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राम रचित शंभू स्तुति: लंका जाते समय श्री राम ने की थी महादेव की पूजा

भगवान शिव के विभिन्न स्तुति का उल्लेख किया गया है, इन्हीं में से एक प्रभावशाली स्तुति श्रीराम रचित शंभू स्तुति भी है। आइए जानते हैं इसका अर्थ और महत्व।

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भगवान श्रीराम की प्रतीकात्मक तस्वीर| Photo Credit: AI

श्रीराम रचित शंभू स्तुति एक प्रसिद्ध और श्रद्धापूर्ण स्तुति है, जिसे त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने स्वयं भगवान शिव की महिमा का गुणगान करते हुए रचा था। यह स्तुति न केवल भक्ति भाव से भरी है, बल्कि भगवान शिव के स्वरूप, उनकी महिमा और करुणा का भी अद्भुत वर्णन करती है। धार्मिक मान्यता के अनुसार, भगवान राम ने रामेश्वरम् में सेतु बनाकर लंका जाने से पहले शिवलिंग की स्थापना की थी, तब उन्होंने यह स्तुति स्वयं भगवान शिव की कृपा पाने के लिए रची थी। इस स्तुति का उल्लेख ब्रह्म पुराण से लिया गया है।

 

मान्यताओं के अनुसार यह स्तुति उन भक्तों के लिए अत्यंत लाभकारी मानी जाती है, जो भगवान शिव की कृपा पाना चाहते हैं और जीवन में आत्मिक शांति की तलाश कर रहे हैं। मान्यता है कि, इस स्तुति को पढ़ने और सुनने से मानसिक शांति, नकारात्मक उर्जा से सुरक्षा, आत्मबल में वृद्धि, मोक्ष और आध्यात्मिक उन्नति और पारिवारिक सुख और समृद्धि प्राप्त होती है।

श्रीराम रचित शंभू स्तुति

श्लोक 

नमामि शम्भुं पुरुषं पुराणं

नमामि सर्वज्ञमपारभावम् ।

नमामि रुद्रं प्रभुमक्षयं तं

नमामि शर्वं शिरसा नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं भगवान शंभू को नमन करता हूं, जो सनातन पुरुष हैं। वह सर्वज्ञ हैं, जिनकी कोई सीमा नहीं है। मैं उन्हें प्रणाम करता हूं जो रुद्र प्रभु और अक्षय (अविनाशी) हैं। वह शर्व (कल्याणकारी) हैं, मैं उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं।

 

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श्लोक

नमामि देवं परमव्ययंतं

उमापतिं लोकगुरुं नमामि ।

नमामि दारिद्रविदारणं तं

नमामि रोगापहरं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उस देवता को प्रणाम करता हूं जो कभी नष्ट नहीं होते, जो पार्वती के पति और समस्त लोकों के गुरु हैं। मैं उन्हें नमन करता हूं जो दरिद्रता और रोगों का नाश करते हैं।

 

श्लोक

नमामि कल्याणमचिन्त्यरूपं

नमामि विश्वोद्ध्वबीजरूपम् ।

नमामि विश्वस्थितिकारणं तं

नमामि संहारकरं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उन्हें प्रणाम करता हूं जिनका स्वरूप कल्याणकारी है और जिन्हें समझ पाना असंभव है। वह समस्त सृष्टि के मूल बीज हैं, सृष्टि को बनाए रखने वाले और अंत में संहार करने वाले हैं।

 

श्लोक

नमामि गौरीप्रियमव्ययं तं

नमामि नित्यं क्षरमक्षरं तम् ।

नमामि चिद्रूपममेयभावं

त्रिलोचनं तं शिरसा नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उस अविनाशी प्रभु को प्रणाम करता हूं जो माता गौरी को प्रिय हैं, जो शाश्वत हैं, जिन्हें क्षर (नश्वर) और अक्षर (अनश्वर) दोनों ही कहा गया है। वह चेतना स्वरूप हैं, उनकी भावना को मापा नहीं जा सकता, उनके तीन नेत्र हैं। मैं उन्हें सिर झुकाकर नमन करता हूं।

 

श्लोक

नमामि कारुण्यकरं भवस्या

भयंकरं वापि सदा नमामि ।

नमामि दातारमभीप्सितानां

नमामि सोमेशमुमेशमादौ ॥

 

भावार्थ:

मैं उन्हें प्रणाम करता हूं जो करुणा के सागर हैं और जो भयंकर रूप भी धारण करते हैं। वे भक्तों को इच्छित फल देने वाले हैं। वे सोमेश (चंद्र को धारण करने वाले) और उमा के स्वामी हैं। मैं उन्हें बार-बार नमस्कार करता हूं।

 

 

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श्लोक

नमामि वेदत्रयलोचनं तं

नमामि मूर्तित्रयवर्जितं तम् ।

नमामि पुण्यं सदसद्व्यातीतं

नमामि तं पापहरं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उन्हें प्रणाम करता हूं जिनके तीन नेत्र वेदों की भांति ज्ञान के स्रोत हैं। वह त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) से भी परे हैं। वह पुण्यस्वरूप हैं और अच्छे-बुरे, दोनों से परे हैं। वह पापों का नाश करते हैं।

 

श्लोक

नमामि विश्वस्य हिते रतं तं

नमामि रूपापि बहुनि धत्ते ।

यो विश्वगोप्ता सदसत्प्रणेता

नमामि तं विश्वपतिं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उन्हें प्रणाम करता हूं जो सृष्टि के कल्याण में सदा लगे रहते हैं, जो अनेक रूपों को धारण करते हैं, जो समस्त सृष्टि के रक्षक और नियंता हैं। वे विश्व के स्वामी हैं। मैं उन्हें बार-बार नमन करता हूं।

 

श्लोक

यज्ञेश्वरं सम्प्रति हव्यकव्यं

तथागतिं लोकसदाशिवो यः ।

आराधितो यश्च ददाति सर्वं

नमामि दानप्रियमिष्टदेवम् ॥

 

भावार्थ:

वह यज्ञों के स्वामी हैं, जिनको हवि (आहुति) और कव्य (पितरों के लिए अर्पण) समर्पित होता है। वह सदाशिव हैं, जिनकी पूजा से सब कुछ प्राप्त होता है। वह दानप्रिय और प्रिय देव हैंमैं उन्हें प्रणाम करता हूं।

श्लोक 

नमामि सोमेश्वरं स्वतन्त्रं

उमापतिं तं विजयं नमामि ।

नमामि विघ्नेश्वर नन्दिनाथं

पुत्रप्रियं तं शिरसा नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं स्वतन्त्र स्वरूप वाले सोमेश्वर को नमन करता हूं, जो उमा के पति और विजयी हैं। व गणेश और नंदी के स्वामी और पुत्रप्रिय हैंमैं उन्हें सिर झुकाकर प्रणाम करता हूं।

 

श्लोक

नमामि देवं भवदुःखशोक

विनाशनं चन्द्रधरं नमामि ।

नमामि गंगाधरमीशमीड्यं

उमाधवं देववरं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उन देवता को प्रणाम करता हूं जो संसार के दुखों और शोकों का नाश करते हैं, जो चंद्रमा को धारण किए हुए हैं। व गंगा को सिर पर धारण करते हैं और सबके पूजनीय हैंउमा के पति, देवों में श्रेष्ठ हैंमैं उन्हें प्रणाम करता हूं।

 

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श्लोक

नमाम्यजादीशपुरन्दरादि

सुरासुरैरर्चितपादपद्मम् ।

नमामि देवीमुखवादनानां

ईक्षार्थमक्षित्रितयं य ऐच्छत् ॥

 

भावार्थ:

मैं उन्हें नमन करता हूं जिनके चरणों की पूजा ब्रह्मा, इंद्र जैसे देवता और असुर भी करते हैं। मैं उन शिव को नमन करता हूं जो पार्वती के मुख से उत्पन्न वाणी के कारण त्रिनेत्रधारी कहलाए।

 

श्लोक

पंचामृतैर्गन्धसुधूपदीपैः

विचित्रपुष्पैर्विविधैश्च मन्त्रैः ।

अन्नप्रकारैः सकलोपचारैः

सम्पूजितं सोममहं नमामि ॥

 

भावार्थ:

मैं उन सोमेश्वर (शिव) को प्रणाम करता हूं जो पंचामृत, सुगंध, धूप, दीप, फूल, मंत्र और विभिन्न प्रकार के अन्न-भोग से पूजित होते हैं।

अध्यात्मिक महत्व

इस स्तुति का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि इसे स्वयं भगवान विष्णु के अवतार श्रीराम ने रचना की है। यह शिव और विष्णु के बीच सम्मान और प्रेम का प्रतीक भी है। यह बताता है कि भगवान चाहे किसी भी रूप में हों, वह एक-दूसरे की महिमा को समझते और स्वीकारते हैं। मान्यता के अनुसार, रामेश्वरम मंदिर, जो भारत के प्रमुख तीर्थों में से एक है, वहीं इस स्तुति की रचना की गई थी। आज भी वहां जाकर भगवान शिव की पूजा करना अत्यंत पुण्यदायी माना जाता है।

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