कश्मीर का ईरान से क्या कनेक्शन है, क्यों कहा जाता है मिनी ईरान
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• DELHI 23 Jun 2025, (अपडेटेड 24 Jun 2025, 6:09 AM IST)
कश्मीर का ईरान से एक गहरा कनेक्शन है जिसकी वजह से इसे ईरान-ए-सगीर या मिनी ईरान कहा जाता है। कश्मीर पर ऐतिहासिक रूप से ईरान का काफी प्रभाव रहा है।

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo credit: AI Generated
कश्मीर, जो अपनी प्राकृतिक सुंदरता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है, सदियों से एक ऐसी जगह रही है है जहां अलग-अलग संस्कृतियों, धर्मों और समुदायों का मेल हुआ है। यह भूमि अपनी झीलों, घाटियों और पर्वतों के साथ-साथ साहित्य, कला, हैंडीक्राफ्ट और आर्किटेक्चर में भी समृद्ध है। कश्मीर का यह सांस्कृतिक आकर्षण फारसी या ईरानी संस्कृति के साथ विशेष रूप से जुड़ा हुआ है। इसी गहन मेलजोल और आपसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान के चलते कश्मीर को 'ईरान-ए-सगीर' यानी 'मिनी ईरान' का नाम दिया गया है।
लेकिन कश्मीर को यह नाम क्यों मिला? फारसी संस्कृति का कश्मीर में किस प्रकार प्रभाव पड़ा? खबरगांव इस लेख में उन सभी पहलुओं की पड़ताल करेगा और आपको कश्मीर और ईरान के आपसी संबंधों के बारे में बताएगा।
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ईरान-ए-सगीर का अर्थ होता है छोटा ईरान या मिनी ईरान। दरअसल, साहित्यिक, सांस्कृतिक रूप से कश्मीर पर ईरान का इतना प्रभाव है कि इसे ईरान-ए-सगीर कहा जाता है। हालांकि समय के साथ कश्मीर में कई सांस्कृतिक बदलाव हुए हैं, फिर भी फारसी संस्कृति का प्रभाव आज भी मौजूद है। उदाहण के लिए कश्मीर में पुराने हस्तलिखित फारसी लेख सुरक्षित हैं, ऐतिहासिक इमारतें और आर्किटेक्चर आज भी कश्मीर में उस ईरानी विरासत को दिखाते हैं। यहां तक कि प्रशासनिक भाषा में भी ईरानी शब्दों का खूब प्रयोग किया जाता है।
कैसे आई फारसी संस्कृति
कश्मीर में फारसी संस्कृति और भाषा का इतिहास लगभग 14वीं शताब्दी से आरंभ हुआ जब मुस्लिम शासक सत्ता में आए। उस समय फारसी भाषा केवल प्रशासन और अदालतों तक ही सीमित नहीं थी, बल्कि यह कश्मीर के सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में पूरी तरह समाहित हो गई। फारसी भाषा लंबे समय तक कश्मीर में राजभाषा और प्रशासनिक भाषा रही, जो लगभग 600 साल तक चली। इस तरह से कश्मीर में फारसी संस्कृति की शुरुआत हुई।
सूफी धर्म का प्रचार
इसके अलावा कश्मीर में फारसी संस्कृति के प्रचार में सूफी प्रचारक मीर सैय्यद अली हमदानी ने बड़ी भूमिका निभायी। उन्होंने कश्मीर में सूफी धर्म का प्रचार किया। वे 14वीं शताब्दी में ईरान के हमदान से कश्मीर पहुंचे और अपने साथ फारसी भाषा, साहित्य, धर्म और शिल्पकला लेकर आए। सैय्यद अली हमदानी और उनके अनुयायियों ने कश्मीर में फारसी संस्कृति और सूफियाना अंदाज़ को स्थापित किया, जिस कारण कश्मीर में फारसी की एक सांस्कृतिक क्रांति सी शुरू हो गई।
फारसी भाषा का कश्मीर में असर
फारसी भाषा कश्मीर में प्रशासन, शिक्षा, कविता और धर्म की भाषा बन गई। उस समय कश्मीर में जितने भी विद्वान, कवि और इतिहासकार हुए, वे सभी फारसी में रचनाएं किया करते थे। कश्मीर में फारसी भाषा के संरक्षण और विकास में सुल्तानों और बादशाहों का खास योगदान रहा है।
इसी का नतीजा रहा कि कश्मीर में फारसी साहित्य के तहत काफी रचनाएं जैसे 'तारीख-ए-हसन', 'बहरिस्ताने शाही' और 'वाकियात-ए-कश्मीर' लिखे गए, जो आज भी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संदर्भों में बेहद महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
आर्किटेक्चर पर ईरानी प्रभाव
कश्मीर में बने पुराने स्मारक, मस्जिदें, दरगाहें, मकबरे और बगीचे फारसी वास्तुकला की छाप लिए हुए हैं। यह असर कश्मीर की तमाम ऐतिहासिक इमारतों में दिखता है, जैसे- शालीमार बाग़ और निशात बाग़ जैसे मुगल गार्डन्स ईरानी चारबाग़ शैली से प्रेरित हैं।
जामिया मस्जिद और खानकाह-ए-मौला में उपयोग हुए स्तंभ, मेहराब और काष्ठ कला फारसी वास्तुकला का सुंदर मेल पेश करते हैं। कश्मीर के पुराने महलों और भवनों में जालियां, मेहराबें और ईरानी पैटर्न दिखाई देते हैं, जो कश्मीर को एक छोटा सा ईरान सा अनुभव देते हैं।
हैंडीक्राफ्ट और शिल्प में भी है प्रभाव
कश्मीर की विश्व प्रसिद्ध हस्तकला और शिल्प में भी फारसी संस्कृति का गहरा असर है। बात करें कश्मीरी शॉल और कढ़ाई की तो यहां बनने वाले शॉल, कढ़ाई और कालीन के पैटर्न में फारसी कला और रंग पूरी तरह से दिखते हैं, जैसे जैसे बूटा, चिनार पत्ती, फूल और बेलें, गुलदस्ता पैटर्न या ज़रीदोजी का पैटर्न फारसी हस्त शिल्प से प्रेरित है।
पेपियर-मैशे शिल्प कला कश्मीर में फारसी हस्तकला से आई और आज विश्वभर में कश्मीर की सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा है।
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साहित्य में भी फारसी की झलक
कश्मीर और फारसी साहित्य का मेल उस समय चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया जब कश्मीरी कवियों और लेखकों ने फारसी में लेखनी चलाई। कश्मीरी कवियों जैसे मुल्ला ताहिर गानी, शम्स फक़ीर, और हब्बा ख़ातून ने फारसी और कश्मीरी भाषाओं में रचनाएं कीं।
फारसी लेखकों और विद्वानों जैसे मुल्ला सादक, मुल्ला मोहम्मद जमील, और मुल्ला अकरम के साहित्य में फारसी की पूरी झलक मिलती है।
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