गणेश चतुर्थी का पर्व नजदीक आते ही देशभर में श्रद्धालु गणपति बप्पा की भव्य प्रतिमाओं की स्थापना की तैयारियों में जुट जाते हैं। भगवान गणेश का स्वरूप जितना आकर्षक है, उतना ही रहस्यमयी भी है। उनके मस्तक पर गजमुख, बड़े कान, गोल पेट और वाहन मूषक की तरह ही उनका एकदंत स्वरूप भी भक्तों को विशेष संदेश देता है लेकिन क्या आप जानते हैं कि भगवान गणेश को 'एकदंत' की उपाधि कैसे मिली और उनके एक दांत के टूटने के पीछे की कथा क्या है?
हिंदू धर्मग्रंथों और पुराणों में गणेश जी के एक दांत टूटने की कई कथाएं मिलती हैं। कुछ कथाओं के अनुसार, भगवान परशुराम के प्रहार से उनका एक दांत टूटा था, वहीं स्कंद पुराण एक अलग ही प्रसंग बताता है। इस ग्रंथ में वर्णन है कि जब देवताओं और ऋषियों को साधना और तपस्या को स्थिर करने के लिए विशेष योगदण्ड की आवश्यकता हुई, तब भगवान गणेश ने बिना कुछ सोचे समझे अपना एक दांत तोड़कर अर्पित कर दिया था। मान्यताओं के अनुसार, उन्होंने माना कि साधना और धर्म की रक्षा के लिए स्वयं का त्याग करना ही सर्वोच्च कर्तव्य है।
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भगवान परशुराम और गणेशजी की कथा
यह कथा ब्रह्माण्ड पुराण में वर्णित है। इस कथा के अनुसार, कहा जाता है कि एक बार परशुराम जी भगवान शिव से मिलने कैलाश पर्वत पहुंचे थे। उस समय भगवान शिव देवी पार्वती के साथ ध्यान में लीन थे। द्वार (मुख्य दरवाजे) पर गणेश जी पहरा दे रहे थे। उन्होंने परशुराम जी को अंदर जाने से रोक दिया। मान्यता है कि इससे क्रोधित होकर परशुराम जी ने भगवान शिव का दिया हुआ फरसा (परशु) गणेश जी पर चला दिया था। इस वार से गणेश जी का एक दांत टूट गया। इसके बाद से उन्हें 'एकदंत' कहा जाने लगा।
'एकदंत' की कथा महाभारत से भी जोड़ी जाती है
महाभारत के कुछ संस्करण में इस कथा का वर्णन किया गया है। कथा के अनुसार, कहा जाता है कि जब महर्षि वेदव्यास ने जब महाभारत की रचना करनी शुरू की तो उन्होंने गणेश जी से इसे लिखने का अनुरोध किया था। गणेश जी ने शर्त रखी कि वह बिना रुके लिखेंगे, अगर व्यास जी रुकेंगे तो वह भी रुक जाएंगे। मान्यता है कि व्यास जी ने भी शर्त रखी कि गणेश जी बिना अर्थ समझे नहीं लिखेंगे। कथा के अनुसार, लिखते-लिखते अचानक गणेश जी की लेखनी टूट गई। तब उन्होंने अपनी एक सूंड तोड़कर उसे लेखनी की तरह इस्तेमाल किया था, जिससे महाभारत का लेखन बिना रुके पूरा हो सके।
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भगवान गणेश के एक दंत की उपाधि से जुड़ी एक कथा स्कंदपुराण में भी वर्णित है। उस कथा के अनुसार, समुद्र मंथन के समय जब समुद्र से विष (हलाहल) निकला, तो पूरा ब्रह्मांड संकट में पड़ गया। इस विष को केवल भगवान शंकर ने अपने कंठ में धारण किया, तभी उनका गला नीला हो गया और वह 'नीलकंठ' कहलाए। इस घटना ने देवताओं और ऋषियों को दिखा दिया कि संसार की रक्षा के लिए महान त्याग और तपस्या आवश्यक है।
कथा के अनुसार, इस घटना के बाद देवताओं और योगियों में एक विचार आया कि साधना को स्थिर और सफल बनाने के लिए योगदण्ड (एक विशेष दण्ड, जिसे योग साधक ध्यान और तप में सहायक के रूप में इस्तेमाल करते हैं) चाहिए। कथा की मान्यता के अनुसार, समस्या यह थी कि ऐसा योगदण्ड किस वस्तु से बने जो तप की चरम सीमा और बलिदान का प्रतीक हो। जब यह प्रश्न उठा, तो स्वयं भगवान गणेश ने देवताओं के बीच कहा, 'अगर साधना के लिए योगदण्ड का निर्माण जरूरी है, तो उससे बड़ा त्याग और कोई नहीं हो सकता कि मैं अपनी सूंड (दन्त) स्वयं तोड़कर अर्पित कर दूं।' स्कंदपुराण की कथा के अनुसार, गणेश जी ने बिना किसी संकोच के अपनी एक दांत / सूंड (दन्त) तोड़ लिया और उसे हाथ में पकड़ लिया। मान्यता है कि यही दांत आगे चलकर योगियों के लिए योगदण्ड का प्रतीक बन गया।