सुप्रीम कोर्ट ने सजा-ए-मौत को लेकर एक अहम फैसला दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसले में साफ किया कि अगर फांसी की सजा मुकर्रर करने में तय प्रक्रिया का सही पालन नहीं हुआ है तो इसे संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत अदालत में चुनौती दी जा सकती है। इसके साथ ही अदालत एक दोषी की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने की याचिका पर सुनवाई करने को तैयार हो गई है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि सजा-ए-मौत के मामलों में अदालत के फैसले को अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिकाओं के जरिए फिर से खोला जा सकता है। हालांकि, ऐसा तभी होगा जब ऐसे मामलों में जरूरी गाइडलाइंस का पालन न किया गया हो।
जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने यह फैसला दिया है। यह बेंच रेप-मर्डर के मामले में फांसी की सजा पाए एक दोषी वसंत संपत दुपारे की याचिका पर सुनवाई कर रही थी।
क्या है पूरा मामला?
4 साल की बच्ची से रेप और मर्डर के मामले में वसंत संपत दुपारे को फांसी की सजा सुनाई गई थी। उसे नागपुर की एक अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। हाई कोर्ट ने भी इस फैसले को बरकरार रखा।
वसंत ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, जहां 26 नवंबर 2014 को तीन जजों की बेंच ने हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा। उसने रिव्यू पिटीशन दाखिल की थी, जो 3 मई 2017 को खारिज हो गई थी। इसके बाद 2022 में राज्यपाल और फिर 2023 में राष्ट्रपति ने उसकी दया याचिका भी खारिज कर दी थी।
वसंत की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट गोपाल शंकरनारायणन ने सुप्रीम कोर्ट में दलील दी थी कि मनोज बनाम मध्य प्रदेश सरकार के मामले में सजा-ए-मौत को लेकर जो गाइडलाइंस जारी की गई थीं, उनका पालन नहीं किया गया है। दूसरी ओर, महाराष्ट्र सरकार के एडवोकेट जनरल डॉ. बीरेंद्र सराफ ने अनुच्छेद 32 के तहत दायर इस याचिका का विरोध किया था। उन्होंने दलील दी थी कि जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने कहा था कि ट्रायल के दौरान ही मौत की सजा को कम करने की परिस्थितियों पर विचार किया जाना चाहिए।
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क्या है अनुच्छेद 32 और मनोज केस?
- अनुच्छेद 32: इसे संविधान की 'आत्मा' भी कहा जाता है। यह नागरिकों को उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में सीधे सुप्रीम कोर्ट जाने का अधिकार देता है। यह एक कानूनी सुरक्षा है। अनुच्छेद 32 के तहत कोई व्यक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा करने की मांग कर सकता है। यह याचिका तब दायर की जाती है, जब किसी व्यक्ति को लगता है कि उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है।
- मनोज बनाम एमपी सरकार: मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर फैसला दिया था। जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस. रवींद्र भट और जस्टिस बेला एम त्रिवेदी की बेंच ने अपने फैसले में कहा था कि फांसी की सजा सुनाने से पहले अदालत को दोषी का बैकग्राउंड, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, मनोवैज्ञानिक स्थिति और जेल में उसके बर्ताव जैसे कारकों पर ध्यान देना चाहिए। कोर्ट ने यह कहा था कि फांसी की सजा तभी दी जाए, जब उसके अलावा कोई और सजा देने का विकल्प न हो।
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अब सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता की बेंच ने अपने फैसले में कहा कि संविधान का अनुच्छेद 32 सजा-ए-मौत से जुड़े मामलों में केस को फिर से खोलने का अधिकार देता है, बिना यह सुनिश्चित किए कि मनोज मामले मेंदी गईं गाइडलाइंस का पालन किया गया है या नहीं।
कोर्ट ने कहा कि ऐसा इसलिए ताकि दोषी व्यक्ति मौलिक अधिकारों से वंचित न हो, जो उसे संविधान के अनुच्छेद 14 और 21 के तहत मिले हैं।
हालांकि, कोर्ट ने अनुच्छेद 32 के तहत दायर याचिका के दुरुपयोग को लेकर भी चेतावनी दी। कोर्ट ने कहा कि इसका मतलब यह नहीं है कि सजा-ए-मौत से जुड़े हर मामले को दोबारा खोला जा सकता है। कोर्ट ने साफ किया कि जिन मामलों में निपटारा हो चुका है, उन मामलों को दोबारा नहीं खोला जा सकता।
अब सुप्रीम कोर्ट ने वसंत दुपारे के केस को फिर से खोलने की इजाजत दे दी है। उन्होंने इस केस को चीफ जस्टिस बीआर गवई के पास भेजने को कहा है, ताकि इस पर सुनवाई के लिए बेंच गठित हो सके।