सनातन धर्म में एकादशी तिथि को बहुत ही शुभ और पुण्यकारी माना जाता हैं। ऐसी ही एक महत्वपूर्ण तिथि देवशयनी एकादशी है, जिसे ‘हरिशयनी एकादशी’ या ‘आषाढ़ शुक्ल एकादशी’ भी कहा जाता है। इस दिन से भगवान विष्णु चार महीनों के लिए योगनिद्रा (गहरी आध्यात्मिक निद्रा) में चले जाते हैं। इस काल को ‘चातुर्मास’ कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है- चार महीनों का व्रतकाल।
देवशयनी एकादशी 2025 तिथि
वैदिक पंचांग के अनुसार, आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि 5 जुलाई शाम 6:55 पर शुरू हो रही है और इस तिथि का समापन 6 जुलाई रात्रि 9:10 पर होगा। ऐसे में देवशयनी एकादशी व्रत 6 जुलाई 2025, रविवार के दिन रखा जाएगा और इस व्रत का पालन 7 जुलाई को किया जाएगा। इसी दिन स्मार्त और वैष्णव संप्रदाय, दोनों ही व्रत का पालन करेंगे। इस विशेष दिन पर साध्य योग का निर्माण हो रहा है जो रात्रि 9:25 तक रहेगा।
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पौराणिक कथा के अनुसार
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, त्रिलोकपाल भगवान विष्णु सृष्टि के पालनकर्ता हैं। ब्रह्मा जी सृष्टि की रचना करते हैं, शिव जी संहार करते हैं और विष्णु जी उसका संचालन और पोषण करते हैं। परंतु एक बार देवताओं और असुरों के बीच युद्ध बहुत लंबा चल पड़ा। यह युद्ध इतना कठिन हो गया कि देवगण थक गए और भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना करने लगे। भगवान विष्णु ने तब असुरों का नाश करके देवताओं को विजय दिलाई।
इस संघर्ष और सृष्टि संचालन की निरंतरता के कारण भगवान विष्णु को भी थकान होने लगी। तब उन्होंने ब्रह्मांड के संतुलन को बनाए रखने के लिए आषाढ़ शुक्ल एकादशी के दिन से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार महीने तक योगनिद्रा में जाने का निर्णय लिया। यह काल बारिश और बदलते मौसम का भी समय होता है, जिसमें प्रकृति भी विश्राम और पुनर्निर्माण की स्थिति में जाती है।

योगनिद्रा का अर्थ
यह निद्रा सामान्य नींद नहीं है, बल्कि ध्यान की उच्चतम अवस्था है- जिसे योगनिद्रा कहा जाता है। इसमें भगवान न केवल विश्राम करते हैं, बल्कि अपने अंतर्यामी रूप में संपूर्ण सृष्टि पर दृष्टि भी बनाए रखते हैं। इस अवधि में सृष्टि का संचालन भगवान शिव अपने हाथों में ले लेते हैं।
देवशयनी एकादशी का महत्व
देवशयनी एकादशी केवल एक उपवास नहीं, बल्कि अध्यात्मिक साधना का एक आरंभिक चरण है। इस दिन से ही भक्तगण अधिक संयमित जीवन जीने का संकल्प लेते हैं। माना जाता है कि इस दिन उपवास, जप, ध्यान और कथा श्रवण करने से हजारों यज्ञों के फल की प्राप्ति होती है। यह दिन विशेष रूप से विष्णु भक्ति, वैराग्य और आंतरिक शुद्धि का प्रतीक है।
इस दिन भक्त सुबह जल्दी उठकर स्नान करते हैं, व्रत रखते हैं और भगवान विष्णु की शयन आरती करते हैं। विष्णु सहस्त्रनाम, गीता पाठ और हरिनाम संकीर्तन जैसे कार्य किए जाते हैं। पूजा में भगवान विष्णु को शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि अर्पित किए जाते हैं और उनके शयन के लिए रेशमी वस्त्रों से शय्या सजाई जाती है।
चातुर्मास की अवधि और उसकी विशेषता
चातुर्मास का प्रारंभ देवशयनी एकादशी से होता है और इसका समापन देवउठनी एकादशी के दिन होता है। इस अवधि में विवाह, गृहप्रवेश, मुंडन आदि शुभ कार्य वर्जित माने जाते हैं, क्योंकि यह काल आत्मसाधना और त्याग का होता है। संत-महात्मा भी इस काल में एक स्थान पर रहकर प्रवचन, भजन और ध्यान करते हैं।
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यह चार महीने- आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद और आश्विन पर्यावरण के दृष्टिकोण से भी विश्राम और पुनर्जीवन के महीनों माने जाते हैं। धरती पर वर्षा होती है, पेड़-पौधे फिर से हरे-भरे होते हैं और जीव-जंतुओं का जीवन चक्र भी व्यवस्थित रूप से चलता है। इसे भी भगवान की लीला के रूप में देखा जाता है कि वे सृष्टि को शांत कर ध्यानस्थ हो जाते हैं और प्रकृति भी उनके साथ सामंजस्य बिठाती है।
इससे जुड़ी मान्यताएं
मान्यता है कि जो व्यक्ति देवशयनी एकादशी का व्रत श्रद्धा से करता है, उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से जो भक्त चातुर्मास में मांसाहार, मद्यपान, बुरे कर्म और कटु वचनों से दूर रहते हैं, वे जीवन में मानसिक और आध्यात्मिक शांति प्राप्त करते हैं। देवउठनी एकादशी तक जब भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं, तब तुलसी विवाह सहित शुभ कार्यों का प्रारंभ होता है और सृष्टि पुनः सक्रियता की ओर बढ़ती है।