logo

ट्रेंडिंग:

गोरे हब्बा: कर्नाटक के इस त्योहार में एक-दूसरे पर गोबर क्यों मलते हैं लोग?

कर्नाटक के चामराजनगर जिले के एक गांव में दीपावली के बाद एक अनोखा त्योहार मनाने की परंपरा पूरे भारत में प्रसिद्ध है। इस त्योहार में लोग गाय के गोबर से एक-दूसरे के साथ खेलते हैं।

Gore Hubba festival

गोरे हब्बा त्योहार: Photo Credit: Social Media

कर्नाटक के चामराजनगर जिले के गुमतापुरा गांव में हर साल दिवाली के अगले दिन एक ऐसा अनोखा त्योहार मनाया जाता है, जिसकी चर्चा पूरे देश में होती है। यहां लोग मिठाइयों या पटाखों से नहीं, बल्कि गोबर से मनाते हैं। इस परंपरा को स्थानीय लोग ‘गोरे हब्बा’ यानी गोबर उत्सव के नाम से जानते हैं। यह सदियों पुराना आयोजन न सिर्फ भक्ति और आस्था, बल्कि एकता और समानता का भी प्रतीक माना जाता है।

 

हर साल बलीपाद्यमी के अगले दिन हजारों की संख्या में लोग तमिलनाडु और आसपास के गांवों से यहां पहुंचते हैं। पूरे गांव का माहौल जश्न में डूब जाता है। पहले गांव के बीरश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की जाती है, फिर शुरू होती है गोबर की लड़ाई, जहां लोग एक-दूसरे पर गोबर फेंकते हैं और इस अनोखे तरीके से भगवान से आशीर्वाद की कामना करते हैं।

 

स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, इस परंपरा की शुरुआत कई सौ साल पहले एक संत की याद में हुई थी, जिनकी पूजा आज भी बीरेप्पा मंदिर में होती है। ग्रामीणों का विश्वास है कि इस आयोजन से बीमारियां दूर होती हैं, गांव में शांति और समृद्धि बनी रहती है और समाज में मेलजोल बढ़ता है।

 

यह भी पढ़ें: 1 या 2 नवंबर किस दिन मनाई जाएगी देवउठनी एकादशी? जानें वैदिक मुहूर्त

 

आस्था, परंपरा और मस्ती का त्योहार

त्योहार की शुरुआत बीरश्वर मंदिर से होती है, जहां ग्रामीण पूजा करते हैं और मंदिर के सामने ताजा गोबर के ढेर लगाते हैं। बच्चे घर-घर जाकर दूध और घी इकट्ठा करते हैं, जिनसे गांव की देवी करेश्वर का विशेष स्नान कराया जाता है।

 

इसके बाद एक मजेदार किरदार ‘चडिकोर’ बनता है,  जो पत्तों और घास से ढका होता है, नकली मूंछ लगाता है और भूसे की माला पहनता है। उसे गधे पर बैठाकर पूरे गांव में घुमाया जाता है। जुलूस बीरेप्पा मंदिर के चारों ओर घूमता है और फिर शुरू होती है असली गोबर की जंग।

 

गांव के लोगों के अनुसार, यह परंपरा देवी की इच्छा को पूरा करने और गांव की एकता को बनाए रखने के लिए निभाई जाती है।

 

यह भी पढ़ें: बूढ़ी दीपावली क्यों मनाई जाती है? पहाड़ी क्षेत्रों में क्या है इसकी मान्यता

गोरे हब्बा की पौराणिक कथा

गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि इस त्योहार की शुरुआत कई सदियों पहले हुई थी। कहा जाता है कि उत्तर भारत से आए एक संत कुछ समय के लिए कालेगौड़ा नामक व्यक्ति के घर में रहे थे। उनकी मृत्यु के बाद उनके सामान को एक गड्ढे में डाल दिया गया। कुछ दिनों बाद, उसी जगह से गुजरते हुए एक बैलगाड़ी के पहिए ने जमीन को छुआ और वहां से शिवलिंग निकला, जिससे खून बहने लगा।

 

रात में संत ने गांववालों के सपने में आकर कहा कि उनकी याद में हर साल दिवाली के अगले दिन गोरे हब्बा मनाया जाए। उसी जगह अब बीरेप्पा मंदिर बना हुआ है, जहां यह परंपरा आज भी जारी है।

मस्ती, शोर और मेलजोल का त्योहार

त्योहार शुरू होने से पहले ग्रामीण गधे को सजाते और नहलाते हैं, तालाब के पास पूजा करते हैं और फिर उसे लेकर जुलूस निकालते हैं। इसके बाद सब तालाब में नहाते हैं और हंसी-मजाक करते हुए वापस लौटते हैं।

 

त्योहार का एक सामाजिक संदेश भी है। ‘चडिकोर’ के रूप में सजने वाले दो लोग झूठ और कपट का प्रतीक माने जाते हैं। उनका जुलूस निकालकर गांववाले यह संदेश देते हैं कि समाज में सत्य और एकता बनी रहनी चाहिए।

 

जब गोबर युद्ध शुरू होता है, तो पुरुष, महिलाएं और बच्चे लगभग दो घंटे तक हंसी-खुशी एक-दूसरे पर गोबर फेंकते हैं। पूरा माहौल शोर, ठहाकों और जोश से भर जाता है।

वहां के स्थानीय लोगों के अनुसार, 'गोरे हब्बा सिर्फ गोबर फेंकने का त्योहार नहीं, बल्कि बराबरी और भाईचारे का प्रतीक है, जहां हर कोई गंदा होता है और फिर सब साथ में साफ हो जाते हैं।'

Related Topic:#Vrat Tyohar

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

design

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap