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मिनी काबुल: किस हाल में हैं तालिबानियों से बचकर दिल्ली आए अफगानी?

नई दिल्ली के लाजपत नगर की एक मशहूर गली में आपको इंडियन कम अफगानी लोग ज्यादा दिखेंगे। इस गली को मिली काबुल का नाम दिया गया है। यह हर मायने में इतनी खास क्यों है, आइए समझें।

Mini Kabul Delhi's Lajpat Nagar

दिल्ली का मिनी काबुल, Photo Credit: Khabargaon

सुबह के 11 बजकर 30 मिनट पर जब मैंने साउथ दिल्ली के लाजपत नगर की उस सड़क पर कदम रखा तो मुझे वहां की हवाओं में कुछ अलग महसूस हुआ। दिल्ली में होने के बावजूद मुझे हवाओं में अफगानी नान की खुशबू मिली और कानों में उर्दू के लफ़्ज पड़ने लगे। ऐसा तो नहीं था कि मैं अफगानिस्तान में थी लेकिन वहां मौजूद लोगों को अफगान सलवार-कमीज पहने देखा और पश्तो भाषा बोलते हुए सुना तो एक बार को अफगानी फील जरूर आ गई। दुकानों पर लगे बोर्ड दारी भाषा में लिखे नाम, स्ट्रीट फूड वाली दुकानों पर बनते नान, गोरे चमकते चेहरे और लोगों की लंबाई बताती है कि इलाका थोड़ा 'पठानी' है। असलियत यह है कि इस इलाके में अफगानिस्तान से आए लोग बसे हुए हैं और उनकी संख्या अब इतनी हो चुकी है कि इस इलाके को बड़े हक से 'मिनी काबुल' कहा जा सका।

 

मुझे यहां की दुकानों, रेस्तरां और गलियों तक में ‘नानवाई’ अफगानी नान बेचते नजर आए। जब आप उन्हें और उनकी पकी रोटियों को देखते हैं तो आपको लगता है कि आप ‘छोटे अफगानिस्तान’ में आ गए हैं। मैं पहुंची थी लाजपत नगर से 700-800 मीटर दूर एक अफगान गली में जो मिनी काबुल के नाम से जानी जाती है।

 

मिनी काबुल सर्च किया क्या?

जब आप गूगल पर ‘मिनी काबुल इन दिल्ली’ सर्च करेंगे तो आपको पता चलेगा कि यहां अफगानियों की भीड़ है। कोई रेस्तरां चला रहा है तो किसी के पास मेडिकल शॉप है। दारी और पश्तो भाषा में अपने लोगों से बात करते लोग आपको नजर आएंगे। दिल्ली के लाजपत नगर में बसी अफगान बस्ती में रहने वाले ज्यादातर लोग अफगानिस्तान से आए प्रवासी हैं, जो पिछले एक दशक में यहां आकर बसे हैं। ये समुदाय मुख्य रूप से मालवीय नगर, लाजपत नगर और बल्लीमारान में शरीफ मंजिल में देखने को मिल जाएंगे। इन लोगों ने खुद को राजधानी के वातावरण में अच्छी तरह से ढाल लिया है और दिल्ली को अपना घर बना लिया है।

 

तारीख, साल सब याद...

नजीबुल्लाह को नई दिल्ली आने की सही तारीख, समय और साल पूरी तरह से याद है। जून 2013 में उन्होंने अपनी पत्नी, बड़ी बेटी और छह महीने की बच्ची के साथ भारत में नए सिरे से शुरुआत की। हिंसा वाले देश अफगानिस्तान को पीछे छोड़ना आसान तो नहीं था लेकिन वह अब भारत में ज्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं। अफगानिस्तान की जिंदगी को पीछे छोड़ना कितना कठिन था? जब खबरगांव ने नजीबुल्लाह से यह सवाल किया तो उन्होंने कहा, 'दिन-रात मौत को आंखों में देखते हुए हमने अपने घर में डर को जाना है। अब हमें कुछ भी नहीं डराता।‘

 

ब्लू पठानी सूट में नजर आते अफगानी

ब्लू पठानी सूट पहने नजीबुल्लाह बेसमेंट में एक इंडियन पार्टनर के साथ अफगान जनरल स्टोर चलाते हैं। पिछले कुछ सालों में दिल्ली का चहल-पहल भरा लाजपत नगर मूल रूप से पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए बनाया गया था लेकिन अब यह अपने देश में उथल-पुथल और हिंसा से बचने के लिए भाग रहे अफगानों का घर भी बन गया है। पलायन 1979 में काबुल पर सोवियत आक्रमण के साथ शुरू हुआ और 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद भी जारी रहा। जनवरी 2020 तक, UNHCR (शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त) के साथ कम से कम 16,000 अफगान शरणार्थी रजिस्टर्ड थे, जो मुख्य रूप से राजधानी दिल्ली में रहते हैं।

 

पुराने दिनों को याद करते अफगानी

नजीबुल्लाह की दुकान में वैसे तो वह सब कुछ है जो एक सामान्य जनरल स्टोर में उपलब्ध है लेकिन कुछ चीजें ऐसी भी हैं जो अफगान ग्राहकों के लिए विशेष महत्व रखती हैं, जैसे चिलगोजा (अफगानिस्तान, पाकिस्तान और उत्तर पश्चिम भारत में पाया जाने वाला पाइन नट्स), खजूर, एक डीप-फ्राइड अफगान मिठाई और ईरान से आयातित पेगा क्रीम। इस अफगान गली में अफगानी लोग अपने दोस्तों के साथ चाय पीते और फारसी में मजाक करते दिख जाएंगे। वे यहां खुश हैं। उनके बच्चे दिल्ली के स्कूलों में पढ़ते हैं।

 

37 वर्षीय अफगान शुजाउद्दीन रिजा अपने पुराने दिनों को याद करते हुए रोने लग जाते हैं। उन्होंने खबरगांव को बताया, ‘हमारे पास अपने घर थे, अपने खेत थे जहां हम अनार के पेड़ों के बीच खेलते थे। कुछ भी नहीं बचा।‘ शुजाउद्दीन दो साल पहले अपनी पत्नी और सात बच्चों के साथ काबुल से भाग आए थे। उन्होंने खबरगांव को अपने दाहिने हाथ पर दो साल पहले हुए एक जानलेवा हमले में लगी चोट को दिखाया। वह बताते हैं कि अफगानिस्तान में उनकी एक मोबाइल मरम्मत की दुकान थी जहां अचानक से तालिबानी पैसे लूटने आ गए थे। जब उनके परिवार को नुकसान पहुंचाने की धमकियां मिलने लगीं तो रिजा ने अपना सामान समेटकर वहां से भाग जाने का फैसला किया।

 

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मिनी काबुल की चहल-पहल वाली गलियों में पठानी सलवार पहने पुरुषों और फैशनेबल अबाया पहने महिलाएं दिख जाएंगी जो तालिबानी हुकूमत वाले अफगानिस्तान की बुर्के वाली महिलाओं से बिल्कुल अलग है। गलियों में लगे हर साइन बोर्ड पर अंग्रेजी और दारी भाषा लिखी हुई है। हालांकि, ज्यादातर अफगानों को हिंदी बोलने में कोई परेशानी नहीं होती।

 

हिंदी बोलने में एक्सपर्ट

'काबुल दिल्ली' यहां का फेमस रेस्तरां है जिसे अफगानी दरी से सजाया गया है। इसको चलाने वाले को हिंदी बहुत अच्छे से आती हैं। दोपहर से लेकर आधी रात तक रेस्तरां की रसोई व्यस्त रहती है, जहां काबुली उजबकी पिलाफ (उत्तरी अफगानिस्तान का मटन पुलाव), कबुर्गी कबाब (कंदहार और हेरात में लोकप्रिय मटन चॉप) और बोलानी (सब्ज़ियों से भरी एक चपटी रोटी, जिसे अफगान आलू परांठा कहते हैं) जैसे व्यंजन परोसे जाते हैं। एक और मशहूर डिश है घोस्ट डोपियाजा, प्याज की ग्रेवी में धीमी आंच पर पकाया गया मटन, जिसकी उत्पत्ति अफगानिस्तान में हुई थी लेकिन अब यह उत्तर भारतीय की फेवरेट डिश बन चुकी है।  

 

रेस्तरां चलाने वाले अतीकउल्लाह अपने शहर की तुलना में दिल्ली में ज्यादा आजाद महसूस करते हैं। वह कहते हैं, ‘दिल्ली में हमारे परिवार देर रात तक सड़कों पर रह सकते हैं या विस्फोट या हमले के डर के बिना ईद का जश्न मना सकते हैं। यहां पर हमने अपना एक छोटा काबुल बना लिया है।‘

‘नानवाई’

काबुल दिल्ली रेस्तरां से थोड़ी दूर, सड़क किनारे पर ताजे पके हुए अफगान नान देखा तो मुंह में पानी आ गया। इन्हें बेचने वालों को नानवाई कहते हैं। नानवाई जलालुद्दीन इस्लाम काबुल से लगभग 500 किलोमीटर दूर जौजजान प्रांत से आते हैं। कई सालों तक इंतजार करने, पैसे और संसाधन जुटाने के बाद, उनका परिवार उन्हें दिल्ली भेज पाया। यहां उन्हें बेहतर काम मिलने की उम्मीद थी। तालिबान शासन ने सबकुछ बर्बाद कर दिया था। नौकरी मिलना वहां अब मुश्किल है।

 

दिल्ली की तपती गर्मी हो गया कड़ाके की ठंड इस्लाम तंदूर से ताजी और मुलायम नान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं। सिर पर दुपट्टा लपेटे हुए एशियाई रंग में उनका चेहरा बहुत लाल हो रखा था। दिल्ली में वह काफी खुश दिखते हैं। जब खबरगांव ने उनसे वापस घर लौटने (अफगानिस्तान) लौटने की संभावना के बारे में पूछा तो उन्होंने मजाकिया अंदाज में कहा, ‘अगर मैं जिंदा रहा तो मैं किसी दिन घर लौटूंगा, वरना कोई मेरा शव निज़ामुद्दीन दरगाह ले जाएगा।‘ इस्लाम दिल्ली में किराए के मकान में अकेले रहते हैं। काम से छुट्टी के दौरान उन्हें शहर की सड़कों पर घूमना और कई पार्कों में आराम करना पसंद है।

 

पहचान की तलाश में अफगानी

अफगान आबादी दिल्ली से बहुत कुछ उम्मीद करती है। पिछले कई सालों में भारत सरकार ने अपने मध्यम वर्ग के अफगानों को हजारों मेडिकल वीजा जारी किए हैं लेकिन ये शरणार्थी चाहते हैं कि सरकार उन्हें कोई और पहचान भी दे। दरअसल, दस्तावेज या सही पहचान के बिना, शरणार्थियों के पास बैंक अकाउंट खोलने या औपचारिक क्षेत्र में काम पर रखने का कोई तरीका नहीं है। यह लोग अफगानिस्तान को पीछे छोड़ चुके हैं और अब इनके वापस लौटने की बहुत कम उम्मीद है।

 

घर का किराया,  स्कूल की फीस देना और व्यवसाय चलाना इन अफगानियों के लिए मुश्किल है। यहां तक ​​कि दुकान खोलने के लिए भी सभी कागजी कार्रवाई भारतीय नागरिक के नाम पर होनी चाहिए क्योंकि शरणार्थी संपत्ति या व्यवसाय के मालिक नहीं हो सकते। हालांकि, कठिनाइयों के बावजूद, अफगान समुदाय के सदस्यों ने दिल्ली में अपना जीवन फिर से बनाया है। उनके कई बच्चे शायद कभी अपने वतन (मातृभूमि) में खुलकर ऐसा जीवन नहीं जी पाएं। अब न तो अफगानी फल उनके घर के आंगन में पकेंगे और न ही अफगानिस्तान की सर्दियां उन्हें जानी-पहचानी लगेंगी लेकिन अफगानी समुदाय को लाजपत नगर का मिनी काबुल थोड़ा-बहुत घर जैसा महसूस करा रहा हैं।

 

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