जाति जनगणना कराने से क्या हासिल होगा? इतिहास भी जान लीजिए
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• NEW DELHI 15 May 2025, (अपडेटेड 15 May 2025, 6:46 PM IST)
जाति जनगणना के मामले पर एक बार फिर से तब चर्चा शुरू हो गई जब केंद्र सरकार ने ऐलान कर दिया कि अगली जनगणना में जाति भी गिनी जाएगी।

जाति जनगणना, Photo Credit: Khabargaon
साल 1885 के आस-पास की बात है। बंगाल में एक अंग्रेज अफसर तैनात थे, एच. एच. रिस्ले। रिस्ले साहब सिर्फ अफसर नहीं थे। वह बड़े जानकार किस्म के आदमी थे। भारत की जातियों को समझने और उन्हें बांटने में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। उन्होंने 'द ट्राइब्स एंड कास्ट्स ऑफ बंगाल' (1891) नाम की एक मोटी किताब भी लिखी। इसी रिसर्च के दौरान उन्होंने पंजाबी खत्रियों के बारे में कुछ ऐसा लिख दिया जिससे हंगामा खड़ा हो गया। उन्होंने कहा, 'अगर खत्रियों को हिन्दू वर्ण व्यवस्था के चार खांचों में रखना हो तो वे वैश्य हैं। यानी ट्रेडर या व्यापारी समुदाय में फिट बैठते हैं।' अब यह बात खत्रियों को तीर की तरह चुभी। वे तो खुद को योद्धा मानते थे, यानी क्षत्रिय। पंजाब से लेकर यू.पी. और बंगाल तक, जहां भी खत्री थे, हलचल मच गई। उस ज़माने में बंगाल के बर्दवान राजघराने के राजा भी पंजाबी खत्री थे। उनके एक दरबारी थे, राजा बानबिहारी कपूर। उन्होंने इस लड़ाई का मोर्चा संभाला।
अशोक मलिक कास्ट सेंसस पर लिखे एक रिसर्च पेपर में बताते हैं कि खत्रियों ने इसे अपनी इज्ज़त का सवाल बना लिया। उन्होंने बाकायदा आंदोलन छेड़ दिया। जून 1901 में बरेली शहर में एक बड़ी कांफ्रेंस बुलाई गई। इसमें देशभर से 400 से ज़्यादा खत्री सभाओं के नुमाइंदे शामिल हुए। वहां आरोप लगाया गया कि किसी जोगेंद्र नाथ भट्टाचार्य नाम के शख्स ने रिस्ले साहब को गुमराह किया है। कहा गया कि निजी दुश्मनी में गलत जानकारी दी गई है।
अगली जनगणना उसी साल होने वाली थी। माहौल पूरी तरह गरमा चुका था। खत्रियों ने सेंसस अफसरों के दफ्तरों को याचिकाओं से भर दिया। ढेरों पुराने दस्तावेज़ पेश किए गए। वंशावलियां दिखाई गईं। यह साबित करने की कोशिश हुई कि वे वैश्य नहीं, क्षत्रिय हैं। उनकी एक दलील यह भी थी कि उनके पुरोहित सारस्वत ब्राह्मण हैं। ये पुरोहित उनसे पका हुआ खाना तक लेते हैं और ऐसा बर्ताव तो पुरोहित सिर्फ ऊंची जातियों के साथ ही करते हैं।
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नतीजा? ऊंट के मुंह में जीरा! अलेक्जेंडर ली अपनी किताब 'फ्रॉम हायरार्की टू एथिनिसिटी' में बताते हैं। अंग्रेज अफसरों ने ऐसी मांगों को ज़्यादातर अनदेखा ही किया। खत्रियों, कुर्मियों और कायस्थों को एक नई, गोलमोल सी कैटगरी में डाल दिया गया। ये कैटेगरी क्षत्रिय वर्ण से जुड़ी थीं। अंग्रेज़ों ने लिखा कि इनका सामाजिक रुतबा ऊंचा माना जाता है पर उनके दावे पर सब सहमत नहीं हैं। सोचिए ज़रा! एक सरकारी गिनती और उसने पूरे समुदाय की पहचान को सवालों में ला दिया।
सरकार ने अगली जनगणना में जाति का ब्यौरा भी शामिल करने की बात कही है। होगी कब, यह नहीं बताया लेकिन इस एक फैसले ने एक पुरानी, गहरी बहस को फिर से ज़िंदा कर दिया है। इस लेख में जाति जनगणना की कहानी को परत दर परत खोलेंगे। जानेंगे कि आखिर अंग्रेजों ने जाति गिनना शुरू ही क्यों किया? 1931 की उस आख़िरी जाति जनगणना में ऐसा क्या ख़ास था? उसका असर आज तक क्यों है? जाति गिनने में असल दिक्कतें क्या आती हैं? इस गिनती ने भारत की सियासत और समाज को कैसे शक्ल दी?
अंग्रेजों ने क्यों शुरू की Caste की गिनती?
सबसे पहला सवाल यही उठता है। आखिर अंग्रेजों को क्या पड़ी थी? क्यों वे भारत जैसे विशाल और उलझे हुए देश के लोगों की जातियां गिनने बैठ गए? क्या वे सच में भारतीय समाज की गहराइयों को समझना चाहते थे? या इस गिनती के पीछे कोई और ही खेल चल रहा था?
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देखिए, अंग्रेज जब भारत आए, तो उन्हें इतने बड़े और विविध मुल्क पर कब्ज़ा करना था। शासन चलाना था और शासन चलाने के लिए जानकारी पहली ज़रूरत है।
कौन लोग कहां रहते हैं? क्या काम करते हैं? उनकी सामाजिक बनावट कैसी है? ये सब जानना ज़रूरी था तो एक सीधी सी बात ये है कि सेंसस या जनगणना, उनके लिए एक प्रशासनिक टूल था। अशोक मलिक अपने रिसर्च पेपर में बताते हैं- अंग्रेजों को वर्गीकरण का जुनून सा था। हर चीज़ को डब्बों में बंद करने की आदत थी। फिर रिस्ले जैसे अफसर भी थे। जिनका किस्सा हमने शुरू में सुना। अलेक्जेंडर ली अपनी किताब 'फ्रॉम हायरार्री टू एथिनिसिटी' में बताते हैं। उनके मुताबिक, रिस्ले जैसे लोग शौकिया एंथ्रोपोलॉजिस्ट यानी मानव विज्ञानी भी थे। उनकी अपनी नस्लीय थ्योरी थीं। वह मानते थे कि भारत की जातियां असल में अलग-अलग नस्लों का नतीजा हैं।
इसी थ्योरी को साबित करने के लिए उन्होंने अजीब काम किया। लोगों के शारीरिक नाप-जोख का काम शुरू करवाया। 1901 की जनगणना के लिए अधिकारियों को निर्देश दिए गए। लोगों की नाक की लंबाई-चौड़ाई और सिर का आकार मापो। इसे एंथ्रोपोमेट्री कहते हैं। रिस्ले और उनके जैसे अफसरों का मानना था। ऊंची जातियों की नाक लंबी और पतली होती है (कथित आर्यों जैसी) जबकि निचली जातियों की नाक चौड़ी और चपटी। यानी, नाक नापकर सामाजिक हैसियत तय करने की कोशिश!
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1901 की जनगणना में रिस्ले ने फरमान जारी किया। जातियों को सामाजिक ऊंच-नीच यानी हायरार्की के क्रम में लगाया जाय। इसके लिए अजीबोगरीब पैमाने तय किए गए। जैसे, ब्राह्मण किन जातियों से पानी लेते हैं या नहीं? कौन जनेऊ पहनता है? या कौन विधवा विवाह नहीं करता? रिस्ले की ये कोशिश सीधे तौर पर जाति व्यवस्था के ऊंच-नीच वाले स्वभाव यानी हायरारिकल नेचर को सरकारी मान्यता दे रही थी। इस जाति जनगणना का एक बड़ा पहलू था- 'डिवाइड एंड रूल।'जातियों के बंटवारे से फायदा अंग्रेज़ी हुकूमत को मिला।
इसका एक सबूत हमें शेखर बंद्योपाध्याय की किताब 'कास्ट, पॉलिटिक्स एंड द राज: बंगाल 1872-1937' में मिलता है। बंद्योपाध्याय एक वाकये का ज़िक्र करते हैं। 1934 में सी. एस. रंगा अय्यर ने एक बिल लाने की कोशिश की। 'डिप्रेस्ड क्लासेज स्टेटस बिल', इसका मकसद था दलित या पिछड़ी जातियों को कानूनी तौर पर शूद्र का दर्जा देना। बंगाल सरकार से इस पर राय मांगी गई। वहां के अंग्रेज चीफ सेक्रेटरी थे जी. पी. हॉग, उन्होंने बड़ी दिलचस्प बात नोट की। उन्होंने लिखा कि इस बिल पर बहस होने देनी चाहिए! क्यों? क्योंकि इससे हिन्दू समाज में फूट पड़ेगी।
जाति जनगणना में अंग्रेजों ने क्या किया?
हॉग का सोचना था- दलित जातियां खुद को हमेशा के लिए शूद्र कहे जाने का विरोध करेंगी जबकि कट्टरपंथी हिन्दू शायद खुश हों कि चलो अब ये लोग हमेशा नीचे ही रहेंगे। कुछ कट्टरपंथी शायद इस बात पर भी भड़कें कि अछूतों को हिन्दू समाज में शामिल क्यों किया जा रहा है। हॉग का मानना था कि इस बहस से हिन्दू समाज बंट जाएगा। इसका फायदा अंग्रेजों को मिलेगा। हालांकि, बाद में बिल को रोक दिया गया लेकिन यह घटना दिखाती है। अंग्रेजों की नीतियों के पीछे सिर्फ सामाजिक न्याय का इरादा नहीं था। 'बांटो और राज करो' की सोच भी काम कर रही थी।
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हालांकि, यह याद रखना भी ज़रूरी है। जाति व्यवस्था अंग्रेजों के आने से सदियों पहले से भारत में मौजूद थी। अंग्रेजों ने इसे बनाया नहीं। बल्कि पहले से मौजूद पहचानों को अपने खांचों में डाला। ये पहचानें शायद पहले ज़्यादा लचीली थीं। अंग्रेजों ने इन्हें ज़्यादा स्थायी बना दिया।
अब हुआ ये कि जैसे ही यह क्लासिफिकेशन का काम शुरू हुआ। समाज में एक नई तरह की बेचैनी और होड़ शुरू हो गई। जनगणना अचानक से लोगों के लिए एक बड़ा मौका बन गया। अपनी सामाजिक स्थिति को ऊंचा उठाने का। या कम से कम उसे सरकारी मान्यता दिलवाने का। अंग्रेज अफसरों के दफ्तर याचिकाओं से भर गए। हर कोई खुद को ऊंची कैटगरी में दर्ज करवाना चाहता था।
बंगाल के जनगणना सुपरिन्टेंडेंट थे ओ'मैली (O'Malley)। उन्होंने 1911 की रिपोर्ट में लिखा कि उनके पास इन याचिकाओं का इतना बड़ा ढेर लग गया था कि उनका वज़न ही डेढ़ मन था! (करीब 50-60 किलो) ली के अनुसार, 1901 से 1931 के बीच ऐसी 1,130 याचिकाएं दर्ज की गईं। मानो जनगणना का दफ्तर कोई सरकारी आंकड़ों का रिकॉर्ड रूम न हो बल्कि कोई सामाजिक अदालत बन गया हो!
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इस पहचान की जद्दोजहद का एक बड़ा दिलचस्प उदाहरण दक्षिण भारत के शानन (Shanan) समुदाय का है। यह तमिलनाडु के नाडर समुदाय की एक उपजाति है। इनका पारंपरिक पेशा ताड़ी निकालने का माना जाता था। इसे ज़्यादा इज़्ज़त की नज़र से नहीं देखा जाता था लेकिन 19वीं सदी के आखिर तक कहानी बदली। इस समुदाय के बहुत से लोग अमीर और प्रभावशाली हो गए। व्यापार या सरकारी नौकरियों से। इनमें एक थे सैमुएल सरगुनार। सैमुएल सरगुनार ने 1880 में 'द्रविड़ क्षत्रिय' नाम का एक परचा लिखा। इसमें कहानी गढ़ी गई कि शानन असल में ताड़ी निकालने वाले नहीं हैं। वह तो प्राचीन राजा और योद्धा हैं! सरगुनार ने हल बताया कि शानन ऊंची जातियों की जीवनशैली अपना लें। इसी को समाजशास्त्री M.N. श्रीनिवास ने बाद में 'संस्कृतीकरण' (Sanskritization) कहा।
अगले 30 सालों तक, अमीर शाननों के एक बड़े तबके ने यही किया। किताबें छापी गईं। वंशावलियां बनाई गईं। जनगणना अफसरों को याचिकाएं दी गईं कि उन्हें क्षत्रिय दर्ज किया जाए। कई लोगों ने तो 1901 की जनगणना में खुद को क्षत्रिय ही लिखवा दिया! उन्होंने जनेऊ पहना। ब्राह्मण पंडित बुलाए। शाकाहारी बने। विधवा पुनर्विवाह रोका। यहां तक कि ऊंची जातियों की तरह धोती बांधने लगे। बाल संवारने लगे। शादियां खर्चीली और दिखावटी हो गईं लेकिन इस 'ऊंचा' बनने की कोशिश का एक दूसरा पहलू भी था। अमीर शाननों ने अपने ही समुदाय के गरीब लोगों से दूरी बना ली। जो अभी भी ताड़ी के पेशे से जुड़े थे। उनके साथ रोटी-बेटी का रिश्ता बंद कर दिया। यहां तक कि इन अमीर शाननों ने अपनी खुद की अदालतें बना लीं। इन अदालतों ने ताड़ी बेचने वाले गरीब शाननों को पीटा और सज़ा दी! ये अपनी पहचान को 'शुद्ध' रखने का एक बेरहम तरीका था।
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1920 का दशक आते-आते कहानी ने फिर पलटा खाया। कुछ युवा नेता आए। उन्होंने संस्कृतीकरण के रास्ते पर सवाल उठाया। उन्होंने कहा, 'हमें ऊंची जातियों की नकल क्यों करनी चाहिए? हमें अपनी अलग, मज़बूत पहचान बनानी चाहिए।' इसके बाद उन्होंने ठीक उलटा करना शुरू किया। ब्राह्मण पुरोहित हटाए। गरीब जाति भाइयों के साथ सार्वजनिक भोज किए। गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए स्कॉलरशिप देना शुरू किया। यह एक बिलकुल अलग राजनीति की शुरुआत थी। नाडरों और खत्रियों जैसे किस्से ये सवाल खड़ा करते हैं। क्या अंग्रेजों की गिनती ने ही इन जातियों की पहचान को गढ़ा?
जवाब एकदम सीधा नहीं है।
अंग्रेजों ने जनगणना से जाति को बदला। अपने प्रशासनिक तरीकों से उसे पहले से ज़्यादा ठोस बनाया। ज़्यादा श्रेणीबद्ध कर दिया। ली इस तर्क को मानते हैं लेकिन एक बात ये भी थी कि लोगों ने चुपचाप इसे स्वीकार नहीं किया। बल्कि इन श्रेणियों का अपने फायदे के लिए सक्रिय रूप से इस्तेमाल किया तो कुल मिलाकर, कहानी यह बनती है। अंग्रेजों ने जाति जनगणना शायद अपनी प्रशासनिक ज़रूरत के लिए शुरू की थी, दुनिया को वर्गीकृत करने की अपनी आदत के चलते किया और कुछ हद तक 'बांटो और राज करो' की नीति के तहत भी लेकिन इस गिनती का नतीजा उनकी सोच से कहीं आगे निकल गया। इसने भारत में पहचान की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। इसने जातियों को पहले से ज़्यादा साफ़ शक्ल दी। उन्हें राजनीतिक इकाइयों के तौर पर संगठित होने का मंच दिया। एक वजह दी। इसने सामाजिक दर्जे की लड़ाई को तेज किया और अनजाने में ही सही, इसने भविष्य की आरक्षण की राजनीति की नींव रखी। इसके लिए ज़रूरी आंकड़े और श्रेणियां तैयार कीं।
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1931 की जाति जनगणना
पिछले चैप्टर में हमने देखा। कैसे अंग्रेजों ने भारत में जाति जनगणना शुरू की। कैसे उसने समाज में एक नई हलचल पैदा कर दी लेकिन इस पूरी कहानी का सबसे अहम मोड़ आता है साल 1931 में। यह वह साल था जब आज़ादी से पहले आखिरी बार जातियों की गिनती विस्तार से हुई थी और इस गिनती की कहानी अपने आप में बड़ी टेढ़ी है। इस 1931 की जनगणना के कमिश्नर थे J.H. Hutton, एक अंग्रेज अफसर और एंथ्रोपोलॉजिस्ट। हटन साहब जब यह काम करने बैठे, तो उनके सामने चुनौतियों का पहाड़ था। एक तरफ तो देश में गांधी जी का सविनय अवज्ञा आंदोलन ज़ोरों पर था। कांग्रेस ने बाकायदा ‘सेंसस बॉयकॉट संडे’ तक का ऐलान कर दिया था। दूसरी तरफ, जाति का वह झमेला था जो पहले की जनगणनाओं ने खड़ा किया था। खासकर 1901 वाली ने। जब जातियों को हायरार्की में लगाने की कोशिश हुई थी। इसके बाद लोग सेंसस को अपनी सामाजिक सीढ़ी ऊपर चढ़ने का ज़रिया मान बैठे थे।
हटन ने खुद अपनी रिपोर्ट में लिखा। लोग अजीब-अजीब ऐतिहासिक कहानियां गढ़कर लाते थे। झूठी वंशावलियां पेश करते थे। कोई जाति पिछले सेंसस में खुद को राजपूत बता रही थी। वही अब ब्राह्मण होने का दावा ठोक रही थी! हटन ने मज़ाक में लिखा भी, रिस्ले साहब ने जिस दिन यह रैंकिंग का पंगा शुरू किया होगा, उस दिन को बाद के सारे सेंसस अफसर ज़रूर कोसते होंगे।
हटन इन पचड़ों से वाकिफ थे। उन्होंने रिस्ले के वर्ण व्यवस्था वाले वर्गीकरण के तरीके को खारिज कर दिया तो उन्होंने एक नया रास्ता निकाला। जातियों को उनके पारंपरिक पेशे के हिसाब से वर्गीकृत करना। यह तरीका भी कारगर नहीं हुआ। क्यों?
पेशे की अलग-अलग इज़्ज़त: हटन ने खुद माना। उत्तर भारत में खेती इज़्ज़तदार काम था। पर दक्षिण के कुछ हिस्सों में ये नीची समझी जाने वाली जातियां करती थीं। रैंकिंग कैसे तय हो?
एक जाति, कई काम: ज़्यादातर जातियों का कोई एक बंधा हुआ पारंपरिक पेशा नहीं था।
पहचान का बदलते रहना: जैसा हमने चैप्टर 1 में देखा। पहचान लगातार बदल रही थी (संस्कृतीकरण, जातियों का जुड़ना या टूटना, नए नाम अपनाना)। लोग खुद को ऊंचा दिखाने की होड़ में थे। या राजनीतिक ताकत के लिए एकजुट हो रहे थे या अंदरूनी बंटवारे झेल रहे थे। ये सब सेंसस के स्थिर खांचों में फिट नहीं बैठ रहा था।
नामों का जंजाल: एक ही जाति के कई नाम थे। ऊपर से लोग नए नाम गढ़ रहे थे। मद्रास के एक अफ़सर ने तो 1931 की रिपोर्ट में तंग आकर लिखा। जब तक नामों में स्थिरता नहीं आती यह गिनती लगभग बेकार है क्योंकि आंकड़े भरोसे लायक नहीं होंगे!
इन तमाम सिरदर्दों के बावजूद, 1931 का सेंसस हुआ और इसने एक ऐसा आंकड़ा दुनिया के सामने रखा। जो आज तक भारतीय राजनीति की धुरी बना हुआ है। इस सेंसस ने अनुमान लगाया। भारत की कुल आबादी में अन्य पिछड़ा वर्ग यानी OBCs का हिस्सा करीब 52% है।
यही 52% का आंकड़ा था। जिसे करीब 50 साल बाद, 1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट का आधार बनाया और इसी आधार पर OBCs के लिए आरक्षण की सिफारिश की गई। सरकारी नौकरियों और शिक्षा में 27% आरक्षण। यह सिफारिश जब 1990 में लागू हुई, तो उसने भारतीय राजनीति में भूचाल ला दिया।
हालांकि, 1931 की जाति जनगणना करने वाले J.H. Hutton जाति गिनने का बचाव करते रहे। वह लिखते हैं- कुछ लोग आलोचना करते हैं कि जाति गिनने से यह व्यवस्था मज़बूत होती है लेकिन हटन का तर्क था- 'किसी चीज़ के होने को नज़रअंदाज़ कर देने से वह चीज़ ख़त्म नहीं हो जाती। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर छुपा लेने से क्या होगा?' उनका मानना था कि जाति अब भी भारतीय समाज की असलियत का अहम हिस्सा है। इसलिए सरकार के लिए इसे गिनना और समझना ज़रूरी है।
1931 की जाति जनगणना एक आईने की तरह थी। उसने उस वक़्त के भारतीय समाज की उलझी हुई तस्वीर दिखाई। साल 2025 में सरकार का ऐलान है कि इस तस्वीर में एक बार फिर बदलाव की जरूरत है। कास्ट सेंसस एक बार नए सिरे से होगा। शायद इसे पूरा होते होते, पिछले कास्ट सेंसस को 100 साल पूरे हो जाएं। सरकार कास्ट सेंसस की बात कह चुकी है लेकिन जानकारों का कहना है कि यह काम टेड़ी खीर साबित होगा। सोचिए 1930 के दशक में इतनी मुश्किलें आई, जब जाति की पहचान कुछ लचीली थी। राजनीति पर इतना असर नहीं था तो सोचिए अब यह काम कितना मुश्किल होने वाला है। जब पार्टियां एक एक वोट के लिए जाति का समीकरण चेक करती हैं। आरक्षण का मुद्दा अलग से इसे पेचीदा बना देता है लेकिन यह जाति गिनना इतना मुश्किल है क्यों? क्या वे दिक्कतें जो हटन ने 1931 में झेली थीं, वे आज भी वैसी ही हैं? या कुछ बदल गया है? जानेंगे अगले चैप्टर में।
जाति जनगणना की मुश्किलें
पंगा नंबर एक - परिभाषा का पेच
सबसे बड़ा सिरदर्द है जाति और वर्ण का भेद। हम आम बोलचाल में 'जाति' शब्द दोनों के लिए इस्तेमाल करते हैं। इससे भ्रम पैदा होता है क्योंकि 'जाति' या 'caste' की कोई एक पक्की, सर्वमान्य परिभाषा ही नहीं है! शास्त्रों के हिसाब से वर्ण चार हैं जबकि जातियां हजारों में हैं। हर एक की अपनी कहानी, अपने नियम हैं। वर्ण और जाति का संबंध कई मामलों में बदल जाता है। जैसा हमने आजादी से पहले के सेंसस में देखा, कई बार लोग अपनी जाति की पहचान को बदलने की कोशिश करते हैं। मणिपुर में मैतेई समुदाय का खुद को जनजाति का दर्जा दिलवाने की मांग इसका ताज़ा उदाहरण है। एक और बड़ी दिक्कत गैर-हिन्दू (मुसलमान, सिख, ईसाई) या आदिवासी समुदायों को इस सिस्टम में कहां फिट किया जाए? यह भी एक बड़ा सवाल है।
पंगा नंबर दो - नामों का जंजाल
एक ही जाति के अलग-अलग इलाकों में कई नाम होते हैं। समूह खुद नए, ज़्यादा सम्मानजनक नाम अपना लेते हैं। ये समस्याएं आज भी हैं। 1931 वाले मद्रास के अफसर की बात आज भी लागू होती है। जब तक नामों में स्थिरता नहीं आती, आंकड़े भरोसे लायक कैसे होंगे?
पंगा नंबर तीन- व्यावहारिक दिक्कतें। अशोक मलिक जैसे जानकार कुछ बड़े सवाल उठाते हैं: कौन बताएगा? जाति जनगणना में ज़्यादातर जानकारी लोग खुद बताते हैं। क्या जाति के मामले में भी ऐसा ही होगा? क्या सरकार हर दावे को मान लेगी? खासकर OBC स्टेटस के मामले में, जहां आरक्षण का फायदा जुड़ा है?
क्या दावे सच्चे होंगे? अगर जाति बताने से फायदा मिलना तय है तो क्या लोग गलत जानकारी नहीं देंगे? इन गलत दावों को पहचाना कैसे जाएगा? उन्हें छांटा कैसे जाएगा? ली का नाडरों वाला उदाहरण याद कीजिए। कैसे फायदे के हिसाब से उनकी मांग बदल गई थी।
-नज़रिए का फ़र्क: आपकी अपनी पहचान। समुदाय की नज़र में आपकी पहचान और सरकार की नज़र में आपकी पहचान – इनमें फ़र्क हो सकता है। गिनती में किसका नज़रिया चलेगा?
पंगा नंबर चार - OBC लिस्ट का चक्कर।
आज के दौर में शायद सबसे बड़ा रोड़ा OBC लिस्ट का चक्कर है। भारत में जाति का हिसाब रखने के लिए अलग-अलग डेटाबेस हैं।
SC/ST: इनकी केंद्र सरकार की एक पक्की लिस्ट है। संसद ही इसे बदल सकती है। मामला साफ़ है।
OBCs: इनकी दो तरह की लिस्ट हैं। एक केंद्र की (सेंट्रल लिस्ट)। इसमें करीब 2650 समुदाय हैं। यह केंद्रीय नौकरियों/शिक्षा में आरक्षण के लिए है। दूसरी हर राज्य की अपनी (स्टेट लिस्ट)। ये अक्सर ज़्यादा लम्बी होती हैं। ये राज्य की नौकरियों/कॉलेजों में आरक्षण के लिए हैं।
बड़ा सवाल: अगर जाति जनगणना होती है, तो OBCs को किस लिस्ट के आधार पर गिना जाएगा? केंद्र की? राज्यों की? या लोग जो बताएंगे? यह फैसला लेना एक बहुत बड़ा राजनीतिक सिरदर्द है क्योंकि इससे देश में OBC आबादी के आंकड़े बदल सकते हैं। आरक्षण की राजनीति पूरी तरह बदल सकती है।
पंगा नंबर पांच - सामान्य कैटगरी। अभी तक SC/ST को उनकी ख़ास जाति/जनजाति के नाम से गिना जाता है लेकिन सामान्य कैटगरी वालों को बस एक समूह मान लिया जाता है। उनकी अलग-अलग जातियों (ब्राह्मण, राजपूत, बनिया आदि) का हिसाब राष्ट्रीय स्तर पर नहीं रखा जाता।
सवाल: क्या नई जातिगत जनगणना में सामान्य कैटगरी की इन जातियों को भी अलग-अलग गिना जाएगा? बिहार और तेलंगाना जैसे राज्यों ने अपने सर्वे में ऐसा किया है। हालांकि, तेलंगाना ने कुछ आंकड़े जारी नहीं किए।
अगर ऐसा होता है तो इसका क्या असर पड़ेगा? क्या सवर्ण जातियों के अंदर भी कोई नई राजनीति शुरू हो सकती है? भारतीय राजनीति में आप गौर करेंगे - जरूरत के हिसाब से ऊंची जातियां अक्सर संकीर्ण जातिगत पहचान से ऊपर उठती रही हैं। वे बड़ी पहचानों (राष्ट्र/धर्म) की राजनीति करती रही हैं लेकिन कास्ट सेंसस के बाद क्या जाति की पहचान और पक्की हो जाएगी, अपर कास्ट के लिए भी तो आप देख सकते हैं। जाति गिनना आज भी बहुत मुश्किल काम है। परिभाषा की उलझन है। पहचान का बदलना है। नामों का जंजाल है। गिनती के तरीकों पर सवाल हैं और OBC/जनरल कैटगरी जैसे बड़े राजनीतिक पेंच हैं। ये सब मिलकर इसे एक बेहद जटिल मुद्दा बनाते हैं इसीलिए जानकार कहते हैं कि ये गिनती का गणित बहुत उलझा हुआ है।
पुरानी जनगणनाओं ने भारत को कैसे बदला?
जाति जनगणना पर अभी क्यों घोषणा हुई। टाइमिंग है या मोदी का मास्टरस्ट्रोक, राहुल गांधी के कहने पर सरकार प्रेशर में आई। राजद , सपा को क्रेडिट जाना चाहिए। जाति जनगणना की घोषणा के बाद इस तरह की बहस आप लगातार सुन रहे होंगे लेकिन असली मुद्दा यह नहीं है कि जाति जनगणना क्यों हो रही हैं। बड़ा सवाल है कि इसका असर क्या होने वाला है। भविष्य देखने का दावा हम नहीं करते लेकिन इतिहास की मदद तो ले ही सकते हैं। 1931 के कास्ट सेंसस ने भारतीय समाज और सियासत पर क्या असर डाला। बदला क्या? चलिए देखते हैं।
सबसे बड़ा असर यह हुआ। जो जातियां पहले शायद थोड़ी धुंधली थीं। या स्थानीय थीं। सेंसस ने उन्हें ज़्यादा पक्का बना दिया। ज़्यादा ठोस। अखिल भारतीय कैटगरी बना दिया। जब सरकार ने लोगों को तयशुदा खांचों में गिनना शुरू किया तो लोगों ने भी खुद को उन्हीं खांचों में ज़्यादा मज़बूती से देखना शुरू कर दिया। यह सरकारी ठप्पा पहचान का अहम हिस्सा बन गया।
दूसरा बड़ा बदलाव था जाति सभाओं का उभरना। शेखर बंद्योपाध्याय अपनी किताब 'कास्ट, पॉलिटिक्स एंड द राज' में पूर्वी बंगाल की एक घटना के बारे में बताते है। फरीदपुर और बाकरगंज जिलों में चांडाल समुदाय (जो बाद में नामशूद्र कहलाए) ने सामाजिक बहिष्कार आंदोलन छेड़ा था। हुआ यूं कि ऊंची जातियों, खासकर कायस्थों ने एक चांडाल मुखिया के घर भोज करने से इनकार कर दिया। इस अपमान के जवाब में, चांडालों ने फैसला किया कि वे ऊंची जातियों के लिए काम करना बंद कर देंगे। उनके खेत नहीं जोतेंगे। उनके छप्पर नहीं डालेंगे। यही नहीं, उन्होंने अपने समुदाय में 'संस्कृतीकरण' की कोशिशें भी शुरू कर दीं। जैसे औरतों का बाज़ार जाना बंद करवाया। सरकार से अपील की कि जेलों में चांडाल कैदियों से मैला ढोने का काम न लिया जाए। यह आंदोलन करीब चार-पांच महीने चला।
सेंसस ने जातियों को गिना, नाम दिया तो कई समूहों को संगठित होने का नया मंच मिला। ये सभाएं अक्सर पढ़े-लिखे लोग बनाते थे। शहरी और अमीर तबके के लोग। शुरुआत में इनका काम था सेंसस के टाइम अर्जियां देना। नाम बदलवाना या ऊंचा दर्जा हासिल करना। धीरे-धीरे इनका काम बदला। ये अपनी जाति में सोशल रिफॉर्म की बात करने लगीं। बुरी आदतें छोड़ो, पढ़ाओ, दहेज मत लो आदि। स्कूल-कॉलेज खोले। फंड जमा किए। अखबार निकाले और फिर, चुनाव का दौर आने पर, ये राजनीतिक प्लेटफॉर्म बन गईं। अपनी जाति के लिए हिस्सेदारी मांगने लगीं। नौकरियों में, कॉलेजों में, कौंसिलों में।
इसका एक सटीक उदाहरण यू.पी. की 'कायस्थ सभा' में मिलता है। 20वीं सदी की शुरुआत है की बात है। उत्तर प्रदेश तब यूनाइटेड प्रोविंस हुआ करता था। शेखर बंदोपाध्याय बताते हैं, 'यहां कायस्थ समुदाय, जो लिखने-पढ़ने और प्रशासन के काम से जुड़ा था, अंग्रेजों के राज में काफी तरक्की कर रहा था लेकिन समाज में उन्हें ऊंची जातियों, खासकर ब्राह्मणों से प्रतिस्पर्धा मिल रही थी। यू.पी. में ब्राह्मणों की संख्या भी काफी थी और वे पढ़े-लिखे भी थे। अब कायस्थों को लगा कि राजनीतिक और सामाजिक शक्ति बढ़ाने के लिए अपनी पहचान को मज़बूत करना होगा। उन्होंने दावा करना शुरू किया कि वे असल में क्षत्रिय हैं। अपनी बात मनवाने के लिए उन्होंने सभाएं बनाईं, किताबें छपवाईं, और यहां तक कि अदालतों में केस भी लड़े।'
उन्होंने मांग की कि क्लर्क जैसी सरकारी नौकरियों में कायस्थों को ज़्यादा प्रतिनिधित्व मिले। उनकी दलील थी- कायस्थ पारंपरिक रूप से लिखने-पढ़ने और प्रशासन से जुड़े रहे हैं। इसलिए इन नौकरियों पर उनका स्वाभाविक दावा बनता है। यह दिखाता है कि कैसे जनगणना की श्रेणियों का इस्तेमाल होने लगा था। सीधे-सीधे सरकारी संसाधनों के बंटवारे की राजनीति के लिए। शिकागो यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और भारतीय राजनीति पर शोध करने वाले लॉयड रुडोल्फ और सुज़ैन होबर रुडोल्फ ने इस फ़िनोमिना को 'राजनीति का आधुनिकीकरण' कहा। पारंपरिक जाति के ढांचे का इस्तेमाल आधुनिक राजनीति के लिए होने लगा। कायस्थ सभा से लेकर नाडर महाजन संगम तक, ढेरों सभाएं खड़ी हो गईं। जाति अब सिर्फ सामाजिक पहचान नहीं थी। एक राजनीतिक शक्ति भी बन रही थी।
जैसा हमने पहले भी देखा। जनगणना सामाजिक रुतबे की लड़ाई का मैदान बन गया। कई निचली मानी जाने वाली जातियों ने 'संस्कृतीकरण' का रास्ता अपनाया। सामाजिक विज्ञान में इसे 'रैंक्ड मोबलाइजेशन' कहते हैं। यानी मौजूदा सामाजिक ऊंच-नीच के ढांचे के भीतर ही बेहतर स्थिति पाने की कोशिश।
अपनी जाति को ऊंचा साबित करने की ये होड़ कई बार बड़े पैमाने पर होती थी। इसका एक दिलचस्प उदाहरण उत्तर बंगाल के राजबंसियों का है। शेखर बंद्योपाध्याय बताते हैं। जब राजबंसियों ने खुद को क्षत्रिय कहना शुरू किया तो उन्होंने इसे सिर्फ़ कागज़ों तक सीमित नहीं रखा। उनकी 'क्षत्रिय समिति' ने 1912 में एक विशाल 'मिलन-क्षेत्र' का आयोजन किया। रंगपुर जिले के भोगरामगुड़ी में। यह क्या था? यह सामूहिक रूप से जनेऊ धारण करने का कार्यक्रम था! बंद्योपाध्याय के अनुसार, इस पहले ही आयोजन में चार से पांच हज़ार राजबंसियों ने एक साथ जनेऊ पहना। खुद के क्षत्रिय (यानी द्विज) होने का दावा पेश किया। इसके बाद ऐसे कई और 'मिलन-क्षेत्र' अलग-अलग जिलों में आयोजित किए गए। इनमें लाखों राजबंसियों ने हिस्सा लिया। पहचान का दावा ज़मीनी स्तर पर एक बड़े सामाजिक आंदोलन का रूप ले रहा था। जिसे जनगणना की श्रेणियों ने और हवा दी।
जाति जनगणना का असर क्या हुआ?
1931 की कास्ट सेंसस का सबसे बड़ा असर हुआ -आरक्षण। आरक्षण की राजनीति की नींव यहीं से पड़ी थी। जनगणना ने पहली बार आंकड़े दिए। 1931 के 52% OBC आंकड़े ने भविष्य के आंदोलनों को ठोस आधार दिया। अब वे कह सकते थे। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हमारी संख्या इतनी है। इसलिए हमें हक़ मिलना चाहिए। जनगमना ने ही 'डिप्रेस्ड क्लासेज' जैसी कैटगरी बनाई। जिससे बाद में SC/ST लिस्ट बनी और उन्हें आरक्षण मिला। क्या इन सब का असर ज़मीनी पावर स्ट्रक्टर पर पड़ा? हां, कुछ हद तक ज़रूर।
ऊंची जातियों को चुनौती: संगठित जातियों ने धीरे-धीरे ऊंची जातियों के दबदबे को चुनौती देना शुरू किया। दक्षिण भारत में गैर-ब्राह्मण आंदोलन इसका बड़ा उदाहरण है। जनगणना के आंकड़ों ने गैर-ब्राह्मणों को उनकी संख्या का एहसास कराया। उनकी पिछड़ी हालत का पता चला। इसने आंदोलन को हवा दी।
नया नेतृत्व उभरा: बंगाल में महिष्यों, नामशूद्रों, राजबंसियों ने संगठित होकर पहचान बनाई। सिर्फ पहचान ही नहीं, स्थानीय राजनीति में भी पकड़ मज़बूत की। जनगणना ने एक नई निचली और मध्य जातियों की लीडरशिप को उभरने का मौका दिया।
क्षेत्रीय राजनीति पर असर Census का असर हर जगह एक जैसा नहीं था। यू.पी. और बिहार के कायस्थों का उदाहरण लें। बिहार में कायस्थ पढ़े-लिखों में सबसे आगे थे। मुकाबला कम था इसलिए उन्होंने अलग जातिगत पहचान पर ज़ोर नहीं दिया। राष्ट्रवाद जैसी बड़ी पहचानों से जुड़े लेकिन यू.पी. में ब्राह्मणों से कड़ा मुकाबला था। इसलिए वहां के कायस्थ अपनी जातिगत पहचान को लेकर ज़्यादा मुखर हुए।
1931 की जाति जनगणना का जो असर हुआ, वह दो तरफ़ से देखा जा सकता है। इसने जातिगत पहचान को मजबूत किया। जिससे शायद जाति की लकीरें और मजबूत हुईं लेकिन साथ ही साथ 1931 की जनगणना उस प्रक्रिया का अहम हिस्सा थी। जिसने भारत को 'हायरार्की' (ऊंच-नीच) से 'एथिनिसिटी' (अलग जातीय समूहों) के समाज की तरफ धकेला। सेंसस के चलते अलग-अलग जातिगत समूह अपनी पोलिटिकल पावर पहचान पाए। दशकों बाद, भारत एक बार फिर उसी मोड़ पर खड़ा है। सरकार ने अगली जनगणना में जाति फिर से गिनने का फैसला किया है। सवाल वही पुराने हैं लेकिन आज उनके जवाब शायद और ज़्यादा मुश्किल हो गए हैं और ज़्यादा राजनीतिक हो गए हैं।
क्या ये गिनती वाकई सामाजिक न्याय लाएगी? क्या इससे पता चलेगा कि विकास का फायदा किसे मिला, कौन छूटा? ताकि नीतियां कारगर बनें? क्या जातिगत पहचान और मज़बूत होगी? क्या राजनीतिक पार्टियां वोट बैंक के लिए इसका फायदा उठाएंगी? क्या लोग फायदे के लिए गलत जानकारी देंगे? सरकार इसे वेरिफाई कैसे करेगी? OBCs को किस लिस्ट से गिना जाएगा? जनरल कैटगरी का क्या होगा?
ऐसे कितने ही सवाल हैं, जिनका जवाब मिलना बाकी है। जाति जनगणना का इतिहास हमें एक ज़रूरी सबक सिखाता है। गिनती कभी सिर्फ गिनती नहीं होती। यह पहचान गढ़ती है। सियासत की दिशा तय करती है। एक बात साफ़ है – भारत में जाति एक हक़ीक़त है। एक ऐसी हक़ीक़त जिससे मुंह मोड़ना नामुमकिन है और जिसे समझना और संभालना, शायद उससे भी ज़्यादा मुश्किल। नई जाति जनगणना हमें किस दिशा में ले जाएगी, यह तो वक़्त ही बताएगा लेकिन यह तय है कि यह सफर आसान नहीं होने वाला है।
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