भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक चलने वाला पितृपक्ष हिंदू धर्म में एक विशेष अवसर के रूप में माना जाता है। इस दौरान पितरों की स्मृति और तृप्ति के लिए श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किए जाते हैं। धर्मग्रंथों और पुराणों में इसका महत्व विस्तार से बताया गया है। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि इन 15 दिनों में पितृलोक के द्वार पृथ्वी लोक के लिए खुले रहते हैं और पितर अपने वंशजों से अन्न-जल की अपेक्षा रखते हैं।
श्राद्ध और तर्पण से पितरों की आत्मा को शांति मिलती है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर जीवन में सुख-समृद्धि और संतान की प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। विष्णु पुराण में वर्णित है कि पितृपक्ष में किया गया तर्पण पूरे वर्ष के लिए पितरों को तृप्त करता है। यही वजह है कि इस पखवाड़े को 'पितरों का पावन काल' कहा जाता है और हर हिंदू परिवार इसे पूरी श्रद्धा के साथ निभाता है।
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पितृपक्ष में क्यों किया जाता है पितरों का तर्पण?
गरुड़ पुराण – गरुड़ पुराण के अनुसार, पितृपक्ष (भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक) के 15 दिन पितृलोक के द्वार पृथ्वी लोक के लिए खुले रहते हैं। इस समय पितर अपने वंशजों की ओर देखते हैं और तर्पण, पिंडदान और श्राद्ध से संतुष्ट होकर आशीर्वाद देते हैं।
महाभारत (अनुशासन पर्व) – महाभारत में प्रचलित कथा के अनुसार, भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को बताया कि पितृपक्ष में श्राद्ध करना तीनों लोकों के लिए कल्याणकारी है। इससे पितरों को तृप्ति मिलती है और वंशजों को आयु, धन, संतान और सुख मिलता है।
मनुस्मृति – इस धर्म ग्रंथ के अनुसार, श्राद्ध और तर्पण को पितरों का 'ऋण चुकाना' कहा गया है। यह बताया गया है कि मनुष्य तीन ऋण लेकर जन्म लेता है – देवऋण, ऋषिऋण और पितृऋण। इनमें पितृऋण को तर्पण और श्राद्ध से चुकाना आवश्यक माना गया है।
विष्णु पुराण – इस पु्राण के अनुसार, जो वंशज पितृपक्ष में तर्पण करता है, उसके पितर अगले एक वर्ष तक तृप्त रहते हैं और उसका कुल समृद्धि और शांति पाता है।
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धार्मिक मान्यता
- माना जाता है कि पितृपक्ष में सूर्य कन्या राशि में और चंद्रमा पितृलोक से संबंधित नक्षत्रों में विचरण (घूमना) करता है। यह समय पितरों को स्मरण करने और उनके लिए अर्पण करने का विशेष मुहूर्त माना जाता है।
- पितर इस दौरान पृथ्वी पर आते हैं, इसलिए जल, तिल, कुशा और अन्न से तर्पण कर उन्हें तृप्त करना आवश्यक माना गया है।
- पितरों को तर्पण देने से उनका आशीर्वाद मिलता है, वे अपने वंशजों की रक्षा करते हैं और घर-परिवार में सुख-समृद्धि बनी रहती है।
तर्पण की सही विधि
स्थान और समय का चयन
- तर्पण प्रातःकाल या दोपहर से पहले किया जाता है।
- इसे नदी, तालाब, कुएं या घर के आंगन में कुशा बिछाकर भी किया जा सकता है।
- पवित्र और शांत स्थान पर तर्पण करना श्रेष्ठ है।
शुद्धि और आचमन
- स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- आचमन (जल ग्रहण) करके पवित्रता का संकल्प लें।
- तर्पण दक्षिण दिशा की ओर मुख करके किया जाता है क्योंकि दक्षिण दिशा यमलोक की दिशा मानी जाती है।
संकल्प
- जल और कुशा लेकर अपने गोत्र और पितरों का स्मरण करते हुए संकल्प लें।
- संकल्प में अपने पितरों (पिता, दादा, परदादा, माता, दादी आदि) का नाम लिया जाता है।
तर्पण सामग्री तैयार करना
- जल, तिल, कुशा, चावल (अक्षत), पुष्प, दूर्वा, दूध, घी, शहद आदि एक पात्र में रखें।
- तर्पण के लिए तांबे या पीतल के पात्र का प्रयोग उत्तम माना गया है।
कुशा धारण
- कुशा की अंगूठी बनाकर दाहिने हाथ की अनामिका में पहन लें।
- मान्यता है कि बिना कुशा के तर्पण अधूरा होता है।
जल और तिल से तर्पण
- दाहिने हाथ से जल, तिल और कुशा मिलाकर पितरों को अर्पित करें।
- जल अर्पण करते समय 'ॐ पितृभ्यः स्वधा नमः' मंत्र का उच्चारण करें।
- तीन बार तर्पण अवश्य करना चाहिए।
पिंडदान (यदि संभव हो)
- चावल, तिल और जौ मिलाकर पिंड तैयार किया जाता है।
- इसे दक्षिण दिशा की ओर रखकर पितरों का स्मरण कर अर्पित करें।
भोजन अर्पण (श्राद्ध)
- श्राद्ध में पितरों को भोजन अर्पित किया जाता है, जिसे ब्राह्मण या गरीबों को खिलाया जाता है।
- मान्यता है कि यह भोजन पितरों तक पहुँचता है और वे संतुष्ट होते हैं।
दान-पुण्य
- तर्पण के बाद वस्त्र, अन्न, तिल, और दक्षिणा का दान करना चाहिए।
- दान को पितृ-तृप्ति और मोक्ष का मार्ग माना गया है।
आशीर्वाद और समापन
- अंत में प्रार्थना करें कि पितर संतुष्ट हों और आशीर्वाद दें।
- 'ॐ स्वधाऽस्तु' कहकर तर्पण का समापन करें।