आपस में तकरार और सत्ता से दोस्ती, सिंधिया परिवार की कहानी क्या है?
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• GWALIOR 18 Aug 2025, (अपडेटेड 18 Aug 2025, 4:09 PM IST)
सिंधिया परिवार की कहानी ऐसी रही है कि उसे सत्ता से जुड़ा रहने वाला परिवार कहा जाता है। सत्ता से प्यार की यह कहानी अंग्रेजों से दौर से शुरू हुई और आज तक जारी है।

सिंधिया परिवार की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
साल 1857, देश में क्रांति की आग जल रही थी। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज़ों से लड़ते हुई ग्वालियर पहुंची। उन्हें उम्मीद थी कि ग्वालियर के महाराजा जयाजीराव सिंधिया उनकी मदद करेंगे लेकिन इतिहास की किताबों में दर्ज है कि मदद नहीं मिली बल्कि धोखा मिला। तभी से सिंधिया राजघराने के नाम के एक ऐसा दाग जुड़ गया जिसकी चर्चा 150 साल बाद भी होती है। हिंदुत्व के सबसे बड़े आइकॉन विनायक सावरकर ने तो जयाजीराव को 'फिरंगियों का गुलाम और कायर' तक कह डाला।
यह कहानी सिर्फ़ एक इल्ज़ाम की नहीं है। यह कहानी है उस खानदान की, जो महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव का किसान या 'पाटिल' हुआ करता था और देखते ही देखते मराठा साम्राज्य का सबसे बड़ा सिपहसालार बन गया। यह कहानी उस शासक की है, जो इतना ताकतवर हो गया कि उसने दिल्ली में बैठे मुगल बादशाह को अपनी पनाह में ले लिया और खुद उसका संरक्षक यानी 'वकील-उल-मुतलक़' बन गया।
आजाद हिंदुस्तान में भी यह परिवार सत्ता से दूर नहीं रहा। 1957 से लेकर आज तक एक भी दिन ऐसा नहीं गया जब सिंधिया परिवार का कोई सदस्य सांसद या विधायक न रहा हो लेकिन इस शाही राजनीति की अपनी महाभारत थी। एक ही परिवार, दो ध्रुव। मां, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, BJP की संस्थापक सदस्यों में से एक तो बेटा, माधवराव सिंधिया, कांग्रेस का चमकता हुआ सितारा और अब पोता, ज्योतिरादित्य सिंधिया, जिन्होंने कांग्रेस छोड़कर BJP में 'घर वापसी' कर ली है।
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तो क्या है सिंधिया परिवार की कहानी? कैसे एक किसान परिवार दिल्ली का किंगमेकर बन गया? और एक मां ने सियासत के लिए अपने बेटे को क्यों छोड़ दिया? अलिफ लैला की इस कड़ी में पढ़िए सिंधिया खानदान की कहानी-गद्दारी के आरोपों से लेकर सियासत के शिखर तक।
पाटिल से महाराजा तक
सिंधिया। आज यह नाम सियासत और राजसी विरासत का प्रतीक है लेकिन यह हमेशा से ऐसा नहीं था। ‘सिंधिया’ नाम तो अंग्रेज़ों का दिया हुआ है, जो असल मराठी सरनेम ‘शिंदे’ का बिगड़ा हुआ रूप है। यह कहानी शुरू होती है महाराष्ट्र के सतारा के पास बसे कनेरखेड़ गांव से, जहां शिंदे परिवार रहता था। वे कोई बड़े जागीरदार नहीं थे। गांव के पाटिल थे यानी मुखिया और कुनबी जाति से ताल्लुक रखते थे। खुद माधवराव सिंधिया ने एक बार कहा था, ‘मुझे इस बात पर गर्व है कि हम जमीन से उठे लोग हैं, मामूली किसान, जिन्होंने अपने खून-पसीने के दम पर सब कुछ हासिल किया।’
इस ‘सब कुछ’ की शुरुआत की थी राणोजी शिंदे ने। राणोजी, पेशवा बाजीराव-I की फौज में एक मामूली सिपाही थे लेकिन उनकी पहचान बनी उनकी वफादारी से। कहानी कुछ यूं है कि एक रोज पेशवा बाजीराव, छत्रपति शाहूजी महाराज से एक लंबी मुलाक़ात के बाद बाहर निकले। उन्होंने देखा कि उनका निजी सेवक राणोजी जमीन पर सो रहा है लेकिन नींद में भी उसने पेशवा की जूतियां अपने सीने से कसकर लगा रखी थीं।
यह महज़ एक किस्सा नहीं था। यह उस दौर की हकीकत थी। तब दुश्मनों को जहर देने का एक आम तरीका था जूतियों में जहर लगा देना। राणोजी की यह वफादारी देखकर पेशवा इतने खुश हुए कि उन्होंने उसे अपनी ख़ास टुकड़ी, यानी ‘पागा’ में शामिल कर लिया। राणोजी की बहादुरी और युद्ध कौशल ने जल्द ही उन्हें पेशवा का करीबी बना दिया। 1728 में जब पेशवा ने मालवा को मुगलों से छीना तो राणोजी को वहां का सूबेदार बना दिया गया। उन्हें वहां से टैक्स वसूलने का अधिकार मिला, जिसका 65 फीसदी हिस्सा वह अपने पास रख सकते थे। राणोजी ने इसके बाद कई बड़ी लड़ाइयों में हिस्सा लिया। उन्होंने 1738 में निज़ाम-उल-मुल्क के ख़िलाफ़ और 1739 में पुर्तगालियों के ख़िलाफ़ अपनी बहादुरी का लोहा मनवाया।
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उनकी काबिलियत को देखते हुए पेशवा ने मालवा को हमेशा के लिए उनके सुपुर्द कर दिया और यहीं से सिंधिया सल्तनत की औपचारिक शुरुआत हुई। 1731 में राणोजी ने उज्जैन को अपनी राजधानी बनाया और खुद को एक स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। राणोजी सिर्फ एक योद्धा नहीं थे। उनमें एक शासक की दूरदर्शिता भी थी। उन्होंने सूफी संत मंसूर अली शाह को अपना गुरु माना और बीड़ में उनके लिए एक दरगाह बनवाई। सिंधिया परिवार आज भी उस दरगाह पर हर साल होने वाले उर्स का आयोजन करता है।
1745 में राणोजी की मौत हो गई। राणोजी के बड़े बेटे जयप्पा को 1759 में मार दिया गया। उनके बाकी बेटे और पोते 1761 में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मारे गए। सिंधिया परिवार लगभग ख़त्म हो चुका था। तबाह हो चुकी उस सल्तनत के खंडहरों पर सिर्फ एक शिंदे खड़ा था - राणोजी का सबसे छोटा बेटा, महादजी सिंधिया। वही महादजी जिसे सिंधिया सल्तनत का सबसे ताकतवर शासक बनना था।
महादजी सिंधिया
साल 1761। पानीपत की तीसरी लड़ाई। इस जंग ने मराठा साम्राज्य की कमर तोड़ दी थी। सिंधिया परिवार के लगभग सभी बड़े योद्धा मारे जा चुके थे। चारों तरफ तबाही और नाउम्मीदी का मंज़र था। इसी मैदान में एक 31 साल का नौजवान मराठा बुरी तरह ज़ख़्मी पड़ा था। एक अफ़ग़ान सिपाही ने उसके घुटने पर ऐसा वार किया था कि वह जिंदगीभर के लिए लंगड़ा हो गया। मौत सामने खड़ी थी। तभी राणे खान नाम का एक भिश्ती, यानी पानी पिलाने वाला, वहां पहुंचा। उसने उस ज़ख़्मी सैनिक को पहचाना। यह राणोजी शिंदे का सबसे छोटा बेटा महादजी सिंधिया था।
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राणे खान महादजी को अपनी बैलगाड़ी में डालकर कई महीनों के सफ़र के बाद दक्कन वापस लाया। महादजी की जान तो बच गई लेकिन सिंधिया सल्तनत लगभग ख़त्म हो चुकी थी। यहीं से महादजी सिंधिया के उस सफ़र की शुरुआत हुई, जो उन्हें दिल्ली का किंगमेकर बनाने वाला था। महादजी को समझ आ गया था कि अंग्रेज़ों की बढ़ती ताकत का मुक़ाबला पुरानी तरकीबों से नहीं किया जा सकता। उन्हें एक ऐसी फौज चाहिए थी जो यूरोपियन स्टाइल में लड़ सके। इसके लिए उन्होंने एक फ्रांसीसी कमांडर, बेनवा द बोइन को अपनी सेना में भर्ती किया। द बोइन की मदद से महादजी ने पैदल सेना की 16 बटालियन, 500 तोपें और एक लाख से ज़्यादा घुड़सवारों की एक ताकतवर फौज खड़ी कर ली।
महादजी एक चतुर रणनीतिकार भी थे। उन्होंने देखा कि दिल्ली में मुग़ल बादशाह शाह आलम-II नाम का सुल्तान रह गया है। असल ताकत उसके वज़ीरों के हाथ में है। महादजी ने दिल्ली की तरफ कूच किया। 1772 में उन्होंने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और शाह आलम को दोबारा तख़्त पर बिठाया। इस मदद के बदले बादशाह ने महादजी को 'वकील-उल-मुतलक़' यानी साम्राज्य का संरक्षक बना दिया।
महादजी ने कहा कि यह पदवी उनके मालिक यानी पुणे में बैठे पेशवा की है। वह तो सिर्फ़ उनके डिप्टी रहेंगे। कहने को वह डिप्टी थे लेकिन अब दिल्ली की सल्तनत महादजी के इशारे पर चलती थी। कुछ साल बाद, 1788 में गुलाम कादिर नाम के एक रोहिल्ला सरदार ने दिल्ली पर हमला किया और बादशाह शाह आलम की आंखें निकलवा दीं। एक बार फिर महादजी की सेना दिल्ली पहुंची और उन्होंने बादशाह को बचाया।
अब महादजी उत्तर भारत के सबसे ताक़तवर शख्स थे लेकिन अपनी ह्यूमिलिटी के लिए जाने जाते थे। 1792 में जब वह पुणे में पेशवा के दरबार में पहुंचे तो हाथी से उतरकर सबसे पीछे खड़े हो गए। जब पेशवा ने उन्हें आगे आने को कहा तो महादजी ने एक पुरानी पोटली खोली। उसमें उनके पिता राणोजी की जूतियां रखी थीं। महादजी ने कहा, ‘मेरा और मेरे पिता का असली काम तो यही था।’
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महादजी का सपना भारत की सभी ताकतों को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एकजुट करना था लेकिन 1794 में उनकी मौत के साथ ये सपना अधूरा रह गया। इतिहासकार मानते हैं कि अगर महादजी कुछ और साल ज़िंदा रहते तो शायद भारत का इतिहास कुछ और भी हो सकता था। लेकिन इतिहास इसी का नाम है। अगर और मगर। महादजी की नौ पत्नियां थीं लेकिन कोई बेटा नहीं था। अपनी मौत से पहले उन्होंने अपने भतीजे दौलतराव को अपना वारिस चुना। महादजी के जाने के साथ ही सिंधिया खानदान में वारिस न होने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह अगली डेढ़ सदी तक इस परिवार का पीछा करता रहा।
1857 का दाग, राजमाता का उदय
महादजी सिंधिया के जाने के बाद सिंधिया सल्तनत की चमक फीकी पड़ने लगी। उनके वारिस दौलतराव सिंधिया एक के बाद एक लड़ाइयों में अंग्रेज़ों से दिल्ली, आगरा, जयपुर और जोधपुर जैसे बड़े इलाके हार गए। अब सिंधिया सल्तनत, ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन एक रियासत बनकर रह गई थी। सिंधिया राजघराने के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ आया। 1857 में देश में क्रांति की पहली चिंगारी भड़की। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अंग्रेज़ों से लड़ते हुए ग्वालियर पहुंचीं। इतिहास की किताबों के अनुसार, उसके अनुसार उस वक़्त के महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने रानी का साथ नहीं दिया। अब इसके कारण पेचीदा हैं लेकिन हिंदुत्व के सबसे बड़े विचारकों में से एक, विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी किताब 'Indian War of Independence, 1857' में जयाजीराव के लिए बहुत कठोर शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने सिंधिया को 'फिरंगियों का गुलाम और कायर' तक कहा। सावरकर लिखते हैं- 'जब रानी की मुलाक़ात जयाजीराव से हुई तो एक कोबरा भी अपने ऊपर पैर रखे जाने पर इतना नहीं फुंकारता, जितना लक्ष्मीबाई इस गद्दार को देखकर गुस्से से भर गई थीं।'
सिंधिया परिवार इस कहानी का एक दूसरा पहलू भी बताता है। विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा 'Princess' में लिखा है कि जयाजीराव उस वक़्त मजबूर थे। उनकी अपनी सेना बाग़ी हो चुकी थी। विजयाराजे के अनुसार, जयाजीराव ने रानी के परिवार और औरतों को पनाह दी और उन्हें सुरक्षित आगरा के किले तक पहुंचाया। 2024 में दिए एक इंटरव्यू में ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी इसी बात को दोहराया: 'झांसी की रानी की मदद जयाजीराव सिंधिया ने अंत तक की थी। अंग्रेज़ों ने सेना का इस्तेमाल करने के लिए कहा था लेकिन जयाजीराव ने मना कर दिया था। अंग्रेज़ों ने उन्हें हाउस अरेस्ट कर लिया था। उन्हें जेल में डाला गया।'
सच्चाई जो भी हो, 1857 के बाद सिंधिया पूरी तरह अंग्रेज़ों के अधीन हो गए। उन्हें बड़े-बड़े ख़िताब मिले, इनाम मिले लेकिन उनकी असली ताकत ख़त्म हो चुकी थी। कहानी आगे बढ़ती है और भारत आज़ाद होता है। उस वक़्त ग्वालियर के महाराजा थे जीवाजीराव सिंधिया। उन्होंने बड़ी समझदारी दिखाते हुए अपनी रियासत का विलय भारत में कर दिया। जीवाजीराव खुद सियासत से दूर रहे लेकिन उनकी पत्नी महारानी विजयाराजे सिंधिया की किस्मत में कुछ और ही लिखा था।
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विजयाराजे का जन्म नेपाल के राजसी राणा परिवार में हुआ था। वह एक आम महारानी की तरह महलों में ही रहतीं लेकिन 1957 में उन्हें राजनीति में दाखिल होना पड़ा। किस्सा दिलचस्प है। हाउस ऑफ सिंधिया में रशीद किदवई बताते हैं, 1950 के दशक में कांग्रेस ख़ासकर नेहरू का ग्वालियर घराने पर शक गहराता जा रहा था।
दो वजहें- नाथूराम गोडसे ने जिस पिस्टल से गांधी की हत्या की, आरोप था कि वह पहले ग्वालियर रेजिमेंट के एक कर्नल की थी। जिस नाथूराम ने हत्या के दो दिन पहले ग्वालियर के एक गन ट्रेडर से खरीदा था। दूसरी वजह यह कि 1951-52 के चुनावों में हिंदू महासभा ने मध्य भारत असेंबली 11 और दो लोकसभा सीटों पर जीत हासिल के थी। इलाके में हिंदू महासभा कांग्रेस के सबसे बड़ी चैलेंजर बनकर उभरी थी। इन दोनों कारणों के चलते नेहरू सरकार के ग्वालियर से संबंधों में तनाव आया। जीवाजी राव की तबीयत अब तक नासाज रहने लगी थी। लिहाजा रानी विजयाराजे ने दिल्ली जाकर ख़ुद नेहरू से मुलाक़ात की। दिलचस्प बात यह कि जीवाजीराव को इसकी कोई खबर नहीं थी। अपनी ऑटोबायोग्राफी में विजयाराजे लिखती हैं कि जीवाजीराव मुंबई में थे और फ़ोन लाइन डाउन होनेके चलते उनसे बात नहीं हो पाई।
बकौल विजयाराजे, उन्होंने नेहरू से मिलकर उन्हें भरोसा दिलाया कि महाराजा या वह कांग्रेस के ख़िलाफ़ नहीं हैं। तब नेहरू ने जो जवाब दिया, उसे सुनकर विजयाराजे चौंक गई। नेहरू ने विजयाराजे से कहा कि तब तो महाराज को 1957 के चुनावों में कांग्रेस के तरफ़ से चुनाव लड़ना चाहिए। विजयाराजे समझाती रहीं कि महाराजा की पॉलिटिक्स में दिलचस्पी नहीं हैं लेकिन नेहरू नहीं माने। अंत में नेहरू ने विजयाराजे से गोविंद बल्लभ पंत और लाला बहादुर शास्त्री से मिलने को कहा। शास्त्री जी ने विजयाराजे को इस बात के लिए मनाया की महाराज के बदले वह चुनाव लड़ें।
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इस तरह विजयाराजे की पॉलिटिक्स में एंट्री हुई। विजयाराजे चुनाव जीतीं भी लेकिन कांग्रेस में उनका मन ज़्यादा दिन नहीं लगा। वह पार्टी की समाजवादी नीतियों से असहमत थीं। 1966 में मध्य प्रदेश के कांग्रेसी मुख्यमंत्री डी.पी. मिश्रा ने एक सभा में राजघरानों को लोकतंत्र के लिए ख़तरा बता दिया। यह बात राजमाता को चुभ गई। कुछ ही महीनों बाद, बस्तर के महाराजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की पुलिस फायरिंग में मौत ने उन्हें और नाराज़ कर दिया। 1967 में उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और जनसंघ में शामिल हो गईं। यह उस दौर की सियासत में एक बड़ा भूचाल था। उन्होंने न सिर्फ़ चुनाव जीता, बल्कि कांग्रेस के 36 विधायकों को तोड़कर डी.पी. मिश्रा की सरकार गिरा दी। मध्य प्रदेश में पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी और इसकी सूत्रधार थीं राजमाता विजयाराजे सिंधिया।
अब वह विपक्ष की सबसे बड़ी नेताओं में से एक थीं और इंदिरा गांधी की मुखर आलोचक। यह टकराव अपने चरम पर पहुंचा 1975 में जब इंदिरा गांधी ने देश में इमरजेंसी लगा दी। 25 जून, 1975 की रात, जब देश के बड़े-बड़े विपक्षी नेता गिरफ़्तार किए जा रहे थे, तब राजमाता दिल्ली में अपनी सबसे छोटी बेटी यशोधरा का जन्मदिन मना रही थीं। उन्हें ख़बर मिली कि उनकी गिरफ़्तारी का भी आदेश है। उनके बेटे माधवराव, जो उस वक़्त जनसंघ के सांसद थे, गिरफ़्तारी के डर से नेपाल भाग गए। उन्होंने अपनी मां और बहनों को भी नेपाल आने का संदेश भेजा।
राजमाता कुछ दिनों तक छिपी रहीं लेकिन आखिर में उन्होंने नेपाल जाने के बजाय ग्वालियर जाकर सरेंडर करने का फैसला किया। उन्हें पहले पचमढ़ी और फिर दिल्ली की तिहाड़ जेल भेज दिया गया। सिंधिया परिवार के लिए यह सबसे मुश्किल दौर था। एक तरफ मां जेल में थी तो दूसरी तरफ बेटा देश से बाहर। यहीं से मां और बेटे के बीच वह दरार पड़नी शुरू हुई, जिसने सिंधिया परिवार की सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया।
मां, बेटा और सियासत
इमरजेंसी खत्म हुई। राजमाता विजयाराजे सिंधिया जेल से बाहर आईं और उनके बेटे माधवराव सिंधिया नेपाल से लौट आए। कुछ महीनों के लिए परिवार में सब कुछ ठीक था। राजमाता ने सियासत से दूरी बना ली थी और अपना ज़्यादातर वक़्त परिवार के साथ बिता रही थीं लेकिन यह शांति ज़्यादा दिन नहीं टिकने वाली थी।
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जल्द ही, राजमाता के सबसे भरोसेमंद सलाहकार, सरदार संभाजीराव आंग्रे भी जेल से रिहा हो गए। वीर सांघवी और नमिता भंडारे अपनी किताब 'Madhavrao Scindia: A Life' में लिखते हैं कि आंग्रे के वापस आते ही परिवार में सियासत की दखलअंदाजी फिर से शुरू हो गई। आंग्रे, जिन्हें माधवराव अपनी मां और अपने बीच की दरार की सबसे बड़ी वजह मानते थे, ने राजमाता को दोबारा सक्रिय राजनीति में आने के लिए मना लिया।
यहीं से मां और बेटे के रास्ते हमेशा के लिए अलग हो गए। धीरे-धीरे यह टकराव राजनीतिक संघर्ष में तब्दील हुआ और 1980 में दोनों के रास्ते पूरी तरह अलग हो गए जब माधवराव ने अपनी मां की पार्टी, BJP को छोड़कर कांग्रेस का दामन थाम लिया। अब यह सिर्फ एक राजनीतिक लड़ाई नहीं रही। यह मां और बेटे के बीच खुली जंग थी।
राजमाता ने जनता पार्टी और फिर 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी (BJP) में एक बड़ी भूमिका निभानी शुरू कर दी। वह पार्टी की संस्थापक उपाध्यक्ष बनीं। दूसरी तरफ, माधवराव अपनी मां की हिंदुत्व की राजनीति से सहमत नहीं थे। वह ऑक्सफ़ोर्ड से पढ़े एक उदारवादी नेता थे। यह एक बड़ी वजह थी कि उन्होंने अपनी मां और आंग्रे की सियासत को छोड़कर कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। यह सिर्फ एक राजनीतिक फैसला नहीं था। यह एक बेटे की अपनी मां के खिलाफ खुली बगावत थी।
यह टकराव अपने चरम पर पहुंचा 1984 के लोकसभा चुनाव में। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में सहानुभूति की लहर थी। BJP के सबसे बड़े नेता, अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से चुनाव लड़ने उतरे। ग्वालियर उनका गृहनगर था और उन्हें राजमाता का पूरा समर्थन हासिल था। उनकी जीत लगभग तय मानी जा रही थी लेकिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने एक ऐसा दांव चला जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। उन्होंने माधवराव सिंधिया को ग्वालियर से वाजपेयी के ख़िलाफ़ उतार दिया। माधवराव ने पहले अपनी सुरक्षित सीट गुना से पर्चा भरा और नामांकन के आखिरी दिन, आखिरी घंटे में ग्वालियर पहुंचकर वाजपेयी को चुनौती दे दी।
अब ग्वालियर की लड़ाई सिंधिया बनाम सिंधिया बन गई। राजमाता ने पहली बार अपने ही बेटे के खिलाफ प्रचार किया। उन्होंने चुनावी सभाओं में कहा, 'मैं अहिल्याबाई होल्कर की तरह हूं, जिसे अपने लोगों के लिए अपने बेटे को भी कुचलना पड़ा।' जवाब में माधवराव ने अपनी मां के खिलाफ एक शब्द नहीं कहा। नतीजा आया तो सब हैरान रह गए। माधवराव ने अटल बिहारी वाजपेयी को 1,75,000 वोटों के भारी अंतर से हरा दिया।
इस चुनाव ने माधवराव को कांग्रेस का हीरो बना दिया लेकिन मां-बेटे के रिश्ते को हमेशा के लिए तोड़ दिया। अब लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं रही। यह जायदाद और विरासत की बन गई। वीर सांघवी अपनी किताब 'Madhavrao Scindia: A Life' में लिखते हैं कि ग्वालियर का विशाल जय विलास पैलेस दो हिस्सों में बंट गया। महल के अंदर कमरों और विंग्स पर ताले लगने लगे। राजमाता ने ग्वालियर का विशाल जय विलास पैलेस छोड़ दिया और बगल के रानी महल में रहने चली गईं। महल के नौकरों और कर्मचारियों को भी चुनना पड़ा कि वे किसके साथ हैं। यह विवाद सिंधिया परिवार के पूजनीय पन्ने के शिवलिंग तक भी पहुंचा, जिसे महादजी सिंधिया अपनी पगड़ी में पहनते थे। राजमाता ने शिवलिंग वापस लेने के लिए आमरण अनशन की धमकी दे दी। माधवराव को झुकना पड़ा और उनकी पत्नी माधवी राजे ने भारी मन से वह शिवलिंग अपनी सास को सौंप दिया।
इस लड़ाई का सबसे कड़वा अध्याय राजमाता ने अपनी वसीयत में लिखा। 1985 में लिखी इस वसीयत में उन्होंने माधवराव को अपनी जायदाद से बेदखल कर दिया। उन्होंने लिखा, 'उसने खुद को इस लायक भी नहीं छोड़ा कि वह अपनी मां के मृत शरीर का अंतिम संस्कार कर सके, जो हर बेटे का धार्मिक कर्तव्य होता है।' एक मां और बेटे का रिश्ता सियासत की भेंट चढ़ चुका था।
जनता की अदालत में 'महाराजा'
1984 में ग्वालियर की जीत ने माधवराव सिंधिया को एक झटके में राजमाता के बेटे की छाया से निकालकर सियासत के आसमान पर खड़ा कर दिया। वह अब सिर्फ ग्वालियर के 'महाराजा' नहीं थे, बल्कि एक ऐसे नेता थे जिसने जनता की अदालत में अपनी काबिलियत साबित की थी। 1986 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उन्हें रेल मंत्री बनाया। उस दौर में भारतीय रेल की छवि बहुत अच्छी नहीं थी। ट्रेनें लेट चलती थीं, डिब्बे गंदे रहते थे और टिकट के लिए लंबी-लंबी कतारें लगती थीं। माधवराव ने इस मंत्रालय में एक सीईओ की तरह काम किया।
उनका सबसे बड़ा काम था रेलवे रिज़र्वेशन का कम्प्यूटरीकरण। आज हमें ऑनलाइन टिकट बुक करना बहुत आम बात लगती है लेकिन 80 के दशक में यह बड़ी बात थी । वीर सांघवी और नमिता भंडारे अपनी किताब 'Madhavrao Scindia: A Life' में लिखते हैं कि माधवराव ने इस प्रोजेक्ट को खुद मॉनिटर किया और तमाम सरकारी अड़चनों के बावजूद इसे लागू करवाया। इसके अलावा, उन्होंने भारत की पहली एयरकंडीशन्ड इंटरसिटी ट्रेन-शताब्दी एक्सप्रेस की शुरुआत की। 2018 में वंदे भारत के आने से पहले तक शताब्दी सीरीज़ की गाड़ियां सबसे प्रीमियम मानी जाती थीं, आज भी बहुत पॉपुलर हैं।
माधवराव की 'मिस्टर क्लीन' यानी साफ़-सुथरी छवि और उनके काम ने उन्हें कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से एक बना दिया लेकिन 1996 में उनकी इसी छवि पर एक बड़ा दाग लगा। देश में हवाला कांड का भूचाल आया। जैन बंधुओं की एक डायरी में देश के कई बड़े नेताओं के नाम थे, जिन पर रिश्वत लेने का आरोप लगा। उस डायरी में माधवराव सिंधिया का नाम भी था। यह उनके लिए एक बड़ा झटका था। उन्होंने बिना देर किए, नैतिकता के आधार पर, नरसिम्हा राव सरकार में अपने मंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया।
जब चुनाव आए, तो कांग्रेस पार्टी ने उन्हें टिकट देने से भी इनकार कर दिया। माधवराव के सामने उनका राजनीतिक करियर बचाने की चुनौती थी। उन्होंने कांग्रेस छोड़कर अपनी एक नई पार्टी बनाई- मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस। निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर ग्वालियर से चुनाव लड़े और भारी मतों से चुनाव जीत गए। कुछ समय बाद अदालत ने उन्हें हवाला मामले में बरी कर दिया। वह फिर से कांग्रेस में लौट आए और इस बार उनका कद पहले से भी बड़ा था। अब वह सिर्फ एक मंत्री नहीं, बल्कि एक ऐसे नेता थे जिसने मुश्किल वक़्त में अपनी लड़ाई खुद लड़ी और जीती थी। राजीव गांधी के बाद वह सोनिया गांधी के भी सबसे भरोसेमंद सलाहकारों में से एक बन गए। कई लोग उन्हें कांग्रेस की तरफ से प्रधानमंत्री पद का एक मज़बूत दावेदार भी मानने लगे थे लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था।
30 सितंबर, 2001। माधवराव सिंधिया उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक रैली को संबोधित करने के लिए एक प्राइवेट प्लेन से जा रहे थे। मैनपुरी के पास उनका प्लेन क्रैश हो गया। इस हादसे में माधवराव समेत सभी 8 लोगों की मौत हो गई। तब उनकी उम्र सिर्फ 56 साल थी।
नई पीढ़ी, नई सियासत
माधवराव सिंधिया की मौत ने कांग्रेस पार्टी और सिंधिया परिवार, दोनों में एक खालीपन छोड़ दिया था। अब सबकी नज़रें माधवराव के 30 साल के बेटे, ज्योतिरादित्य सिंधिया पर थीं। अमेरिका की हार्वर्ड और स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े ज्योतिरादित्य, राजनीति से दूर एक कॉर्पोरेट करियर बनाना चाहते थे लेकिन पिता की विरासत का बोझ उनके कन्धों पर था।
पिता की मृत्यु के कुछ ही महीनों बाद, उन्होंने उनकी पारंपरिक सीट गुना से चुनाव लड़ा और आसानी से जीत गए। यहीं से ज्योतिरादित्य के राजनीतिक सफ़र की शुरुआत हुई। वह UPA सरकार में मंत्री बने और अपनी एक आधुनिक, पढ़े-लिखे नेता की छवि बनाई। कांग्रेस के अंदर उन्हें और राहुल गांधी को पार्टी का भविष्य माना जाता था लेकिन 2014 में कांग्रेस की हार के बाद, पार्टी के अंदर समीकरण बदलने लगे। ज्योतिरादित्य को महसूस होने लगा कि उन्हें दरकिनार किया जा रहा है। यह अहसास सबसे ज़्यादा मज़बूत हुआ 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद।
उस चुनाव में ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस कैम्पेन के मुख्य चेहरों में से एक थे। पार्टी ने एक मामूली बहुमत से जीत हासिल की और सरकार बनाने की स्थिति में आ गई। ज्योतिरादित्य मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे लेकिन पार्टी आलाकमान ने अनुभवी नेता कमलनाथ का साथ दिया। पत्रकार रशीद किदवई अपनी किताब 'The House of Scindias' में लिखते हैं कि इस फैसले में दिग्विजय सिंह जैसे पुराने नेताओं की भी बड़ी भूमिका थी। ज्योतिरादित्य को उपमुख्यमंत्री का पद दिया जा रहा था, जो उन्होंने ठुकरा दिया। उन्हें लगने लगा था कि जिस पार्टी के लिए उन्होंने इतना कुछ किया, वहां उनके लिए कोई जगह नहीं है। उनका असंतोष कई बार सार्वजनिक रूप से भी सामने आया, जैसे जब उन्होंने अपनी ही सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि अगर वादे पूरे नहीं हुए तो वह सड़क पर उतर आएंगे।
इस कहानी का क्लाइमेक्स आया मार्च 2020 में। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया और अपने 22 समर्थक विधायकों के साथ BJP में शामिल हो गए। यह सिर्फ एक दलबदल नहीं था। यह एक तरह की 'घर वापसी' थी। उनकी दादी, राजमाता विजयाराजे, BJP की संस्थापक थीं। उनकी दोनों बुआ, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे BJP की बड़ी नेता थीं। ज्योतिरादित्य के इस कदम ने मध्य प्रदेश में कमलनाथ की कांग्रेस सरकार गिरा दी। इस फैसले ने सिंधिया परिवार की कहानी का चक्र पूरा कर दिया। जो लड़ाई 40 साल पहले राजमाता और उनके बेटे के बीच शुरू हुई थी, वह अब पोते के अपनी दादी की पार्टी में लौटने के साथ ख़त्म हो गई।
महल, मिल्कियत और महाभारत
सिंधिया परिवार की कहानी सिर्फ सियासत की नहीं, दौलत की भी कहानी है। इतनी दौलत कि उसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है। पत्रकार रशीद किदवई अपनी किताब 'The House of Scindias' में एक अनुमान बताते हैं कि आज परिवार की जिन संपत्तियों पर विवाद है, उनकी कुल कीमत ₹40,000 करोड़ से भी ज़्यादा हो सकती है। यह वह मिल्कियत है जो सिंधियाओं की ताकत का प्रतीक रही और अब एक बड़े पारिवारिक महाभारत की वजह बन गई है।
इस कहानी के केंद्र में है ग्वालियर का जय विलास पैलेस। इसे महाराजा जयाजीराव सिंधिया ने 1874 में बनवाया था। महल के दरबार हॉल में लगे दो विशालकाय झाड़फानूस, जिनका वज़न साढ़े तीन-तीन टन है, दुनिया के सबसे बड़े झाड़फानूसों में से हैं। विजयाराजे सिंधिया अपनी आत्मकथा 'Princess' में लिखती हैं कि जब इन्हें लगाने की बारी आई तो इंजीनियरों को डर था कि छत इतना वज़न सह नहीं पाएगी। तब महाराजा ने छत पर दस हाथी चढ़वाकर उसकी मज़बूती परखी थी। आज इस महल का एक बड़ा हिस्सा म्यूज़ियम है।
सिंधिया परिवार की दूसरी सबसे चर्चित प्रॉपर्टी है- समुद्र महल। वर्ली सीफेस पर 20 एकड़ में फैली यह ज़मीन महाराजा माधो महाराज (ज्योतिरादित्य सिंधिया के परदादा और माधवराव सिंधिया के दादा) ने आगा ख़ान से खरीदी थी। 'Madhavrao Scindia: A Life' में वीर सांघवी लिखते हैं कि माधो महाराज ने अपनी वसीयत में साफ़ लिखा था कि इस प्रॉपर्टी को कभी बेचा न जाए लेकिन उनके बेटे जीवाजीराव की मृत्यु के बाद, विजयाराजे सिंधिया ने सरकारी टैक्स चुकाने के लिए इसका एक बड़ा हिस्सा बेच दिया।
आज यहां मुंबई की सबसे आलीशान रिहायशी इमारतों में से एक खड़ी है, जिसका नाम भी समुद्र महल ही है। इसी बिल्डिंग के एक डुप्लेक्स अपार्टमेंट में माधवराव सिंधिया रहते थे और आज भी यह ज्योतिरादित्य सिंधिया के नाम है, जैसा कि उनके चुनावी हलफनामे में बताया गया है। इन सबको मिलकर सिंधिया परिवार की और भी हज़ारों करोड़ की संपत्ति है, जो बंटवारे के हेरफेर में फंसी है। विवाद की जड़ महाराजा जीवाजीराव सिंधिया की 1961 में हुई मृत्यु है। उन्होंने अपनी कोई वसीयत नहीं छोड़ी थी। तब राजमाता विजयाराजे ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत संपत्ति का बंटवारा किया। प्रिमोजेनिचर (Pri-mo-geni-ture) के अनुसार सबसे बड़े बेटे को सब कुछ विरासत में मिलता है। राजमाता ने पहले पूरी संपत्ति को तीन मुख्य हिस्सों में बांटा दिया था। एक हिस्सा विजयाराजे सिंधिया को मिला। दूसरा हिस्सा उनके इकलौते बेटे माधवराव सिंधिया को मिला। तीसरा हिस्सा परिवार के सभी वारिसों, यानी राजमाता, माधवराव और उनकी चारों बेटियों (पद्मा राजे, ऊषा राजे, वसुंधरा राजे और यशोधरा राजे) के बीच बराबर बांटा गया।
यहां तक कहानी सिंपल थी लेकिन 1984 में माधवराव से हुए राजनीतिक झगड़े के बाद, राजमाता ने 1985 में एक नई वसीयत लिखी, जिसमें उन्होंने माधवराव को अपनी संपत्ति से बेदखल कर दिया। आज यही कानूनी लड़ाई की सबसे बड़ी वजह है। ज्योतिरादित्य सिंधिया का दावा है कि शाही संपत्ति पर प्रिमोजेनिचर (primogeniture) का नियम लागू होना चाहिए। प्रिमोजेनिचर (Pri-mo-geni-ture) के अनुसार, सबसे बड़े बेटे को सब कुछ विरासत में मिलता है। वहीं, उनकी तीनों बुआ (वसुंधरा, यशोधरा और ऊषा राजे) हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और अपनी मां की 1985 की वसीयत के आधार पर बराबर की हिस्सेदारी का दावा करती हैं।
अभी यह मामला देश की अलग-अलग अदालतों में चल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल देते हुए सभी पक्षों को आपसी सहमति से विवाद सुलझाने की सलाह दी है। 2023 में मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने भी मध्यस्थता के ज़रिए विवाद को सुलझाने तक सुनवाई पर रोक लगा दी थी। हालांकि, ज्योतिरादित्य के BJP में आने के बाद यह उम्मीद की जा रही थी कि परिवार एक साथ बैठकर कोई हल निकाल लेगा लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो पाया है। कुछ रिपोर्ट्स के मुताबिक, यशोधरा राजे इस समझौते के लिए तैयार नहीं हैं जबकि वसुंधरा राजे और ऊषा राजे ज़्यादा दिलचस्पी नहीं ले रही हैं। फिलहाल, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार, जब तक प्रिमोजेनिचर (primogeniture) का मामला सुलझ नहीं जाता, तब तक किसी भी संपत्ति का अंतिम बंटवारा नहीं हो सकता। यह एक ऐसी कानूनी महाभारत है जिसमें महल, मिल्कियत, पैसा और परिवार सब कुछ दांव पर लगा है और इसका अंतिम फैसला आना अभी बाकी है।
सिंधिया खानदान की कहानी भारत के इतिहास का एक आईना है। यह कहानी एक मामूली किसान परिवार के दिल्ली का किंगमेकर बनने की है। यह कहानी एक मां और बेटे के बीच सियासत की वजह से आई दरार की है और आख़िर में यह कहानी है बदलते वक़्त के साथ खुद को बदलने की। सिंधिया परिवार ने हमेशा सत्ता के साथ रहना सीखा है। चाहे वह मुग़लों का दौर हो, अंग्रेज़ों का राज हो या आज का लोकतंत्र। इसे कुछ लोग राजनीतिक अवसरवाद कह सकते हैं और कुछ लोग इसे ज़िंदा रहने की कला लेकिन एक बात साफ़ है- सिंधिया परिवार जानता है कि सियासत के शिखर पर कैसे बने रहना है।
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