सियासत में असक्रिय मायावती की जगह कौन ले रहा है? आंकड़ों से समझें
विशेष
• NEW DELHI 16 Jan 2025, (अपडेटेड 16 Jan 2025, 1:56 PM IST)
मायावती देश के उन चुनिंदा नेताओं में शुमार की जाती हैं, जिनकी रैलियों में लाखों की भीड़ यूं ही आ जाती है और वह जहां खड़ी हो जाएं वहीं हजारों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है।

बीएसपी चीफ मायावती। Photo credit- PTI
वर्तमान समय में भारत की सबसे बड़ी नेताओं में शुमार बहुजन समाज पार्टी (BSP) सुप्रीमों मायावती ने बुधवार (15 जनवरी) को लखनऊ में अपना 69वां जन्मदिन मनाया। अपने जन्मदिवस पर हमेशा की तरह उन्होंने लखनऊ में प्रेस कांफ्रेंस की। इस दौरान यूपी की पूर्व सीएम मायावती ने बहुजन आंदोलन, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ों के अधिकार और संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर को याद किया।
उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की चार बार की मुख्यमंत्री और बहुजन समाज पार्टी जैसी राष्ट्रीय पार्टी की अध्यक्ष मायावती काफी अरसे के बाद अपने जन्मदिन पर लोगों के बीच आईं और अपनी बात जनता के सामने रखी। मायावती देश के उन चुनिंदा नेताओं में शुमार की जाती हैं, जिनकी रैलियों में लाखों की भीड़ यूं ही आ जाती है और वह जहां खड़ी हो जाएं वहीं हजारों की भीड़ इकट्ठा हो जाती है।
लोगों के बीच बहुत कम दिख रहीं मायावती
इतनी लोकप्रियता हासिल करने और पार्टी के लगातार कमजोर होने के बावजूद मायावती को लोगों के बीच बहुत कम देखा जाता है। अब वह जनता से रैलियों में कम बल्कि प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से बातचीत करती हैं। बसपा सुप्रीमों की जनता के बीच असक्रियता से चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन पर असर पड़ा है। इसके साथ ही इसका असर बहुजन समाज पार्टी और उसकी राजनीति पर भी पड़ा है।
बहुजन राजनीति में खालीपन पनप रहा...
मायावती की जनता के बीच जैसे-जैसे सक्रियता कम हो रही है और उनकी उम्र ढल रही है, उनके पीछे बहुजन राजनीति में एक खालीपन पनप रहा है। इस खालीपन को भरने के लिए बसपा के अलावा अन्य दूसरे नेता जी-तोड़ कोशिशें कर रहे हैं।
हालांकि, अभी तक देश में जितने भी चुनाव हुए हैं उसमें मायावती ही पार्टी का चेहरा होती हैं और उनके ही नाम पर जनता वोट करती है। बसपा मुख्यत: उत्तर प्रदेश की पार्टी है। इसके अलावा पार्टी का कई राज्यों में मजबूत जनाधार है। पार्टी का यह जनाधार वहां की स्थानीय राजनीति को प्रभावित करता है, लेकिन आंकड़ों पर नजर डालें तो साल 2012 के बाद से बसपा का जो ग्राफ निचे गिरना शुरू हुआ वह अबतक जारी है।
2007 में 206 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार
मायावती के नेतृत्व में बसपा ने उत्तर प्रदेश में साल 2007 में 206 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार बनाई थी। इसके बाद साल 2009 के लोकसभा का चुनाव मायावती के नेतृत्व में लड़ा गया, इसमें बसपा को 20 सीटें मिलीं। 2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा की हार हुई, जिसमें पार्टी को 80 सीटें जीतकर ही संतोष करना पड़ा।
बसपा का गिरता ग्राफ
हालांकि, साल 2012 के बाद जितने विधानसभा और लोकसभा चुनाव हुए उसमें बसपा की जीत सिमटती गई। साल 2014 के लोकसभा चुनाव में तो बसपा शून्य पर सिमट गई। साल 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए तो इस चुनाव में भी बसपा का प्रदर्शन निराशाजनक रहा। पार्टी यूपी की 403 में से महज 19 विधानसभा सीटें ही जीत पाई।
इसके बाद साल 2019 के लोकसभा चुनाव हुए तो बसपा ने अपनी धुर-विरोधी पार्टी समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा। इस चुनाव में बसपा को यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से 10 सीटें मिलीं। इस जीत से ऐसा लगा कि बहुजन समाज पार्टी एक बार फिर से जिंदा हो गई है, क्योंकि पूरे चुनाव में पार्टी अध्यक्ष मायावती जोर-शोर से चुनाव प्रचार कर रही थीं। वह जनता के बीच जा रही थीं, जनता का उन्हें बड़े पैमाने पर समर्थन मिल रहा था।
मायावती का कम सक्रिय होना
लेकिन 2019 के लाकसभा चुनाव के बाद से मायावती साल 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में दिखाई दीं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी बसपा का हाथी औंधे मुंह गिरा। इस चुनाव में पार्टी को महज एक सीट मिली। जो पार्टी अपने दम पर दस साल पहले 2012 तक यूपी की सरकार चला रही थी, वही पार्टी 10 साल बाद अपना वजूद बचाने की लड़ाई लड़ रही है।
बड़े मुद्दों पर चुप्पी
इसके पीछे मायावती का सक्रिय ना होना माना गया क्योंकि, बसपा सुप्रीमों जिस बेबाक अंदाज के लिए जानी जाती रही हैं वह अब देश के बड़े से बड़े मुद्दों पर चुप्पी साधे रहती हैं। वह ना तो केंद्र की और ना ही उत्तर प्रदेश सरकार की नीतियों पर बोलती हैं। यह बात इसलिए कही जा रही है क्योंकि मायावती जिन भी मुद्दों को उठाती थीं, वह प्रदेश और देश की राजनीति को प्रभावित करता है।
अब यूपी की पूर्व सीएम मायावती को जब कुछ बोलना होता है तो वह सोशल मीडिया के माध्यम से ट्वीट करती हैं और कभी-कभी प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से अपनी बात कहती हैं। वह दतिल मुद्दों पर भी उस मुखरता से नहीं बोलतीं, जिसकी उनसे अपेक्षा की जाती है।
बसपा की जगह लेते दल और नेता
बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती जैसे-जैसे राजनीति में कम सक्रिय हो रही हैं उनकी जगह उत्तर प्रदेश में आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और नगीना से लोकसभा सांसद चंद्रशेखर आज़ाद लेते जा रहे हैं। सांसद चंद्रशेखर लगातार यूपी में सक्रिय हैं और दलित और बहुजनों के मुद्दों को प्रमुखता से उठा रहे हैं। दलित समाज के लोग चंद्रशेखर को पसंद कर रहे हैं।
नगीना में चंद्रशेखर आज़ाद को 5,12,552 वोट मिले वहीं, बसपा के प्रत्याशी सुरेंद्र पाल सिंह को महज 13,272 वोट ही मिले।
दूसरी तरफ 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी की 17 सुरक्षित सीटों में से 15 बीजेपी को मिली थीं, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव में 8 सीटें ही बीजेपी की झोली में आईं। सपा को 7 सीटें, जबकि आजाद समाज पार्टी और कांग्रेस को 1-1 सीट मिली। पिछले चुनाव में दो आरक्षित सीटें बसपा को मिली थीं, लेकिन इस बार वह शून्य पर सिमट गई।
विकल्पों की तलाश में वोटर
बसपा ने इस बार अपने मतदाताओं को मत प्रतिशत बढ़ाने का संदेश दिया था, लेकिन पार्टी इसमें फ्लॉप साबित हुई। दूसरी ओर सपा ने 6 जाटव उम्मीदवार मैदान में उतारे। इनमें से दो को तो उसने सामान्य सीटों पर उतारे। इससे सपा को लेकर दलित मतदाताओं में जो शंकाएं थीं, उन्हें दूर करने में मदद मिली।
बीजेपी दलित वोटरों पर ध्यान केंद्रित किए हुए है। दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन की ओर से उठाए जा रहे बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दे प्रभावी हैं। पिछले दो से तीन चुनावों में बसपा की लोकप्रियता में कमी आने और उसके सत्ता में आने की कोई उम्मीद नहीं होने से दलित समाज का एक बड़ा वर्ग विकल्पों की तलाश में रहा है।
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