कट्टरता नहीं, वफादारी जरूरी; आतंकियों की भर्ती का पैटर्न क्या होता है?
विचार
• NEW DELHI 28 Apr 2025, (अपडेटेड 28 Apr 2025, 6:34 AM IST)
आतंकियों के सामने भर्ती करते समय सबसे बड़ी चुनौती 'भरोसे' के होती है। आतंकी संगठनों का मैनुअल बताता है कि उन्हें कट्टर नहीं, बल्कि वफादार लोगों की जरूरत है।

प्रतीकात्मक तस्वीर। (AI Generated Image)
डिस्क्लेमरः इस लेख का मकसद किसी भी तरह के आतंकवाद या हिंसा को बढ़ावा देना नहीं है।
ढूंढेंगे तो ऐसी कई फिल्में मिल जाएंगी, जिनमें एक किरदार को पहले सीधा सा और जिम्मेदार दिखाया जाता है लेकिन बाद में वह सिस्टम से तंग आकर आतंकवादी बन जाता है। मगर क्या कोई व्यक्ति सिर्फ इसलिए ही आतंकी बनता है? या फिर कोई भी आतंकी संगठन भर्ती करते समय कुछ 'खास' देखते हैं?
असल में आतंकवादी एक 'विचारधारा' है और जो भी इससे प्रभावित होता है, वह आतंकवादी बन जाता है। वह दुनिया की नजरों में 'आतंकवादी' होता है लेकिन खुद को 'मुजाहिद' बताते हैं। मुजाहिद एक अरबी शब्द है, जो 'जिहाद' से निकला है। जिहाद का मतलब 'संघर्ष' या 'लड़ाई' से है। हर 'आतंकवादी' खुद को 'मुजाहिद' बताते हुए दावा करता है कि उसकी लड़ाई किसी सत्ता या धर्म के दुश्मनों से है। ऐसा कहकर वह खुद की कायराना हरकतों को 'वाजिब' ठहराने की कोशिश करता है, मगर ऐसा है नहीं।
हालांकि, इन्हीं 'आतंकवादी' और 'मुजाहिदों' के अंतर ने पाकिस्तान को आज 'आतंकवाद की फैक्ट्री' बना दिया है। 1979 से 1989 के बीच जब पाकिस्तान की सत्ता में जनरल जिया उल-हक सत्ता में थे, तो उन्होंने मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों और हजारों युवाओं को 'आतंकवादी' बनने में मदद की, जिसे वे 'मुजाहिद' बताते थे। ऐसा उन्होंने इसलिए किया था, ताकि अफगानिस्तान में सोवियत संघ (अब रूस) का मुकाबला कर सकें। सोवियत की सेना इन मुजाहिदों से हार गई थी। इसके बाद इन्हीं मुजाहिदों ने मिलकर तालिबान बना लिया और फिर अल-कायदा भी इसी तरह बना।
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हालांकि, इसके बावजूद पाकिस्तान में कोई सुधार नहीं हुआ। 2014 में जब आतंकवाद के खिलाफ पाकिस्तान की नवाज शरीफ की सरकार नेशनल एक्शन प्लान तैयार कर रही थी तो बहस इस बात पर नहीं हुई कि आतंकवाद से कैसे लड़ा जाएगा, बल्कि इस पर हुई कि 'आतंकवादी कौन होगा?' 'मुजाहिद कौन होगा?' और 'शहीद कौन कहलाएगा?' बहस हुई तो मजहबी संगठनों ने कहा कि इस्लाम के लिए लड़ने वालों को 'मुजाहिद' का दर्जा दिया। दूसरी ओर, सरकार और सेना ने कहा कि जो भी आम नागरिकों को निशाना बनाए, उसे 'आतंकवादी' माना जाएगा। वहीं, कुछ संगठनों ने यह भी कहा कि इस्लाम की रक्षा करते हुए जो कुर्बानी दे रहे हैं, उन्हें 'शहीद' का मिले। इस पर बहस होती रही और इन तीनों की कोई परिभाषा तय नहीं हुई। आखिरकार 20 पॉइंट का नेशनल एक्शन प्लान बन तो गया, मगर सिर्फ दिखावे का।
खैर, आतंकवाद की जब बात होती है तो इसे अक्सर 'धार्मिक कट्टरता' से भी जोड़कर देखा जाता है। मगर क्या ऐसा सच में है? क्या वाकई जब कोई आतंकी संगठन आतंकवादियों की भर्ती करता है तो वह कथित मुजाहिदों में 'धार्मिक कट्टरता' का गुण देखता है? शायद ऐसा नहीं होता।
साल 2000 में यूके के मैनचेस्टर से अल-कायदा के एक आतंकी के कम्प्यूटर से एक दस्तावेज मिला था। इस दस्तावेज में बताया गया था कि नए आतंकियों की भर्ती कैसे करें? उनमें क्या खासियतें होनी चाहिए? चूंकि यह दस्तावेज मैनचेस्टर में मिला था, इसलिए इसे 'मैनचेस्टर मैनुअल' कहा जाता है। यह अरबी भाषा में था, जिसका बाद में अंग्रेजी में अनुवाद किया गया था।
इस कथित मैनुअल में नए आतंकी की भर्ती के लिए 14 खासियतें बताई गई थीं। इनमें- इस्लाम को मानना, वैचारिक कमिटमेंट, मैच्योरिटी, कुर्बानी की भावना, हुक्म मानने वाला, गोपनीयता बनाए रखने की क्षमता, अच्छी सेहत, सब्र रखना, शांति से रहने की आदत, सावधानी, सच्चाई, ऑब्जर्व करने की कला और खुद को छिपाने की कला होनी चाहिए।
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इसी तरह 2008 में अल-कायदा ने एक और मैनुअल छापा था। इसे 'अबु अम्र हैंडबुक' कहा जाता है। इसमें भर्ती करने वालों को बताया गया था कि 'सही आतंकी' कैसे चुनें? इसमें सलाह दी गई थी कि ऐसे लोगों को भर्ती करें जो आपके पुराने दोस्त या रिश्तेदार हों। ऐसे लोग हों जिनका इस्लाम के प्रति कमिटमेंट कम हो और आपकी उम्र के करीब या आसपास ही रहते हों।
इस मैनुअल में अबु अम्र ने 'धार्मिक लोगों को भर्ती न करने' की सख्त सलाह दी थी। ऐसा इसलिए क्योंकि धार्मिक लोग अल-कायदा की विचारधारा के खिलाफ थे। इसमें यह भी सलाह दी गई थी कि ऐसे लोगों को भर्ती न करें जिन्हें कुरान याद है, क्योंकि ऐसे लोग 'जासूस' हो सकते हैं। अबु अम्र से सलाह दी थी कि 'धर्मनिरपेक्ष' को भर्ती किया जाए, क्योंकि इन्हें बरगलाना आसान होता है। इन्हें भर्ती करने का दूसरा फायदा यह होता है कि सुरक्षा एजेंसियों की नजर भी कम रहती है, क्योंकि ऐसे लोग पहले किसी गतिविधि में शामिल नहीं होते।
इसके अलावा, 2012 में नॉर्वे के रिसर्चर थॉमस हेगहैमर ने एक रिसर्च की थी। 'The recruiter’s dilemma: Signalling and rebel recruitment tactics' नाम से छपी इस रिसर्च में बताया गया था कि आतंकवादी संगठन बहुत सावधानी से भर्ती करते हैं और हर किसी को आसानी से नहीं लेते। रिसर्च बताती है कि आतंकवादी संगठनों के सामने सबसे बड़ी चुनौती 'वफादारी' की होती है। इसमें कहा गया था कि आतंकवादी संगठन 'हिंसा' और 'वफादारी' मांगते हैं। भरोसेमंद व्यक्ति की कम से कम तीन खासियतें होनी चाहिए- हिंसा करने की इच्छा, वफादारी और सतर्कता।
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रिसर्च में दावा किया गया था कि अल-कायदा ऑन द अरेबियन पेनिन्सुला (QAP) ने भर्ती करते समय 'नस्ल' पर ज्यादा ध्यान दिया। QAP ने गैर-अरब और गैर-सऊदी अरब लोगों की भर्ती करने से परहेज किया, क्योंकि वह विदेशियों पर भरोसा नहीं करता था। रिसर्च के दौरान QAP के 260 आतंकियों के सैंपल का विश्लेषण किया गया, जिसमें सामने आया कि सिर्फ 12 आतंकी है गैर-सऊदी अरब थे। इसी तरह, तालिबान ने उन लोगों पर ध्यान दिया जो कबायली इलाकों से थे। तालिबान ने मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को 'जिहाद' के लिए तैयार किया। वहीं, अल-कायदा ने ऐसे आतंकियों पर भरोसा किया, जो पहले जिहादी लड़ाई में हिस्सा ले चुके थे। वहीं, ISIS ने दुनियाभर से आतंकियों की भर्ती की थी।
आतंकवादी खुद को 'मुजाहिद' बताकर अपनी लड़ाई 'काफिरों' के खिलाफ बताते हैं। मार्च 1997 में CNN को दिए इंटरव्यू में ओसामा बिन लादेन ने कबूल किया था कि वह 'इस्लाम की रक्षा' और 'पश्चिम' के खिलाफ जिहाद कर रहा है। इसी तरह 2019 में ब्रिटिश अखबार द गार्डियन ने ISIS के दो आतंकियों का इंटरव्यू किया था। इसमें आतंकियों ने बताया था कि 'खिलाफत' के लिए काम कर रहे थे। एक आतंकी ने बताया था कि उसने धार्मिक कट्टरता के कारण ISIS में शामिल होने का फैसला लिया था।
आज दुनियाभर में हजारों आतंकवादी संगठन हैं। इनमें हजारों-लाखों आतंकी होंगे। ऐसे में सवाल उठता है कि आतंकवाद आखिर खत्म कैसे होगा? असल में आतंकवाद भी एक विचारधारा है और इसे गैर-आतंकवाद विचारधारा ही खत्म कर सकती है।
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