दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा फिलहाल कोई ज्यूडिशियल वर्क नहीं कर पाएंगे। उनके घर से कुछ दिन पहले कथित तौर पर 15 करोड़ रुपये कैश मिले थे। इसके बाद उनके ज्यूडिशियल वर्क करने पर रोक लगा दी गई है।
हालांकि, जस्टिस वर्मा का दावा है कि उनके घर से बरामद कैश न उनका है और न ही उनके परिवार के किसी सदस्य का। जस्टिस वर्मा ने इसके पीछे साजिश होने का दावा किया है।
इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी एक वीडियो जारी किया है, जिसमें जस्टिस वर्मा के घर के बाहर अधजले नोटों के बंडल दिखाई दे रहे हैं। दिल्ली हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस डीके उपाध्याय ने चीफ जस्टिस संजीव खन्ना को सौंपी रिपोर्ट में बताया है कि जस्टिस वर्मा के घर के बाहर 4-5 बोरियों में अधजले नोट मिले हैं।
अब ऐसे में सवाल उठ रहा है कि जब किसी आम आदमी या सरकारी कर्मचारी के घर इतना कैश मिलता है तो केस दर्ज होता है लेकिन जस्टिस वर्मा पर अब तक FIR क्यों नहीं हुई? इसका सीधा सा जवाब यह है कि किसी भी मौजूदा जज के खिलाफ कानूनी कार्रवाई सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के बगैर आदेश के शुरू नहीं की जा सकती।
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मगर ऐसा क्यों?
तीन दशक पहले हाईकोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। तब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था। तब सुप्रीम कोर्ट के सामने सवाल उठा कि क्या 1957 के प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत जज सरकारी सेवक हैं? अगर हां तो उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा चलाने से पहले मंजूरी लेनी होगी।
1991 में वीरास्वामी मामले में फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट के तहत सभी अदालतों के जज और चीफ जस्टिस 'सरकारी सेवक' हैं। इसलिए इस कानून के तहत जजों या चीफ जस्टिस के खिलाफ FIR दर्ज की जा सकती है। हालांकि, पूर्व जज के खिलाफ FIR दर्ज करने से पहले किसी मंजूरी की जरूरत नहीं होगी।
दूसरा सवाल था कि आपराधिक केस चलाने की मंजूरी कौन देगा? इस पर सुप्रीम कोर्ट ने माना कि किसी मौजूदा जज या चीफ जस्टिस के खिलाफ केस चलाने की मंजूरी राष्ट्रपति देंगे। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सलाह के बिना किसी भी जज या चीफ जस्टिस पर FIR दर्ज नहीं की जाएगी।
संविधान के तहत, राष्ट्रपति किसी जज या चीफ जस्टिस के खिलाफ FIR या मुकदमा दर्ज करने की मंजूरी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सलाह पर देंगे। अगर चीफ जस्टिस को लगता है कि FIR दर्ज करना जरूरी नहीं है तो राष्ट्रपति इसकी मंजूरी नहीं देंगे।
यहां गौर करने वाली बात यह भी है कि चीफ जस्टिस राष्ट्रपति को किसी जज के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई शुरू न करने की सिफारिश भी कर सकते हैं। इसका मतलब हुआ कि जरूरी नहीं कि किसी जज पर कोई आरोप लगे हैं तो चीफ जस्टिस उनके खिलाफ FIR दर्ज करने की सिफारिश ही करें।
इसी तरह से अगर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर कोई आरोप लगते हैं तो ऐसी स्थिति राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट के किसी जज से सलाह ले सकते हैं।
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आरोप लगने पर क्या होता है?
किसी भी अदालत के जज, हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज या चीफ जस्टिस पर कोई आरोप लगते हैं, तो पहले 'इन हाउस जांच' की जाती है। 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने इन हाउस प्रक्रिया बनाई थी, ताकि हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जजों के खिलाफ लगे आरोपों पर कार्रवाई की जा सके।
इन हाउस प्रक्रिया में होता यह है कि अगर किसी जज के खिलाफ कोई शिकायत आती है तो उनसे जवाब मांगा जाता है। अगर लगता है कि शिकायत में कोई दम नहीं है तो उस मामले को वहीं खत्म कर दिया जाता है। मगर ऐसा लगता है कि मामले की जांच और की जानी चाहिए तो चीफ जस्टिस एक कमेटी का गठन करते हैं। इस कमेटी में तीन जज होते हैं।
कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर चीफ जस्टिस उस जज या चीफ जस्टिस को इस्तीफा देने या वॉलेंटियरी रिटायरमेंट लेने को कह सकते हैं। अगर जज इस्तीफा देने या रिटायरमेंट लेने से मना कर देता है तो चीफ जस्टिस राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री को उस जज के खिलाफ महाभियोग लाने की सिफारिश कर सकते हैं। इसके साथ ही ऐसी स्थिति में उस जज को कोई भी ज्यूडिशियल वर्क नहीं दिया जाता।
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जज को कैसे हटाया जाता है?
हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज या चीफ जस्टिस को ऐसे ही नहीं हटाया जा सकता है। इसकी बाकायदा एक संवैधानिक प्रक्रिया होती है। किसी जज को पद से हटाने के लिए संसद में महाभियोग प्रस्ताव लाया जाता है। इस प्रस्ताव को लोकसभा के कम से कम 100 और राज्यसभा के 50 सांसदों का समर्थन जरूरी है। अगर यह प्रस्ताव संसद के दोनों सदनों से पास हो जाता है तो इसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। राष्ट्रपति अपने आदेश से उस जज को पद से हटा देते हैं।
हालांकि, आज तक भारत में किसी भी जज को महाभियोग के जरिए पद से नहीं हटाया गया है। हालांकि, कई बार जजों के खिलाफ महाभियोग लाने की कोशिश जरूर हुई है। इतना ही नहीं, आज तक किसी भी जज को भ्रष्टाचार के मामले में दोषी नहीं पाया गया है।