क्या मीर जाफर ने अकेले गद्दारी की थी? 'एक रात की जंग' की पूरी कहानी
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• NEW DELHI 21 May 2025, (अपडेटेड 22 May 2025, 6:11 AM IST)
18वीं सदी में बंगाल का नवाब बना मीर जाफर फिर चर्चा में है। बीजेपी ने कांग्रेस सांसद राहुल गांधी को आज का 'मीर जाफर' बताया है। मगर मीर जाफर था कौन? और क्यों उसकी तुलना की जाती है? जानते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)
साल 1757 की 23 जून की रात को एक ऐसी जंग लड़ी गई, जिसने भारत के इतिहास को बदलकर रख दिया था। यह जंग थी सत्ता की। यह जंग थी कब्जे की। और यह जंग थी अपनों की वफादारी की। यह जंग पश्चिम बंगाल के प्लासी की जमीन पर लड़ी गई। इतिहास में इसे 'प्लासी का युद्ध' कहा जाता है।
अगर यह जंग न हुई होती तो भारत पर अंग्रेजों की शायद मजबूत पकड़ नहीं बन पाती। अगर यह जंग नहीं हुई होती तो शायद अंग्रेज 'फूट डालो और राज करो' की नीति का फायदा नहीं उठा पाते। अगर यह जंग नहीं हुई होती तो शायद कुछ ही सालों में अंग्रेज वापस लौट गए होते। और अगर यह जंग न हुई होती तो शायद मीर जाफर की 'गद्दारी' भी सामने नहीं आ पाती।
वही मीर जाफर, जो अब इतिहास का हिस्सा है लेकिन राजनीति में आए दिन अक्सर याद किया जाता है। आज एक बार फिर मीर जाफर को याद किया जा रहा है। याद कर रही है बीजेपी और निशाने पर हैं कांग्रेस सांसद राहुल गांधी।
दरअसल, बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय ने X पर एक पोस्टर शेयर किया है। इस पोस्टर में राहुल गांधी को पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की पीठ पर चढ़ा हुआ दिखाया गया है। शहबाज बोल रहे हैं- 'जोर से पूछो।' तब राहुल झांकते हुए पूछ रहे हैं- 'हमने कितने एयरक्राफ्ट खोए हैं?' इस पोस्टर को शेयर करते हुए अमित मालवीय ने राहुल गांधी को 'आज के समय का मीर जाफर' बताया है।
अब जब मीर जाफर का राजनीति में इतना 'कद' बढ़ा ही दिया गया है तो यह भी जानना जरूरी है कि ऐसा क्यों है? असल में मीर जाफर ने बंगाल के नवाब सिराज उद-दौला के साथ 'गद्दारी' की थी। मीर जाफर खुद बंगाल का नवाब बनना चाहता था, इसलिए उसने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया था। अंग्रेजों ने उसे बंगाल का नवाब तो बना दिया लेकिन इतिहास में उसका नाम 'गद्दार' के रूप में भी दर्ज करवा दिया।
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लेकिन मीर जाफर अकेला नहीं था
अंग्रेज जब भारत आए तो उन्होंने ईस्ट इंडिया नाम से एक कंपनी बनाई। यह बनी तो कारोबार के मकसद से थी लेकिन बाद में इसने सत्ता हथियाना शुरू कर दिया। 18वीं सदी की शुरुआत में अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगलों का सामना करना पड़ा। चुनौती हर जगह ही थी लेकिन बंगाल के नवाब कुछ ज्यादा ही कठोर थे।
1717 में मुर्शिद कुली खान बंगाल के नवाब बने। उन्होंने मुर्शिदाबाद को अपनी राजधानी बनाया। उनकी मौत के बाद 1740 में अली वर्दी खान नवाब बने। मुगलिया सल्तनत में बंगाल सबसे रईस रियासत हुआ करता था। अली वर्दी खान का ही सेनापति था- मीर जाफर। उनके लिए कई जंग लड़ चुका था।
ब्रिटिश लेखक विलियम डैलरिम्पल ने अपनी किताब 'The Anarchy: The Relentless Rise of the East India Company' में ईस्ट इंडिया कंपनी के विस्तार, प्लासी का युद्ध और मीर जाफर की गद्दारी के बारे में विस्तार से बताया गया है। डैलरिम्पल लिखते हैं, 'एक बार अली वर्दी खान ने मीर जाफर से कहा- 'अंग्रेज लोग मधुमक्खियों के छत्ते की तरह हैं। उसका शहद तुमको मीठा लग सकता है लेकिन तुम उन्हें छेड़ोगे तो वे तुम्हें डंक जरूर मारेंगे।' अली वर्दी खान ने अपने सेनापतियों को अंग्रेजों से दुश्मनी न करने की सलाह दी थी।'
1756 में अली वर्दी खान की मौत के बाद सिराज उद-दौला नवाब बने। हालांकि, सिराज उद-दौला को नवाब के तौर पर नापसंद करने वालों में सिर्फ मीर जाफर अकेला नहीं था। इस फेहरिस्त में स्वरूपचंद भी था, जिसे 'जगत सेठ' कहा जाता था। जगत सेठ उसे इसलिए कहते थे, क्योंकि वह बड़ा कारोबारी था और उस वक्त सबसे रईस भी। खैर, मीर जाफर की नाराजगी इसलिए थी, क्योंकि सिराज उद-दौला ने उसकी जगह एक हिंदू राजा मानिकचंद को गवर्नर बना दिया था। वहीं, जगत सेठ इसलिए नाराज था, क्योंकि सिराज उद-दौला ने सत्ता में आते ही कई तरह की आर्थिक पाबंदियां लगा दी थीं, जिससे उसका साम्राज्य और दौलत खतरे में पड़ गई थीं।
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जगत सेठ और मीर जाफर की वह साजिश
विलियम डैलरिम्पल अपनी किताब में लिखते हैं, 'शुरुआत में अली वर्दी खान की बेटी घसीटी बेगम को सत्ता में बैठाने की कोशिश की गई लेकिन यह योजना जमीन पर नहीं उतर पाई। इसके बाद सिराज उद-दौला के चचेरे भाई शौकत जंग का समर्थन किया लेकिन वह हमेशा नशे में धुत रहता था। अपने भाई सिराज के साथ जंग के दिन भी शौकत अफीम के नशे में चूर था और जब वह जंग के मैदान में उतरा तो सिर भी नहीं उठा पा रहा था। आखिरकार एक तोप का गोला आया और उसकी मौत हो गई। इसके बाद तीसरा रास्ता चुना गया और वह था अंग्रेजों से बात करने का।'
वह किताब में लिखते हैं, 'मुर्शिदाबाद के दक्षिणी छोर में बनी ईस्ट इंडिया कंपनी की फैक्ट्री में जिस तरह की हलचल हो रही थी, उससे सिराज उद-दौला को तख्तापलट का संकेत मिला। इसके लिए सिराज ने अपने एजेंट ख्वाजा अरातून को जांच के लिए भेजा। ख्वाजा ने अपनी जांच के बाद बताया कि मीर जाफर कंपनी को 2.5 करोड़ रुपये की बड़ी रकम देने को तैयार है, बशर्ते उनकी सेना नवाब को हटाने में मदद करे। मीर जाफर न तो पढ़ा-लिखा था और न ही उसे राजनीति समझ आती थी और इसकी सारी साजिश जगत सेठ रच रहा है।'
यह वह वक्त था जब सिराज उद-दौला और अंग्रेजों के बीच बहुत तनातनी चल रही थी। सिराज उद-दौला ने अंग्रेजों को कई सारी रियायतें देने से इनकार कर दिया था। इससे ईस्ट इंडिया कंपनी के सेनापति रॉबर्ट क्लाइव और सिराज उद-दौला एक-दूसरे की जान लेने पर उतारु हो गए थे। रॉबर्ट क्लाइव ने कलकत्ता पर चढ़ाई करने का फैसला लिया। जगत सेठ ने इसका फायदा उठाया। जगत सेठ ने इसके लिए कसीमबाजार में अंग्रेजों की फैक्ट्री में काम करने वाले एक अफसर विलियम वॉट्स से बात की और उससे कहा कि अगर कंपनी की सेना सिराज उद-दौला की जगह मीर जाफर को नवाब बनाती है तो उन्हें खूब सारा पैसा दिया जाएगा। विलियम वॉट्स ने जगत सेठ का यह प्रस्ताव रॉबर्ट क्लाइव के सामने रखा।
इस बीच कंपनी के सीनियर अफसरों की सीक्रेट कमेटी की ख्वाजा अरातून के जरिए सिराज उद-दौला से भी बातचीत चल रही थी। इस बीच मीर जाफर और जगत सेठ ने रकम को बढ़ाकर 2.8 करोड़ कर दिया। साथ ही वादा किया कि अगर कंपनी ने मदद की तो सैन्य खर्च के लिए हर महीने 1.10 लाख रुपये भी दिए जाएंगे। बदले में कंपनी को जमींदारी और ड्यूटी-फ्री ट्रेड करने का अधिकार देना होगा।
डैलरिम्पल लिखते हैं, '4 जून को यह सौदा पक्का हुआ। इसके बाद कुछ अंग्रेज अफसर मीर जाफर के घर गए और इस सौदे पर उसके और उसके बेटे मीरान के दस्तखत लिए। दोनों से कुरान पर हाथ रखकर शपथ दिलवाई गई। इसके बाद विलियम वॉट्स और फैक्ट्री में काम करने वाले कुछ अफसर शिकार के बहान चंद्रनगर से निकल गए।'
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और फिर शुरू हुई प्लासी की लड़ाई
13 जून 1757 को सिराज उद-दौला ने कलकत्ता पर हमला कर दिया। रॉबर्ट क्लाइव ने सिराज को चेतावनी दी लेकिन वह नहीं माना तो उन्होंने 800 अंग्रेज सैनिकों, 22सौ भारतीय सैनिकों और 8 हाथियों के साथ प्लासी की तरफ चढ़ाई शुरू की।
डैलरिम्पल अपनी किताब में बताते हैं कि प्लासी के जंग के मैदान में पहुंचने से पहले कई दिन तक रॉबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को चिट्ठियां लिखीं लेकिन उसका कोई जवाब नहीं आया। इसने क्लाइव की बेचैनी बढ़ा दी। अंग्रेजों की सेना जब प्लासी से सिर्फ एक दिन की दूरी पर थी तो क्लाइव ने 21 जून को जंग को लेकर वॉर काउंसिल की बैठक बुलाई। इस बैठक में पुरजोर तरीके से जंग छेड़ने पर सहमति बनी। क्लाइव इसलिए घबरा रहा था क्योंकि उसके पास छोटी सेना थी। दूसरी तरफ प्लासी में सिराज उद-दौला के पास 50 हजार से ज्यादा सैनिक मौजूद थे। आखिरकार मीर जाफर की एक चिट्ठी आई, जिसमें उसने लिखा, 'जब आप वहां होंगे, तब मैं आपके पास पहुंच जाउंगा।' इस पर क्लाइव ने जवाब दिया, 'मैं तुम्हारे लिए सबकुछ दांव पर लगाने को तैयार हूं।'
22 जून की सुबह क्लाइव की सेना प्लासी पहुंच गई थी। उनके पहुंचते ही सिराज उद-दौला की सेना ने हमला कर दिया। तोप गोलों की बौछार शुरू हो गई। 30 सैनिकों की जान जाने के बाद क्लाइव ने अपने सैनिकों को प्लासी में बने आम के बागानों में छिपने को कहा। उन्होंने जवाबी हमला करने के लिए रात का इंतजार किया।
दोपहर तक तेज बारिश शुरू हो गई। अंग्रेजों ने अपने हथियारों और तोपों को तिरपालों के नीचे छिपा लिया। मगर सिराज की सेना ऐसा नहीं कर पाई। इससे उनके हथियार खराब हो गए और बारूद गीला हो गया।
डैलरिम्पल लिखते हैं, 'सिराज की सेना की बंदूकें शांत हो गई थीं। उन्हें गलतफहमी थी कि बारिश ने अंग्रेजों की बंदूकें और हथियार भी खराब कर दिए होंगे। तभी सिराज के सेनापति मीर मदान ने 5 हजार सैनिकों को दाईं तरफ से आगे बढ़ने का आदेश दिया। अंग्रेजों की सेना ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाईं। तोपों से गोले दागे। हजारों सैनिक मारे गए। तोप का एक गोला मीर मदान के पेट पर आकर लगा और उसकी मौत हो गई।'
वह आगे लिखते हैं, 'बाईं तरफ से सिराज की सेना हुगली के तट पर जाने लगी और लड़ाई छोड़ दी। पता चला कि यह मीर जाफर था, जिसने अपनी सेना को लौटने का आदेश दिया। देखा-देखी सारी सेनाएं वापस पीछे हटने लगीं। जल्द ही वहां भगदड़ मच गई। सिराज उद-दौला खुद सुरंग के रास्ते मुर्शिदाबाद की तरफ भागे। अंग्रेज जीत गए थे। रॉबर्ट क्लाइव ने अपनी रिपोर्ट में लिखा, 'हमने दुश्मनों का पीछा 6 मील तक किया। दुश्मन अपने सारे हथियार छोड़कर भाग गया।' 24 जून की सुबह क्लाइव ने मीर जाफर को लिखा, 'तुम्हारी जीत के लिए तुम्हें मुबारकबाद। यह तुम्हारी जीत है, मेरी नहीं।'
अगले दिन मीर जाफर अंग्रेजों के कैंप में आया। क्लाइव समझ गया था कि मीर जाफर को 'कठपुतली' बनाकर राज किया जा सकता है। इसलिए उसने उसे मुर्शिदाबाद जाने को कहा। मुर्शिदाबाद तक पहुंचने में मीर जाफर को तीन दिन लग गए, क्योंकि सड़कें जली हुई तोपों, टूटी गाड़ियों और सैनिकों, हाथी और घोड़ों की लाशों से भर गई थी।
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सिराज उद-दौला की बेरहमी से हत्या
प्लासी की लड़ाई खत्म हो गई थी। एक तरफ क्लाइव इसलिए बेचैन था, क्योंकि उसे अभी तक वादे की रकम नहीं मिली थी। दूसरी तरफ, जगत सेठ ने मीर जाफर के बेटे मीरान को सिराज उद-दौला को ढूंढकर लाने को कहा।
उस दौर के एक फारसी इतिहासकार गुलाम हुसैन खान अपनी रचना 'सियर-उल-मुताख्खिरीन' में लिखते हैं, 'प्लासी की लड़ाई में हार के बाद सिराज उद-दौला बिल्कुल अकेला पड़ गया था। उसके साथ उसकी पत्नी लुत्फ-उन-निसा और बेटी भी थी। वह कुछ हाथियों और कुछ सोना-जवाहरात लेकर महल से भाग निकला था। कुछ दिन का सफर करने के बाद वह बागवनगोला पहुंचा और वहां नाव पर सवार हो गया। कई दिनों से उन्होंने कुछ खाया नहीं था तो रास्ते में सिराज उद-दौला एक जगह रुका। वह 1757 की 2 जुलाई थी। यहां उसे एक फकीर मिला। फकीर ने सिराज के आने पर खुश होने का दिखावा। उस फकीर ने सिराज की खबर उसके दुश्मनों को दे दी। थोड़ी देर में मीर जाफर के दामाद मीर कासिम ने सिराज को घेर लिया।'
गुलाम हुसैन लिखते हैं, 'सिराज को कैद कर राजधानी लाया गया। महमेदी बेग नाम के कसाई को उसकी हत्या का आदेश दिया गया। सिराज ने जान बख्शने की अपील की लेकिन किसी ने कुछ नहीं सुना। उस कसाई ने बेरहमी से उस पर तलवार से कई वार किए। उस कसाई ने इतनी तलवारें चलाईं कि उसके शरीर से मांस लटकने लगा था। हत्या करने के बाद सिराज की क्षत विक्षत लाश को हाथी की पीठ पर बांधकर पूरे शहर में घुमाया गया।'
सिराज उद-दौला की जब मौत हुई, तब उसकी उम्र मात्र 25 साल थी। कुछ समय बाद मीरान ने अली वर्दी खान के घर की सभी औरतों को मार डाला। गुलाम हुसैन लिखते हैं, 'करीब 70 बेगुनाह बेगमों को हुगली की एक सुनसान जगह ले जाया गया और उनकी नाव को डुबा दिया गया। कई महिलाओं को जहर देकर मार दिया। बाद में सभी की लाशों को एक साथ दफन कर दिया गया।'
सिराज की हत्या के बाद 7 जुलाई के दिन मीर जाफर ने वादे के मुताबिक तय रकम क्लाइव को दे दी।
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'कठपुतली नवाब'
अब बंगाल की सत्ता मीर जाफर के हाथ में थी। जगत सेठ भी खुश था। मीर जाफर भी खुश था। और अंग्रेज भी खुश थे। हालांकि, 'कठपुतली नवाब' भी कभी-कभी कंपनी के इशारों पर नहीं चलते थे। इसलिए मीर जाफर को हटाकर मीर कासिम को नवाब बनाया गया। जब मीर कासिम परेशान करने लगा तो 1764 में बक्सर की लड़ाई में उसको हराकर दोबारा मीर जाफर को नवाब बनाया गया। साल 1765 में मीर जाफर की मौत हो गई। तब कंपनी समझ गई थी कि अब 'कठपुतली नवाब' से काम नहीं चलेगा। इसलिए कंपनी खुद ही नवाब बन गई। अब कंपनी के पास 'सत्ता' और 'ताकत' दोनों थी।
रॉबर्ट क्लाइव ने भारत को खूब लूटा। साल 1743 में जब वह इंग्लैंड से मद्रास (अब चेन्नई) आया था, तब 18 साल का था। साल 1767 में जब वह भारत से हमेशा के लिए रवाना हुआ तो उसकी दौलत 4.01 लाख पाउंड के बराबर थी। इंग्लैंड लौटने के बाद उस पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे लेकिन उसे बरी कर दिया गया। आखिरकार 1774 में उसने आत्महत्या कर ली।
इतिहास मीर जाफर को 'सबसे बड़े गद्दार' के तौर पर याद करता है। हालांकि, डैलरिम्पल अपनी किताब में लिखते हैं, 'उस वक्त बंगाल में फ्रांसिसी कमांडर रहे जीन लॉ ने लिखा था कि वह जगत सेठ था, जिसने क्रांति भड़काई। उसके बिना अंग्रेज कभी भी वह नहीं कर पाते, जो उन्होंने किया। अंग्रेजों का मकसद ही सेठों का मकसद बन गया था।'
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