चातुर्मास सनातन धर्म में एक अत्यंत पवित्र और आध्यात्मिक समय माना जाता है। यह वर्षा ऋतु के चार महीने जो आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू होता है और कार्तिक शुक्ल एकादशी पर समाप्त हो जाता। इस अवधि को देवशयनी एकादशी से प्रारंभ माना जाता है, जब भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और सृष्टि के कार्यभार की जिम्मेदारी भगवान शिव को सौंपते हैं। यह परिवर्तन न केवल प्रतीकात्मक है, बल्कि इसके पीछे गहरे आध्यात्मिक और पौराणिक रहस्य भी छिपे हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, जब सृष्टि का संतुलन बना रहता है और त्रिलोक में कोई बड़ा संकट नहीं होता, तब भगवान विष्णु चार महीनों के लिए योगनिद्रा में चले जाते हैं। यह योगनिद्रा कोई सामान्य नींद नहीं है, बल्कि वह अवस्था है जहां चेतना पूर्ण रूप से आंतरिक ध्यान में लीन होती है, जैसे कोई योगी समाधि में चला गया हो।
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भगवान विष्णु की योगनिद्रा की कथा
भगवान विष्णु की योगनिद्रा आषाढ़ शुक्ल एकादशी से शुरू होती है, जिसे देवशयनी एकादशी कहा जाता है और कार्तिक शुक्ल एकादशी, जिसे देवोत्थान एकादशी कहते हैं, को समाप्त होती है। इन चार महीनों के दौरान सृष्टि की व्यवस्था, रक्षा और संचालन की जिम्मेदारी महादेव शिव को सौंप दी जाती है।
भगवान शिव को संहारकर्ता के रूप में जाना जाता है, लेकिन वह योग, तप, त्याग और ब्रह्मज्ञान के स्वामी भी हैं। जब विष्णु ध्यान में होते हैं, तो सृष्टि में अनुशासन और संतुलन बनाए रखने के लिए शिव का तपस्वी और न्यायप्रिय रूप आवश्यक हो जाता है।

इस काल में शिव ही संसार का पालनकर्ता बनते हैं और धर्म-अधर्म का संतुलन बनाए रखते हैं। साथ ही इस समय साधना, संयम और तपस्या को सर्वोच्च माना जाता है। इसलिए चातुर्मास में विशेष रूप से शिव उपासना का महत्व होता है, क्योंकि वे ही उस समय सृष्टि के संचालक और रक्षक होते हैं।
पौराणिक कथा: भगवान शिव की भूमिका
एक पुरानी कथा के अनुसार, एक बार असुरों का अत्याचार अत्यधिक बढ़ गया था। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वह असुरों का संहार करें। लेकिन तब विष्णु जी योगनिद्रा की तैयारी में थे। उन्होंने देवताओं को बताया कि वह चातुर्मास के चार महीनों तक ध्यानमग्न रहेंगे और इस दौरान सृष्टि की रक्षा की जिम्मेदारी भगवान शिव को सौंप दी जाएगी।
शिव ने यह उत्तरदायित्व सहर्ष स्वीकार किया और हिमालय की कंदराओं में रहते हुए भी उन्होंने ध्यानपूर्वक जगत का संचालन करना शुरू किया। इन चार महीनों में उन्होंने न केवल सृष्टि का संतुलन बनाए रखा, बल्कि अनेक साधकों को सिद्धियां और दर्शन भी दिए।
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चातुर्मास का आध्यात्मिक महत्व
चातुर्मास का अर्थ है – 'चार मास'। यह चार महीने साधना, संयम और आत्मनिरीक्षण के होते हैं। वर्षा ऋतु के समय जब वातावरण नमी, रोग और अव्यवस्था से भर जाता है, तब ऋषि-मुनि भी अपने भ्रमण को रोक कर एक ही स्थान पर रहकर तप और ध्यान में लीन हो जाते थे। इसी वजह से यह समय आत्मशुद्धि और ध्यान के लिए सर्वश्रेष्ठ माना गया।
चातुर्मास में क्या करें?
इस पवित्र अवधि में कई नियमों और संयमों का पालन करना आवश्यक होता है। यहाँ कुछ महत्वपूर्ण साधनात्मक कार्य हैं जिन्हें चातुर्मास में करना चाहिए:
- व्रत और उपवास – देवशयनी एकादशी से लेकर देवोत्थान एकादशी तक कई महत्वपूर्ण व्रत आते हैं। इन व्रतों में उपवास, फलाहार और ध्यान किया जाता है।
- मांसाहार और नशे से दूरी- चातुर्मास में सात्विक आहार को प्रमुखता दी जाती है। मांस, शराब, प्याज-लहसुन जैसे तामसिक पदार्थों से परहेज करना चाहिए।
- शिव पूजन और जप- क्योंकि विष्णु निद्रा में होते हैं, इसलिए शिव की विशेष आराधना की जाती है। ‘ॐ नमः शिवाय’ मंत्र का जाप लाभकारी होता है।
- दान और सेवा- गरीबों, संतों और ब्राह्मणों को अन्न, वस्त्र, छाता, चप्पल, पानी और औषधियों का दान करना पुण्यदायक होता है।
- अध्यात्मिक ग्रंथों का अध्ययन- इस अवधि में भगवद्गीता, शिवपुराण, श्रीमद्भागवत आदि ग्रंथों का पाठ आत्मविकास में सहायक होता है।
- श्रद्धा और संयम का पालन- चातुर्मास आत्मनियंत्रण का पर्व है। इस समय क्रोध, झूठ, आलस्य, अधिक भोजन और भोग-विलास से बचना चाहिए।
चातुर्मास और सामान्य जीवन
यह समय सिर्फ साधु-संतों ही नहीं, आम जन भी इन चार महीनों में अपने भीतर की शक्ति, चेतना और आत्मबल को मजबूत कर सकता है। मान्यता है कि इन चार महीनों में धार्मिक कर्म, व्रत और पूजा-पाठ करने से भक्तों के सभी कष्ट और दुख दूर हो जाते हैं, साथ ही उन्हें सभी प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं।