नंदा देवी यात्रा: 12 साल में एक बार होने वाला यह उत्सव खास क्यों?
धर्म-कर्म
• CHAMOLI 19 Jul 2025, (अपडेटेड 19 Jul 2025, 1:49 PM IST)
उत्तराखंड की संस्कृति में नंदा देवी यात्रा को बहुत ही महत्व दिया जाता है। आइए जानते हैं इस यात्रा से जुड़ी खास बातें।

12 साल पहले आयोजित हुई थी नंदा देवी यात्रा।(Photo Credit: Wikimedia Commons)
उत्तराखंड की भूमि को देवी-देवताओं का निवास कहा जाता है और यहां हर पर्व, हर यात्रा का एक आध्यात्मिक महत्व है। ऐसी ही एक धार्मिक और सांस्कृतिक यात्रा है नंदा देवी यात्रा, जिसे नंदा राजजात यात्रा के नाम से भी जाना जाता है। यह यात्रा उत्तराखंड की सबसे कठिन, लंबी और महत्वपूर्ण धार्मिक यात्राओं में से एक मानी जाती है। यह केवल एक यात्रा नहीं, बल्कि परंपराओं और देवियों की आस्था का संगम है।
नंदा देवी को उत्तराखंड की कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है। उन्हें मां पार्वती का ही एक रूप माना गया है। नंदा देवी को इस देवभूमि की बेटी माना जाता है, जो सालों में एक बार अपने मायके (कुमाऊं-गढ़वाल) से ससुराल (हिमालय) की ओर प्रस्थान करती हैं। इस विदाई के रूप में यह भव्य यात्रा निकाली जाती है।
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नंदा देवी यात्रा की लंबाई, मार्ग और पड़ाव
यह यात्रा हर 12 साल में एक बार आयोजित होती है और लगभग 280 किलोमीटर लंबी होती है। यह यात्रा चामोली जिले के कुरुड़ गांव या नंदकेश्वर से शुरू होकर नंदा देवी के मायके ‘होमकुंड’ तक जाती है। यह यात्रा 19 दिनों तक चलती है और ऊंचे पर्वत, बर्फीले रास्तों और दुर्गम घाटियों से होकर गुजरती है।
इस यात्रा में कई छोटे-बड़े पड़ाव आते हैं और हर स्थान का विशेष धार्मिक और पौराणिक महत्व होता है।
- नंदकेश्वर- यह यात्रा का प्रारंभिक स्थान है, जहां नंदा देवी की डोली की स्थापना होती है।
- सेमी- यहां पहला रात्रि विश्राम होता है।
- काटुलमल्ला- यहां यात्रा की विधिवत पूजा होती है और देवी से सुरक्षा की प्रार्थना की जाती है।
- बगजी बगड़- यह एक सुंदर मैदान है जहां देवी के साथ चल रही भैंसियों और प्रतीकात्मक सामग्रियों को आराम दिया जाता है।
- गड़ूगाड़- यहां देवी के गहनों और प्रतीकों को विशेष स्नान कराया जाता है।
- पातरनचोणिया- यह स्थान पौराणिक रूप से बहुत पवित्र माना जाता है।
- होमकुंड- यह यात्रा का अंतिम और सबसे पवित्र पड़ाव है, जो समुद्र तल से 4,200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहीं देवी की विदाई होती है और उन्हें हिमालय में ससुराल के लिए भेजा जाता है।
इन सभी पड़ावों पर भजन-कीर्तन, पूजा-अर्चना, लोकनृत्य और लोकगीतों का आयोजन होता है। यात्रा के साथ साथ एक चार सींगों वाली भेड़ भी जाती है, जो देवी का प्रतीक मानी जाती है। अंत में इसे होमकुंड में छोड़ दिया जाता है, जहां वह पहाड़ों में विलीन हो जाती है। इसे देवी का हिमालय लौटना माना जाता है।
इस यात्रा का आयोजन और समय
नंदा देवी यात्रा का आयोजन मुख्य रूप से श्रावण पूर्णिमा के बाद आरंभ होता है और यह यात्रा भाद्रपद मास (अगस्त-सितंबर) में समाप्त होती है। जब यह यात्रा 12 वर्ष बाद बड़े स्तर पर आयोजित होती है, तब उसे नंदा राजजात यात्रा कहा जाता है। इसके अलावा हर साल छोटी यात्रा भी निकाली जाती है, जिसे नंदाष्टमी यात्रा कहा जाता है।
इस यात्रा का आयोजन चमोली, रूद्रप्रयाग और पिथौरागढ़ जिलों के स्थानीय प्रशासन और मंदिर समितियों के सहयोग से होता है। इसमें हजारों श्रद्धालु, साधु, स्थानीय निवासी और पर्यटक भाग लेते हैं।
नंदा देवी से जुड़ी पौराणिक कथा
नंदा देवी के जन्म और उनके विवाह को लेकर कई पौराणिक कथाएं हैं। एक कथा के अनुसार, नंदा देवी भगवान शिव की पत्नी माता पार्वती का ही दूसरा रूप हैं। कहा जाता है कि नंदा नाम की एक कन्या का विवाह शिव से तय हुआ था और वह अपने मायके से ससुराल (हिमालय) जा रही थीं। लेकिन रास्ते में उन्हें राक्षसों ने रोकने की कोशिश की। तब नंदा देवी ने युद्ध करके उन्हें पराजित किया और आगे बढ़ीं।
एक अन्य मान्यता के अनुसार, नंदा देवी हिमालय के नंदा पर्वत पर विराजती हैं और अपने मायके (कुमाऊं-गढ़वाल) आने पर विशेष पूजा प्राप्त करती हैं। विदाई के समय उनके साथ जो भावनात्मक वातावरण बनता है, वही इस यात्रा की आत्मा है।
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इस यात्रा का इतिहास
नंदा देवी यात्रा का इतिहास सदियों पुराना है। यह यात्रा प्राचीनकाल से होती आ रही है, जब लोग देवी की डोली को कंधों पर उठाकर हिमालय की ओर ले जाते थे। इसका पहला ऐतिहासिक उल्लेख 8वीं-9वीं शताब्दी के दौरान कुमाऊं के कत्यूरी राजाओं के समय मिलता है। उस समय यह यात्रा केवल शाही परिवारों द्वारा करवाई जाती थी।
धीरे-धीरे यह जन आस्था की यात्रा बन गई और स्थानीय लोग इसे हर 12 वर्ष में धूमधाम से मनाने लगे। अब यह यात्रा एक धार्मिक और सांस्कृतिक महाकुंभ का रूप ले चुकी है, जिसमें भारत के विभिन्न राज्यों से लोग हिस्सा लेने आते हैं। नंदा देवी यात्रा को उत्तराखंड की कुंभ यात्रा भी कहा जाता है।
यात्रा का सामाजिक और आध्यात्मिक महत्व
इस यात्रा में आस्था के साथ-साथ प्रकृति से जुड़ाव का भाव भी होता है। ऊंचे पहाड़ों, बर्फीले रास्तों और तेज हवाओं के बीच चलने वाले श्रद्धालु केवल शारीरिक यात्रा नहीं करते, बल्कि यह एक आध्यात्मिक यात्रा बन जाती है। इसमें त्याग, सेवा, अनुशासन और भक्ति का संगम देखने को मिलता है।
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