हिन्दू धर्म में रथ यात्रा को महोत्सव के रूप में मनाया जाता है। रथ यात्रा, हर साल आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को ओडिशा के पुरी में आयोजित होती है। यह उत्सव तीनों भाई-बहन- भगवान जगन्नाथ, बलभद्र जी और बहन सुभद्रा की नगर भ्रमण यात्रा होती है, जिसमें वे पुरी स्थित श्रीमंदिर से निकलकर गुंडिचा मंदिर तक यात्रा करते हैं। इस यात्रा में भगवान बलभद्र का रथ, जिसे 'तालध्वज' कहा जाता है, एक प्रमुख और दिव्य रथ है। यह रथ भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलरामजी के लिए बनाया जाता है।
भगवान बलभद्र का रथ तालध्वज
भगवान बलभद्र के रथ का नाम तालध्वज रखा गया है। संस्कृत में ‘ताल’ का अर्थ है 'ताल वृक्ष' (तालगाछ) और ‘ध्वज’ का मतलब होता है 'ध्वजा' या 'झंडा'। इसलिए तालध्वज का अर्थ हुआ वह रथ जिसके ऊपर ताल वृक्ष के प्रतीक के साथ ध्वजा लगी हो। यह नाम स्वयं में भगवान बलराम के प्रकृति से जुड़े स्वरूप और उनके शांत, स्थिर और संतुलित व्यक्तित्व को दर्शाता है।
तालध्वज रथ का रंग विशेष होता है। इस रथ को चमकदार नीले और गहरे लाल रंग के वस्त्रों से सजाया जाता है। लाल रंग शक्ति और उत्साह का प्रतीक है, वहीं नीला रंग भगवान बलराम की गंभीरता और स्थिरता को दर्शाता है। इस रथ पर जो झंडा लहराता है, उसमें ताल वृक्ष की आकृति होती है, जो बलरामजी के कृषि से जुड़े स्वरूप को प्रकट करती है, क्योंकि बलराम जी का अस्त्र हल है, जिसका इस्तेमाल खेती प्रमुख तौर पर किया जाता है।
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तालध्वज रथ की लंबाई और पहियों की संख्या
रथ की लंबाई और ऊंचाई भी अत्यंत विशेष होती है। तालध्वज रथ की ऊंचाई लगभग 43 फीट होती है, यानी लगभग 13 मीटर। इसकी चौड़ाई लगभग 34 फीट तक होती है। रथ की संरचना लकड़ी से बनी होती है, जिसे पुरी के पारंपरिक रथ निर्माणकर्ता 'महाराणा' जाति के लोग बड़ी श्रद्धा और विधिपूर्वक बनाते हैं। हर साल रथ नए सिरे से तैयार किया जाता है, जिसमें सिर्फ पारंपरिक औजारों और विधियों का इस्तेमाल किया जाता है।
रथ में कुल 14 पहिए होते हैं और ये पहिए भी लकड़ी के बनाए जाते हैं। हर पहिए का व्यास लगभग 6 फीट तक होता है। रथ को खींचने के लिए बड़े और मजबूत रस्सों का उपयोग होता है जिन्हें हजारों श्रद्धालु खींचते हैं। यह रस्सा खींचना ही उनके लिए पुण्य प्राप्ति का मार्ग माना जाता है। श्रद्धालु मानते हैं कि भगवान का रथ खींचने से उनके पाप मिट जाते हैं।
रथ यात्रा में रथ का सारथी भी विशेष महत्व रखता है। भगवान बलराम के रथ तालध्वज के सारथी का नाम 'मताली' होता है। यह नाम पौराणिक कथाओं से जुड़ा हुआ है, जहां मताली को इंद्रदेव का रथचालक माना गया है। यहां मताली भगवान बलराम के रथ के चालक के रूप में प्रतिष्ठित हैं, जो उन्हें पूरी यात्रा में दिशा देते हैं।
तालध्वज रथ पर जो ध्वजा फहराई जाती है, वह केवल शोभा का प्रतीक नहीं होती, बल्कि उसमें आध्यात्मिक संकेत छिपे होते हैं। ध्वज का लहराना यह दर्शाता है कि धर्म और सच्चाई की विजय हमेशा बनी रहेगी। तालध्वज पर लगी ध्वजा भगवान बलराम की पराक्रमी प्रकृति और उनके उच्च आदर्शों का प्रतीक होती है।
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तालध्वज रथ से जुड़ी मान्यता
इस रथ पर बलभद्रजी की मूर्ति स्थापित की जाती है। उनका यह रूप धरती, कृषि, न्याय और बल के देवता के रूप में पूजित होता है। भगवान बलराम को धरती माता का रक्षक और धर्म का पालनकर्ता माना जाता है। तालध्वज रथ की यात्रा का उद्देश्य केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संदेश भी है। यह यात्रा बताती है कि भगवान केवल मंदिरों तक सीमित नहीं हैं, वे हर जीव के हृदय में वास करते हैं और समय-समय पर स्वयं लोगों के बीच आते हैं।