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लुभाने की हजार कोशिशों के बावजूद भी मुसलमान बसपा से दूर क्यों?

बसपा सुप्रीमो मायावती मुसलमानों को अपनी ओर खींचने की लगातार कोशिश कर रही हैं, लेकिन मुसलिम वोटर उनकी तरफ आते हुए नहीं दिख रहे। कारण क्या है?

Mayawati। Photo Credit: PTI

मायावती । Photo Credit: PTI

मायावती आजकल चर्चा में हैं। वजह है अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी से निकालना। जाहिर है पार्टी एक अंदरूनी कलह से गुजर रही है। ऐसे में मायावती ने बयान दिया कि उनका उत्तराधिकारी कोई नहीं होगा, लेकिन इसके बाद उन्होंने मुसलमानों के लेकर भी बयान दिया।

 

उन्होंने कहा कि मुसलमानों के साथ सौतेला व्यवहार हो रहा है। उन्होंने एक्स पर पोस्ट करते हुए लिखा कि भारत सभी धर्मों को सम्मान देने वाला और धर्म निरपेक्ष देश है, ऐसे में केंद्र व राज्य सरकारों को बिना पक्षपात के एक जैसा बर्ताव करना चाहिए।

 

उन्होंने कहा कि मुसलमानों के साथ किया जा रहा बर्ताव न्यायसंगत नहीं है। साथ ही सभी धर्मों के पर्व-त्योहारों आदि को लेकर पाबंदियां व छूट से संबंधित जो नियम कानून हैं उन्हें बिा पक्षपात एक जैसा लागू होना चाहिए, जो कि होता हुआ नहीं दिख रहा है।

 

ऐसे में कुछ लोगों को लग सकता है कि पार्टी की आपसी कलह की वजह से मायावती अब मुसलमानों को साधने में लग गई हैं लेकिन ऐसा नहीं है। मायावती पहले भी मुसलमानों को अपने खेमें में मिलाने की कोशिश करती रही हैं।

 

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हालांकि ऐसा होता हुआ दिखा नहीं। साल 2007 में जब यूपी में मायावती की सरकार बनी थी तब ब्राह्मणों के साथ साथ मुसलमानों ने भी मायावती का साथ दिया था, लेकिन उसके बाद साल 2021 से बहुजन समाज पार्टी गिरावट की तरफ है।

 

इसके बाद मायावती ने समय समय पर मुसलमानों को अपने साथ मिलाने की कोशिश की लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

 

2017 विधानसभा में 99 मुस्लिमों को दिया टिकट

उदाहरण के लिए साल 2017 में मायावती की पार्टी ने 99 मुस्लिम कैंडीडेट्स को टिकट दिया था और कई एक मुस्लिम आउटफिट्स ने उनका सपोर्ट भी किया था लेकिन फिर भी इसका कुछ फायदा नहीं हुआ।

 

इस चुनाव में बीएसपी को सिर्फ 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा जिनमें से सिर्फ 5 ही कैंडीडेट मुस्लिम थे। कारण यह था कि इस चुनाव में और सपा भी मुस्लिम वोटों को अपनी तरफ खींचने के लिए पूरी तरह से कोशिश कर रहे थे और मुसलमानों ने उनके पक्ष में वोट किया था।

 

लोकसभा चुनावों में भी लुभाने की रही कोशिश

इसी तरह से 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और बसपा को कुल 38 सीटें मिली थीं जिसमें से उनसे 6 सीटों पर मुस्लिम कैंडीडेट को टिकट दिया था जो कि कुल कैंडीडेट्स का लगभग 15 प्रतिशत होता है, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने लोकसभा के 80 सीटों में से करीब 20 सीटों पर मुस्लिम कैंडीडेट्स को उतारा जो कि कुल उम्मीदवारों का 30 प्रतिशत ठहरता है।

 

इसके पीछे मायावती की सोची समझी रणनीति थी कि वे मुस्लिमों को अपने पाले में रखना चाहती थीं, लेकिन ऐसा हो न सका। इसीलिए चुनाव के नतीजों के बाद मायावती ने बयान दिया कि उन्हें अगली बार मुस्लिमों को टिकट देने से पहले विचार करना पड़ेगा।

 

निकाय चुनावों में भी जताया भरोसा

इसी तरह से 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भारी हार के बाद, जिसमें बीएसपी को सिर्फ एक ही सीट से संतोष करना पड़ा था, मायावती ने फिर से मुसलमानों पर भरोसा जताया और 2023 के स्थानीय निकाय चुनावों में 17 मेयर के पदों में से 11 पर मुस्लिम कैंडीडेट्स को उतारा।

 

2024 के लोकसभा चुनाव के दौरान पश्चिमी यूपी के चुनावी कैंपेन में कई बार कहती हुई सुनी गईं कि उन्होंने इस क्षेत्र  से ज्यादातर मुस्लिमों को टिकट दिया है क्योंकि 'जिसकी जितनी हिस्सेदारी, उनकी उतनी भागीदारी'। यह नारा 1984 में कांसीराम ने दिया था। 

 

उन्होंने उस वक्त मुस्लिमों से अपील किया कि वे बसपा को वोट दें क्योंकि उनके पास पश्चिमी यूपी में दलित वोट बैंक है जो कि मुस्लिम वोट्स के साथ मिलकर अच्छा समीकरण बनता है।

 

2014 लोकसभा चुनाव में भी बसपा ने 19 मुस्लिम कैंडीडेट्स को मैदान में उतारा था लेकिन वह सारी की सारी सीटें हार गई थी। इस तरह से बसपा कोशिश तो लगातार करती रही है कि मुस्लिमों को वह अपने साथ ला सके लेकिन नतीजे बताते हैं कि मुसलमान मायावती को अपना रहनुमा नहीं मानते।

 

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क्या हैं कारण?

मुस्लिमों के मायावती की तरफ न आने के पीछे कई कारण हैं। एक तो यूपी में मुसलमानों का झुकाव मायावती की तुलना में  समाजवादी पार्टी की तरफ ज्यादा है। 

 

दूसरा एक्सपर्ट्स का मानना है कि मायावती इस बात को मुस्लिमों तक पहुंचाने में कामयाब नहीं हो पाई हैं कि उनकी पार्टी में मुस्लिम नेताओं की कद्र है। उदाहरण के लिए नसीमुद्दीन सिद्दीकी बसपा के खास नेताओं में से थे जिन्होंने 2007 के विधानसभा चुनाव में मुस्लिमों को बसपा में जोड़ने का काम किया, लेकिन उनको भी कथित रूप से पार्टी में अपेक्षित सम्मान नहीं मिला।

 

इसी तरह से अमरोहा से सांसद दानिश अली भी बीएसपी में उभरते हुए चेहरे थे। रमेश बिधूड़ी द्वारा उन पर बयान दिए जाने के बाद मुस्लिमों में उनकी पॉपुलरिटी काफी बढ़ गई थी लेकिन बाद में महुआ मोइत्रा मामले में संसद से उनके निष्कासन का विरोध किए जाने के बाद बसपा ने उन्हें पार्टी से बाहर निकाल दिया। इस कदम ने भी मुसलमानों के बसपा से दूर कर दिया।

 

क्यों चाहिए मुसलमानों का वोट

यूपी में दलितों की जनसंख्या लगभग 21-22 प्रतिशत है जबकि मुसलमानों की जनसंख्या करीब 19-20 प्रतिशत है। यह दोनों मिलाकर 40 प्रतिशत वोट हो जाता है। जाहिर है मायावती को पता है कि अगर इन दोनों वर्गों का वोट उनके पक्ष में आ जाता है तो राजनीतिक रूप से वह काफी मजबूत हो जाएंगी।

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