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जब केंद्र शासित प्रदेश की मांग को लेकर 70 साल तक सुलगता रहा था लद्दाख!

लद्दाख में 24 सितंबर को जबरदस्त हिंसा भड़की। इस हिंसा में 4 लोगों की मौत हो गई। लद्दाख के लोगों की सबसे बड़ी मांग है कि उसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिले। मगर कभी लद्दाख में केंद्र शासित प्रदेश की मांग को लेकर आंदोलन होते थे।

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लेह में 24 सितंबर को हुआ विरोध प्रदर्शन। (Photo Credit: PTI)

लद्दाख एक बार फिर सुलगा। 24 सितंबर को यहां ऐसी हिंसा भड़की कि 4 लोगों की मौत हो गई। 80 लोग घायल हुए हैं। घायलों में 6 की हालत गंभीर है, इसलिए मरने वालों की संख्या बढ़ने की आशंका है। 


सुलगा क्यों? क्योंकि इनकी 4 बड़ी मांगे हैं, जिनमें पूर्ण राज्य का दर्जा और संविधान की छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग शामिल है। इनकी यह भी मांग है कि लद्दाख में कम से कम दो लोकसभा सीटें हों, ताकि संसद में सही प्रतिनिधित्व मिले। पहले दो ही थीं लेकिन अनुच्छेद 370 हटने के बाद एक ही कर दी गईं।


पूर्ण राज्य का दर्जा इसलिए मांग रहे हैं, ताकि विधानसभा मिल जाए। इसी तरह छठी अनुसूची में अगर शामिल कर लिया जाता है, तो इससे लद्दाख को उसी तरह की संवैधानिक सुरक्षा मिल जाएगी, जैसी अनुच्छेद 370 हटने से पहले थी। अपनी मांगों को लेकर लेह अपेक्स बॉडी (LAB) और करगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (KDA) पिछले 4 साल से केंद्र सरकार से कई दौर की बातचीत कर चुकी है। अगली बातचीत 6 अक्टूबर को होनी है। इन्हीं मांगों को लेकर 10 सितंबर से एक्टिविस्ट सोनम वांगचुक ने 35 दिन की भूख हड़ताल शुरू की थी लेकिन हिंसा भड़कने के बाद इसे खत्म कर दिया।


लद्दाख में 24 तारीख को जिस तरह की हिंसा भड़की, उसी तरह की 36 साल पहले 27 अगस्त 1989 को भड़की थी। फर्क बस इतना है कि तब लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाने की मांग को लेकर हिंसा भड़की थी और अब केंद्र शासित प्रदेश से पूर्ण राज्य बनाने की मांग को लेकर हिंसा हुई।

 

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लद्दाख और 'सेल्फ रूल' की लड़ाई

आजादी के बाद लद्दाख को जम्मू-कश्मीर का हिस्सा बनाया गया। लद्दाख के लोग इससे नाखुश थे। लद्दाख वालों का कहना था कि वह बौद्ध हैं और उनकी संस्कृति-परंपराएं जम्मू-कश्मीर से पूरी तरह अलग हैं।


आजाद होने के दो साल बाद ही लद्दाख बौद्ध एसोसिएशन (LBA) के उस समय के अध्यक्ष छेवांग रिग्जिन ने प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को एक चिट्ठी लिखी थी। इसमें उन्होंने लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग करने की मांग की थी। इसमें लिखा गया था कि 'धर्म, नस्ल, भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीयता के आधार पर हम अलग हैं।'


उनके बाद अलग लद्दाख की मांग को लेकर प्रभावशाली नेता और लामा कुशक बाकुला ने आंदोलन को आगे बढ़ाया। उन्होंने आरोप लगाया था कि कश्मीर की सरकार लद्दाख के साथ 'उपनिवेश' की तरह बर्ताव करती है। उन्होंने तो धमकी तक दे डाली थी कि 'अगर शेख अब्दुल्ला सरकार की मांगें मानी जाती हैं तो लद्दाख, तिब्बत के साथ चला जाएगा।'


उनकी मांग थी कि लद्दाख को अलग केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाए। सितंबर 1967 में उन्होंने कहा था, '20 सालों से लद्दाख को दरकिनार किया गया और केंद्र के शासन से ही लद्दाख का विकास हो सकता है।' उन्होंने दावा किया था कि लद्दाख में जो कुछ भी थोड़ा-बहुत हुआ है, वह भारतीय सेना के कारण हुआ है। इसके बाद 1974 और 1982 में लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश की मांग फिर उठी लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। 


इस बीच राज्य सरकार ने 1979 में करगिल को लेह से अलग कर एक नया जिला बना दिया। करगिल मुस्लिम बहुल था जबकि लेह में बौद्धों की अच्छी-खासी तादाद थी। लद्दाख के नेताओं का दावा था कि अब्दुल्ला सरकार ने जानबूझकर ऐसा किया ताकि केंद्र शासित प्रदेश की मांग को कमजोर किया जा सके, क्योंकि मुस्लिम बहुल करगिल ऐसा कभी नहीं चाहता।

 

 

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27 अगस्त 1989 और 3 मौतें

लेह और करगिल के अलग-अलग होने के बाद से लद्दाख में तनाव और बढ़ने लगा था। साल 1989 की गर्मियों में मुस्लिम और बौद्ध युवकों के बीच छुटपुट झड़पें होती रहती थीं। 


जुलाई 1989 में लेह के एक बड़े बाजार में मुस्लिम और बौद्ध युवकों के बीच विवाद हुआ। तनाव जरूर बढ़ा लेकिन मामला शांत हो गया। एक महीने बाद 27 अगस्त 1989 को केंद्र शासित प्रदेश की मांग को लेकर लेह में एक बड़ा आंदोलन हुआ। इसे दबाने के लिए पुलिस ने कथित तौर पर फायरिंग की, जिसमें तीन बौद्ध युवकों की मौत हो गई। पुलिस ने LBA के तत्कालीन अध्यक्ष थुपस्थान छिवांग को भी गिरफ्तार कर लिया था। इसे लद्दाख के लिए सबसे हिंसक दिन माना जाता है।


पुलिस की कथित गोलीबारी में जिनकी मौत हुई, उनके नाम नवांग रिनचेन, त्सेरिंग स्टोबदान और त्सेवांग दोरजे थे। इन तीनों को 'NDS' के रूप में जाना जाता है। इन्हीं की याद में लेह में आज NDS मेमोरियल स्टेडियम भी बना है। हर साल 27 अगस्त को इनकी याद में लद्दाख में 'शहीद दिवस' मनाया जाता है। इस दौरान आधे दिन तक दुकानें बंद रहती हैं और कुछ काम नहीं होता।

 

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इससे मिला क्या?

27 अगस्त 1989 की उस घटना ने हालात और बिगाड़ दिए। जगह-जगह हिंसा होने लगी। हालात तब जाकर शांत हुए जब अक्टूबर 1949 में एक समझौता हुआ। यह समझौता LBA, केंद्र सरकार और राज्य सरकार के बीच हुआ था। इसमें तय हुआ कि स्वायत्तता के लिए लद्दाख में एक काउंसिल बनाई जाएगी। वादा किया गया कि 'लद्दाख ऑटोनमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल' यानी LAHDC बनेगी। 


हालांकि, जम्मू-कश्मीर की सरकार ने इसे मंजूरी देने में देरी की। इसने लद्दाख को भड़का दिया। जुलाई 1990 में हालात तब बिगड़ गए, जब पुलिस ने LBA के अध्यश्र थुपस्थान छिवांग की पिटाई कर दी और सोनम वांगचुक को गिरफ्तार कर लिया। इसके बाद फरवरी 1991 में एक और बड़ा प्रदर्शन हुआ। इसमें हजारों की संख्या में लद्दाखी लोग शामिल हुए। इनके हाथ में तख्तियां थीं, जिन पर 'लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया जाए' और 'कश्मीर से आजादी मिले' जैसी बातें लिखी थीं।


1991 और 1992 में लद्दाख को केंद्र शासित का दर्जा देने की मांग को लेकर कई बार आंदोलन हुए। आखिरकार सितंबर 1995 में जाकर LAHDC बनी। पहले इसे लेह में बनाया गया था। साल 1997 में करगिल में भी LAHDC बनाई गई। इसमें 30 सदस्य होते हैं, जिनमें से 26 को चुना जाता है जबकि 4 मनोनीत होते हैं। इसके पास प्रशासनिक शक्तियां होती हैं लेकिन यह काउंसिल उपराज्यपाल के अधीन काम करती है।


वही लद्दाख जिसने कभी केंद्र शासित प्रदेश बनने के लिए खूब आंदोलन किए। केंद्र शासित प्रदेश की मांग को लेकर लद्दाख ने 1949 से 2019 तक 70 साल लड़ाई लड़ी। अगस्त 2019 में लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। अब वही लद्दाख पूर्ण राज्य का दर्जा मांग रहा है।

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