ओडिशा के पुरी में स्थित जगन्नाथ मंदिर में सालाना आयोजिय होने वाली प्रसिद्ध जगन्नाथ रथ यात्रा एक महान धार्मिक और सांस्कृतिक आयोजन है, जो हर साल आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को बड़ी धूमधाम से आयोजित होती है। इस रथ यात्रा से पहले भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा की प्रतिमाएँ 15 दिनों तक बाहर दर्शन से अनुपस्थित रहती हैं। इस विशेष अवधि को 'अनवसर काल' या 'अनासर' कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है- जब भगवान सार्वजनिक रूप से दर्शन नहीं देते।
कब बीमार पड़ते हैं भगवान जगन्नाथ?
इस परंपरा की शुरुआत स्नान पूर्णिमा के दिन होती है, जब भगवान जगन्नाथ, बलराम और बहन सुभद्रा को मंदिर परिसर में स्थापित 'स्नान मंडप' पर लाया जाता है। इस दिन तीनों भगवानों को 108 कलशों के पवित्र जल से स्नान कराया जाता है। इस अभिषेक को अत्यंत विशेष माना जाता है और इसे 'स्नान यात्रा' कहा जाता है। यह स्नान बहुत ही भव्य होता है लेकिन इसे करने के बाद एक विशेष बात यह होती है कि भगवान ‘बीमार’ हो जाते हैं। इसे धार्मिक भाषा में ‘ज्वर’ लगना कहा जाता है।
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इस स्नान के बाद भगवानों को 'अनासर गृह' नामक एक विशेष कक्ष में ले जाया जाता है, जो मंदिर परिसर के भीतर स्थित होता है। वहां उन्हें 15 दिन तक विश्राम करवाया जाता है। यह माना जाता है कि स्नान के कारण उन्हें सर्दी और बुखार हो गया है और अब वे आराम कर रहे हैं। इस अवधि में किसी भी भक्त को भगवान के दर्शन की अनुमति नहीं होती। मंदिर के पुजारी ही उनकी सेवा करते हैं और उन्हें विशेष जड़ी-बूटियों से बनी औषधीय खाद्य सामग्री दी जाती है।
औषधि से होता है भगवान उपचार
इस अवधि में भगवान को ‘दशमूल’ नामक आयुर्वेदिक काढ़ा दिया जाता है। यह जड़ी-बूटियों से तैयार एक पारंपरिक औषधि है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है। इसके साथ-साथ उन्हें हल्के, सुपाच्य भोजन भी दिए जाते हैं ताकि वे धीरे-धीरे स्वस्थ हो सकें। इस काल में देवी लक्ष्मी स्वयं भगवान जगन्नाथ की सेवा करती हैं और उनकी देखभाल करती हैं।
यह परंपरा न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह एक गहरा सांकेतिक संदेश भी देती है कि ईश्वर भी मनुष्यों की तरह विश्राम करते हैं, बीमार पड़ सकते हैं और उनका भी उपचार किया जाता है। इस दौरान भगवान के शरीर को रथ यात्रा के लिए तैयार किया जाता है, जिसमें उन्हें औषधीय देखभाल दी जाती है।
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15 दिन समाप्त होने के बाद क्या होता है?
जब यह 15 दिवसीय अनासर काल समाप्त होता है, तब भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का विशेष श्रृंगार किया जाता है जिसे 'नवयौवन दर्शन' कहा जाता है। इस दिन भगवानों के नए रूप में दर्शन होते हैं और यह दिन भक्तों के लिए अत्यंत विशेष होता है। भक्तों को लगता है कि भगवान अब पूरी तरह स्वस्थ हो चुके हैं और पुनः जगत के कल्याण के लिए बाहर आए हैं।
इसके बाद रथ यात्रा का दिन आता है, जब भगवान अपने विशाल और भव्य रथों पर सवार होकर गुंडिचा मंदिर के लिए नगर भ्रमण करते हैं। अनासर परंपरा केवल एक परंपरा नहीं है, यह मनुष्य और ईश्वर के बीच खास को संबंध को जोड़ता है। यह हमें यह समझाने की कोशिश करती है कि ईश्वर केवल पूजनीय नहीं, बल्कि सजीव, भावुक और संवेदनशील हैं।