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ट्रेड वेपनाइजेशन: निपटने के लिए 'ग्लोबल टू लोकल' का रुख कर रही दुनिया

भारत, चीन, अमेरिका और रूस जैसे देश ट्रेड को हथियार की तरह प्रयोग किए जाने से बचने के लिए लोकलाइजेशन पर फोकस कर रहे हैं। जानते हैं क्या है यह स्ट्रेटजी?

Representational Image । Photo Credit: AI Generated

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: AI Generated

21वीं सदी की वैश्विक अर्थव्यवस्था में सप्लाई चेन का महत्व इतना बढ़ चुका है कि अब यह केवल ट्रेड और कॉमर्स का विषय नहीं रहा, बल्कि भू-राजनीति और कूटनीति का भी केंद्रीय हिस्सा बन चुका है। कोविड-19 महामारी, रूस-यूक्रेन युद्ध, अमेरिका-चीन व्यापार तनाव, अमेरिका का भारत सहित कई देशों पर टैरिफ लगाने की घोषणा करना और हाल ही में सेमीकंडक्टर तथा ऊर्जा संसाधनों पर लगी पाबंदियों ने दिखा दिया कि व्यापार अब हथियार (Trade Weaponization) के रूप में प्रयोग हो रहा है। जब भी कोई देश राजनीतिक या रणनीतिक दबाव बनाना चाहता है, तो वह आयात-निर्यात पर रोक, टैरिफ, पाबंदियां या वैकल्पिक आपूर्ति मार्ग अपनाकर अपने हित सुरक्षित करता है।

 

इसी कारण ‘ग्लोबल टू लोकल’ (Global to Local) यानी वैश्विक निर्भरता से स्थानीय आत्मनिर्भरता की ओर रुझान तेज़ हो रहा है। 2020 के बाद ‘री-शोरिंग’ (reshoring), ‘फ्रेंड-शोरिंग’ (friend-shoring) और ‘लोकलाइज़ेशन’ जैसे शब्द दुनिया भर की आर्थिक रणनीतियों का हिस्सा बन गए हैं। रीशोरिंग उस स्थिति को कहते हैं जब कोई देश विदेश से मैन्युफैक्चरिंग को ट्रांसफर करके अपने देश में वापस ले आता है। इसी तरह से फ्रेंड-शोरिंग का मतलब होता है कि उन देशों में मैन्युफैक्चरिंग करना जिन देशों में राजनीतिक-रणनीतिक रूप से ज्यादा विश्वास हो। ज्यादातर बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपनी सप्लाई चेन को एक ही देश पर अत्यधिक निर्भरता से बचाने के लिए इस पर विचार करना शुरू कर दिया है।

 

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भारत, रूस, अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ – सभी ने अपने-अपने स्तर पर नीतियां बनाईं। अमेरिका ने 'CHIPS and Science Act' के ज़रिए सेमीकंडक्टर उत्पादन में आत्मनिर्भरता बढ़ाने का कदम उठाया, भारत ने 'आत्मनिर्भर भारत' और 'PLI योजनाएं' लागू कीं, वहीं रूस ने पश्चिमी पाबंदियों के जवाब में एशिया की ओर झुकाव बढ़ाया। इस लेख में खबरगांव विस्तार से बताएगा कि व्यापार के वेपनाइजेशन ने किस तरह से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को प्रभावित किया और देशों को स्थानीय समाधान खोजने के लिए मजबूर किया।

व्यापार का वेपनाइजेशन

व्यापार का वेपनाइजेशन तब कहा जाता है जब कोई देश आर्थिक साधनों का उपयोग राजनीतिक या रणनीतिक दबाव बनाने के लिए करता है। इसमें आयात-निर्यात पर रोक लगाना, ऊँचे टैरिफ लगाना, महत्वपूर्ण कच्चे माल पर नियंत्रण करना, तकनीकी प्रतिबंध लागू करना और वित्तीय पाबंदियां लगाना जैसी रणनीतियां शामिल होती हैं। हाल के वर्षों में इसके कई उदाहरण देखने को मिले हैं।

 

अमेरिका ने हुआवेई और अन्य चीनी कंपनियों पर सेमीकंडक्टर तकनीक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाए, ताकि चीन की तकनीकी प्रगति को सीमित किया जा सके। यूरोपीय संघ ने रूस पर तेल और गैस के निर्यात प्रतिबंध लगाए, जो उसकी अर्थव्यवस्था के लिए जीवनरेखा माने जाते थे। वहीं, चीन ने दुर्लभ खनिजों (Rare Earths) पर अपने नियंत्रण का इस्तेमाल रणनीतिक हथियार की तरह किया, जिससे वैश्विक सप्लाई चेन पर असर पड़ा। इस तरह लगातार बढ़ते वैश्विक व्यापार विवादों और प्रतिबंधों ने यह साबित कर दिया है कि आर्थिक साधन अब राजनीतिक दबाव का सबसे प्रभावी हथियार बनते जा रहे हैं।

अमेरिका: चिप्स का लोकलाइजेशन

अमेरिका ने चीन के साथ बढ़ते तनाव और वैश्विक अस्थिरताओं से यह सबक लिया कि तकनीकी और ऊर्जा क्षेत्र में किसी एक देश पर अत्यधिक निर्भर रहना जोखिम भरा हो सकता है। इसी रणनीतिक सोच के तहत 2022 में CHIPS and Science Act लागू किया गया, जिसके अंतर्गत लगभग 52 बिलियन डॉलर की सब्सिडी प्रदान की गई ताकि सेमीकंडक्टर निर्माण को अमेरिका के भीतर प्रोत्साहित किया जा सके और वैश्विक आपूर्ति शृंखला पर निर्भरता घटाई जा सके।

 

इसके अलावा अमेरिका ने 2020 से 2023 के बीच ‘फ्रेंड-शोरिंग’ की नीति अपनाई। इसके अंतर्गत अमेरिका ने अपनी सप्लाई चेन को चीन जैसे प्रतिद्वंद्वी देशों से हटाकर वियतनाम और मेक्सिको जैसे भरोसेमंद साझेदारों की ओर स्थानांतरित करना शुरू किया। यह कदम केवल आर्थिक ही नहीं बल्कि भू-राजनीतिक दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण साबित हुआ।

 

ऊर्जा सुरक्षा के मोर्चे पर भी अमेरिका ने सक्रिय भूमिका निभाई। रूस-यूक्रेन युद्ध के दौरान यूरोप की ऊर्जा आपूर्ति बाधित हुई, तब अमेरिका ने LNG (Liquefied Natural Gas) निर्यात को यूरोप की ओर मोड़कर रूस पर यूरोप की निर्भरता कम करने में मदद की। इस नीति ने न केवल अमेरिका की वैश्विक ऊर्जा-शक्ति की स्थिति को मजबूत किया बल्कि सहयोगी देशों को भी ऊर्जा संकट से उबरने में सहारा दिया।

चीन: ‘ड्यूल सर्कुलेशन स्ट्रेटेजी’

चीन लंबे समय से दुनिया का प्रमुख ‘मैन्युफैक्चरिंग हब’ माना जाता रहा है, लेकिन अमेरिका के बढ़ते दबाव और वैश्विक व्यापारिक असंतुलन ने उसे अपनी रणनीति बदलने के लिए मजबूर किया। इसी क्रम में चीन ने ‘ड्यूल सर्कुलेशन स्ट्रेटेजी’ अपनाई, जिसका उद्देश्य घरेलू खपत (internal circulation) और निर्यात आधारित अर्थव्यवस्था (external circulation) के बीच संतुलन स्थापित करना है। इस रणनीति के जरिए चीन अपने विशाल घरेलू बाजार की ताकत को आधार बनाकर बाहरी दबावों के बीच भी स्थिर आर्थिक विकास सुनिश्चित करना चाहता है।

 

इसके साथ ही चीन ने महत्वाकांक्षी औद्योगिक नीति ‘Made in China’ को और आक्रामक रूप से लागू किया। इस पहल का फोकस विशेष रूप से सेमीकंडक्टर, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और इलेक्ट्रिक व्हीकल्स जैसे हाई-टेक क्षेत्रों पर है, ताकि तकनीकी आत्मनिर्भरता हासिल की जा सके और अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों पर निर्भरता कम हो।

 

चीन Rare Earth Minerals के उत्पादन पर वैश्विक स्तर पर 60% से अधिक नियंत्रण रखता है। 2023 में चीन ने रणनीतिक कदम उठाते हुए गैलियम और जर्मेनियम जैसी कुछ धातुओं के निर्यात पर नियंत्रण लगा दिया, जिससे अमेरिका और यूरोप को बड़ा झटका लगा। यह कदम चीन की उस क्षमता को दर्शाता है, जिसके माध्यम से वह वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं को प्रभावित कर सकता है और भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में अपनी स्थिति मजबूत कर सकता है।

 

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यूरोप: रूस पर निर्भरता घटाने की कोशिश

रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूरोप की ऊर्जा सुरक्षा को गहराई से प्रभावित किया और यह साफ कर दिया कि किसी एक देश पर अत्यधिक निर्भरता खतरनाक हो सकती है। 2021 तक यूरोप अपनी 40% से अधिक प्राकृतिक गैस रूस से आयात करता था, लेकिन युद्ध और उसके बाद लगाए गए आर्थिक प्रतिबंधों ने इस आपूर्ति को संकट में डाल दिया। इससे यूरोप को अपनी ऊर्जा नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा और वैकल्पिक स्रोतों की ओर तेजी से बढ़ना पड़ा।

 

युद्ध के झटके के बाद यूरोप ने 2022-23 के दौरान नवीकरणीय ऊर्जा निवेश को अभूतपूर्व स्तर तक बढ़ा दिया। रिपोर्ट के अनुसार, यूरोप ने सिर्फ 2022 में ही 50 गीगावाट नई सौर क्षमता जोड़ी, जो उसकी हरित ऊर्जा संक्रमण की गंभीरता को दर्शाता है।

 

इस दिशा में यूरोपीय संघ ने ‘REPowerEU’ योजना की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य 2027 तक रूस से गैस पर निर्भरता को पूरी तरह समाप्त करना है। इस योजना के तहत यूरोप न केवल सौर और पवन ऊर्जा में भारी निवेश कर रहा है, बल्कि LNG के नए स्रोत खोजने, ऊर्जा दक्षता बढ़ाने और हाइड्रोजन जैसी उभरती तकनीकों पर भी जोर दे रहा है। यह बदलाव स्पष्ट करता है कि यूरोप अब बाहरी दबावों से मुक्त होकर ऊर्जा आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ रहा है।

भारत: आत्मनिर्भर भारत और PLI योजनाएं

भारत ने कोविड-19 महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध से मिले सबक के बाद अपनी सप्लाई चेन लोकलाइजेशन रणनीति को तेज़ी से आगे बढ़ाया। 2020 में शुरू किए गए आत्मनिर्भर भारत अभियान ने देश के मैन्युफैक्चरिंग, रक्षा उत्पादन और ऊर्जा क्षेत्र में बड़े बदलावों की नींव रखी।

 

इस अभियान के हिस्से के रूप में लागू की गई Production Linked Incentive (PLI) स्कीम ने मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक्स और बैटरी निर्माण में भारी निवेश आकर्षित किया, जिससे भारत वैश्विक वैल्यू चेन में एक मजबूत खिलाड़ी के रूप में उभरने लगा।

 

ऊर्जा सुरक्षा के मोर्चे पर भारत ने रूस से सस्ता कच्चा तेल खरीदकर न केवल अपने आयात बिल को संतुलित किया, बल्कि अमेरिका और यूरोप के साथ तकनीकी साझेदारी भी मजबूत की, जिससे दीर्घकालिक ऊर्जा और प्रौद्योगिकी सहयोग की नई संभावनाएं बनीं।

 

संयुक्त राष्ट्र व्यापार और विकास सम्मेलन (UNCTAD) के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में भारत में 49 बिलियन डॉलर का प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) आया, जिसमें सबसे बड़ा लाभ मैन्युफैक्चरिंग और नवीकरणीय ऊर्जा क्षेत्र को मिला। यह स्पष्ट करता है कि भारत अब एक सप्लाई चेन हब और निवेश गंतव्य के रूप में उभर रहा है।

रूस: एशियाई की ओर रुख

अमेरिका और यूरोप के कड़े प्रतिबंधों ने रूस की अर्थव्यवस्था को गहरी चोट पहुंचाई, लेकिन इसके जवाब में रूस ने एशिया की ओर रुख करके अपनी रणनीति बदली। उसने भारत और चीन को कच्चा तेल भारी छूट पर बेचना शुरू किया, जिसके परिणामस्वरूप 2023 तक भारत की रूस से तेल खरीद 33 गुना तक बढ़ गई। पश्चिमी दबाव से निकलने के लिए रूस ने डॉलर के बजाय युआन और रुपये में व्यापार को बढ़ावा दिया, जिससे वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था की राह बनी। केवल ऊर्जा ही नहीं, बल्कि कृषि और रक्षा क्षेत्र में भी रूस ने एशियाई साझेदारी को प्राथमिकता दी, जिससे उसका एशिया के साथ आर्थिक और रणनीतिक संबंध और अधिक गहरे हो गए।

वैश्विक सप्लाई चेन पर प्रभाव

वैश्विक सप्लाई चेन पर गहरा असर दिखाई देने लगा है। विश्व बैंक के 2023 के आंकड़ों के अनुसार, अब 72% कंपनियां 'China+1' रणनीति अपना रही हैं, यानी चीन पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय किसी अन्य देश को भी सप्लाई स्रोत के रूप में शामिल कर रही हैं। इस बदलाव के चलते ‘री-शोरिंग’ और ‘लोकलाइजेशन’ जैसी प्रवृत्तियों ने भले ही लागत को कुछ हद तक बढ़ाया हो, लेकिन इससे आपूर्ति की सुरक्षा और स्थिरता सुनिश्चित हुई है।

 

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इन नई नीतियों का स्थानीय स्तर पर रोजगार पर सकारात्मक असर पड़ा है। उदाहरण के लिए, भारत की Production Linked Incentive (PLI) स्कीम से लगभग 60 लाख नए रोजगार सृजित होने का अनुमान है, जो यह दिखाता है कि सप्लाई चेन के पुनर्गठन से आर्थिक और सामाजिक दोनों ही स्तरों पर नए अवसर उभर रहे हैं।

 

इस तरह देखा जाए तो व्यापार अब केवल आर्थिक गतिविधि नहीं रहा बल्कि यह भू-राजनीतिक हथियार बन चुका है। सप्लाई चेन का लोकलाइजेशन आज मजबूरी भी है और अवसर भी। अमेरिका से लेकर भारत और रूस तक, हर देश ने यह समझ लिया है कि अत्यधिक वैश्विक निर्भरता खतरनाक हो सकती है। यही कारण है कि ‘ग्लोबल से लोकल’ की यात्रा तेजी से आगे बढ़ रही है।

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