समय और पैसा बचेगा, भारत के लिए कितना खास है कालादान प्रोजेक्ट?
देश
• KOLKATA 21 May 2025, (अपडेटेड 21 May 2025, 5:23 PM IST)
बांग्लादेश में तख्तापलट के बाद से ही भारत अपने विकल्पों को मजबूत करने में लगा हुआ है। ऐसा ही एक विकल्प कालादान मल्टीमॉडल प्रोजेक्ट है जिस पर काम तेज किया जा रहा है।

कालादान प्रोजेक्ट का नक्शा, Photo Credit: Wikipedia
मार्च 2025, बांग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस चीन की यात्रा पर जाते हैं। वहां जाकर नार्थ ईस्ट के सिलीगुड़ी कॉरिडोर, जिसे चिकन नेक के नाम से जाना जाता है। उसे लेकर कुछ ऐसा बयान देते हैं, जिससे बांग्लादेश और भारत के बीच तनाव बढ़ जाता है। यूनुस कहते हैं- “भारत का नार्थ ईस्ट लैंड लॉक्ड है। वहां जमीन से पहुंचने का इकलौता रास्ता सिलीगुड़ी कॉरिडोर से है। जहां हम बैठे हुए हैं। अगर उन्हें समुद्री रास्ता तलाशना है तो फिर उन्हें बांग्लादेश से ही होकर गुजरना होगा। ऐसे में चीन को बांग्लादेश में और निवेश करना चाहिए।”
युनूस के इस बयान को भारत ने अपनी संप्रुभता और क्षेत्रीय अखंडता पर हस्तक्षेप के रूप में देखा। असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने इसे आपत्तिजनक बताया और भारत सरकार ने बांग्लादेश को दी जाने वाली निर्यात सुविधाओं को रद्द कर दिया। जिससे दोनों देशों के बीच एक ट्रेड वॉर जैसी स्थिति बन गई।
भारत यहीं नहीं रुका। भारत ने साल 2008 से पेंडिंग पड़े उस KMMTTP प्रोजेक्ट यानी कालादान मल्टी मॉडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट को दोबारा शुरू कर दिया। इस प्रोजेक्ट के पूरा होने के बाद नार्थ ईस्ट से कनेक्टिविटी के लिए सिलीगुड़ी कॉरिडोर के अलावा एक और रास्ता खुल जाएगा। साथ ही म्यांमार से भी ट्रेड करने के लिए रास्त तैयार हो जाएगा। जिसमें बांग्लादेश की जरूरत नहीं होगी। साथ ही, म्यांमार में चीन के बढ़ते दखल को भी घटाया जा सकेगा।
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क्या है यह KMMTTP प्रोजेक्ट? कैसे इस प्रोजेक्ट के जरिए भारत, बांग्लादेश को इग्नोर करके म्यांमार के जरिए एक नया ट्रांसपोर्ट रूट बनाने की तैयारी में है? सबसे अहम, म्यांमार की लोकल पॉलिटिक्स का इस प्रोजेक्ट पर कैसा असर होने वाला है?
बांग्लादेश को किनारे लगाने की तैयारी?
22 किलोमीटर लंबे इस स्पेस को देखिए। इसे सिलिगुड़ी कॉरिडोर कहा जाता है। डिप्लोमैटिक लैंग्वेज में चिकन नेक। नार्थ ईस्ट को जोड़ने वाला यह इकलौता पैसेज है। ट्रांसपोर्ट से डिफेंस तक। सारे काम यहीं से होते हैं। इस चिकन नेक के एक ओर नेपाल है और दूसरी ओर बांग्लादेश। इसी को लेकर मोहम्मद यूनुस ने चीन में कहा था कि इसी चिकन नेक पर पर हम बैठे हुए हैं। जिसे भारत ने अपने अंखंडता पर संप्रभुता पर हस्तक्षेप माना।

अब इस दिक्कत के समाधान के लिए भारत को एक नया ट्रेड रूट चाहिए था। इसीलिए एक नए रास्ते की खोज शुरू हुई साल 2003 में। प्लान था कि नार्थ ईस्ट से कनेक्टिविटी सिर्फ सिलिगुड़ी कॉरिडोर तक सीमित न रहे। हालांकि, यह प्रोजेक्ट उस समय एक थ्योरी ही थी। साल 2008 तक केन्द्र में UPA की सरकार आ चुकी थी और म्यांमार की मिलिट्री गर्वनमेंट के साथ संबंध मजबूत होने लगे। उच्च स्तरीय यात्राएं बढ़ने लगीं। ऐसे में 2008 में ही केन्द्र सरकार ने इस KMMTTP प्रोजेक्ट को मंजूरी दे दी। जिम्मेदारी मिली विदेश मंत्रालय और Inland Waterways Authority Of India को, क्योंकि इस पूरे प्रोजेक्ट में यातायात का एक बड़ा हिस्सा विदेशी जमीन और पानी में तैयार करना था।
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क्या है ये पूरा प्रोजेक्ट? कहां से कहां तक सड़क और समुद्री रास्ते तैयार किए जाने हैं? वह समझ लेते हैं। इस प्रोजेक्ट का मकसद नार्थ ईस्ट के राज्यों को खासकर मिजोरम को कोलकाता के बंदरगाह से जोड़ना है। इस प्रोजेक्ट के शुरू होने के बाद मिजोरम और कोलकाता के बीच की दूरी पूरे 1 हजार किलोमीटर कम हो जाएगी। KMMTTP प्रोजेक्ट को 4 हिस्सों में बनाया जाना है। पहले दो हिस्से जल मार्ग के होंगे और बाकी के दो हिस्से सड़क मार्ग के।
कोलकाता से सिटवे पोर्ट
कोलकाता पोर्ट से इस रास्ते की शुरुआत होगी। जल मार्ग से और फिर बंगाल की खाड़ी होते हुए पूरे 539 किलोमीटर के बाद यह पहला हिस्सा सिटवे पोर्ट पर जाकर खत्म हो जाएगा। म्यांमार के रखाइन राज्य में मौजूद इस सिटवे पोर्ट की पूरी जिम्मेदारी भारत ने उठा ली है। कभी मछुआरों का पोर्ट कहलाने वाला सिटवे आज एडवांस कार्गो फैसिलिटी से लैस हो रहा है और इस पूरे डेवलपमेंट का खर्चा उठा रहा है भारत। प्रोजेक्ट का दूसरा हिस्सा होगा, सिटवे पोर्ट से पलेटवा तक का। सिटवे पोर्ट के बाद यह रास्ता समुद्री मार्ग से नदी के मार्ग पर तब्दील हो जाएगा। सिटवे से पलेटवा को जोड़ती है एक विशाल नदी। नाम कालादान। इसी नदी के नाम पर ही इस पूरे प्रोजेक्ट को कालादान प्रोजेक्ट कहा जा रहा है। यह नदी सिटवे से पलेटवा को जोड़ेगी। जिसकी कुल दूरी होगी 158 किलोमीटर की। पलेटवा म्यांमार के सीन राज्य में मौजूद एक दूसरा शहर है।
प्रोजेक्ट का तीसरा हिस्सा पलेटवा से जोरिनपुई तक का होगा। यहीं से रास्ता जल मार्ग से सड़क मार्ग में तब्दील हो जाएगा। भारत, पलेटवा से 108 किलोमीटर लंबी फोर लेन सड़क बनाएगा। जो आकर जुड़ेगी मिजोरम के बॉर्डर सिटी जोरिनपुई से। जोरिनपुई भारतीय सीमा में मौजूद वह शहर है। जो ठीक म्यांमार बॉर्डर पर बसा हुआ है। यह कनेक्टिविटी सड़क मार्ग से ही पूरी की जाएगी।
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जोरिनपुई से अगली सड़क होगी आइजॉल तक की, जो कि मिजोरम की राजधानी है। यानी नार्थ ईस्ट के सेवन स्टेट के मुख्य शहरों में से एक। भारत सरकार का दावा है कि इस प्रोजेक्ट के जरिए आइजॉल से कोलकाता पहुंचने में 3-4 दिन का वक्त कम लगेगा। विदेश मंत्रालय से मिली जानकारी के मुताबिक, अभी इस पूरे प्रोजेक्ट का काम कुछ-कुछ हिस्सों में बचा हुआ है। जैसे- कोलकाता में श्यामा प्रसाद मुर्खजी पोर्ट तैयार है लेकिन सिटवे पोर्ट पर काम जारी है। कालादान नदी पर ट्रांसपोर्टेशन का काम करीब-करीब पूरा है। जोरिनपुई से आइजॉल के बीच की सड़क करीब-करीब पूरी है लेकिन जोरिनपुई से पलेटवा के बीच की सड़क का काम अधूरा है।
बड़ा कारण है कुछ लोकल चुनौतियां। 17 सालों से ये प्रोजेक्ट पेंडिंग है। इसके पीछे का कारण क्या है वह समझते हैं। पहला तो है म्यांमार में अस्थिरता। भारत की आजादी के करीब 5 महीनों बाद 4 जनवरी 1948 को म्यांमार को आजादी मिली लेकिन मार्च 1962 में सेना ने लोकतांत्रिक सरकार को हटा कर सत्ता पर कब्जा कर लिया और अगले 49 साल तक देश, सेना के शासन में रही। लंबे संघर्ष के बाद 2011 में म्यांमार के अंदर लोकतंत्र की बहाली हुई लेकिन यह ज्यादा लंबे वक्त तक चल नहीं सकी। फरवरी 2021 में म्यांमार की फौज ने दोबारा देश की सत्ता हथिया ली। देश में मौजूद इस गृहयुद्ध जैसे हालात ने काम में देरी लाई है। प्रोजेक्ट के काम को बाधित किया है।
म्यांमार का जातीय विद्रोह
जैसा कि हमने बताया, म्यांमार के हालात स्थिर नहीं हैं। लंबे वक्त से संघर्ष जारी है। देश में कई लोकल हथियारबंद गुट भी मौजूद हैं। जिनके आए दिन सेना के साथ खूनी संघर्ष होते रहते हैं। सबसे बुरे हालात रखाइन इलाके में है। वही इलाका जहां सिटवे पोर्ट है और जहां से कालादान नदी होकर गुजरती है। रखाइन प्रांत में सबसे बड़ा विद्रोही गुट है अराकान आर्मी। वैसे तो अराकान आर्मी अभी भारत के कालादान प्रोजेक्ट के सपोर्ट में है लेकिन आए दिन अराकान आर्मी और म्यांमार की सेना के बीच संघर्ष होता रहता है। जिससे इस प्रोजेक्ट में देरी होती है। इनके अलावा कई और जातीय विद्रोही गुट मौजूद हैं। जिनके बीच संघर्ष होता रहता है और प्रोजेक्ट का काम अटक जाता है।
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तीसरा कारण है बजट और भौगोलिक चुनौतियां- 2008 में UPA की सरकार ने इस 900 किलमीटर लंबे प्रोजेक्ट के लिए 535.91 करोड़ रुपये की मंजूरी दी थी। जो 2015 तक बढ़कर 2904 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था और अब देरी के साथ लगातार इस प्रोजेक्ट की लागत बढ़ती जा रही है। भौगोलिक चुनौतियां भी प्रोजेक्ट में देरी का बड़ा कारण हैं। पलेटवा से जोरिनपुई के बीच का इलाका घने जंगल और पहाड़ी रास्तों वाला इलाका है। इसी इलाके में अराकान आर्मी का भी कब्जा है। ऐसे में काम जोखिमभरा हो जाता है।
यहां तक हमने इस कालादान प्रोजेक्ट और इसके सामने की चुनौतियों के बारे में समझ लिए। अब ये समझते हैं कि इस प्रोजेक्ट का पॉलिटिकल और डिप्लोमैटिक महत्व समझते हैं। ये जानते हैं कि इससे भारत को क्यो लाभ होने वाला है?
अभी अचानक इस प्रोजेक्ट में तेजी लाने का सबसे बड़ा कारण बांग्लादेश है। शेख हसीना के तख्तापलट के बाद भारत और बांग्लादेश के डिप्लोमैटिक संबंध ठीक नहीं हैं। ऊपर से बंग्लादेश सरकार के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने चिकन नेक पर बयान देकर दोनों देशों के संबंधों को खटाई में डाल दिया है। ऐसे में भारत सरकार ने भी बांग्लादेश के साथ निर्यात सुविधाओं को रद्द कर इसका जवाब दिया। इसके अलावा केन्द्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय ने मेघालय की राजधानी शिलॉन्ग से असम के शहर सिलचर तक एक और 4 लेन सड़क को मंजूरी दे दी है। बताया गया है कि यह प्रोजेक्ट अब सिर्फ मिजोरम की राजधानी आइजॉल तक ही सीमित नहीं रहेगा बल्कि असम तक फैलेगा। कनेक्टिविटी के लिए सड़क मार्ग तैयार किए जा रहे हैं।
अमेरिका में भारत की राजदूत रह चुकीं मीरा शंकर ने बीबीसी को बताया, “भले ही बांग्लादेश और भारत के बीच लंबे सांस्कृतिक और आर्थिक संबंध रहे हैं लेकिन अगस्त 2024 में शेख हसीना सरकार के पतन के बाद दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा है। बांग्लादेश चीन के पाले में खड़ा दिखाई दे रहा है। यहां तक की बांग्लादेश ने भारत के नार्थ ईस्ट के राज्यों से होने वाले निर्यात के लिए कुछ बांग्लादेश बंदरगाहों पर प्रतिबंध लगा दिया।” यानी कि नार्थ ईस्ट के राज्य अपने सामान के निर्यात के लिए जिन बांग्लादेशी बंदरगाहों का इस्तेमाल करते थे। उस पर बांग्लादेश ने रोक लगा दी। ऐसे में भारत ने जवाब देते हुए बांग्लादेश के निर्यात, जैसे रेडीमेट गारमेंट्स, सिल्क जैसी चीजों पर बैन लगा दिया।
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म्यांमार मार्ग का रणनीतिक महत्व
1. सिलगुड़ी कॉरिडोर पर निर्भरता कम करना
उत्तर-पूर्वी राज्यों को भारत के मुख्य भूभाग से जोड़ने वाला एकमात्र सड़क मार्ग सिलिगुड़ी कॉरिडोर है। इसे ही चिकन नेक के रूप में जाना जाता है। यह केवल 22 किलोमीटर चौड़ा है। म्यांमार मार्ग इस कॉरिडोर पर निर्भरता को कम करेगा।
2. आर्थिक विकास को बढ़ावा
यह प्रोजेक्ट उत्तर-पूर्व में व्यापार, टूरिज्म और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देगा। सिलचर, जो मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर और असम के बराक घाटी के लिए प्रवेश द्वार है, इस प्रोजेक्ट से उसे बहुत ज्यादा फायदा होगा।
3. ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी को मजबूती
यह परियोजना भारत की ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी का भी एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। जिसका उद्देश्य दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार और रणनीतिक संबंधों को मजबूत करना है। म्यांमार के साथ सहयोग बढ़ाने से भारत की बंगाल की खाड़ी में उपस्थिति भी मजबूत होगी और यहां चीन की धमक को मैनेज किया जा सकेगा।
4. समय और लागत में बचत
कालादान प्रोजेक्ट के पूरा होने पर माल परिवहन में समय और लागत दोनों में कमी आएगी। यह उत्तर-पूर्व के लिए एक गेम-चेंजर साबित हो सकता है, जो लंबे समय से भौगोलिक और आर्थिक अलगाव का सामना करता रहा है।
कालादान मल्टी-मोडल ट्रांजिट ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट और शिलांग-सिलचर हाईवे… नार्थ ईस्ट के लिए एक नया बिजनेस अपॉर्चुनिटी लेकर आएगा। बल्कि पूरे नार्थ ईस्ट को आर्थिक और रणनीतिक रूप से मेन स्ट्रीम में लाने में मदद करेगा। म्यांमार के साथ यह सहयोग भारत की ऐक्ट ईस्ट पॉलिसी और बंगाल की खाड़ी में भारत की स्थिति को और मजबूत करेगा। हालांकि, अभी इस प्रोजेक्ट के सामने कुछ चुनौतियां हैं।
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