'द बंगाल फाइल्स' पर बवाल, आखिर क्या है गोपाल मुखर्जी की कहानी?
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• NOIDA 25 Aug 2025, (अपडेटेड 25 Aug 2025, 11:53 AM IST)
'द बंगाल फाइल्स' में गोपाल मुखर्जी को 'पाठा' कहे जाने को लेकर उनके परिवार ने आपत्ति जताई है और यह फिल्म विवादों में आ गई है।

फिल्म 'द बंगाल फाइल्स' का पोस्टर, Photo Credit: Vivek Agnihotri
'बॉलीवुड के लोग अपनी फिल्म ईद, 15 अगस्त या जन्मदिन पर रिलीज़ करते हैं। डायरेक्ट ऐक्शन को लेकर 16 अगस्त को ट्रेलर रिलीज़ करना गुनाह कैसे है? फिल्म तो सेंसर ने अप्रूव की है।' द बंगाल फाइल्स फिल्म बनाने वाले डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री ने यह एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा। फिल्म आई नहीं है लेकिन विवाद में है। विवेक अग्निहोत्री ने 'द कश्मीर फाइल्स' बनाई थी। फिर उन्होंने 'दिल्ली फाइल्स' बनानी चाही लेकिन फिर रीज़न्स बेस्ट नोन टू हिम, फिल्म का नाम बदलकर 'द बंगाल फाइल्स' कर दिया।
विवेक अग्निहोत्री की पिछली कुछ फिल्मों पर राइट और लेफ्ट की तीखी राजनीति हुई है। यही 'द बंगाल फाइल्स' के साथ भी है। विवेक अग्निहोत्री अपनी फिल्म का ट्रेलर कोलकाता में लॉन्च करना चाहते थे लेकिन पश्चिम बंगाल सरकार ने कार्यक्रम होने नहीं दिया।
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आप एक बार फिल्म का टॉपिक जान जाएंगे, फिर आपके लिए गेस करना आसान हो जाएगा कि फिल्म को लेकर बवाल क्यों हो रहा है और कौन इस बहस में किस पाले में बैठा है? द बंगाल फाइल्स के ट्रेलर को देखकर लगता है कि वह कई सारे विषय अटेंप्ट करना चाहती है। भारत का स्वतंत्रता संग्राम, गांधी की अहिंसा, जिन्ना की माइनॉरिटी पॉलिटिक्स, बंगाल की राजनीति का अतीत और संभवतः वर्तमान। फिल्म बंगाल के इतिहास के सबसे काले पन्नों में से एक को भी छूती नजर आती है- 1946 की ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स। मोहम्मद अली जिन्ना ने डायरेक्ट ऐक्शन का जो कॉल दिया था, उसका सबसे वीभत्स नतीजा कलकत्ता ने ही भुगता था, जब तकरीबन 10 हज़ार लोगों का दंगों में कत्ल किया गया और पंद्रह हज़ार से ज़्यादा ज़ख्मी हुए। कलकत्ता में हिंदुओं को टारगेट किया गया। यह खबर बिहार पहुंची तो वहां भीड़ ने मुसलमानों को निशाने पर ले लिया। एक डॉमिनो इफेक्ट शुरू हुआ, जहां एक शहर के दंगे का बदला दूसरे शहर और फिर तीसरे शहर लिया जाने लगा। आजादी तक भारत का बड़ा हिस्सा हिंदू-मुस्लिम दंगों की चपेट में आ गया था।
फिल्म इन घटनाओं को कैसे चित्रित करना चाहती है, वह फिल्म देखने पर ही बताया जा सकता है। अभी के लिए हम आपको यह बता सकते हैं कि जिन घटनाओं का ज़िक्र फिल्म में है, उनमें असल में क्या हुआ था। फिर हम आपको फिल्म को लेकर आई आपत्तियों के बारे में बताएंगे। मुख्य फोकस रहेगा गोपाल चंद्र मुखर्जी पर। क्या वह एक नायक थे, जिन्होंने निर्दोष लोगों की जान बचाने के लिए संघर्ष किया, या फिर एक ऐसे व्यक्ति जिनकी वजह से हिंसा और बढ़ गई?
बंगाल फाइल्स और कश्मीर फाइल्स में क्या कॉमन है?
बंगाल फाइल्स और उससे पहले आई कश्मीर फाइल्स में एक बात कॉमन है। वह इतिहास के स्याह पन्नों को पलटती हैं। ऐसे में एक चीज़ बहुत ज़रूरी हो जाती है- कॉन्टेक्स्ट या संदर्भ तो हम डायरेक्ट ऐक्शन या गोपाल मुखर्जी पर बात करने से पहले यह जानेंगे कि उस दौरान बंगाल और कलकत्ता में चल क्या रहा था।
साल था 1945, वर्ल्ड वॉर 2 खत्म हो गई। जंग के कुछ ही देर बाद ब्रिटेन में चुनाव हुए और लेबर पार्टी जीत गई। क्लीमेंट रिचर्ड एटली ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने। भारत ब्रिटेन से अलग हो जाएगा, यह बात अब तक तय हो गई थी लेकिन नए भारत का रूप कैसा होगा, यह तय होना बाक़ी था। लिहाजा एटली सरकार भारत में अपना एक डेलिगेशन भेजा, जिसे कैबिनेट मिशन कहा जाता है। कैबिनेट मिशन ने तमाम स्टेकहोल्डर्स से बात की। इसमें दो प्रमुख थे-
कांग्रेस: जो उस समय भारत को एक रखना चाहती थी और इसके लिए केंद्र में एक मजबूत सरकार चाहती थी। वहीं जिन्ना की मुस्लिम लीग इससे सहमत नहीं थी। जिन्ना मुसलमानों के लिए एक अलग देश, पाकिस्तान, चाहते थे।
इस समस्या को सुलझाने के लिए 16 मई 1946 को कैबिनेट मिशन ने अपनी तरफ से एक समाधान पेश किया। यही कैबिनेट मिशन प्लान कहलाया। प्लान के तहत कहा गया कि एक ही देश रहेगा, जिसे यूनियन ऑफ़ इंडिया कहा जाएगा लेकिन केंद्र सरकार के पास सारी ताक़त नहीं होगी। बस तीन शक्तियां रहेंगी-रक्षा, विदेश मामले और कम्युनिकेशन।
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बाकी सारी चीज़ों पर कानून बनाने का अधिकार सूबों की सरकारों को मिलना था। यह मुस्लिम लीग को यह गारंटी देने के लिए था कि हिन्दू-बहुमत होने के बावजूद केंद्र मुसलमानों पर हावी नहीं होगा। यह कुछ-कुछ अमेरिका जैसा फेडरल सिस्टम होता। जहां राज्यों के पास काफी अधिकार होते हैं। इसके अलावा, कैबिनेट मिशन प्लान में तीन ग्रुपिंग्स की बात कही गई थी।
ग्रुप A: हिन्दू-बहुल प्रांत (मद्रास, बॉम्बे, बिहार, उड़ीसा etc)।
ग्रुप B: उत्तर-पश्चिम के मुस्लिम-बहुल प्रांत (पंजाब, सिंध, NWFP)
ग्रुप C: उत्तर-पूर्व के मुस्लिम-बहुल प्रांत (बंगाल और असम)।
हर ग्रुप को यह अधिकार था कि वह अपने ग्रुप के लिए एक अलग संविधान बना सकते हैं। इसका मतलब था कि ग्रुप B और ग्रुप C में मुस्लिम लीग अपने मन की कर सकती थी। लीग को अलग पाकिस्तान न मिलता लेकिन वह भारत के भीतर दो इलाकों पर अपना पूरा नियंत्रण स्थापित कर सकती थी क्योंकि वह कानून बनाती और कानून बनाने वाली किताब- माने संविधान भी अपने हिसाब से तय करती। यही अधिकार ग्रुप ए में जीतने वाली पार्टी- कांग्रेस के पास भी होते लेकिन कांग्रेस तब संयुक्त भारत की वकालत करती थी, जहां किसी एक धर्म का प्रभुत्व नहीं होगा लेकिन लीग अपने लक्ष्य को लेकर स्पष्ट थी- एक ऐसा देश चाहिए, जहां इस्लाम राजधर्म हो।
इसीलिए कैबिनेट मिशन के बारे में कहा जाता है कि उसने बटवारे को टालने की बात कहते-कहते दो मिनी पाकिस्तान का रास्ता तैयार कर दिया। अब यह प्लान जब कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सामने आया तो दोनों ने शुरुआत में उसे मान लिया 6 जून को जिन्ना ने प्लान स्वीकार किया और 24 जून को कांग्रेस ने। अब इस मामले में बस एक पेच फंसा था। कांग्रेस ग्रुपिंग वाली बात को लेकर खुश नहीं थी।
क्या था कांग्रेस का डर?
क्यों? क्योंकि प्लान के अनुसार, प्रांतों को पहले अपने-अपने ग्रुप (A, B, या C) में शामिल होना ही पड़ेगा। ग्रुप का संविधान बन जाने के बाद, अगर वे चाहें तो ग्रुप से बाहर निकल सकते हैं। कांग्रेस चाहती थी कि प्रांतों को शुरू में ही यह चुनने का अधिकार मिले कि वे किसी ग्रुप में शामिल होना चाहते हैं या नहीं। यह 'पहले शामिल हो, बाद में छोड़ो' वाली शर्त कांग्रेस को एक धोखे की तरह लगी। उन्हें डर था कि एक बार कोई प्रांत ग्रुप में चला गया तो मुस्लिम लीग उन्हें कभी निकलने ही नहीं देंगी।
इस दिक्कत का बड़ा उदाहरण थे, असम और NWFP। असम को ग्रुप C में डाला गया था , जहां उस वक्त कांग्रेस की सरकार थी और वहां की आबादी में हिन्दू बहुमत में थे। दूसरी तरफ नॉर्थ-वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (आज का खैबर-पख्तूनख्वा) एक मुस्लिम-बहुल प्रांत था लेकिन वहां कांग्रेस की सरकार थी। यहां के सबसे बड़े नेता खान अब्दुल गफ्फार खान जो भारत के बंटवारे के कट्टर विरोधी थे। NWFP को ग्रुप B में डाला गया, यह भी मुस्लिम बहुल ग्रुपिंग थी।
इस पेच पर कांग्रेस खुश तो नहीं थी लेकिन उन्होंने कैबिनेट मिशन प्लान सवीकार कर लिया। यह वह मानकर कि जब संविधान सभा बनेगी तो अपने बहुमत से इस शर्त को बदल देंगे। अब यह कांग्रेस मानकर चल रही थी लेकिन जिन्ना इस पर बिल्कुल सहमत नहीं थे। जिन्ना को लग रहा था ग्रुप बी और ग्रुप सी आगे चलकर स्वायत्तता भी घोषित कर सकते हैं। इस तरह उन्हें बिना पंजाब और बंगाल का बंटवारा किए एक बड़ा पाकिस्तान मिल जाएगा। दोनों पक्ष एक-दूसरे पर शक कर रहे थे। वे प्लान को अपने-अपने नजरिए से देख रहे थे और मान रहे थे कि बाद में वे इसे अपने हिसाब से मोड़ लेंगे। तनाव फुल था लेकिन सबने चुप्पी साधी हुई थी। ऐसे माहौल में बम फूटा एक प्रेस कॉन्फ्रेंस से। 10 जुलाई 1946। कांग्रेस के नए अध्यक्ष, जवाहरलाल नेहरू ने बंबई में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की। पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए उन्होंने कैबिनेट मिशन प्लान के बारे में कह दिया, ‘हम संविधान सभा में जाने के लिए तो सहमत हुए हैं लेकिन वहां जाकर हम क्या करेंगे, यह तय करने के लिए हम पूरी तरह से आजाद हैं। हम किसी भी चीज़ से बंधे हुए नहीं हैं।’
जिन्ना को नेहरू के बयान में अपना सबसे बड़ा डर सच होता दिखा। उन्हें लगा कि कांग्रेस ने प्लान सिर्फ संविधान सभा में घुसने के लिए स्वीकार किया है। एक बार अंदर पहुंचते ही वह अपने भारी बहुमत का इस्तेमाल करके ग्रुपिंग की शर्त को खत्म कर देंगे। इससे मुसलमानों को जो थोड़ी-बहुत ऑटोनॉमी मिली है, वह भी छिन जाएगी और वे पूरी तरह से हिन्दू-बहुल सरकार के अधीन हो जाएंगे।
जिन्ना ने तुरंत मुस्लिम लीग की मीटिंग बुलाई और 29 जुलाई 1946 को दो बड़े फैसले लिए: मुस्लिम लीग ने कैबिनेट मिशन प्लान से अपना समर्थन वापस ले लिया। उन्होंने ऐलान किया कि अब बातचीत का रास्ता बंद हो गया है। पाकिस्तान हासिल करने के लिए अब सीधी कार्रवाई की जाएगी। उन्होंने 16 अगस्त 1946 को 'डायरेक्ट एक्शन डे' के रूप में मनाने का ऐलान किया। जब पत्रकारों ने पूछा कि 'डायरेक्ट ऐक्शन' का मतलब क्या होगा तो जिन्ना ने कहा, ‘जैसे कांग्रेस अंग्रेजों पर दबाव बनाने के लिए विरोध प्रदर्शन का पिस्तौल इस्तेमाल करती है, हमने भी एक पिस्तौल बना ली है और हम उसका इस्तेमाल करने की स्थिति में हैं। यहां से हम सीधे डायरेक्ट एक्शन डे पर पहुंचते हैं। क्या हुआ उस रोज?
‘पाकिस्तान की मांग से कम कुछ नहीं’
हालांकि, नाम 'डायरेक्ट एक्शन' था लेकिन वास्तव में इसका मतलब ब्रिटिश सरकार के खिलाफ कोई आंदोलन नहीं था, बल्कि कांग्रेस के खिलाफ असहमति जताना था। लीग का मानना था कि बार-बार कोशिशों के बावजूद मुसलमानों की समस्याओं का शांतिपूर्ण समाधान नहीं हुआ। कांग्रेस 'जातीय हिंदू राज' कायम करना चाहती है और इसमें ब्रिटिश भी शामिल हैं। ऐसे में मुस्लिम लीग का मानना था कि मुसलमान अब पाकिस्तान की मांग से कम पर राज़ी नहीं होंगे और अपनी इज़्ज़त, हक़ और पाकिस्तान हासिल करने के लिए डायरेक्ट ऐक्शन करना होगा।
दिनेश चंद्र सिन्हा और अशोक दासगुप्ता की किताब The Great Calcutta Killings and Noakhali Genocide के मुताबिक, बंगाल में पर्चे बांटे गए। इन पर्चों में हिंदुओं की टार्गेटिंग के लिए इंस्ट्रक्शन थे
1.भारत के सभी मुसलमानों को पाकिस्तान के लिए मरने को तैयार रहना चाहिए।
2. पाकिस्तान बनने के बाद पूरे भारत पर कब्ज़ा करना चाहिए।
3. भारत के सभी लोगों को इस्लाम धर्म अपनाने के लिए मजबूर करना चाहिए।
4. सभी मुस्लिम राज्यों को मिलकर पश्चिमी ताक़तों (अंग्रेज़-अमेरिकी) के साथ पूरी दुनिया पर राज करना चाहिए। एक मुसलमान की बराबरी पांच हिंदुओं से की गई यानी 01 मुसलमान = 05 हिंदू।
5. हिंदुओं की फैक्ट्रियों और दुकानों को जलाना, तोड़ना-फोड़ना और लूटना। लूट का सामान मुस्लिम लीग दफ्तर को देना।
6. मुस्लिम लीग के सदस्य हमेशा हथियार साथ रखें।
7. जो मुसलमान मुस्लिम लीग में शामिल न हों, उन्हें गुप्त तरीक़े से खत्म कर दिया जाए।
8. हिंदुओं की हत्या धीरे-धीरे की जाए और उनकी आबादी घटाई जाए।
लूट, हत्या, आगज़नी और बलात्कार
1946-47 में दंगा तो पूरे देश में भड़का था लेकिन बंगाल में जो हुआ, उसमें मुस्लिम लीग की भूमिका बहुत क्लियर थी। बॉम्बे में 'डायरेक्ट ऐक्शन' का प्रस्ताव पास होने से पहले ही बंगाल के मुस्लिम लीग नेता तैयारी कर रहे थे। ऐसे ही एक नेता थे अबुल हाशिम। उन्होंने ऐलान किया- 'जहां न्याय और समानता असफल हो जाएं, वहां चमकती तलवार से फैसला होगा।'
एच. एस. सोहरावर्दी जो उस समय बंगाल के प्रधानमंत्री थे। उन्होंने दिल्ली में पत्रकारों से कहा था, 'अगर डायरेक्ट एक्शन डे जैसा कुछ हुआ तो कलकत्ता में दंगे काबू से बाहर हो जाएंगे।'
4 अगस्त को कलकत्ता में एक बड़ी मीटिंग हुई। इसमें यह योजना बनाई गई कि आने वाले डायरेक्ट एक्शन डे को किस तरह से अंजाम दिया जाएगा पर 16 अगस्त की तारीख ही क्यों चुनी गई। अबुल हाशिम ने इसका भी कारण बताया था। अबुल के मुताबिक, जैसे रमज़ान के महीने में पहले मक्का को "काफ़िरों" से जीतकर इस्लाम के लिए लिया गया था, वैसे ही अब पाकिस्तान बनाने के लिए भी एक जिहाद किया जाएगा। ऑल इंडिया मुस्लिम लीग काउंसिल ने बॉम्बे में तय किया कि 16 अगस्त 1946 (18वां रमज़ान 1365 हिजरी) को पूरे भारत में हड़ताल यानी डायरेक्ट ऐक्शन डे मनाया जाएगा। नारे कुछ यूं थे- 'लड़कर लेंगें पाकिस्तान, मरकर लेंगे पाकिस्तान'
16 अगस्त की सुबह क्या हुआ?
इस सब प्लानिंग के बाद आई 16 अगस्त की सुबह। 16 अगस्त 1946 की सुबह कोलकाता के बेलियाघाटा में दो बिहारी दूधवालों की हत्या से हिंसा शुरू हुई। 26 अगस्त 1946 को Times Magazine में इस हिंसा पर एक आर्टिकल छपा- इंडिया: डायरेक्ट एक्शन। इसके मुताबिक, 'दोपहर होते-होते ट्रकों में मुसलमान आने लगे। वे बंदूकों, चाकुओं और लाठियों से हिंदुओं पर टूट पड़े, दुकानों को लूटा, अखबारों के दफ्तरों पर पथराव किया और कलकत्ता के ब्रिटिश व्यापारिक जिले में आग लगा दी गई। कलकत्ता की तपती सड़कों पर खून की धाराएं बहने लगीं।' एक पुलिस अधिकारी ने कहा, 'हम बस इतना कर सकते थे कि शवों को सड़क के एक तरफ़ रख दें। गिद्ध तेज़ी से सड़ती लाशों को नोच रहे थे। उनमें कई औरतों और बच्चों के शव भी थे।'
डीएन पाणिग्रही, जिन्होंने India’s Partition: The Story of Imperialism in Retreat लिखी उन्होंने अपनी किताब में बताया कि 16 अगस्त 1946 को कोलकाता में हुए भयानक नरसंहार के दौरान पुलिस और सेना ने कोई कार्रवाई नहीं की। एक विदेशी पत्रकार से बातचीत के आधार पर उन्होंने पुष्टि की कि मुस्लिम भीड़ ने 48 घंटे तक हत्याएं और बलात्कार किए। सेना को केवल तब बुलाया गया, जब अंग्रेजों पर हमले का डर हुआ।
निशाद हजारी, जो Midnight Furies: The Deadly Legacy of Indian Partition के लेखक हैं। उनके मुताबिक, इस नरसंहार में मरने वालों की सटीक संख्या पता ही नहीं है, क्योंकि कई शव हुगली नदी में बह गए या आग में जल गए। अनुमान है कि लगभग 5,000 लोग मारे गए, और 10,000 से 15,000 लोग घायल हुए, जिनके हड्डियां टूटीं, अंग काटे गए, या शरीर जल गए।
2 बिहारी दूधवालों की हत्या, गोपाल मुखर्जी का विरोध
यह सब अकेले कलकत्ता में नहीं हुआ था। नोआखाली दंगों के चश्मदीद रवींद्रनाथ दत्ता का एक वीडियो सोशल मीडिया पर है। इसमें वह बताते हैं कि दंगों के वक्त उन्होंने एक कसाईखाने में नग्न और कटी हुई हिंदू लड़कियों के शव लटके देखे थे। यह बात सही है कि बंगाल में भड़के दंगों के दौरान अगर मुस्लिम भीड़ ने हिंदुओं को टार्गेट किया, तो हिंदू भीड़ ने मुस्लिमों को भी टार्गेट किया लेकिन दंगे में संख्या का महत्व होता है तो बंगाल के कई इलाकों में हिंदुओं का भारी नुकसान हुआ। यह इसलिए भी हो रहा था, क्योंकि प्रशासन ने दंगाइयों को खुली छूट दे रखी थी। पुलिस मानो गायब थी।
यहीं से कहानी में एंट्री होती है एक पहलवान की। मोटे काले फ्रेम वाला चश्मा, लंबी सफेद दाढ़ी और सिर पर सलेटी बालों की छोटी-सी चोटी रखने वाले गोपाल चंद्र मुखर्जी। गोपाल क्रांतिकारी अनुकूलचंद्र मुखोपाध्याय के भतीजे थे। उनके साथ जुगल चंद्र घोष, बंसता और विजय सिंह नाहर ने मिलकर भारत जातीय बाहिनी बनाई। इस संगठन ने हिंदुओं को पिस्तौल, लाठी, भाले, चाकू, तलवार और एसिड बम जैसे हथियार दिए।
इंडियन एक्सप्रेस में छपे एक लेख के मुताबिक, गोपाल मुखर्जी को डर था कि कहीं कोलकाता पाकिस्तान का हिस्सा न बन जाए। इसलिए, उन्होंने अपने लोगों को सख्त आदेश दिया कि हमले करने वालों के खिलाफ कड़ा जवाब दिया जाए। उन्होंने कहा, 'अगर उन्होंने एक की हत्या की, तो तुम उनके दस लोगों को मारो।' ब्रिटिश पत्रकार एंड्र्यू व्हाइटहेड ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा, 'कोलकाता आग की लपटों में था और गोपाल पाठा ने जैसे शहर को और आग में झोंक दिया।' गोपाल मुखर्जी के मुताबिक, यह उनका कर्तव्य था कि वह संकट में फंसे लोगों की मदद करें। 1997 में बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में गोपाल से पूछा गया कि क्या उनके लोगों ने किसी अकेली मुस्लिम महिला के साथ गलत बर्ताव किया। इसका जवाब गोपाल मुखर्जी ने दिया। उन्होंने कहा, 'मेरे आदेश थे कि किसी भी महिला, चाहे वह मुस्लिम हो, के साथ दुर्व्यवहार या उसकी हत्या नहीं करनी है। हमारे इतिहास में रावण को भी सीता के अपहरण के लिए नष्ट किया गया था। इसलिए, मैंने दो सख्त आदेश दिए थे: लूटपाट नहीं करनी और महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार नहीं करना।'
गोपाल मुखर्जी ने कई दुश्मन बनाए। मुस्लिम लीग के मुताबिक, 'गोपाल वह था, जो मुस्लिमों को पकड़कर मार देता था।' अजमीरी जी.जी. जो मुस्लिम लीग के छात्र विंग और मुस्लिम नेशनल गार्ड के नेता थे। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस को गोपाल मुखर्जी के बारे में एक किस्सा बताया था। अजमीरी ने उस दिन की घटना बताई, 'किसी ने बताया कि गोपाल पाठा ने चार मुस्लिमों को पकड़कर मार डाला। हम तुरंत वहां पहुंचे। गोपाल ने मुझे देखकर कहा- यह फिर आ गया। मैंने कहा- हां, तुम मुस्लिमों को क्यों मार रहे हो? उसने जवाब दिया, तुम जाओ, अब हम किसी को नहीं मारेंगे।'
गोपाल ने दावा किया कि उनके लोग हमेशा चुनिंदा लोगों को निशाना बनाते थे। ये दंगे करीब एक हफ्ते तक चले। अपने और अपनी सरकार को बचाने के लिए, सुहरावर्दी ने जी.जी. अजमीरी और शेख मुजीबुर रहमान जो बांग्लादेश के संस्थापक और मुस्लिम लीग के सदस्य थे। उन्होंने साथ मिलकर गोपाल मुखर्जी से हिंसा रोकने की अपील की। गोपाल ने शर्त रखी कि मुस्लिम लीग पहले अपने सदस्यों से हथियार डलवाए और हिंदुओं की हत्या बंद करने का वादा करे। आखिरकार, 21 अगस्त को बंगाल वायसराय के सीधे शासन के अधीन आ गया और शहर में सेना तैनात कर दी गई। अपनी कुर्सी बचाने के लिए सुहरावर्दी गोपाल की शर्तों पर राजी हो गए लेकिन उसी दिन, ब्रिटिश वायसराय लॉर्ड आर्किबाल्ड वावेल ने सुहरावर्दी और उनकी मुस्लिम लीग सरकार को बर्खास्त कर दिया।
कलकत्ता दंगों के दौरान कहां थे गांधी?
दंगों के एक साल बाद, महात्मा गांधी कोलकाता आए और हथियार सौंपने की अपील की। लोग अपनी तलवारें, खंजर और देसी बंदूकें लेकर आए और गांधी के चरणों में रख दीं। माउंटबेटन ने इसे कोलकाता का चमत्कार कहा लेकिन गोपाल मुखर्जी नहीं झुके। गोपाल ने तब कहा-, 'गांधीजी ने मुझे तीन बार बुलाया। मैं नहीं गया। तीसरी बार, कुछ कांग्रेस नेताओं ने कहा कि मुझे कुछ हथियार जमा करने चाहिए। मैं गया और देखा कि लोग बेकार पिस्तौल जैसी चीजें जमा कर रहे थे। गांधीजी के सचिव ने कहा- गोपाल, तुम अपने हथियार क्यों नहीं सौंपते? मैंने जवाब दिया- इन हथियारों से मैंने अपने इलाके की महिलाओं और लोगों को बचाया। मैं इन्हें नहीं सौंपूंगा। ग्रेट कोलकाता किलिंग्स के दौरान गांधीजी कहां थे? मैंने कहा, अगर मैंने कील से भी किसी को मारा, तो वह कील भी नहीं सौंपूंगा।'
क्या गोपाल मुखर्जी मुस्लिम-विरोधी थे?
गोपाल मुखर्जी की 1946 के दंगों में भूमिका को लेकर विवाद रहा है। कुछ लोग उन्हें 'हिंदुओं के रक्षक' के रूप में देखते हैं, लेकिन उनका परिवार इस धारणा को खारिज करता है कि वह मुस्लिम-विरोधी थे। उनके पोते शांतनु मुखर्जी की मानें तो गोपाल ने दंगों के दौरान अपने पड़ोस की कई मुस्लिम परिवारों को बचाया। द टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में उन्होंने बताया कि उनके दादाजी ने अपने घर की छत पर मुस्लिमों को शरण दी थी। उनकी बहन ने बताया कि उन्होंने एक रिक्शावाले रफीक चाचा और उनके परिवार को भी बचाया था। स्थानीय मुस्लिम आज भी उनके परिवार का सम्मान करते हैं।
हालांकि, उनके परिवार को एक ही डर है कि आने वाली फिल्म द बंगाल फाइल्स में गोपाल को मुस्लिम-विरोधी और हिंसक के रूप में गलत तरीके से दिखाया जा रहा है। शांतनु ने पुलिस में शिकायत दर्ज की है, जिसमें कहा गया है कि यह फिल्म न केवल उनके दादाजी के शब्दों और कामों को गलत दिखाती है, बल्कि उनकी विचारधारा और ऐतिहासिक संघर्ष को भी बदनाम करती है। गोपाल मुखर्जी ने खुद भी स्पष्ट किया था कि उनका उद्देश्य कोलकाता को बचाना था, न कि बेवजह खून-खराबा करना।
द बंगाल फाइल्स में गोपाल चंद्र मुखर्जी के किरदार को लेकर उनके पोते शांतनु मुखर्जी ने FIR दर्ज करवाई है। एक इंटरव्यू में शांतनु मुखर्जी ने कहा, 'मेरे दादा को कसाई और पाठा कहा गया। पाठा यानी बकरा। यह आपत्तिजनक है। गोपाल पाठा एक पहलवान थे, आजादी की लड़ाई लड़े थे। उनकी सोच नेताजी सुभाष चंद्र बोस से मिलती-जुलती थी और उन्होंने कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों के साथ मिलकर काम किया। विवेक अग्निहोत्री को इस बारे में ज्यादा रिसर्च करनी चाहिए थी। गलत जानकारी कहां से आई? उन्होंने हमसे बात तक नहीं की। गुस्से में हमने विवेक अग्निहोत्री को कानूनी नोटिस भेजा है और एक FIR भी दर्ज कराई है।'
गोपाल चंद्र का किरदार निभाने वाले एक्टर शाश्वत चटर्जी भी सामने आए हैं। उन्होंने कहा कि फिल्म का टाइटल बदले जाने पर की भी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। ‘द वॉल' को दिए एक इंटरव्यू में शाश्वत ने कहा- 'मैं कोई इतिहासकार नहीं हूं। मैंने इस फिल्म में सिर्फ एक ऐक्टर के तौर पर काम किया है। जिन्हें लगता है कि बंगाल का अपमान किया जा रहा है, वे जानकारी के साथ अदालत जा सकते हैं। सिर्फ शोर मचाने का कोई मतलब नहीं है। मुझे बस किरदार आकर्षक लगा और मैंने पूरी कहानी जाने बिना ही फिल्म साइन कर ली। यह एक खलनायक का किरदार है और बहुत कम लोगों को ऐसे किरदार निभाने को मिलते हैं। अगर मैं हिटलर का रोल निभाऊं, तो इसका मतलब यह नहीं कि मैं नाज़ी का सपोर्टर हूं।'
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