राजस्थान के राजसमंद जिले में स्थित नाथद्वारा का श्रीनाथजी मंदिर वैष्णव संप्रदाय और विशेषकर पुष्टिमार्ग के अनुयायियों के लिए बहुत ही पूजनीय स्थल माना जाता है। यह मंदिर भगवान श्रीकृष्ण के बालरूप 'श्रीनाथजी' को समर्पित है, जिसमें वह गोवर्धन पर्वत उठाए हुए दिखाई देते हैं। मंदिर की छवि केवल एक धार्मिक स्थान की नहीं, बल्कि कला, संस्कृति और भक्ति के अद्भुत संगम की भी है।
श्रीनाथजी का यह मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि भक्ति की अनुभूति, कला की परंपरा और आध्यात्मिक ऊर्जा का अद्भुत संगम है। यहां आकर भक्त अपने मन में गहरी शांति, प्रेम और भगवान के प्रति अटूट विश्वास महसूस करते हैं। नाथद्वारा इस रूप में केवल एक नगर नहीं, बल्कि वह स्थान है जहां भगवान स्वयं अपने भक्तों के बीच बालरूप में खेलते और मुस्कुराते हैं।
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मंदिर की विशेषता
मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसकी 'अष्टयाम सेवा' है, यानी दिन में आठ बार भगवान का अलग-अलग श्रृंगार और भोग किया जाता है। हर पहर में भगवान के वस्त्र, आभूषण और भोजन अलग होते हैं, जो मौसम और त्योहार के अनुसार बदलते हैं। श्रृंगार में रत्नजड़ित आभूषण, सुंदर वस्त्र, और फूलों की मालाएं भगवान को सजाती हैं, जबकि भोग में मक्खन, मिश्री, फल और पारंपरिक व्यंजन होते हैं।
मंदिर के भीतर एक अद्भुत वातावरण महसूस होता है। चाहे बाहर गर्मी कितनी भी तेज हो, अंदर शीतलता और सुखद सुगंध बनी रहती है। मान्यता है कि भगवान के चरणों के पास रखा तुलसीदल और मक्खन का भोग कभी सूखता नहीं और भक्तों की संख्या चाहे कितनी भी हो, सभी को प्रसाद मिल जाता है।
पौराणिक कथा
मान्यताओं के अनुसार ब्रजभूमि में स्थित गोवर्धन पर्वत के पास, 14वीं–15वीं शताब्दी में एक अद्भुत मूर्ति प्रकट हुई थी। यह वही रूप था जिसमें भगवान कृष्ण बालक रूप में अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत उठाए खड़े हैं और उनके चेहरे पर मुस्कान भी दिख रही है।
पुराणों के अनुसार, ऐसा तब हुआ था जब इंद्रदेव ने ब्रज में लगातार वर्षा कर दी और चारों तरफ पानी भर गया, तब ग्वालबाल, गोपियां और सभी ब्रजवासी मदद के लिए श्रीकृष्ण के पास आए। भगवान कृष्ण ने सभी को अपने पास बुलाया और छोटी सी उंगली से पूरा गोवर्धन पर्वत उठा लिया। सात दिन तक सब लोग पर्वत के नीचे सुरक्षित रहे। यह 'गोवर्धन लीला' ही श्रीनाथजी के रूप में मूर्तिमान हो गई।
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सदियों तक यह मूर्ति ब्रज में रही लेकिन 17वीं शताब्दी में मुगल काल में मंदिरों पर संकट आया था। तब वल्लभाचार्य परंपरा के भक्तों ने भगवान को सुरक्षित स्थान पर ले जाने का निर्णय किया था। ऐसे में एक विशाल यात्रा निकली गई और बैलगाड़ी में श्रीनाथजी की मूर्ति, साथ में सेवक, आचार्य और अनेक श्रद्धालु दक्षिण की तरफ निकल गए।
कई दिन चलने के बाद जब यह यात्रा राजस्थान के मेवाड़ क्षेत्र में पहुंची, तो नाथद्वारा के पास एक जगह पर बैलगाड़ी के पहिए कीचड़ में धंस गए। बहुत प्रयास किए गए बैल बदले गए, पहियों के नीचे लकड़ी रखी गई लेकिन गाड़ी आगे नहीं बढ़ी।
मान्यता है कि तत्कालीन आचार्य ने उसे भगवान का संकेत समझा और प्रभु की स्थापना के लिए वहीं तंबू लगाया गया। बाद में नियमित रूप से मूर्ति की सेवा शुरू हो गई। कुछ समय बाद, मेवाड़ के महाराणा राज सिंह ने भव्य मंदिर बनवाने का आदेश दिया और इस तरह नाथद्वारा में श्रीनाथजी का स्थायी धाम स्थापित हुआ है।

मंदिर तक जाने का रास्ता
- नजदीकी एयरपोर्ट: उदयपुर का महाराणा प्रताप एयरपोर्ट है, जो लगभग 48 किलोमीटर दूर है। वहां से टैक्सी या बस द्वारा मंदिर तक पहुंचा जा सकता है।
- नजदीकी रेलवेस्टेशन: ट्रेन से आने पर निकटतम स्टेशन मावली और उदयपुर हैं।
- सड़क के रास्ते से राजसमंद, उदयपुर, अजमेर या जयपुर से बस और प्राइवेट गाड़ियां आसानी से उपलब्ध हो जाती हैं।