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कितना सच-कितना फसाना... क्या सच में 'आलसी' बनाती हैं मुफ्त की चीजें?

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि मुफ्त की योजनाओं के कारण लोग काम नहीं करना चाहते। ऐसे में जानते हैं कि क्या वाकई मुफ्त की चीजें लोगों को आलसी बना देती हैं?

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प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)

सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर 'फ्रीबीज कल्चर' पर कड़ी टिप्पणी की है। चुनाव से पहले फ्रीबीज के ऐलान पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुफ्त की चीजों के चलते लोग काम नहीं करना चाहते। 


जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने कहा, 'लोग मुफ्त सुविधाओं के चलते काम नहीं करना चाहते। मुफ्त राशन मिल रहा है। पैसा मिल रहा है। बाकी सुविधाएं मिल रही हैं।' कोर्ट ने केंद्र से सवाल किया, 'लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाने की बजाय क्या आप मुफ्त की योजनाएं लागू करके परजीवियों की जमात नहीं खड़ी कर रहे हैं?'


सुप्रीम कोर्ट ने ये टिप्पणी उस याचिका पर सुनवाई करते हुई की, जिसमें बेघरों को आसरा देने की मांग की गई है। इस दौरान अदालत ने कहा, 'मुफ्त की योजनाओं के कारण लोग काम करने को तैयार नहीं हैं। किसानों को मजदूर नहीं मिल रहे हैं। बेहतर होगा कि ये लोग समाज की मुख्यधारा का हिस्सा बनकर राष्ट्रीय विकास में योगदान दें।'

फ्रीबीज और आलसपन

ये पहली बार नहीं है जब अदालत ने फ्रीबीज को आलसपन से जोड़ा है। मार्च 2021 में मद्रास हाईकोर्ट ने भी फ्रीबीज बांटने पर सवाल उठाए थे। कोर्ट ने कहा था कि मुफ्त की रेवड़ी का कल्चर लोगों को आलसी बना रहा है। कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए इसे 'करप्ट प्रैक्टिस' कहा था। दिलचस्प बात ये है कि भारत में फ्रीबीज कल्चर की शुरुआत तमिलनाडु से ही हुई थी।


मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था, 'किसी त्योहार के समय कुछ मुफ्त देने या पैसे बांटने को ये कहकर जायज ठहराया जा सकता है कि सरकार लोगों की जरूरतों का ध्यान रख रही है लेकिन असल में ये लोगों को आलसी बना रही है। इससे वर्क कल्चर पर असर पड़ रहा है।'


मई 2012 में पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम आजाद ने भी फ्रीबीज कल्चर पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा था, 'सरकार की तरफ से लोगों को मुफ्त की चीजें मिलने से लोग आलसी हो जाएंगे।'

 

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क्या सच में आलसी बनाती हैं मुफ्त की चीजें?

भारत में शायद ही ऐसी कोई स्टडी या रिसर्च हुई हो, जिससे मुफ्त की योजनाओं को आलसपन से जोड़ा जा सके। मगर विदेशों में ऐसी कई स्टडीज हुई हैं, जिनसे मिले-जुले नतीजे सामने आए हैं। कुछ स्टडीज बताती हैं कि फ्री की योजनाएं या पैसे बांटने से लोग आलसी हो सकते हैं तो कुछ का कहना है कि इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता। हालांकि, कुछ स्टडीज से पता चलता है कि अगर सही तरीके से मुफ्त की योजनाएं लागू की जाएं तो इससे लोगों का जीवन स्तर सुधर सकता है।


फिनलैंड में 2017-18 में दो हजार बेरोजगार युवाओं को हर महीने 560 यूरो की मदद दी गई। इसका मकसद ये जानना था कि लोगों को फ्री पैसे मिलें तो उनके जीवन पर क्या असर पड़ेगा। इस रिसर्च में सामने आया कि इसका कुछ खास फर्क नहीं पड़ा। न तो काम की तलाश करने वालों की संख्या में बहुत ज्यादा कमी आई और न ही नौकरियां करने वालों की संख्या बढ़ी। हालांकि, इसमें ये जरूर सामने आया कि मुफ्त का पैसा मिलने से लोगों की मेंटल हेल्थ में काफी सुधार हुआ।


इसी तरह 2006 में जर्नल ऑफ इकोनॉमिक साइकोलॉजी में भी एक स्टडी पब्लिश हुई थी। इसमें सामने आया था कि अगर लोगों को मुफ्त में ही पैसा बांटा जाता है तो न उनका काम करने का मन नहीं करता और वो नौकरियां नहीं तलाशते। हालांकि, अगर लोगों को इस बात का डर हो कि उनको मुफ्त में मिलने वाला पैसा कभी भी बंद हो सकता है तो वो ज्यादा काम करते हैं। इसके अलावा, 2015 में भी एक स्टडी हुई थी, जिसमें सामने आया था कि अगर लंबे समय तक लोगों को फ्री का पैसा मिले तो नौकरी करने वालों की संख्या कम हो जाती है।


2019 में गैलप ने एक सर्वे किया था। इस सर्वे में शामिल 43 फीसदी अमेरिकियों ने माना था कि अगर सरकार से एक बेसिक इनकम मिले तो काम करने में मन नहीं लगता है। हालांकि, 27 फीसदी का कहना था कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 2020 में प्यू रिसर्च सेंटर ने भी इसी तरह का एक सर्वे किया था, जिसमें 57 फीसदी अमेरिकियों का कहना था कि सरकार से मिलने वाली मदद से डिपेंडेंसी बढ़ती है। 

 

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नोबल विजेता भी खारिज कर चुके हैं ये बात

नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी इस तर्क को खारिज करते हैं कि फ्रीबीज लोगों को आलसी बनाती है। अप्रैल 2021 में एक कार्यक्रम में अभिजीत बनर्जी ने कहा था, 'मुफ्त की योजनाएं गरीबों को आलसी बनाती है, इसके कोई सबूत नहीं है। इसकी बजाय लोगों की जिंदगी में पहले से ज्यादा सुधार देखा गया है।'


उन्होंने कहा था, 'मेरी खुद की स्टडी में सामने आया है कि जहां भी लोगों को सरकार से या कहीं और से भी कुछ मदद मिली है तो इससे उनकी जिंदगी पहले से बेहतर हुई है। सरकारी मदद से लोगों की कमाई 25 फीसदी तक बढ़ी है। इससे उनका खर्च भी 18 फीसदी बढ़ गया है।'


बनर्जी का कहना था, 'जब सरकारी मदद मिलती है तो इससे लोगों को न सिर्फ गरीबी से लड़ने में मदद मिलती है, बल्कि उनकी स्थिति पहले से ज्यादा बेहतर हो जाती है। वो अपने बच्चों को गांवों से दूर शहरों में स्कूल भेजना चाहते हैं।'

 

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क्या भारत में आलसी हो रहे लोग?

जैसा कि पहले ही कह चुके हैं कि ऐसी कोई स्टडी नहीं हुई है। हालांकि, हम इसे कुछ आंकड़ों से समझने की कोशिश जरूर कर सकते हैं। आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि जब लोगों को फ्री में सब मिलेगा तो उनमें काम करने की इच्छा नहीं होगी या वो नौकरियां नहीं ढूंढेंगे। मगर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि भारत में अब भी नौकरी ढूंढने वालों की संख्या जस की तस है। इसमें कमी आने की बजाय बढ़ी ही है।


दरअसल, नौकरियों के बाजार में इसे लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट यानी LFPR कहा जाता है। LFPR का मतलब है कि कुल आबादी में ऐसे कितने लोग हैं जो काम की तलाश में हैं या काम के लिए उपलब्ध हैं। पीरियोडिक लेबर फोर्स सर्वे (PLFS) के नतीजों के मुताबिक, जुलाई से सितंबर 2024 के बीच LFPR 39.6% था। इससे पहले की तिमाही यानी अप्रैल से जून 2024 के बीच ये 39.3% था। LFPR का बढ़ना अच्छा माना जाता है। 


PLFS के नतीजों से पता चलता है कि युवाओं की लेबर फोर्स में भागीदारी बढ़ रही है। जुलाई से सितंबर 2024 के बीच 15 से 29 साल के युवाओं की हिस्सेदारी 41.6% थी, जबकि इससे पहले अप्रैल से जून तिमाही में 40.8% थी।

 

प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)

 

तो क्या सही है फ्रीबीज?

फ्रीबीज को पूरी तरह से न तो सही ठहराया जा सकता है और न ही गलत। वंचित या गरीब तबके को मुख्यधारा में लाने के लिए मुफ्त की योजनाएं सही हैं। हालांकि, सभी को मुफ्त में देना सही नहीं माना जाता।


मार्च 2021 में मद्रास हाईकोर्ट ने कहा था, 'राजनीतिक पार्टियों को ऐसे वादे करने से बचना चाहिए, जिससे सरकारी खजाने पर बोझ बढ़े। खासकर तब, जब राज्य की आर्थिक हालत बहुत अच्छी न हो। वरना ऐसी स्थिति में सरकार को ज्यादा से ज्यादा शराब की दुकानें खोलनी पड़ेंगी।'


फ्रीबीज सरकारों को कर्जदार बना रही हैं। पिछले साल हिमाचल प्रदेश पर कर्ज का इतना संकट बढ़ गया था कि मुख्यमंत्री और मंत्रियों को अपनी दो महीने की सैलरी छोड़नी पड़ी थी। सरकारी कर्मचारियों को मिलने वाली सैलरी और पेंशन भी देरी से मिल रही थी। मार्च 2025 तक हिमाचल पर 96 हजार करोड़ का कर्ज हो जाएगा।


RBI की रिपोर्ट बताती है कि मार्च 2019 तक सभी राज्य सरकारों पर 47.86 लाख करोड़ रुपये का कर्ज था। मार्च 2024 तक ये कर्ज बढ़कर 75 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया। मार्च 2025 तक ये कर्ज और बढ़कर 83 लाख करोड़ से ज्यादा होने का अनुमान है।

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