश्मीर में उग्रवाद को बढ़ावा देने में पाकिस्तान पर्दे के पीछे से खेलता रहा है। अप्रैल, 2001 में अमेरिका के स्टेट डिपार्टमेंट ने ग्लोबल टेरिरिज्म के पैटर्न पर एक रिपोर्ट पब्लिश की थी। जिसमें जम्मू-कश्मीर में मिलिटेंसी को बढ़ावा देने में पाकिस्तान को मेन स्पॉन्सर बताया गया। जैश, लश्कर, हिज्ब-उल जैसे संगठनों को पाकिस्तान पर्दे के पीछे से रहकर मदद करता रहा है और इस मदद में ट्रेनिंग से लेकर फाइनेंशिल हेल्प तक शामिल है। रिपोर्ट्स के मुताबिक़ कुपवाड़ा, बारामुला, पुंछ राजौरी और जम्मू से सटे पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर यानी PoK में 100 से ज्यादा ऐसे ट्रेनिंग कैंप हैं जो पाकिस्तान सरकार की बदौलत चल रहे हैं।

 

अफगानिस्तान के राजनीतिक विश्लेषक का बयान मिलता है , 'मैंने मुजाहिदीनों से कहानियां सुनीं जो कुछ समय के लिए कश्मीर गए थे। ट्रेनिंग कैंप में इस्लामिक सत्ता की बात होती थी। यह लक्ष्य जिहाद के जरिए हासिल करने की बात होती थी और इसी कड़ी का हिस्सा कश्मीर भी है।'

 

1989 में सोवियत संघ की अफगानिस्तान वापसी के बाद वहां इस्लामिक शासनकाल आया। ISI और पाकिस्तान के सपोर्ट से यह सारा कुछ हो पाया था। ISI ने अफगान तालिबान को पाकिस्तान में शरण दी और इस नेटवर्किंग में नाम आता है हक्कानी नेटवर्क का। हक्कानी नेटवर्क का जाल पूरे अफगानिस्तान में फैला हुआ है। इंस्टिट्यूट फॉर द स्टडी ऑफ वॉर की 2012 की रिपोर्ट से जानकारी मिलती है, 'हक्कानी नेटवर्क अफ़गानिस्तान में सबसे मजबूत और ख़तरनाक संगठन है। नेटवर्क का मौजूदा नेता सिराजुद्दीन हक्कानी पाकिस्तान के कबायली इलाकों के दक्षिणी हिस्से के कबायली और विद्रोही समूहों को पाकिस्तानी सरकार के हितों के अनुरूप प्रभावी ढंग से संगठित करता है।' 

 

शुरुआत में हमने जिन भी आतंकी संगठनों का ज़िक्र किया, उन सब का टारगेट पाकिस्तान, अफगानिस्तान में एकछत्र राज और जम्मू-कश्मीर को भारत से अलग करना है। पाकिस्तान आर्मी पर हमेशा ये आरोप लगते हैं कि वह इन संगठनों को बैकडोर से सपोर्ट करती है। अफगानिस्तान में तालिबानी शासन की वापसी में इनकी भूमिका का भी ज़िक्र होता है और यह कोई नई बात नहीं है। 1989 की कहानी हमने आपको शुरुआत में ही सुनाई। 

पाकिस्तान ने ही बनाया तालिबान

 

पाकिस्तानी तानाशाह जिया उल-हक ने तो अपने एक जनरल से यह तक कहा था कि अफगानिस्तान को सही तापमान पर उबालना चाहिए। अफगान तालिबान खुद ISI की देन है। 1999 में, बेनजीर भुट्टो के शासनकाल में गृह मंत्री नसरुल्लाह बाबर ने तो खुले तौर पर स्वीकार करते हुए कहा था, 'हमने तालिबान बनाया है।' आज, तालिबान उग्रवादी संगठनों का एक समूह है, जिसका केंद्रीय नेतृत्व (अफगान तालिबान) पाकिस्तान के क्वेटा में माना जाता है।

 

भारत लगातार अंतरराष्ट्रीय मंचों से भारत में होने वाले आतंकी हमलों के लिए पाकिस्तान पर सवाल उठाता रहा है। 2022 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की बैठक में UN में भारत के स्थायी प्रतिनिधि पर्वतानेनी हरीश ने बयान दिया था, 'पाकिस्तान आतंकवाद का वैश्विक केंद्र है, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा सूचीबद्ध 20 से अधिक आतंकवादी संगठनों को पनाह देता है। साथ ही क्रॉस बॉर्डर टेरिरिज्म को स्पॉन्सर करता है।'

 

हालांकि, पाकिस्तान खुद को इन आरोपों से दूर करता रहा है। ज़ाहिर है पाकिस्तान के हुक्मरान आतंकवाद को स्पॉन्सर करने की बातों को खारीज करते रहे हैं। पहलगाम हमले के बाद भी ऐसा ही हुआ। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने Live 92 चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा, 'पाकिस्तान का इस हमले से कोई ताल्लुक नहीं है। भारत में नागालैंड से कश्मीर तक विद्रोह है। यह विदेशी हस्तक्षेप से नहीं हो रहा बल्कि स्थानीय विद्रोह का नतीजा है।'

 

ख्वाजा आसिफ के बयान पर भारत की ओर से वीडियो रिकॉर्ड होने तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। कोई प्रतिक्रिया आएगी तो हम आपको ज़रूर बताएंगे। अंत में 'पाकिस्तान ऐट नाइव्स एज' नाम की किताब में लेखक MB नकवी की लिखी बात पढ़िए, '1980 और 1990 के दो जिहादों में पाकिस्तान ने कुछ जीता हो या नहीं, कई पाकिस्तानी जनरल निश्चित रूप से असाधारण तरीके से अमीर और राजनीतिक रूप से शक्तिशाली बन गए।'

 

इसमें पाकिस्तान ने एक डबल गेम भी खेला। 9/11 हमले के बाद जब अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने कहा था, 'अब हर देश, हर क्षेत्र को एक निर्णय लेना है या तो आप हमारे साथ हैं, या फिर आतंकवादियों के साथ हैं।' तब पाकिस्तान ने अमेरिका के साथ भी खेल किया। उसे भरोसा दिलाया कि वह आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का साथ देगा और इस लड़ाई के नाम पर अमेरिका से फंडिंग हासिल की। आख़िरकार 2018 में अमेरिका ने पाकिस्तान की फंडिंग रोकी। उसके बाद से ही पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है लेकिन पाकिस्तान की सेना को अर्थव्यवस्था से क्या मतलब? वह तो अभी दूसरे ही काम में लगी हुई है। पहले तालिबान को सपोर्ट कर अफगानिस्तान में तख्तापलट करवाया। तालिबान का शासन स्थापित किया। फिर अपने ही देश के प्रधानमंत्री रहे इमरान खान को जेल में डाल दिया। उसके बाद से देश को कठपुतली सरकार चला रही है और इन सब के साथ पर्दे के पीछे से भारत को टारगेट कर रहे हैं।

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