मां पूर्णागिरि मंदिर: वह शक्तिपीठ जहां गिरी थी माता सती की नाभि
धर्म-कर्म
• TANAKPUR 25 May 2025, (अपडेटेड 25 May 2025, 11:40 AM IST)
देवी सती के 51 शक्तिपीठों में से एक पूर्णागिरि मंदिर का अपना एक खास स्थान है। आइए जानते हैं, इस स्थान से जुड़ी कुछ खास बातें।

मां पूर्णागिरि मंदिर(Photo Credit: AI Image)
भारत में देवी शक्ति के कई शक्तिपीठ और सिद्ध पीठ स्थापित हैं जिनका अपना एक विशेष महत्व है। ऐसे ही उत्तराखंड के चंपावत जिले में, टनकपुर के निकट, अन्नपूर्णा शिखर पर स्थित मां पूर्णागिरि मंदिर, आस्था और आध्यात्मिकता का एक अद्वितीय केंद्र है। यह पवित्र धाम लगभग 3000 मीटर (या 5500 फीट) की ऊंचाई पर, शारदा नदी (जिसे काली नदी भी कहते हैं) के तट पर विराजमान है । इस मंदिर को भारत के 108 सिद्ध पीठों और 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है, जो इसकी अद्वितीय धार्मिक महत्ता को स्थापित करता है ।
मंदिर की यह ऊंचाई और अन्नपूर्णा शिखर पर इसका स्थान भक्तों के लिए केवल एक भौगोलिक तथ्य नहीं है, बल्कि यह एक प्रतीकात्मक 'ऊर्ध्वगामी यात्रा' का प्रतिनिधित्व करता है। पहाड़ी की खड़ी चढ़ाई भक्तों के लिए शारीरिक तपस्या का एक रूप मानी जाती है, जो उन्हें आध्यात्मिक शुद्धता और एक गहन अनुभव की ओर अग्रसर करती है। यह यात्रा स्वयं में एक भक्तिपूर्ण कार्य है, जो श्रद्धालुओं की आस्था की गहराई और उनके समर्पण को परिलक्षित करती है।
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मां पूर्णागिरि मंदिर की पौराणिक कथा
मां पूर्णागिरि मंदिर से जुड़ी सबसे प्रमुख कथा देवी सती और भगवान शिव की पौराणिक गाथा से संबंधित है। जब दक्ष प्रजापति ने एक विशाल यज्ञ का आयोजन किया और भगवान शिव को छोड़कर सभी देवताओं को आमंत्रित किया, तो सती बिना बुलाए अपने पिता के यज्ञ में पहुंच गईं । वहां अपने पति के अपमान से क्रोधित होकर उन्होंने स्वयं को यज्ञ की अग्नि में भस्म कर लिया। सती के देह त्याग से व्यथित भगवान शिव उनके जलते हुए शरीर को लेकर ब्रह्मांड में विचरण करने लगे, जिससे सृष्टि में हाहाकार मच गया । तब भगवान विष्णु ने सृष्टि को इस संकट से बचाने के लिए अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के शरीर के टुकड़े कर दिए, ताकि शिव का मोह भंग हो सके। जिन-जिन स्थानों पर सती के शरीर के अंग गिरे, वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए।
मान्यता है कि पूर्णागिरि में माता सती की नाभि गिरी थी, जिसके कारण यह स्थान एक अत्यंत महत्वपूर्ण शक्तिपीठ बन गया । 'पूर्णागिरि' नाम का संबंध भी इसी घटना से है; यह माना जाता है कि नाभि शरीर की 'पूर्ण विकृति' या पूर्ण रूप का प्रतीक है, और यहीं पर नाभि गिरने के कारण इस स्थान को पूर्णागिरि कहा जाने लगा, जिसका अर्थ है 'पूर्णता का पर्वत' । यह कथा मंदिर की पहचान और उसके नाम का मूल आधार है, जो भक्तों को मंदिर के दिव्य उद्भव से जोड़ती है और उनकी श्रद्धा को गहरा करती है।
मंदिर के इतिहास से जुड़ी एक अन्य कथा के अनुसार, सन् 1632 में गुजरात के चंद्र तिवारी नामक एक व्यापारी ने चंपावत के राजा ज्ञानचंद के यहां शरण ली थी । एक रात, मां पुण्यगिरि ने उनके स्वप्न में दर्शन दिए और एक मंदिर के निर्माण का आदेश दिया। इसी दिव्य प्रेरणा के फलस्वरूप पूर्णागिरि मंदिर का निर्माण करवाया गया, और तब से यह भक्तों की आस्था का केंद्र बना हुआ है । यह ऐतिहासिक आख्यान पौराणिक कथा को एक मानवीय संदर्भ प्रदान करता है, यह दर्शाता है कि दिव्य इच्छा कैसे मानवीय प्रयासों के माध्यम से प्रकट होती है। यह संयोजन मंदिर को केवल एक पूजा स्थल से कहीं अधिक, एक जीवित परंपरा और दिव्य हस्तक्षेप के प्रमाण के रूप में स्थापित करता है।
मां पूर्णागिरि मंदिर की प्रमुख मान्यताएं और परंपराएं
सिद्ध बाबा और भैरव मंदिर का महत्व: पूर्णागिरि की यात्रा को तब तक पूर्ण नहीं माना जाता, जब तक भक्त सिद्ध बाबा मंदिर और भैरव मंदिर के दर्शन न कर लें । भैरव मंदिर को पूर्णागिरि शक्तिपीठ का द्वारपाल माना जाता है, और यह यात्रा का प्रारंभिक बिंदु भी है । यहां साल भर धूनी जलती रहती है । सिद्ध बाबा को मां पूर्णागिरि का अनन्य भक्त माना जाता है। एक कथा के अनुसार, देवी के क्रोध से उन्हें शारदा नदी के पार नेपाल में फेंक दिया गया था, जहां उनका मंदिर स्थित है । सिद्ध बाबा के दर्शन नेपाल स्थित ब्रह्मदेव में किए जाते हैं । भैरव मंदिर को 'द्वारपाल' मानना और सिद्ध बाबा के दर्शन को यात्रा की 'पूर्णता' के लिए अनिवार्य बताना एक गहरी अनुष्ठानिक संरचना को दर्शाता है। यह एक अनिवार्य क्रम है, जो भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि उनकी यात्रा दिव्य रूप से सुरक्षित और स्वीकृत है। यह प्रणाली यह भी बताती है कि मुख्य देवी तक पहुंचने से पहले सहायक या संरक्षक देवताओं का सम्मान करना आवश्यक है, जो आध्यात्मिक यात्रा में विनम्रता और व्यवस्था के महत्व पर जोर देता है।
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मनोकामना पूर्ति और चुनरी की गांठ: भक्त अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए मां पूर्णागिरि के दरबार में चुनरी में गांठ बांधकर प्रार्थना करते हैं। जब उनकी मुराद पूरी हो जाती है, तो वे कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए वापस आकर उस गांठ को खोलते हैं । यह परंपरा पहले पहाड़ी की घास में गांठ बांधकर की जाती थी । चुनरी में गांठ बांधने और खोलने की यह परंपरा भक्तों और देवी के बीच एक व्यक्तिगत और संविदात्मक संबंध को दर्शाती है। यह केवल एक प्रार्थना नहीं, बल्कि एक प्रतिज्ञा है जिसे पूरा होने पर कृतज्ञता के साथ निभाया जाता है। यह अनुष्ठान भक्तों को उनकी आध्यात्मिक यात्रा में सक्रिय भागीदार बनाता है, जहां उनकी आस्था का परिणाम उन्हें एक मूर्त क्रिया के माध्यम से अनुभव होता है।
Disclaimer- यहां दी गई सभी जानकारी सामाजिक और धार्मिक आस्थाओं पर आधारित हैं।
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