मणिपुर हिंसा की शुरुआत मई 2023 में हुई थी। हिंसा की शुरुआत से लेकर अबतक 300 से ज्यादा लोगों की मौतें और हजारों घायल हो चुके हैं, साथ ही हजारों लोगों का विस्थापन हुआ है। राज्य की कई जिले आज भी हिंसा की मार झेल रहे हैं। हिंसा प्रभावित जिलों में अभी भी हालात सामान्य नहीं हुए हैं। चप्पे-चप्पे पर राज्य पुलिस और केंद्रीय बलों का पहरा है। इन सबके बीच असामाजिक तत्व भी हिंसा फैलाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे, जिससे वह प्रभावित इलाकों में सक्रिय हैं। मणिपुर के हालात को देखते हुए राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया है। राज्य सरकार भंग हो चुकी है और मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह अपने पद से इस्तीफा दे चुके हैं।
मणिपुर के इम्फाल घाटी में रहने वाले बहुसंख्यक मैतेई और कुकी जनजाति के लोगों के बीच जारी इस हिंसा में सैकड़ों मौतें, घायल और विस्थापन के अलावा एक दूसरी तस्वीर भी है। दरअसल, मणिपुर की रीढ़ वहां की खेती-किसानी है। यह खेती जातीय संघर्ष के बीच में तेजी से कमजोर हो रही है। राज्य में तेजी से कम होती खेती ने मणिपुर में खाद्य सुरक्षा और आर्थिक स्थिरता का खतरा पैदा कर दिया है।
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मणिपुर की 60 फीसदी आबादी कृषि आधारित
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक मणिपुर की 60 फीसदी आबादी आजीविका के लिए खेती पर निर्भर है। लेकिन मई 2023 में मैतेई और कुकी समुदायों के बीच भड़की हिंसा के बाद से राज्य में खेती करने वाले किसानों ने फसल उगाना कम कर दिया है। राज्य में उपजाऊ जमीन के बड़े हिस्से अब वीरान पड़े हुए हैं। लोगों को डर है कि अगर वह खेती करने के लिए अपने खेतों में गए तो उन्हें मार दिया जाएगा।
गांव के गांव खेती से कटे
चुराचांदपुर जैसे जिलों में पूरे के पूरे गांव खेती से कट गए हैं। इन जिलों में बफर जोन बना दिए गए। बफर जोन हिंसा के प्रभाव को कम करने और सुरक्षात्मक उपाय के लिए बनाए गए हैं। लोग इन बफर जोनमें फंस गए हैं जिसे पार करना अब भी बहुत खतरनाक है। उजंगमाखोंग में लगभग 30 परिवार रहते हैं, ग्रामीणों के पास सामूहिक रूप से 15 हेक्टेयर से ज्यादा कृषि योग्य जमीन है। ये परिवार इस खेती करने वाली जमीन में वर्तमान में कोई भी खेती नहीं कर रहा है।

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दो साल पहले तक इन्हीं खेतों में लोग फसल उगाया करते थे। इन खेतों में अब खड़ी फसल की जगह सुरक्षाबलों के बैरिकेड्स खड़े हैं। फसल उगाने वाले ये खेत अब तनावपूर्ण, विवादित क्षेत्रों में बदल गए हैं।
खाने के लिए बुरी तरह से प्रभावित लोग
खेती ना हो पाने की वजह से यहां के लोग खाने के लिए बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। इसका असर अब स्थानीय परिवारों से आगे निकल चुका है। मणिपुर के सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) में कृषि का योगदान लगभग 22 प्रतिशत है। खेती की गतिविधियों में लंबे समय से रुकावट मणिपुर की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर डाल रही हैं। मणिपुर विश्वविद्यालय के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, लगातार दो सालों से राज्य की 5,000 हेक्टेयर से ज्यादा कृषि योग्य जमीन बंजर पड़ी है। इसकी वजह से मणिपुर में 15,000 मीट्रिक टन से ज्यादा चावल का नुकसान हुआ है।
मणिपुर विश्वविद्यालय के यह आंकड़े राज्य में खाद्य उत्पादन में भारी गिरावट को दर्शा रहे हैं। इतने बड़े पैमाने पर खेती घटने के कारण मणिपुर की आपूर्ति श्रृंखला और बाजार की स्थिरता दोनों पर लेबे समय तक प्रभाव पड़ सकता है।
खेतों की दुष्प्रभाव
इस संकट का सामना दोनों मैतेई और कुकी समुदाय के किसान कर रहे हैं। सुरक्षा संबंधी चिंताएं, सरकारी सहायता तक पहुंच का अभाव और हिंसा का लगातार खतरा कई लोगों को असहाय स्थिति में धकेल चुका है। सुरक्षा संबंधी दिक्कतों की वजह से खेतों की बुनियादी देखभाल, जैसे कि खेतों में उग आए झाड़-झेखाड़ और खरपतवारों तक को साफ नहीं किया जा रहा है। जबकि पहले किसान खेतों को पहले तैयार करके फिर उसमें फसलों की बुआई करते थे।
कहां जा रहा मणिपुर?
राज्य में फैसी हिंसा का फिलहाल कोई स्पष्ट समाधान नहीं दिखाई दे रहा है। इसकी वजह से प्रभावित लोगों तक मदद भी नहीं पहुंच पा रही है, ऐसे में मणिपुर की ग्रामीण अर्थव्यवस्था धराशाई होने की कगार पर खड़ी है। क्योंकि जितने लंबे समय तक खेतों को नहीं जोता जाएगा, उसकी उर्वरता उतनी ही कमजोर होती जाएगी। यह किसानों के लिए किसी अकाल से कम तो सच में नहीं है, साथ ही यह स्थिती मणिपुर की सरकार के लिए भी आने वाले समय में मुश्किल पैदा केरगी। इसके अलावा यह प्रभावित जिलों के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने के लिए भी खतरा है।