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सेमीकंडक्टर पर दुनिया की निगाहें, क्यों कहा जा रहा 'डिजिटल डायमंड'?

पूरी दुनिया की निगाहें सेमीकंडक्टर चिप्स पर लगी हुई हैं। पीएम मोदी ने भी इसे डिजिटल डायमंड कहा। ऐसे में सवाल उठता है कि इसका इतना महत्त्व क्यों है?

Representational Image । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

सेमीकंडक्टर चिप्स आज की दुनिया के सबसे कीमती संसाधन माने जाते हैं। शायद इसीलिए भारत के पहले चिप निर्माण पर पीएम मोदी ने इसे ‘डिजिटल डायमंड्स' कहा। इनके बिना आधुनिक जीवन की कोई कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्मार्टफोन, लैपटॉप, ऑटोमोबाइल, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम, 5G नेटवर्क, रक्षा उपकरण और यहां तक कि घरेलू इलेक्ट्रॉनिक्स—सब कुछ इन छोटे-से माइक्रोचिप्स पर निर्भर है। 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा दोनों इन्हीं पर टिके हैं। जैसे 20वीं सदी का भू-राजनीतिक समीकरण तेल पर आधारित था, वैसे ही 21वीं सदी का समीकरण सेमीकंडक्टर्स पर टिका है।

 

यही वजह है कि हर देश अब चिप उत्पादन पर अधिकार जमाना चाहता है। सेमीकंडक्टर की सप्लाई में जरा-सी रुकावट पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को झटका दे सकती है। इसका उदाहरण हमें 2020–21 की महामारी के दौरान मिला, जब चिप्स की कमी के कारण कार और मोबाइल इंडस्ट्री तक ठप पड़ गई। इसी संदर्भ में ताइवान और चीन का विवाद भी बेहद अहम हो जाता है। ताइवान दुनिया का सबसे बड़ा चिप निर्माता है और चीन उस पर अपना दावा जताता है। विश्लेषकों के अनुसार यह विवाद केवल राजनीतिक या ऐतिहासिक नहीं है, बल्कि इसके पीछे ताइवान की सेमीकंडक्टर क्षमता पर कब्ज़ा जमाने की महत्वाकांक्षा भी है। यही कारण है कि अमेरिका और उसके सहयोगी ताइवान को एक रणनीतिक चिप आइलैंड' मानते हैं और उसकी सुरक्षा को अपनी प्राथमिकता बनाते हैं।

 

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सेमीकंडक्टर पर दबदबा किसका?

दुनिया का सेमीकंडक्टर उद्योग बहुत जटिल और आपस में जुड़ा हुआ है। ताइवान इस क्षेत्र का सबसे बड़ा खिलाड़ी है। दुनिया की एडवांस्ड नोड (10nm) चिप्स का करीब 90% उत्पादन करती है, जबकि कुल फाउंड्री मार्केट में इसकी हिस्सेदारी ~60% है। Apple, Nvidia, AMD जैसी दिग्गज कंपनियां इसकी ग्राहक हैं। इसके बाद दक्षिण कोरिया आता है, जहां Samsung और SK Hynix मेमोरी चिप्स (DRAM और NAND) के उत्पादन में 50 प्रतिशत से ज्यादा वैश्विक हिस्सेदारी रखते हैं।

 

अमेरिका डिज़ाइन और बौद्धिक संपदा (IP) में लीडर है। Intel, Qualcomm, Nvidia जैसी कंपनियां चिप्स के डिज़ाइन और EDA सॉफ्टवेयर पर लगभग 90 प्रतिशत कंट्रोल रखती हैं। जापान और नीदरलैंड्स सप्लाई चेन में अहम हैं। जापान जरूरी केमिकल्स और वेफर उपलब्ध कराता है, जबकि नीदरलैंड्स की ASML दुनिया की इकलौती कंपनी है जो एडवांस्ड EUV Lithography मशीनें बनाती है। चीन चिप्स का सबसे बड़ा उपभोक्ता है, लेकिन एडवांस्ड मैन्युफैक्चरिंग टेक्नोलॉजी में पीछे है।

ताइवान पर चीन की नजर

चीन लगातार ताइवान को अपने क्षेत्र का हिस्सा बताता है, लेकिन ताइवान की ताक़त केवल राजनीति या इतिहास से नहीं, बल्कि उसकी चिप उद्योग से भी जुड़ी है। 2023 तक चीन की सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग क्षमता केवल 14nm तक सीमित थी, जबकि ताइवान की TSMC 5nm और 3nm चिप्स बना रही है। यह तकनीकी अंतर इतना बड़ा है कि पूरी दुनिया की टेक इंडस्ट्री ताइवान पर निर्भर है।

 

यदि चीन ताइवान पर नियंत्रण पा ले, तो उसे सीधा दुनिया की सबसे एडवांस्ड चिप फैक्ट्रियों तक पहुंच मिल जाएगी। यही कारण है कि अमेरिका ने ताइवान की सुरक्षा को अपनी विदेश नीति का अहम हिस्सा बनाया है और ताइवान स्ट्रेट को वैश्विक सप्लाई चेन की ‘नब्ज़' कहा जाता है।

भारत बहुत पीछे है

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा इलेक्ट्रॉनिक्स उपभोक्ता बाजार है। 2024 में भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स बाजार 220 अरब डॉलर के पार पहुंच गया। लेकिन यहां एक बड़ी विडंबना है: भारत चिप्स का विशाल उपभोक्ता तो है, लेकिन निर्माता नहीं। भारत में Intel, Qualcomm, Nvidia जैसी दिग्गज कंपनियों के बड़े-बड़े R&D सेंटर मौजूद हैं, जहां लाखों इंजीनियर चिप डिज़ाइन पर काम करते हैं। लेकिन जब बात मैन्युफैक्चरिंग की आती है, तो भारत अभी शुरुआती स्तर पर भी नहीं है। यही कारण है कि भारत का सेमीकंडक्टर इंपोर्ट बिल 2024 में लगभग 27 अरब डॉलर तक पहुंच गया, जो आने वाले वर्षों में और तेजी से बढ़ने वाला है।

 

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भारत सरकार ने 2021 में India Semiconductor Mission (ISM) की शुरुआत की और ₹76,000 करोड़ का PLI पैकेज घोषित किया। इसके तहत भारत में फैब्रिकेशन, पैकेजिंग और डिज़ाइन इकोसिस्टम खड़ा करने का प्रयास हो रहा है। अमेरिकी कंपनी Micron ने गुजरात में 2.75 बिलियन डॉलर का पैकेजिंग और टेस्टिंग प्लांट लगाने की घोषणा की है।

 

Vedanta-Foxconn ने भी फैब लगाने का ऐलान किया, हालांकि उसे तकनीकी और वित्तीय चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। इसके अलावा, सरकार ने चिप डिज़ाइन स्टार्टअप्स को समर्थन देने के लिए विशेष स्कीम शुरू की है, जिसमें 100 से अधिक स्टार्टअप्स को फंडिंग और तकनीकी सहयोग दिया जा रहा है।

भारत के पास है अवसर

भारत के पास सेमीकंडक्टर आत्मनिर्भरता हासिल करने के कई अवसर हैं। सबसे बड़ा फायदा यह है कि भारत एक विशाल घरेलू बाजार रखता है। 5G रोलआउट, इलेक्ट्रिक व्हीकल्स, ऑटोमोबाइल इलेक्ट्रॉनिक्स और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बढ़ती मांग से चिप्स की आवश्यकता तेज़ी से बढ़ रही है।

 

अमेरिका और यूरोप चीन पर अपनी निर्भरता घटाना चाहते हैं, ऐसे में भारत China+1 Strategy' का सबसे बड़ा विकल्प बनकर उभर रहा है। भारत के पास विशाल इंजीनियरिंग टैलेंट है और लाखों युवा चिप डिज़ाइन और सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग में प्रशिक्षित हैं। आत्मनिर्भर भारत और डिजिटल इंडिया जैसी सरकारी योजनाएं इस दिशा में अतिरिक्त ताक़त देती हैं।

चुनौतियां क्या हैं?

हालांकि अवसर बड़े हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं। एक चिप निर्माण यूनिट बनाने की लागत 10–15 बिलियन डॉलर होती है, और इसके लिए लंबे समय तक स्थिर नीतियां और सब्सिडी जरूरी होती हैं। भारत के पास अभी 5nm या 3nm चिप बनाने का कोई अनुभव नहीं है। कच्चे पदार्थ और एडवांस्ड मशीनों के लिए भारत को जापान और नीदरलैंड्स जैसे देशों पर निर्भर रहना पड़ता है। निवेशकों का भरोसा जीतने के लिए नीतिगत स्थिरता और लॉजिस्टिक्स में सुधार आवश्यक है।

 

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योजना क्या है?

भारत का रोडमैप चरणबद्ध है। सबसे पहले पैकेजिंग और टेस्टिंग इंडस्ट्री को मजबूत करना, फिर 28nm से 40nm जैसी मिड-लेवल फैब्रिकेशन तकनीक में प्रवेश करना, और अगले दशक में एडवांस्ड फैब (7nm, 5nm, 3nm) बनाने की क्षमता हासिल करना। इसके साथ ही सरकार चिप डिज़ाइन स्टार्टअप्स को बढ़ावा दे रही है और लोकल सप्लाई चेन विकसित करने की कोशिश कर रही है। 2027–2030 तक भारत का लक्ष्य है कि वह एशिया में एक महत्वपूर्ण सेमीकंडक्टर हब बन सके।

 

सेमीकंडक्टर्स आज केवल तकनीकी उत्पाद नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक शक्ति का साधन बन चुके हैं। ताइवान का महत्व इसी वजह से इतना बढ़ गया है कि चीन और अमेरिका आमने-सामने खड़े हैं। भारत अभी इस दौड़ में शुरुआती स्तर पर है, लेकिन सरकार ने इसे रणनीतिक प्राथमिकता बना लिया है। अगर भारत सही दिशा में निवेश, तकनीकी साझेदारी और स्किल डेवलपमेंट को आगे बढ़ाए, तो आने वाले दशक में वह न केवल चिप्स का उपभोक्ता, बल्कि निर्माता और इनोवेटर भी बन सकता है। 20वीं सदी में तेल सत्ता की चाबी था, और 21वीं सदी में चिप्स वही भूमिका निभा रहे हैं। भारत ने देर से ही सही, लेकिन इस जंग में कदम बढ़ा दिया है।

 

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