काजी कोर्ट, शरिया, फतवा असंवैधानिक, SC के फैसले की ABCD
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• NEW DELHI 30 Apr 2025, (अपडेटेड 30 Apr 2025, 8:56 AM IST)
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि काजी, शरिया, फतवा, दारुल-कजा के फैसले, असंवैधानिक हैं। यह धार्मिक निर्देश हो सकते हैं लेकिन कानूनी रूप से प्रवर्तनीय नहीं। पढ़ें पूरे फैसले की एक-एक बात।

Supreme Court. (Photo Credit: PTI)
शाहजहां बनाम उत्तर प्रदेश केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि काजी अदालत, दारुल कजा या शरिया अदालतें कानूनी तौर पर वैध नहीं हैं। अगर ऐसी संस्थाओं की ओर से कोई आदेश आता है तो वह कानूनी तौर पर वैध नहीं है। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की बेंच ने साल 2014 के विश्व लोचन मदन बनाम भारत सरकार केस के हवाले से आया, जिसमें फतवों को गैर-कानूनी घोषित किया गया था।
जस्टिस अमानुल्लाह ने कहा कि ऐसी संस्थाओं के फैसले किसी पर बाध्यकारी नहीं हैं और इन्हें जबरन लागू नहीं किया जा सकता। ये निर्णय केवल तभी मान्य हो सकते हैं, जब संबंधित पक्ष स्वेच्छा से इन्हें स्वीकार करें और यह किसी संवैधानिक कानून का उल्लंघन न करे।
दारुल कजा क्या है?
दारुल कजा ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के तहत काम करती है। इस्लामिक स्कॉलर डॉ. शाहिद अख्तर ने खबरगांव के साथ बातचीत में कहा, 'इस्लाम में कजा उस व्यवस्था को कहते हैं, जिसमें विवाह, तलाक, संपत्ति जैसे विवादों का समाधान कुरान और सुन्नत के आधार पर किया जाता है। वह शख्स को जो शरिया या इस्लामी कानूनों के मुताबिक मामलों को सुलझाता है, उसे काजी कहते हैं। वह कुरान का विद्वान होता है, सुन्नत और कुरान के मुताबिक वह फैसले देता है। इसका कोई कानूनी दर्जा नहीं है।'
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शाहिद अख्तर ने कहा, 'शरिया और काजी अदालतों का काम भी कुछ ऐसा ही है। इस्लाम में 72 फिरके हैं। जैसे हिंदू धर्म में कई मत हैं, वैसे ही इस्लाम में भी हैं। धार्मिक नजरिए से देखें तो काजी, शरिया या दारुल कजा के फैसलों को मानना चाहिए। यह इस्लामिक नियम-कानूनों के हिसाब से फैसले सुनाती हैं। व्यवहार में देखें तो लोग इनके फतवों को वैसे ही नजरअंदाज करते हैं, जैसे हिंदू या अन्य धर्मों के लोग, अपने-अपने धार्मिक संस्थाओं के फैसले को। यह इच्छा पर है। बहुत अनैतिक कामों के खिलाफ फतवा वक्त-वक्त पर जारी होता है, उसे मानना या न मानना आपका फैसला है।'
इस्लाम में इन संस्थाओं की भूमिका क्या है?
इस्लामिक स्कॉलर सैय्यद शादाब हुसैन ने कहा, 'इस्लाम में काजी, शरिया अदालत, या दारुल कजा की अहमियत है। इनके फरमानों को इज्जत के नजरिए से देखा जाता है, वजह यह है कि ये कुरान, सुन्नत और हदीस पर आधारित होते हैं। जो भी काजी, हाफिज या मौलाना होते हैं वे किसी विवाद की स्थिति में मध्यस्थ की भूमिका में होते हैं। अब भारत सेक्युलर देश है तो ऐसे में इन्हें उस तरह से बाध्यकारी बना पाना मुश्किल है लेकिन तब भी इन संस्थाओं के फैसलों की लोग अदब करते हैं।'
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काजी का क्या काम है?
शादाब हुसैन ने कहा कि इस्लाम में काजी की भूमिका तलाक और शादियों में बेहद अहम है। उनकी भूमिका यह होती है कि वे यह तय कर सकें कि विवाह संबंधी प्रक्रियाएं शरिया के मुताबिक हो रही हैं या नहीं।
काजी, दारुल कजा का रुख कौन करता है?
जो लोग पारिवारिक विवादों को सुलझाने के लिए कोर्ट से बचना चाहते हैं, वे ऐसी संस्थाओं का रुख करते हैं। आमतौर पर इन संस्थाओं की ओर से मध्यस्थता ही कराई जाती है, जिसे मानना या न मानना पक्षकारों पर निर्भर करता है। आलोचकों का कहना है कि इन संस्थाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व ही नहीं है, इसलिए इनकी प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
मुस्लिम पर्सनल लॉ क्या है?
दिल्ली हाइकोर्ट की वकील स्निग्धा त्रिपाठी ने कहा, 'भारत में हर धर्म का अपना व्यक्तिगत कानून है। मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरियत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत संचालित होता है। यह कानून मुसलमानों के निजी मामलों जैसे विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, विरासत, और वक्फ से संबंधित नियमों को नियंत्रित करता है। मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम, 1939 मुस्लिम महिलाओं के तलाक के अधिकार और संबंधित मामलों को संबोधित करता है। जो लोग स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी करते हैं, उन पर यह कानून लागू नहीं होता है।'
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स्निग्धा त्रिपाठी ने कहा, 'शरिया, काजी या दारुल कजा धार्मिक मंच हैं। यह नैतिक हो सकते हैं लेकिन कानूनी तौर पर ये वैध नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी वैधानिकता को मान्यता नहीं दी है। जब मुस्लिमों के व्यक्तिगत कानून हैं तो जाहिर सी बात है कि उन्हें उसे लागू कराने के लिए अदालतों का रुख करना होगा, न कि शरिया या काजी अदालतों का। मुस्लिम पर्सनल लॉ में भी इन संस्थाओं के लिए अलग से कोई प्रावधान नहीं है।'
क्यों सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला सुनाया?
कोर्ट ने यह फैसला एक महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान सुनाया है। महिला ने झांसी फैमिली कोर्ट के 2018 के आदेश को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी थी। हाईकोर्ट ने उसकी याचिका खारिज कर दी थी, जिसमें उसने अपने और बच्चों के लिए गुजारा भत्ता मांगा था।
क्या है यह केस?
साल 2002 में एक महिला ने एक बीएसएफ जवान से शादी की थी। यह उसके पति की दूसरी शआदी थी। उसके दो बच्चे, एक बेटी और एक बेटा है। साल 2005 में पति ने भोपाल के 'काजी कोर्ट' में तलाक की अर्जी दी, जो समझौते के बाद खारिज हो गई। महिला ने आरोप लगाया कि पति ने दहेज के लिए मारपीट की और 2008 में उसे और बच्चों को घर से निकाल दिया। फैमिली कोर्ट ने बच्चों को गुजारा भत्ता दिया, लेकिन महिला की मांग खारिज हो गई। तर्क दिया गया कि वह अपनी गलतियों के कारण घर छोड़कर गई। सुप्रीम कोर्ट ने इसे गलत ठहराते हुए पति को 2008 से महिला को 4000 रुपये मासिक और बच्चों को भी गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया।
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