दिल्ली में विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के 11 दिन बाद सरकार का गठन हो गया है। इसके साथ ही 27 साल बाद दिल्ली में बीजेपी की वापसी भी हो गई।
गुरुवार को बीजेपी की रेखा गुप्ता ने दिल्ली की मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उनके साथ-साथ 6 विधायकों ने भी मंत्री पद की शपथ ली। मंत्री पद की शपथ लेने वालों में प्रवेश वर्मा, आशीष सूद, मनजिंदर सिंह सिरसा, रविंद्र इंद्राज सिंह, कपिल मिश्रा और पंकज कुमार सिंह मंत्री शामिल हैं।
ऐसे में मन में एक सवाल आता है कि दिल्ली में बीजेपी के 48 विधायक हैं लेकिन इनमें से 7 को ही मंत्री क्यों बनाया? तो इसका जवाब ये है कि दिल्ली का संवैधानिक ढांचा ही ऐसा है कि यहां मुख्यमंत्री को मिलाकर 7 से ज्यादा मंत्री नहीं हो सकते।
यह भी पढ़ें-- सिख-दलित-जाट-पूर्वांचली, मंत्री बनाकर BJP ने कैसे साधे सभी वर्ग
पर ऐसा क्यों?
संविधान का एक अनुच्छेद है 239AA। 1991 में 69वां संशोधन कर संविधान में इस अनुच्छेद को जोड़ा गया था। अनुच्छेद 239AA में ही दिल्ली विधानसभा का प्रावधान किया गया है। इसमें तय हुआ कि दिल्ली में 70 सीटों की एक विधानसभा होगी।
अनुच्छेद 239AA में ही ये भी प्रावधान है कि दिल्ली विधानसभा में 10% से ज्यादा मंत्री नहीं होंगे। 70 का 10% होता है 7, इसलिए दिल्ली में मुख्यमंत्री समेत 7 मंत्री ही हो सकते हैं।

फिर गोवा में 12 मंत्री क्यों?
दिल्ली में 70 सीटें हैं, जबकि गोवा में 40। मगर दिल्ली में 7 और गोवा में 12 मंत्री होते हैं। ऐसा क्यों? तो इसका जवाब भी संविधान में है। संविधान के अनुच्छेद 164 के तहत सभी राज्य की विधानसाभाओं में 15% से ज्यादा मंत्री नहीं हो सकते। हालांकि, ये अनुच्छेद ये भी कहता है कि किसी भी राज्य में 12 से कम मंत्री भी नहीं होंगे। यही कारण है कि 40 सीटों वाली गोवा विधानसभा में 12 मंत्री हैं। पूर्वोत्तर के सभी राज्यों में भी 40 से 60 के बीच सीटें ही हैं और यहां भी मंत्रियों की संख्या 12 तय है।
यह भी पढ़ें-- CM वही, जो पहली बार बना MLA! दिलचस्प है दिल्ली का इतिहास
कहां हैं सबसे ज्यादा मंत्री?
सबसे ज्यादा मंत्री उत्तर प्रदेश में हैं। उसकी वजह भी है, क्योंकि यहां 403 विधानसभा सीटें हैं। यूपी में कुल सीटों में से 15% मंत्री हो सकते हैं। 403 का 15% हुआ 60। अभी यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार में कुल 53 मंत्री हैं। इनमें 21 कैबिनेट मंत्री, 14 राज्य मंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और 19 राज्य मंत्री हैं।
यह भी पढ़ें-- पहली बार विधायक, फिर भी हैवीवेट्स को पछाड़ क्यों रेखा गुप्ता बनीं CM?
मंत्रियों की ये सीमा क्यों?
आजादी के बाद कई सालों तक मंत्रियों को लेकर कोई सीमा नहीं थी। 1952 में पहले लोकसभा चुनाव के बाद जवाहर लाल नेहरू की कैबिनेट में करीब 30 मंत्री थे। समय के साथ-साथ मंत्रियों की संख्या बढ़ती चली गई। 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में 74 मंत्री थे। हालांकि, अटल सरकार में ही मंत्रियों की सीमा को तय करने के लिए संशोधन किया गया था।
माना जाता है कि 1967 में हरियाणा के विधायक गया लाल ने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदल ली थी। उनके बाद विधायकों और सांसदों का पाला बदलना आम हो गया। इसे रोकने के लिए राजीव गांधी की सरकार में दल बदल कानून लाया गया था। हालांकि, इसके बाद भी मंत्री पद के लालच में आकर नेता पाला बदल लेते थे। इसी को रोकने के लिए मंत्रियों की सीमा तय की गई।
1999 में अटल सरकार में जस्टिस वेंकटचलैया की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने मंत्रियों की संख्या के लिए लोकसभा और विधानसभा की कुल संख्या का 10% की सीमा का सुझाव दिया।
इसके बाद सरकार ने 2003 में 91वां संविधान संशोधन किया और मंत्रियों की सीमा तय की। सरकार ने तय किया कि लोकसभा और विधानसभाओं में मंत्रियों की संख्या कुल सीटों का 15% से ज्यादा नहीं होगी।