कामाख्या मंदिर: शक्ति पूजा और साधन का पर्व है अंबुबाची मेला
धर्म-कर्म
• GUWAHATI 23 Jun 2025, (अपडेटेड 23 Jun 2025, 12:04 PM IST)
असम के गुवाहाटी में स्थित कामाख्या मंदिर में अंबुबाची पर्व का विशेष महत्व है। आइए जानते हैं इस पर्व से जुड़ी कुछ खास बातें।

कामाख्या मंदिर, असम(Photo Credit: PTI)
सनातन परंपरा में देवी को समर्पित कई पर्व और व्रत रखे जाते हैं। विभिन्न क्षेत्रों में यह पर्व और उनसे जुड़ी परंपराएं भी अलग-अलग होते हैं। इन्हीं में से एक देवी कामाख्या मंदिर एक ऐसा अनूठा स्थान है जहां देवी विशिष्ठ उपासना की जाती है। यह मंदिर असम के गुवाहाटी में नीलाचल पहाड़ियों पर स्थित है और इसे 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। इस स्थान से जुड़ी एक खास बात यह है कि यहां किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि एक प्राकृतिक कुंड की पूजा की जाती है, जिसे देवी सती के योनि भाग का प्रतीक माना जाता है। आइए कामाख्या मंदिर के बारे में जानते हैं और अंबुबाची मेला क्या है इसे भी समझते हैं।
कामाख्या मंदिर और उसका इतिहास
कामाख्या मंदिर का इतिहास प्राचीन काल से जुड़ता है और यह मंदिर सनातन धर्म में बहुत महत्व रखता है। पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवी सती ने अपने पिता से क्रोधित होकर अग्नि में खुद को समर्पित कर दिया और भगवान शिव अपनी पत्नी के मृत शरीर को लेकर ब्रह्मांड में तांडव करने लगे, तब भगवान विष्णु ने उनके क्रोध को शांत करने और सृष्टि को बचाने के लिए अपने चक्र से सती के शरीर के 51 टुकड़े कर दिए। यह सभी टुकड़े पृथ्वी पर जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। कामाख्या मंदिर वह स्थान है जहां देवी सती की योनि गिरी थी। यही कारण है कि यहां देवी की सृजन शक्ति और स्त्री तत्व की पूजा की जाती है।
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कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पौराणिक काल में हुआ था लेकिन समय-समय पर इसे विभिन्न राजाओं द्वारा इसका जीर्णोद्धार किया गया। वर्तमान मंदिर सोलहवीं शताब्दी में कूच बिहार के राजा नर नारायण द्वारा बनवाया गया था, क्योंकि पिछला मंदिर आक्रमणकारियों द्वारा नष्ट कर दिया गया था। कामाख्या मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का, बल्कि तांत्रिक साधना का एक प्रमुख केंद्र भी है। यहां तांत्रिक और अघोरी यहां सिद्धि प्राप्त करने आते हैं।
अंबुबाची पर्व
कामाख्या मंदिर में बड़ी संख्या में भक्त अंबुबाची पर्व के दौरान एकत्रित होते हैं, जिसमें देवी कामाख्या रजस्वला होती हैं। यह पर्व हर साल जून के मध्य में शुरू होता है और चार दिनों तक चलता है। अंबुबाची शब्द का मतलब है ‘अंबू’ (पानी) और ‘बाची’ (फूलना/उत्पन्न होना), जो पृथ्वी की उर्वरता और मानसून की शुरुआत का प्रतीक है। इस पर्व के दौरान, यह माना जाता है कि धरती जिन्हें हिन्दू धर्म में माता के रूप में पूजा जाता है, भी अपने मासिक धर्म चक्र से गुजर रही होती हैं, जिससे खेतों की उर्वरता बढ़ती है और भूमि नई फसल के लिए तैयार होती है।
VIDEO | Guwahati: Devotees gather in large numbers as the four-day Ambubachi Mela 2025 begins at Assam’s Kamakhya Temple.
— Press Trust of India (@PTI_News) June 23, 2025
(Full video available on PTI Videos - https://t.co/n147TvqRQz) pic.twitter.com/3bi4l8nnzx
अंबुबाची पर्व के दौरान, कामाख्या मंदिर के कपाट बंद रहते हैं। श्रद्धालु मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं लेकिन उन्हें गर्भगृह में प्रवेश की अनुमति नहीं होती। इस समय मंत्रों का जाप, ध्यान और तंत्र साधना की जाती है। साधु-संत और तांत्रिक बड़ी संख्या में यहां आते हैं। चौथे दिन, जब देवी को शुद्ध माना जाता है, मंदिर के कपाट फिर से खोले जाते हैं और विशेष पूजा-अर्चना के बाद भक्तों को दर्शन और प्रसाद दिया जाता है। इस प्रसाद में एक विशेष लाल कपड़ा शामिल होता है, जिसे ‘अंबुबाची वस्त्र’ कहा जाता है। यह माना जाता है कि यह वस्त्र देवी के रक्त से लाल हुआ है और इसे धारण करने से सौभाग्य और समृद्धि आती है।
देवी का रजस्वला होना
कामाख्या मंदिर की सबसे अनोखी और चमत्कारी बात यह है कि यहां माना जाता है कि देवी कामाख्या हर साल रजस्वला होती हैं। यह घटना आषाढ़ मास में होती है, जब सूर्य मिथुन राशि में प्रवेश करते हैं। इस दौरान मंदिर के गर्भगृह से निकलने वाला जल लाल हो जाता है। यह लाल रंग देवी के मासिक धर्म का प्रतीक माना जाता है। इस अवधि में, जो आमतौर पर तीन दिनों की होती है, मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं और कोई पूजा-अर्चना नहीं की जाती। इसके पीछे यह मान्यता है कि इस समय देवी स्वयं सृजन की प्रक्रिया से गुजर रही होती हैं।
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देवी के रजस्वला से जुड़ा एक और मंदिर
असम के कामाख्या मंदिर की ही तरह केरल का चेंगन्नूर महादेव मंदिर भी ऐसा ही एक स्थान है, जहां मान्यता है कि देवी की मूर्ति को समय-समय पर मासिक धर्म होता है। ऐसा 2-3 महीने के अंतराल पर होता है। जब ऐसा होता है, तो पुजारी मूर्ति को लाल कपड़े से ढक देते हैं और विशेष पूजा करते हैं। यह परंपरा यहां आए भक्तों के लिए बहुत खास है और इसे बड़े सम्मान से निभाया जाता है।
पुराणों में रजस्वला का अर्थ
वामन पुराण, गरुड़ पुराण इत्यादि में भी ‘रजस्वला’ का उल्लेख मिलता है। पौराणिक कथाओं में, रजस्वला अवस्था को अपवित्रता नहीं, बल्कि शक्ति और सृजन क्षमता से जोड़ा गया है। भागवत पुराण के अनुसार, एक बार इंद्र देव को ब्रह्महत्या का पाप लगा था। इस पाप को दूर करने के लिए उन्हें अपना एक चौथाई पाप पृथ्वी, वृक्षों, जल और स्त्रियों में बांटना पड़ा था। स्त्री ने इस पाप के एक हिस्से को मासिक धर्म के रूप में स्वीकार किया।
इस कथा से यह बताने का प्रयास किया गया है कि रजस्वला अवस्था को केवल शारीरिक प्रक्रिया के रूप में नहीं देखा जाए, बल्कि इसे एक वरदान के रूप में भी समझा जाए, जो स्त्री को सृजन और शक्ति से जोड़ता है। हालांकि, पारंपरिक मान्यताओं में रजस्वला के दौरान महिलाओं को कुछ धार्मिक कार्यों और रसोई से दूर रहने की सलाह दी जाती है लेकिन यह मुख्य रूप से मासिक धर्म में होने वाली पीड़ा के दौरान आराम करने और स्वच्छता से जुड़ा है, न कि किसी नकारात्मक धारणा से।
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