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ईद-उल-अजहा: आखिर कैसे हुई बकरीद और कुर्बानी की शुरुआत?

दुनियाभर के मुसलमान ईद उल अजहा का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। इसी को बकरीद भी कहा जाता है। क्या आप जानते हैं कि भारत में बकरीद की शुरुआत कैसे हुई थी?

history of bakrid

बकरीद का इतिहास, Photo Credit: Khabargaon

ईद-उल-अज़हा, जिसे भारत में आम तौर पर बकरीद के नाम से भी जानते हैं, दुनियाभर के मुसलमानों के लिए दो सबसे बड़े त्योहारों में से एक है। दुनियाभर के मुसलमान इसे बहुत जोश और श्रद्धा के साथ मनाते हैं। इस दिन खास नमाज़ अदा की जाती है। जानवरों की क़ुरबानी होती है। लोग नए कपड़े पहनते हैं। घरों में तरह-तरह के पकवान बनते हैं। खुशियां मनाई जाती हैं। एक दूसरे से गले मिला जाता है लेकिन सवाल यह है कि बकरीद मनाई क्यों जाती है? 

 

ईद उल अज़हा की शुरुआत कैसे हुई? इसमें दी जाने वाली क़ुरबानी का असल मतलब क्या है? ईद उल अज़हा का पैगंबर इब्राहिम की कहानी से क्या संबंध है? आइए एक नज़र डालते हैं, ईद उल अजहा के इतिहास पर।


पैग़म्बर इब्राहिम की कहानी

 

आज दुनिया में तीन बड़े धर्म हैं – इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी धर्म। इन तीनों को इब्राहिमी या अब्राहमिक धर्मों के नाम से जाना जाता है। इसकी एक खास वजह है। ये तीनों परंपराएं एक ही हस्ती से निकली हैं – पैग़म्बर इब्राहिम। 

 

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पैग़म्बर इब्राहिम की ज़िंदगी की कहानी बहुत पुरानी है। आज से लगभग चार हज़ार साल पहले की। यह कहानी शुरू होती है आज के इराक़ से। वहां एक शहर था ‘ऊर’। एक बहुत पुराना और मशहूर शहर। ऊर, मेसोपोटामिया की सभ्यता का एक बहुत अहम शहर माना जाता था। यहां खेती के लिए सिंचाई का ज़बरदस्त इंतज़ाम था। घर भी पक्के बने हुए थे और शहर के बीचोबीच एक बहुत बड़ा मंदिर था। इस मंदिर को ‘ज़िगुरैट’ कहा जाता था। यह मंदिर शहर के मुख्य देवता की पूजा के लिए बनाया गया था। वह देवता थे चांद-देवता ‘नन्नार’ और उनकी पत्नी ‘निन-गल’।


 
ऊर शहर का माहौल पूरी तरह से ऐसा था जहां लोग एक ईश्वर के बजाय कई देवी-देवताओं की पूजा करते थे। इब्राहिम के पिता का नाम ‘आज़र’ था। कुछ रिवायतों में उनका नाम ‘तेरह’ या ‘तराख’ भी बताया गया है। मान्यता है कि इब्राहिम के पिता खुद मूर्तियां बनाने और उन्हें बेचने का काम करते थे। ऐसे माहौल में, जहां अनेक ईश्वरों की पूजा समाज और हुकूमत दोनों का हिस्सा थी, इब्राहिम ने बहुत छोटी उम्र से ही अपने दिल में इन रस्मों के बारे में सवाल उठाने शुरू कर दिए थे। इस्लामी परंपरा के अनुसार, उनका दिल हमेशा एक ही सबसे बड़े, अनदेखे ईश्वर की तरफ झुकता था। वह ईश्वर जिसने सारी दुनिया बनाई। उन्होंने अपने लोगों को समझाया कि केवल एक ईश्वर ही पूजा के लायक है। 

 

इस सब के बाद शहर का बादशाह बहुत नाराज़ हुआ। इस्लामी और यहूदी परंपराओं में इस बादशाह का नाम नमरूद मिलता है। वह खुद को भी एक बड़ी हस्ती समझता था। उसने इब्राहिम को अपनी हुकूमत के लिए ख़तरा समझा और उन्हें ज़िंदा जला देने का हुक्म दे दिया। एक बहुत बड़ी आग जलाई गई। इतनी बड़ी कि कोई उसके पास भी नहीं जा सकता था। कहानी कहती है कि इब्राहिम को एक गुलेल जैसी मशीन, यानी कैटापल्ट से उस आग में फेंका गया लेकिन तभी ईश्वर का चमत्कार हुआ। क़ुरान में आता है कि ईश्वर ने आग को हुक्म दिया, “ऐ आग, इब्राहिम के लिए ठंडी और सलामती वाली हो जा” और ईश्वर के हुक्म से वह दहकती हुई आग इब्राहिम के लिए बिल्कुल बेअसर हो गई। आग ने उन्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचाया। वह उसमें से सही-सलामत बाहर निकल आए।

 

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इस घटना के बाद बादशाह नमरूद का ज़ुल्म भी बढ़ता गया। इब्राहिम ने ईश्वर के हुक्म से ऊर शहर को हमेशा के लिए छोड़ दिया। वह अपनी पहली पत्नी सारा और अपने भतीजे लूत के साथ एक नए सफ़र पर निकल पड़े। मकसद था ईश्वर का पैग़ाम फैलाना। उनका यह सफ़र उन्हें ऊर से पहले हरान ले गया। फिर वह फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर पहुंचे, जिसे उस ज़माने में कनान भी कहा जाता था। इसके बाद वह कुछ वक़्त के लिए मिस्र भी गए। इब्राहिम की दो पत्नियां थीं, सारा और हाजरा। इस्लामी परंपरा के अनुसार मिस्र के बादशाह ने हाजरा को एक दासी के रूप में दिया था। बाद में, इब्राहिम ने हाजरा से शादी कर ली।
 
हाजरा से इब्राहिम को एक बेटा हुआ - इस्माइल। इस्लामी परंपरा के अनुसार, ईश्वर ने इब्राहिम को हुक्म दिया। उन्हें हाजरा और अपने दूध पीते बेटे इस्माइल को लेकर एक ऐसी घाटी में जाना था जो बिल्कुल वीरान, सूखी और ग़ैर-आबाद थी। उस घाटी को फ़ारान की वादी भी कहा गया है। आज दुनिया उसे मक्का के नाम से जानती है। इब्राहिम ने ईश्वर के हुक्म को माना। उन्होंने अपनी पत्नी और बच्चे को उस वीरान घाटी में थोड़े से पानी और कुछ खजूरों के साथ छोड़ दिया और वापस फ़िलिस्तीन लौट गए। जब हाजरा ने उनसे पूछा कि क्या आप हमें इस वीरान जगह पर अकेला छोड़कर जा रहे हैं तो इब्राहिम ने कोई जवाब नहीं दिया। जब उन्होंने तीसरी बार पूछा कि क्या ये ईश्वर का हुक्म है तो इब्राहिम ने कहा, "हां"। इस पर हाजरा का जवाब भी उनके ईश्वर पर भरोसे को दिखाता है। उन्होंने कहा, "अगर यह ईश्वर का हुक्म है, तो वह हमें हरगिज़ बर्बाद नहीं करेगा।"

 

7 चक्कर क्यों लगाते हैं मुस्लिम?
 

कुछ दिनों बाद, जब हाजरा के पास मौजूद पानी और खजूर ख़त्म हो गए और बच्चा इस्माइल प्यास से बेहाल होने लगा। हाजरा परेशान हो उठीं। वह पानी की तलाश में पास की दो पहाड़ियों, सफ़ा और मरवा के बीच दौड़ने लगीं। कभी इस पहाड़ी पर चढ़तीं तो कभी उस पर। इस उम्मीद में कि शायद कोई इंसान या पानी का कोई निशान दिख जाए। उन्होंने इन दोनों पहाड़ियों के बीच सात चक्कर लगाए। इसी घटना के चलते आज भी हर साल लाखों मुसलमान हज और उमरा के दौरान सफ़ा और मरवा के बीच इसी तरह सात चक्कर लगाते हैं। ये हज के ज़रूरी कामों में शामिल है।

 

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सात चक्कर पूरे करने के बाद जब हाजरा लौटीं, तो उन्होंने देखा। जिस जगह इस्माइल प्यास से एड़ियां रगड़ रहे थे, वहां ज़मीन से पानी का एक सोता उबल पड़ा था। इस पानी को देखकर हाजरा ने उसे जमा करने की कोशिश की। वह बार-बार कह रही थीं "ज़म ज़म", जिसका मतलब होता है "रुक जा, रुक जा"। लिहाज़ा आज इसे ‘आब-ए-ज़मज़म’ के नाम से जाना जाता है। इसी ज़मज़म के पानी ने मक्का की वीरान वादी को ज़िंदगी दी। पानी की वजह से पंछी उस तरफ़ आने लगे। कुछ समय बाद यमन से गुज़र रहे ‘बनी जुरहुम’ नाम के एक क़बीले ने आसमान में पंछियों को मंडलाते देखा। वह समझ गए कि आस-पास पानी मौजूद है। वह पानी की तलाश में ज़मज़म के चश्मे तक पहुंचे और हाजरा से वहां बसने की इजाज़त मांगी। हाजरा ने उन्हें इस शर्त पर इजाज़त दे दी कि पानी पर उनका हक़ नहीं होगा। इस तरह मक्का, जो एक वीरान जगह थी, धीरे-धीरे एक छोटी सी बस्ती बनी। फिर वह एक अहम शहर में बदल गई।
 
कुर्बानी और पत्थर मारने का रिवाज
 
इब्राहिम, ईश्वर के हुक्म के मुताबिक़ मक्का आते थे। वह समय-समय पर अपनी पत्नी हाजरा और बेटे इस्माइल से मिलते थे। इस्माइल अब समझदार हो चुके थे। वह अपने पिता के साथ काम में हाथ बंटाने की उम्र को पहुंच गए थे, तकरीबन 13-14 साल के। तभी इब्राहिम की ज़िंदगी का वह सबसे बड़ा और सबसे मशहूर इम्तिहान आया। इसका ज़िक्र क़ुरान और दूसरी आसमानी किताबों में मिलता है। 

 

इस्लामी परंपरा के अनुसार, इब्राहिम को लगातार तीन रातों तक ख्वाब आया। ख्वाब में उन्हें दिखाया गया कि वह अपने बेटे इस्माइल को ईश्वर की राह में क़ुर्बान कर रहे हैं। इब्राहिम फ़ौरन समझ गए कि ईश्वर उनसे उनके सबसे प्यारे बेटे की क़ुरबानी चाहता है। छियासी साल की उम्र में मिली औलाद को क़ुर्बान करने का हुक्म मिलना, यकीनन इब्राहिम के लिए एक बहुत बड़ी आज़माइश थी लेकिन इब्राहिम का ईश्वर पर विश्वास अटूट था।

 

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उन्होंने इस मुश्किल मसले पर अपने बेटे इस्माइल से बात की। उन्होंने कहा, “ऐ मेरे प्यारे बेटे, मैंने ख्वाब देखा है कि मैं तुम्हें ज़िबह (कुर्बान) कर रहा हूं। इस बारे में तुम्हारी क्या राय है?” इस्माइल को जब पता चला कि यह ईश्वर का हुक्म है, वह फौरन तैयार हो गए। 


इस्लाम की ज़्यादातर प्रामाणिक रिवायतों के मुताबिक़, जिस बेटे की क़ुरबानी का हुक्म हुआ था, वह इस्माइल ही थे। हालांकि, बाइबिल की किताब 'जेनेसिस चैप्टर 22' में इस घटना में इस्हाक़ (Isaac) का ज़िक्र है। इस्हाक़, इब्राहिम के दूसरे बेटे थे। क़ुरान ने इस घटना में बेटे का नाम साफ़ तौर पर नहीं लिया लेकिन क़ुरान के बयान की तरतीब और दूसरी हदीसों की रौशनी में ज़्यादातर इस्लामी विद्वानों का मानना यही है कि वह इस्माइल ही थे।
 
जब बाप और बेटा, दोनों ईश्वर की मर्ज़ी पर राज़ी हो गए तो इब्राहिम अपने बेटे इस्माइल को लेकर क़ुरबानी की जगह की तरफ़ चल पड़े। यह जगह मक्का के क़रीब मीना की वादी में थी। रिवायतों में आता है कि इस दौरान शैतान ने तीन बार इब्राहिम को बहकाने की कोशिश की। वह उन्हें ईश्वर के हुक्म से फेरना चाहता था। उसने पिता के दिल में बेटे की मुहब्बत जगाकर उन्हें इस काम से रोकने की कोशिश की लेकिन तीनों बार इब्राहिम ने उसे दु्त्कार दिया और कंकड़ मारकर भगा दिया। आज भी हज के दौरान इसी घटना की याद में, हाजी मीना में तीन खास जगहों पर (जिन्हें जमारात कहते हैं) शैतान को कंकड़ मारते हैं।

 

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बहरहाल, वह मुश्किल घड़ी आई। इब्राहिम ने अपने बेटे इस्माइल को क़ुरबानी के लिए ज़मीन पर लिटाया। उनको माथे के बल लिटाया और अपने हाथ में तेज़ धार वाली छुरी थाम ली। जैसे ही उन्होंने ईश्वर का नाम लेकर अपने बेटे की गर्दन पर छुरी रखी और उसे चलाने का इरादा किया, उसी पल आसमान से एक आवाज़ आई। ईश्वर ने फ़रमाया, “ऐ इब्राहिम! तुमने अपने ख्वाब को सच कर दिखाया। बेशक यह एक बहुत बड़ा और खुला इम्तिहान था।” जब इब्राहिम ने देखा तो वे हैरान रह गए। इस्माइल उनके पास सही सलामत खड़े मुस्कुरा रहे थे और उनकी जगह एक मोटा-ताज़ा दुम्बा (भेड़ा) ज़िबह हुआ पड़ा था। इस तरह ईश्वर ने इब्राहिम की क़ुरबानी को क़ुबूल फ़रमाया लेकिन इस्माइल की जान बचा ली। 

ईद-उल-अज़हा की शुरुआत कैसे हुई?
 

इस बड़ी परीक्षा में कामयाब होने के बाद, ईश्वर ने इब्राहिम और इस्माइल को एक और बहुत ही अहम और पवित्र काम सौंपा। उन्हें मक्का की ज़मीन पर ईश्वर की इबादत के लिए पहला घर बनाने का हुक्म दिया गया। इसी घर को आज दुनिया ‘काबा’ या ‘बैतुल्लाह’ (ईश्वर का घर) के नाम से जानती है। इब्राहिम और इस्माइल ने मिलकर ईश्वर के हुक्म से काबे की बुनियादें उठाईं। इस्माइल पत्थर ला-लाकर देते और इब्राहिम दीवारें बनाते जाते। जब दीवारें इतनी ऊंची हो गईं कि इब्राहिम का हाथ वहां तक पहुंचना मुश्किल हो गया तो इस्माइल उनके लिए एक पत्थर ले आए। इस पत्थर पर खड़े होकर उन्होंने बाकी तामीर पूरी की। कहा जाता है कि उस पत्थर पर आज भी इब्राहिम के क़दमों के पवित्र निशान मौजूद हैं इसलिए इस पत्थर को ‘मक़ाम-ए-इब्राहिम’ (इब्राहिम के खड़े होने की जगह) कहा जाता है।

 

इस्लामिक परंपरा में माना जाता है कि काबे की तामीर के दौरान ही, जिब्रील नाम के एक फ़रिश्ते जन्नत से एक काला पत्थर लेकर आए। इसे ‘हज्र-ए-असवद’ कहा जाता है। इस पत्थर को इब्राहिम और इस्माइल ने काबे के एक कोने में लगाया। काबे की तामीर पूरी होने के बाद, इब्राहिम और इस्माइल ने मिलकर ईश्वर से दुआएं मांगीं। उन्होंने दुआ की कि ईश्वर इस शहर यानी मक्का को अमन और सलामती का शहर बना दे। उनकी नस्लों में से एक ऐसी क़ौम पैदा करे जो हमेशा ईश्वर की आज्ञा मानने वाली रहे। उन्हें इबादत के सही तरीक़े सिखाए और इस शहर के रहने वालों को फल और दूसरी चीज़ों से रोज़ी दे। इस तरह काबा दुनिया भर के मुसलमानों के लिए क़िब्ला (नमाज़ की दिशा) बन गया। 

 

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समय बीतता गया। अरब के लोगों ने इब्राहिम की लाई हुई शिक्षाओं को धीरे-धीरे भुला दिया। काबा, जिसे सिर्फ़ एक ईश्वर की इबादत के लिए बनाया गया था, उसमें सैकड़ों मूर्तियां लाकर रख दी गईं। लोग उन मूर्तियों की पूजा करने लगे। उनके नाम पर जानवर क़ुर्बान करने लगे। क़ुरबानी का जो असल मतलब इब्राहिम ने सिखाया था, वह कहीं खो गया। यहां तक कि वे क़ुरबानी के जानवरों का खून काबा की दीवारों पर मलते थे। वह मानते थे कि उनके देवता इसी से ख़ुश होंगे।
 
इस्लामिक रिवायतों के अनुसार सदियों बाद, जब ईश्वर ने अपने आख़िरी पैग़म्बर, मुहम्मद को दुनिया में भेजा तो उन्होंने इन तमाम ग़लत रस्मों को ख़त्म किया। उन्होंने मक्का जीतने के मौके पर काबे को तमाम मूर्तियों से पाक-साफ़ किया और क़ुरबानी की उस इब्राहिमी परंपरा को उसकी असली भावना के साथ दोबारा ज़िंदा किया। इस्लामिक फ़ाउंडेशन के मौलाना अबू-सालेह पटवारी, बीबीसी की एक रिपोर्ट में बताते हैं कि इस्लाम के कई रीति-रिवाज पैग़म्बर मुहम्मद के मदीना जाने के बाद ही लागू हुए। ईद-उल-अज़हा और ईद-उल-फ़ित्र, मुसलमानों के ये दो सबसे बड़े सालाना त्योहार हैं। इन्हें पैग़म्बर मुहम्मद ने मदीना में ही शुरू करवाया था। इससे पहले मदीना के लोग नौरोज़ और मिहिरजान जैसे ईरानी त्योहार मनाया करते थे। पैग़म्बर ने इन त्योहारों की जगह इस्लामी शिक्षाओं पर आधारित ये दो ईदें शुरू कीं। ताकि मुसलमानों की एक अलग धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान बन सके। 

 

हदीस की किताबों में आता है कि पैग़म्बर मुहम्मद हर साल ईद-उल-अज़हा के मौक़े पर क़ुरबानी किया करते थे। वह अक्सर दो सींग वाले मेंढे यानी- नर भेड़  क़ुर्बान करते थे। एक अपनी और अपने घर वालों की तरफ़ से और दूसरा अपनी पूरी उम्मत यानी अपने तमाम मानने वालों की तरफ़ से। यूं तो इस्लाम में कुर्बानी का बड़ा महत्व है लेकिन इस्लामिक विद्वानों के अनुसार, असल चीज़ जानवर का ज़बह करना नहीं, बल्कि वह जज़्बा है जिसके साथ यह क़ुरबानी दी जा रही है। इसीलिए, इस्लामी शिक्षा के मुताबिक़, क़ुरबानी के जानवर के गोश्त को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। एक हिस्सा अपने घर-परिवार के लिए। दूसरा हिस्सा दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा, सबसे अहम हिस्सा, ग़रीबों और ज़रूरतमंदों में बांटा जाता है। यह त्योहार को सिर्फ़ एक धार्मिक रस्म नहीं, बल्कि एक सामाजिक ज़िम्मेदारी भी बनाता है। इसमें सब एक दूसरे का ख़्याल रखते हैं। 

 

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