उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में दीपावली के हफ्तों बाद एक अलग ही रौनक देखने को मिलती है, जब गांवों में मशालों की रोशनी और लोक गीतों की गूंज से वातावरण जीवंत हो उठता है। यह उत्सव बूढ़ी दीपावली के नाम से जाना जाता है। यह एक ऐसा पर्व जो न केवल रोशनी का प्रतीक है, बल्कि लोक परंपरा, आस्था और ग्रामीण संस्कृति की जड़ों से भी जुड़ा हुआ है। साल 2025 में 31 अक्टूबर के दिन यह पर्व मनाया जाएगा।
मुख्य दीपावली त्योहार के लगभग 11 दिन बाद मनाई जाने वाली यह बूढ़ी दीपावली गढ़वाल, टिहरी, उत्तरकाशी और देहरादून से लेकर हिमाचल के सिरमौर और कुल्लू घाटी तक बड़े उत्साह के साथ मनाई जाती है। लोक मान्यता के अनुसार, जब भगवान श्रीराम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे, तब इस शुभ समाचार को पहाड़ों तक पहुंचने में कई दिन लग गए थे। जब वहां के लोगों को यह जानकारी मिली, तो उन्होंने दीप जलाकर उसी खुशी में त्योहार मनाया। इस देरी के वजह से यह पर्व बूढ़ी दीपावली या इगास बगवाल के नाम से जाना जाता है।
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कहां मनाई जाती है बूढ़ी दीपावली?
बूढ़ी दीपावली का पर्व उत्तराखंड के गढ़वाल, जौनसार-बावर, उत्तरकाशी, टिहरी, देहरादून और चमोली जैसे इलाकों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। हिमाचल प्रदेश में भी इसे सिरमौर, शिमला और कुल्लू घाटी में परंपरागत रूप से मनाया जाता है। इन क्षेत्रों के ग्रामीण लोग इस दिन को अपने स्थानीय देवताओं की पूजा, पशुओं की आराधना और लोकनृत्य के साथ मनाते हैं।
बूढ़ी दीपावली कब मनाई जाती है?
यह पर्व मुख्य दीपावली के 11वें दिन या लगभग एक महीने बाद मनाया जाता है। पुरानी मान्यता के अनुसार, जब प्रभु श्रीराम लंका विजय के बाद अयोध्या लौटे थे, तब इस खुशखबरी को पहाड़ी इलाकों तक पहुंचने में समय लग गया। इसलिए पहाड़ों के लोगों ने दीपावली कुछ दिनों बाद मनाई, जो आगे चलकर बूढ़ी दीपावली के नाम से प्रसिद्ध हुई।
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बूढ़ी दीपावली क्यों मनाई जाती है?
बूढ़ी दीपावली की मान्यता भगवान श्रीराम के लंका विजय से जुड़ी है। माना जाता है कि जब भगवान राम चौदह वर्षों का वनवास पूरा कर सीता और लक्ष्मण के साथ अयोध्या लौटे, तो उस समय पूरी अयोध्या दीपों से जगमग हो उठी।
लेकिन उस युग में यह सूचना काफी दिनों के बाद पहाड़ों तक पहुंची। जब वहां के लोगों को यह पता चला कि भगवान राम अयोध्या लौट आए हैं, तब उन्होंने भी दीप जलाकर उस विजय का उत्सव मनाया। इसलिए इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाने लगा।
कुछ स्थानों पर इस त्योहार को महाभारत काल से भी जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि जब पांडवों ने अपने वनवास से लौटकर विजय प्राप्त की थी, तो पर्वतीय क्षेत्रों के लोगों ने उसी खुशी में इस उत्सव की शुरुआत की थी।
बूढ़ी दीपावली त्योहार की विशेषताएं
- इस दिन मशालें (मशालों या लकड़ी के जलते गुच्छे) जलाकर गांवों में परिक्रमा की जाती है।
- लोग अपने पशुओं की पूजा करते हैं और उन्हें ताजे घास या गन्ने का प्रसाद खिलाते हैं।
- घरों में दीप जलाकर, लोग नृत्य, गीत, और ढोल-दमाऊ की धुन पर रातभर उत्सव मनाते हैं।
- यह दिन समृद्धि, पशु-संरक्षण और कृषि-सुख का प्रतीक माना जाता है।