बोलने की आजादी, बाल ठाकरे की शिवसेना और कुणाल कामरा, पढ़िए रोचक किस्से
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• NOIDA 25 Mar 2025, (अपडेटेड 26 Mar 2025, 8:28 AM IST)
कुणाल कामरा का वीडियो आने के बाद शिवसेना ने जो किया, वह बाल ठाकरे की शिवसेना की याद दिलाने वाला है। पढ़िए बाल ठाकरे ने अभिव्यक्ति की आजादी का इस्तेमाल कैसे किया।

शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने की थी तोड़फोड़, Photo Credit: Khabargaon
कॉमेडियन कुणाल कामरा ने एक जोक मारा, विरोध में शिवसेना ने उस होटल पर धावा बोल दिया, जहां यह शो रिकॉर्ड किया गया था। मुंबई में शिवसेना की ऐसी गतिविधियां नई नहीं हैं। शिवसेना के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक ऐसे कई विवाद रहे हैं जिनमें उसका आक्रामक रुख देखा गया है। कहा जा रहा है कि कुणाल कामरा ने नाम भले ही न लिया हो लेकिन वह जोक एकनाथ शिंदे पर था और उन्हीं का मजाक उड़ाया गया था। मौजूदा समय में शिवसेना के मुखिया और डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे ने इस पूरे मामले पर कहा है कि वह व्यंग्य को समझते हैं लेकिन एक लिमिट होनी चाहिए। वहीं, कुणाल कामरा ने स्पष्ट किया है कि वह इस मामले पर माफी नहीं मांगने वाले हैं। यह पूरा विवाद अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर है इसलिए बाल ठाकरे को ऐसे मौके पर याद करना जरूरी है। राजनीति में सक्रिय होने से पहले बाल ठाकरे कार्टूनिस्ट और पत्रकार हुआ करते थे और उन्हें तीखे तेवर और जोरदार व्यंग्य वाले कार्टून और लेखों के लिए जाना गया।
बाल ठाकरे भले ही कई मौकों पर कट्टर विचारों के लिए विवादों में रहे लेकिन कई ऐसे मौके भी आए जब वह अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चर्चा में रहे। कभी वह कार्टून बनाने के लिए जेल जाने वाले असीम त्रिवेदी के समर्थन में खड़े हुए तो कभी खुद एक कार्टून बनाकर मोरारजी देसाई को नर भक्षक यानी इंसान खाने वाले की तरह दिखाया। कभी भारत-पाकिस्तान के क्रिकेट मैच के बहाने तत्कालीन गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे की तीखी आलोचना की तो कभी खुद को हिटलर का फैन बताते रहे। अब कुणाल कामरा के केस में भी एक बार फिर से शिवसेना चर्चा में है, अभिव्यक्ति की आजादी की बात हो रही है और ठाकरे परिवार इसके केंद्र में है। आइए इस पूरे मामले को बाल ठाकरे के किस्सों से जोड़कर समझते हैं...
एकनाथ शिंदे ने क्या जवाब दिया है?
BBC को दिए एक इंटरव्यू में एकनाथ शिंदे ने कहा है, 'अभिव्यक्ति की आजादी है, हम व्यंग्य समझते हैं लेकिन एक लिमिट होनी चाहिए। यह किसी के खिलाफ बोलने की सुपारी लेने जैसा है। मैं इस पर ज्यादा नहीं बोलूंगा। मैं तोड़फोड़ को सही नहीं मानता हूं। लेकिन सामने वाले को एक स्तर बनाए रखना चाहिए।' एकनाथ शिंदे ने सोमवार को ही अपने करियर में बाल ठाकरे के योगदान को याद किया और कहा कि वह बाल ठाकर के सिद्धांत '80 प्रतिशत सामाजिक कार्य, 20 प्रतिशथ राजनीति' का पालन करते हैं। इस मामले पर उद्धव ठाकरे का कहना है कि 'गद्दार' को 'गद्दार' नहीं कहा जाएगा तो क्या कहा जाएगा?
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यहां यह याद दिलाने की जरूरत है कि शिवसेना की स्थापना बाल ठाकरे ने की थी, उद्धव ठाकरे उन्हीं के बेटे हैं और कुछ साल पहले तक शिवसेना की कमान उन्हीं के हाथ में थी। एकनाथ शिंदे ने बगावत की, पार्टी दोफाड़ हुई और आखिर में सत्ता और पार्टी भी एकनाथ शिंदे के हाथ में चली गई। अब उद्धव ठाकरे की पार्टी का नाम शिवसेना (उद्धव बाला साहब ठाकरे) है। कुणाल कामरा के स्टैंडअप में इसी घटना पर एक कविता सुनाई गई जिसको लेकर पूरा बवाल हुआ है।
बाल ठाकरे और उनकी पत्रकारिता
कार्टूनिस्ट के तौर पर शुरुआत करने वाले बाल ठाकरे कांग्रेस की सरकार के प्रखर आलोचकों में से एक थे। साल 1954 में फ्री प्रेस जर्नल से शुरुआत करने वाले बाल ठाकरे ने 1960 में नौकरी छोड़ दी और खुद का साप्ताहिक पत्र 'मार्मिक' शुरू किया। अपने लेख में वह वामपंथी झुकाव रखने वाले लोगों की खूब आलोचना करते थे। इसी पत्र के जरिए उन्होंने 'मराठी मानुष' बनाम 'बाहरी' का अपना एजेंडा भी शुरू किया था। पहले उन्होंने दक्षिण भारतीयों को निशाना बनाया, फिर मुस्लिमों को आड़े हाथ लिया और फिर उत्तर भारतीय भी उनके निशाने पर आए।
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बाल ठाकरे के इस एजेंडे ने उनके साथ ऐसे लोगों को जोड़ा जो कभी न कभी महाराष्ट्र से बाहर के लोगों से परेशान हुए थे। इतना ही नहीं, मार्मिक के दफ्तर में उस वक्त ऐसे लोगों के सैकड़ों खत भी आने लगे थे। उसी समय बाल ठाकरे ने मुद्दा उठाया कि वह मुंबई की राजनीति में मराठियों के लिए सम्मानजनक जगह चाहते हैं। उनके पास एजेंडा था, लोगों का साथ था और उन्होंने शिवसेना नाम से पार्टी बना ली। शिवसेना के कार्यकर्ताओं को शिवसैनिक कहा जाता और लोगों से मारपीट करना, डराकर अपनी बात मनवाना ही शिवसैनिकों की पहचान बन गया था।
1970 में कृष्णा देसाई नाम के एक ट्रेड यूनियन नेता की हत्या कर दी गई थी। इस केस में जिन 16 लोगों को गिरफ्तार किया गया और वे दोषी पाए गए, वे सभी शिवसेना से ही थे। इस घटना ने शिवसेना की छवि और खतरनाक बना दी। तमिल फिल्में दिखाने वाले थिएटर्स पर हमला करना, मुस्लिमों के खिलाफ बयानबाजी करना, उत्तर और दक्षिण के लोगों का विरोध करना ही शिवसेना के चरित्र में शामिल हो गया।
नरभक्षक कार्टून
बात साल 1955 की है। महाराष्ट्र में मोरारजी देसाई की सरकार थी और राज्य में गुजराती बनाम मराठी का संघर्ष चल रहा था। ऐसा ही एक प्रदर्शन फ्लोरा फाउंटेन के पास हो रहा था। तब की सरकार के आदेश पर प्रदर्शनकारियों पर गोली चलवा दी गई। नतीजा यह हुआ कि मोरारजी देसाई पर दबाव बना कि वह इस्तीफा दें।
इसी बीच बाल ठाकरे ने एक कार्टून बनाया। 21 नवंबर 1955 को हुई इस गोलीबारी में कुल 15 प्रदर्शनकारी मारे गए थे। बाल ठाकरे ने एक कार्टून में मोरारजी देसाई को नरभक्षक के रूप में दिखाया। बाद में इसी घटना के चलते मोरारजी देसाई को अपना पद छोड़ना भी पड़ा और उनकी जगह पर वाई बी चव्हाण मुख्यमंत्री बने। जहां यह घटना हुई थी, अब उसी को हुतात्मा चौक के नाम से जाना जाता है।
नेहरू और मेनन पर बनाया कार्टून
देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और उनकी सरकार में रक्षा मंत्री रहे कृष्ण मेनन की खूब आलोचना होती है। चीन के मुद्दे पर बाल ठाकरे ने उनकी आलोचना के लिए एक कार्टून बनाया था जिसको लेकर खूब विवाद भी हुआ। इस कार्टून में चीन के जो एनलाई को दिखाया गया था।
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इसी तरह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ अभियान की आलोचना करने वाला कार्टून और चीन और पाकिस्तान के प्रति भारत की नीतियों की आलोचना करने वाले कार्टून के जरिए सरकारों की खूब चर्चा बटोरी की। बाल ठाकरे के कार्टून में एक खूबी हुआ करती थी कि वे धुर आलोचक की तरह कार्टून बनाते थे। उनके कार्टून की थीम भी राजनीति ही हुआ करती थी तो सत्ता पक्ष हमेशा उनके निशाने पर रहता था। यही वजह रही कि वह महाराष्ट्र में तेजी से लोकप्रिय भी हुए। उनके बारे में कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की आजादी के कानून का जबरदस्त फायदा बाल ठाकरे ने ही उठाया।
शिवसेना और तोड़फोड़ वाला कल्चर
हालांकि, समय के साथ कार्टूनिस्ट और पत्रकार बाल ठाकरे पर शिवसेना हावी हो गई। यह शिवसेना उस दौर में दक्षिण भारतीयों के साथ मारपीट करती, उत्तर भारतीयों के साथ बदसलूकी करती और यहां तक कि शिवसैनिकों के निशाने पर प्रेस के लोग भी रहते थे। ऐसी ही एक घटना के बारे में टाइम्स ऑफ इंडिया में असोसिएट एडिटर रहे जुग सुरैया अपने ब्लॉग में लिखते हैं, 'मैं टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए ब्लॉग लिखता था और एक बार उसे भी सेंसर किया गया। बाल ठाकरे के बारे में एक ब्लॉग था जिसे रविवार को छपना था। रविवार सुबह ही टाइम्स ऑफ इंडिया के एडिटर दिलीप पड़गांवकर का फोन आया कि आपका आर्टिकल दिल्ली एडिशन में तो छपा है लेकिन मुंबई एडिशन से इसे हटा दिया गया।'
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जुग सुरैया आगे लिखते हैं कि उनसे दिलीप ने कहा,'मैं जानता था कि अगर तुम्हें यह पता चलता कि तुम्हारे लिखने की वजह से बॉम्बे में TOI के ऑफिस में शिवसेना ने हमला कर दिया और तुम्हारे सहयोगिों डीना वकील और बाची कड़कड़िया को पीट दिया। डीना वकील उस वक्त बॉम्बे में TOI की रेजिडेंट एडिटर हुआ करती थीं।' जुग सुरैया का यह लेख बताता है कि प्रेस पर बाल ठाकरे और शिवसेना का किस तरह का दवाब था।
अब मौजूदा परिस्थिति को देखें तो पिछले कुछ सालों में कांग्रेस और एनसीपी के साथ गठबंधन में आने के बाद से उद्धव ठाकरे के तेवर नर्म पड़े हैं और वह कमोबेश सेक्युलर छवि बनाने में विश्वास रखते हैं। एकनाथ शिंदे ने जब बगावत की थी तब उन्होंने यही कहा था कि उद्धव ठाकरे की अगुवाई में पार्टी 'बाल ठाकरे के सिद्धांतों' से भटक गई है और कांग्रेस से मिल गई है। अब वह यही कहते हैं कि वह खुद बाल ठाकरे के सिद्धांतों पर चल रहे हैं।
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