मंगला आरती से मजार पर रुकने तक, जानें जगन्नाथ रथ यात्रा के जरूरी पड़ाव
धर्म-कर्म
• PURI 25 Jun 2025, (अपडेटेड 25 Jun 2025, 3:08 PM IST)
पुरी में आयोजित होने वाली रथ यात्रा विभिन्न स्थानों पर रुकती है, जिनका अपना खास आध्यात्मिक महत्व है और उनसे जुड़ी कहानी बहुत प्रचलित हैं।

जगन्नाथ रथ यात्रा के सभी जरूरी पड़ाव।(Photo Credit: AI)
जगन्नाथ रथ यात्रा, उड़ीसा के पुरी में हर साल आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को आयोजित की जाती है। यह उत्सव न केवल धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है, बल्कि इसमें अनेक ऐसी परंपराएं और मान्यताएं जुड़ी हैं, जो इसे विशेष बनाती हैं। रथ यात्रा के दिन भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा अपने रथों पर सवार होकर श्रीमंदिर से निकलते हैं और गुंडिचा मंदिर की ओर जाते हैं। इस पूरे मार्ग में रथ कई स्थानों पर रुकता है और हर एक स्थान से जुड़ी अपनी एक खास कहानी और परंपरा है।
सबसे पहले श्रीमंदिर में भगवान की मंगला आरती होती है। यह आरती भगवान को रथयात्रा के लिए जगाने, स्नान कराने और अलंकार करने के बाद की जाती है। इसके बाद भगवानों को मंदिर से बाहर लाया जाता है, जिसे ‘पहंडी' कहा जाता है। तीनों देवी-देवताओं को पालकी की तरह मानव श्रृंखला के जरिए रथ तक पहुंचाया जाता है।
अपने-अपने रथों पर विराजमान होते हैं भगवान
भगवान जगन्नाथ का रथ ‘नंदीघोष’, बलभद्र का रथ ‘तालध्वज’ और सुभद्रा का रथ ‘दर्पदलन’ कहलाता है। यह तीनों रथ सैकड़ों कारीगरों द्वारा खास लकड़ी से बनाए जाते हैं और हर साल इन्हें नए सिरे से बनाया जाता है। यात्रा के दौरान सबसे पहले बलभद्र का रथ आगे बढ़ता है, उसके बाद सुभद्रा जी का और फिर सबसे अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ खींचा जाता है।
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रथयात्रा की शुरुआत श्रीमंदिर से होती है और सबसे पहली महत्त्वपूर्ण जगह है सिंहद्वार यानी मंदिर का मुख्य द्वार। यहां से रथ खींचने के रस्म की शुरुआत होती है और 'छेरा पहरा' की रस्म की जाती है। इसमें पुरी के गजपति राजा एक झाड़ू से रथ को साफ करते हैं, जिससे यह दिखाया जाता है कि भगवान के सामने सभी समान हैं, चाहे वह राजा हो या सामान्य व्यक्ति।
इन जगहों पर रुकते हैं रथ
सिंहद्वार से रथ आगे बढ़ता है और यात्रा के मार्ग को 'बड़ा डंडा' कहा जाता है। इस मार्ग में कई विशेष स्थान हैं जहां पर रथ कुछ समय के लिए रुकता है। एक प्रमुख स्थान है 'मां अरुणा स्तंभ' के पास, जहां पर मान्यता है कि भगवान कुछ समय के लिए विश्राम करते हैं। इसके अलावा, रास्ते में रथ कई बार अपने आप रुक जाता है जिसे भक्त ‘ईश्वरीय संकेत’ मानते हैं। यह रुकना अक्सर बहुत गूढ़ होता है और इसे दैविक इच्छा माना जाता है। कई बार रथ बिना किसी वजह से कई घंटों तक नहीं हिलता, जिसे वहां के पंडित और भक्त किसी विशेष भविष्यवाणी या संदेश के रूप में देखते हैं।
रथ का दूसरा जरूरी पड़ाव सालबेग की मजार
ओडिशा के पुरी में हर साल भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा के दौरान सालबेग की मजार पर रथ कुछ देर के लिए रुकता है। यह परंपरा 17वीं शताब्दी से चली आ रही है और इसके पीछे एक लोककथा से जुड़ी है। सालबेग एक मुस्लिम भक्त थे, जिनका जन्म मुगल सूबेदार लालबेग और एक हिंदू ब्राह्मण विधवा के पुत्र के रूप में हुआ था। वह भगवान जगन्नाथ के प्रति गहरी भक्ति रखते थे। एक बार युद्ध में घायल होने के बाद उनकी मां की सलाह पर उन्होंने भगवान जगन्नाथ की भक्ति शुरू की, जिसके बाद उनके घाव चमत्कारिक रूप से ठीक हो गए। इससे उनकी भक्ति और गहरी हो गई, लेकिन मुस्लिम होने के कारण उन्हें जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश नहीं मिला।
कहा जाता है कि सालबेग की मृत्यु के बाद, जब पहली बार रथ यात्रा निकली, तो भगवान जगन्नाथ का रथ उनकी मजार के पास रुक गया और लाख कोशिशों के बावजूद आगे नहीं बढ़ा। तब एक पुजारी या भक्त ने सालबेग के नाम का जयकारा लगाने की सलाह दी। जयकारा लगते ही रथ स्वयं चल पड़ा। तब से यह परंपरा बन गई कि हर साल रथ यात्रा के दौरान सालबेग की मजार पर रथ को कुछ देर के लिए रोका जाता है
सबसे महत्वपूर्ण और अंतिम पड़ाव
रथ यात्रा का सबसे बड़ा पड़ाव है ‘गुंडीचा मंदिर’। यह मंदिर श्रीमंदिर से करीब तीन किलोमीटर दूर है और भगवान की मौसी का घर कहा जाता है। मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ हर साल अपनी मौसी के घर जाते हैं और वहां नौ दिन तक विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर में भगवान का स्वागत विशेष विधियों से होता है और भक्त बड़ी संख्या में यहां पूजा करते हैं।
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गुंडीचा मंदिर तक पहुंचने के बाद भगवान का रथ भी कुछ समय के लिए मंदिर के सामने रुकता है। यह प्रतीक होता है कि भगवान अपनी मौसी से मिलने से पहले थोड़ा विश्राम कर रहे हैं। इसके बाद भगवानों को मंदिर के भीतर ले जाया जाता है और वहां नवमी तिथि तक विशेष पूजा-अर्चना होती है।
रथ यात्रा के दौरान एक और महत्वपूर्ण स्थान है ‘महबड़’, जहां रथ कभी-कभी विश्राम करता है। लोक मान्यता है कि यह स्थान शक्ति की उपस्थिति का प्रतीक है और यहां भगवान रुककर शक्ति से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।
वापसी के समय श्री मां लक्ष्मी का मंदिर है खास पड़ाव
वापसी यात्रा, जिसे 'बहुड़ा यात्रा' कहा जाता है, भी उतनी ही खास होती है। इस दौरान रथ फिर से उन्हीं रास्तों से वापस लौटते हैं। इस वापसी में एक खास पड़ाव आता है ‘मां लक्ष्मी का मंदिर’, जहां एक अनूठी परंपरा निभाई जाती है। मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ जब बिना लक्ष्मी जी को बताए अपनी बहन के साथ निकलते हैं, तो वापसी में लक्ष्मी जी उन्हें द्वार पर ही रोक लेती हैं और भगवान को मनाने का प्रयास होता है।
इस संपूर्ण यात्रा के दौरान भगवान का रथ जहां-जहां रुकता है, वहां श्रद्धालु बड़ी संख्या में इकट्ठा होते हैं और हर स्थान का अपना सांस्कृतिक व आध्यात्मिक महत्व होता है। कहीं पर रथ का रुकना विश्राम का प्रतीक होता है, तो कहीं किसी दिव्य संकेत का चिन्ह होता है।
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