logo

ट्रेंडिंग:

क्या है कस्टमाइज्ड जीन एडिटिंग जिससे गंभीर रोगों का हो सकता है इलाज?

कस्टमाइज़्ड जीन एडिटिंग के जरिए डीएनए में इस तरह के बदलाव किया जाता है कि बड़े बड़े रोगों का इलाज किया जा सकता है। हालांकि, इसमें कुछ चुनौतियां भी हैं।

Representational Image । Photo Credit: Freepik

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: Freepik

15 मई 2025 को न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, एक नौ महीने का बच्चा, जो एक दुर्लभ आनुवंशिक बीमारी से पीड़ित था, वह दुनिया का पहला ऐसा व्यक्ति बन गया है, जिसका सफलतापूर्वक कस्टमाइज़्ड जीन एडिटिंग तकनीक से इलाज किया गया। इस रिपोर्ट के अनुसार, केजे को सीपीएस1 की कमी (CPS1 deficiency) जैसी एक दुर्लभ जेनेटिक बीमारी थी, जिसके कारण उसके खून में अमोनिया का स्तर खतरनाक रूप से बढ़ जाता था। इस बीमारी का इलाज करने के लिए यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया और चिल्ड्रन्स हॉस्पिटल ऑफ फिलाडेल्फिया के वैज्ञानिकों और डॉक्टरों ने एक नई तकनीक, जिसे ‘बेस एडिटिंग’ कहा जाता है, का उपयोग किया। यह तकनीक क्रिस्पर-कैस9 (CRISPR-Cas9) का एक उन्नत संस्करण है, जिसने चिकित्सा जगत में नई उम्मीदें जगाई हैं।

 

लेकिन यह कस्टमाइज्ड जीन एडिटिंग आखिर है क्या, और यह बीमारियों के इलाज में कैसे मदद करती है? इस लेख में खबरगांव आपको इसी के बारे में बताएगा साथ ही इस लेख में यह भी बताएंगे कि इसमें लागत कितनी आती है और इसे व्यापक स्तर पर लागू करने में क्या चुनौतियां हैं।

जीन एडिटिंग क्या है?

हमारे शरीर की हर कोशिका में डीएनए होता है, जो एक तरह का जेनेटिक कोड है। यह कोड हमारे शरीर को बताता है कि उसे कैसे काम करना है। लेकिन कभी-कभी इस कोड में गलतियां हो जाती हैं, जिसके कारण दुर्लभ जेनेटिक बीमारियां हो सकती हैं, जैसे कि इस बच्चे को हुई सीपीएस1 की कमी। जीन एडिटिंग ऐसी तकनीक है, जिसके जरिए वैज्ञानिक डीएनए में इन गलतियों को ठीक कर सकते हैं। यह ऐसा है जैसे किसी किताब में छपी गलत स्पेलिंग को ठीक करना।

 

जीन एडिटिंग की सबसे प्रसिद्ध तकनीक है क्रिस्पर-कैस9, जिसे 2012 में वैज्ञानिक जेनिफर डाउडना और इमैनुएल चार्पेंटियर ने विकसित किया था। इस खोज के लिए उन्हें 2020 में रसायन विज्ञान का नोबेल पुरस्कार भी मिला। अब इस तकनीक का एक नया और अधिक सटीक रूप सामने आया है, जिसे बेस एडिटिंग कहते हैं।

क्रिस्पर-कैस9 (CRISPER-CAS9) कैसे काम करता है?

क्रिस्पर का पूरा नाम है ‘क्लस्टर रेगुलरली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पालिंड्रोमिक रिपीट्स’। यह एक ऐसा सिस्टम है, जो बैक्टीरिया में पाया जाता है और वायरस से उसकी रक्षा करती है। जब कोई वायरस बैक्टीरिया पर हमला करता है, तो बैक्टीरिया उस वायरस का एक छोटा सा डीएनए का हिस्सा अपने जीनोम में शामिल कर लेता है। यह हिस्सा एक तरह की ‘मेमोरी’ की तरह काम करता है। अगली बार जब वही वायरस हमला करता है, तो क्रिस्पर एक गाइड आरएनए बनाता है, जो वायरस के डीएनए को पहचानता है। इसके बाद, कैस9 नामक एक एंजाइम (जो एक तरह का प्रोटीन है) उस डीएनए को काट देता है, जैसे कैंची से कागज काटा जाता है। इससे वायरस नष्ट हो जाता है।

 

वैज्ञानिकों ने इस प्राकृतिक प्रणाली को एक जीन एडिटिंग टूल में बदल दिया। क्रिस्पर-कैस9 हमारे डीएनए में गलत हिस्से को ढूंढता है और उसे काट देता है। डीएनए चार रासायनिक बेस (एडेनिन-A, ग्वानिन-G, साइटोसिन-C, और थाइमिन-T) से बना होता है, जो जोड़े में होते हैं (A हमेशा T के साथ और C हमेशा G के साथ)। अगर इनमें कोई गलत जोड़ा बन जाता है, जैसे A-G या G-T, तो जेनेटिक बीमारी हो सकती है। क्रिस्पर-कैस9 इस गलत हिस्से को काटकर हटा देता है और उसकी जगह सही डीएनए हिस्सा जोड़ देता है।

 

लेकिन इस प्रक्रिया में एक समस्या है। डीएनए के दोनों स्ट्रैंड्स को काटने (डबल-स्ट्रैंड ब्रेक) के बाद, डीएनए खुद को ठीक करने की कोशिश करता है। इस दौरान गलत हिस्सा फिर से जुड़ सकता है। इसे रोकने के लिए वैज्ञानिकों को बाहर से सही डीएनए हिस्सा देना पड़ता है, जो कटे हुए स्ट्रैंड्स से जुड़ जाए।

क्या है बेस एडिटिंग?

बेस एडिटिंग क्रिस्पर-कैस9 का एक नया और अधिक सटीक संस्करण है। इसमें डीएनए के दोनों स्ट्रैंड्स को काटने की जरूरत नहीं पड़ती। इसके बजाय, यह एक विशेष कैस9 एंजाइम का उपयोग करता है, जो एक बेस-मॉडिफाइंग एंजाइम के साथ जुड़ा होता है। यह टूल डीएनए में सिर्फ एक बेस को बदल देता है। उदाहरण के लिए, अगर A-C का गलत जोड़ा है, तो बेस एडिटिंग C को T में बदल देता है, जिससे जोड़ा A-T हो जाता है।

 

यह प्रक्रिया कैंची और गोंद की जगह पेंसिल और इरेजर की तरह काम करती है। इसमें कोई बाहरी डीएनए देने की जरूरत नहीं पड़ती, जिससे यह तकनीक अधिक सुरक्षित और आसान हो जाती है। केजे के इलाज में वैज्ञानिकों ने यही तकनीक इस्तेमाल की। उन्होंने पहले यह पता लगाया कि केजे के डीएनए में कौन सा गलत बेस उसकी बीमारी का कारण है। फिर, उन्होंने बेस एडिटिंग टूल को प्रोग्राम किया ताकि वह उस गलत बेस को ढूंढकर ठीक कर दे।

 

सीएसआईआर-इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी के प्रिंसिपल साइंटिस्ट देबोज्योति चक्रवर्ती ने बताया, ‘पहले क्रिस्पर में बाहरी डीएनए देना पड़ता था, लेकिन बेस एडिटिंग में ऐसा नहीं होता। यह एक छोटा और सटीक सिस्टम है, जिसे आसानी से कोशिकाओं तक पहुंचाया जा सकता है।’

कैसे होगा बीमारियों का इलाज?

बेस एडिटिंग का सबसे बड़ा फायदा यह है कि यह दुर्लभ जेनेटिक बीमारियों का इलाज कर सकता है, जिनके लिए अभी कोई दवा उपलब्ध नहीं है। केजे जैसे मरीजों के लिए यह तकनीक एक नई उम्मीद है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह तकनीक हजारों ऐसी बीमारियों का इलाज कर सकती है, जो डीएनए में छोटी-छोटी गलतियों के कारण होती हैं।

उदाहरण के लिए, सीपीएस1 की कमी के कारण केजे के खून में अमोनिया की मात्रा बढ़ रही थी, जो जानलेवा हो सकता था। बेस एडिटिंग की मदद से वैज्ञानिकों ने उसके डीएनए में गलत बेस को ठीक किया, जिससे उसकी हालत में सुधार हुआ।

किन बीमारियों का होगा इलाज?

यह तकनीक से डीएनए में गलतियों को ठीक करके कई दुर्लभ और जटिल बीमारियों का इलाज करने की उम्मीद दे रही है। यह तकनीक उन बीमारियों के लिए खासतौर पर उपयोगी है, जो एक जीन में खराबी के कारण होती हैं। उदाहरण के लिए, सिकल सेल एनीमिया और बीटा-थैलेसीमिया जैसी खून की बीमारियों में क्रिस्पर की मदद से एक जीन को सक्रिय किया जाता है, जो बचपन वाला हीमोग्लोबिन बनाता है।

 

कैंसर के इलाज में जीन एडिटिंग टी-सेल्स को बेहतर बनाती है ताकि वे कैंसर कोशिकाओं को नष्ट कर सकें। सीएआर-टी सेल थेरेपी ने ल्यूकेमिया और लिम्फोमा जैसे कैंसर में अच्छे नतीजे दिए हैं। लेबर कॉन्जेनिटल अमोरोसिस, जो कि एक तरह का अंधापन है, इसको ठीक करने के लिए भी क्रिस्पर का उपयोग किए जाने की बात हो रही है। यह अभी शुरुआती चरण में है। 

 

ड्यूशेन मस्कुलर डिस्ट्रॉफी में मांसपेशियों को बनाने वाले जीन को ठीक करने की कोशिश हो रही है। इसके अलावा, सिस्टिक फाइब्रोसिस और हंटिंग्टन रोग जैसी जटिल बीमारियों के लिए भी शोध चल रहा है, हालांकि प्रगति धीमी है। जीन एडिटिंग भविष्य में लाखों लोगों की जिंदगी बदल सकती है, लेकिन अभी इसे और सुलभ और सटीक बनाने की जरूरत है।

क्या हैं चुनौतियां?

हालांकि बेस एडिटिंग एक क्रांतिकारी तकनीक है, लेकिन इसे व्यापक स्तर पर लागू करना आसान नहीं है। सबसे बड़ी चुनौती है इसकी लागत। केजे का इलाज रिसर्च इंस्टीट्यूट्स और बायोटेक्नोलॉजी कंपनियों ने फंड किया था। हालांकि इसकी सटीक लागत का खुलासा नहीं हुआ, लेकिन अनुमान है कि यह लाखों डॉलर में हो सकती है। इतनी महंगी तकनीक आम लोगों की पहुंच से बाहर है।

 

दूसरी चुनौती है कि यह तकनीक हर मरीज के लिए अलग-अलग बनानी पड़ती है। केजे के लिए बनाया गया टूल सिर्फ उसकी बीमारी के लिए काम करेगा, किसी और के लिए नहीं। इस वजह से इसे बड़े पैमाने पर बनाना मुश्किल है, और दवा कंपनियां इसमें निवेश करने से हिचकती हैं।

 

तीसरी चुनौती है रेगुलेटरी मंजूरी। भारत जैसे देशों में इस तरह के इलाज को मंजूरी लेना आसान नहीं है। देबोज्योति चक्रवर्ती के अनुसार, भारत में इस तरह के प्रयोगों के लिए बहुत सारी कागजी कार्रवाई और नियमों का पालन करना पड़ता है।

 

कस्टमाइज्ड जीन एडिटिंग, खासकर बेस एडिटिंग, चिकित्सा विज्ञान में एक नया कदम है। यह उन दुर्लभ बीमारियों का इलाज कर सकता है, जिनके लिए पहले कोई रास्ता नहीं था। ऐसे में यह काफी बड़ी राहत साबित हो सकती है, साथ ही जैसे जैसे टेक्नॉलजी अपग्रेड होती जाएगी वैसे वैसे इसकी लागत में भी की आने की संभावना है।

 

Related Topic:#Science News

शेयर करें

संबंधित खबरें

Reporter

और पढ़ें

हमारे बारे में

श्रेणियाँ

Copyright ©️ TIF MULTIMEDIA PRIVATE LIMITED | All Rights Reserved | Developed By TIF Technologies

CONTACT US | PRIVACY POLICY | TERMS OF USE | Sitemap