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राष्ट्रपति की मौत और एक गलती, क्या है AC के आविष्कार की कहानी?

शहरों के साथ-साथ अब गांवों में भी AC पहुंचने लगा है। गर्मी से बचने के सबसे बड़े तरीके के रूप में AC का ही इस्तेमाल किया जा रहा है। आइए समझते हैं कि इसकी शुरुआत कैसे हुई थी?

history of ac

AC का इतिहास, Photo Credit: PTI

10 जून, 2025, दिन मंगलवार। दिल्ली में देश के नए आवास और शहरी मामलों के मंत्री, मनोहर लाल खट्टर ने एक बड़ा ऐलान किया। उन्होंने कहा कि सरकार जल्द ही एक नियम लाने वाली है, जिसके तहत आपके घर, दफ्तर और गाड़ी के AC को 20 डिग्री सेल्सियस से नीचे ठंडा नहीं किया जा सकेगा। ना ही 28 डिग्री से ऊपर चलाया जा सकेगा। मकसद है बिजली बचाना। क्लाइमेट चेंज और बढ़ती गर्मी के बीच पिछले सालों में ये बहस ज़िंदा हुई है कि AC को किस टेंपरेचर पर चलाना चाहिए। AC 20 पर चले या 24 पर। सरकार नियम बना रही है। हम और आप इस पर अपनी राय दे रहे हैं।

 

चलिए आपको एक ऐसे दौर में ले चलते हैं, जब AC का तापमान तो छोड़िए, ठंडी हवा में बैठना ही किसी गुनाह से कम नहीं था। एक ऐसा भी वक्त था जब एक देश का राष्ट्रपति गर्मी से बिस्तर पर तड़प रहा था और उसे बचाने के लिए दुनिया की सबसे अजीबोगरीब मशीन बनाई गई थी। साल 1881, महीना जुलाई का और जगह, अमेरिका का व्हाइट हाउस।

 

अमेरिका के 20वें राष्ट्रपति, जेम्स गारफील्ड बिस्तर पर पड़े हैं। एक हत्यारे की गोली उनके जिस्म में है लेकिन उन्हें गोली से ज़्यादा कुछ और तड़पा रहा है। जानलेवा गर्मी और चिपचिपी उमस। कमरे की खिड़कियां बंद हैं। पर्दे खींचे हुए हैं। फिर भी पसीना बह रहा है। डॉक्टरों की फौज खड़ी है। लाचार और हताश। तभी बुलावा भेजा जाता है नौसेना के इंजीनियरों को यानी नेवी इंजीनियर्स को और वे बनाते हैं एक मशीन। एक अजीबोगरीब मशीन। एक इंजन, कुछ पाइप, एक बड़ा सा पंखा और इन सबके सामने बर्फ से लबालब भरी एक विशालकाय बाल्टी। 

 

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मशीन चालू होती है। पंखा घूमता है और बर्फ की ठंडक को राष्ट्रपति के कमरे में फेंकता है। जुगाड़ काम कर रहा था। कमरे का तापमान 35 डिग्री सेल्सियस से घटकर लगभग 24 डिग्री सेल्सियस पर आ गया लेकिन यह मशीन हर घंटे सैकड़ों पाउंड बर्फ खा रही थी। इतनी कोशिशों के बाद भी, राष्ट्रपति गारफील्ड को बचाया नहीं जा सका लेकिन उनकी तड़प और उस बर्फ खाने वाली मशीन के किस्से ने एक ख्वाब को हवा दे दी। एक सपना कि काश कोई ऐसी तरकीब होती जो गर्मी के इस जानलेवा सितम को काबू कर सके।

एक 'पापी' मशीन का जन्म

 

इंसान का गर्मी से रिश्ता बड़ा अजीब है। हज़ारों साल से उसने आग जलाकर ठंड को तो काबू में कर लिया था लेकिन गर्मी? गर्मी तो बस झेलने के लिए थी। एक दैवीय प्रकोप। पर इंसान जुगाड़ू है। वह रास्ते निकाल ही लेता है। किस्सा है रोम के एक सनकी बादशाह का। नाम था एलागाबालस (Elagabalus)। उसे गर्मी लगी, तो उसने गुलामों की एक फौज पहाड़ों पर दौड़ा दी। हुक्म था- जाओ, बर्फ लेकर आओ। गुलाम बर्फ की विशाल सिल्लियां ढोकर लाए और बादशाह ने उन्हें अपने बगीचे में ढेर करवा दिया। इस उम्मीद में कि हवा उस बर्फ से टकराएगी, ठंडी होगी और महल में दाखिल होगी।

 

 

यह तो हुई बादशाहत लेकिन 19वीं सदी में एक व्यापारी ने इसी जुगाड़ को धंधा बना लिया। नाम- फ्रेडरिक ट्यूडर (Frederic Tudor)। बॉस्टन का 'आइस किंग'। ट्यूडर सर्दियों में न्यू इंग्लैंड की जमी हुई झीलों से बर्फ की बड़ी-बड़ी चट्टानें कटवाता। उन्हें लकड़ी के बुरादे में लपेटता ताकि वे पिघलें नहीं और फिर जहाजों में लादकर दुनिया के गर्म कोनों में बेच देता। अमीरों के लिए ठंडी शराब और ठंडे कमरों का बंदोबस्त हो गया था लेकिन ये बर्फ भी बाहर से आ रही थी। क्या कोई मशीन बर्फ बना सकती थी?

 

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जब जान पर बन आए, तो इंसान हर हद पार कर जाता है। कहानी है फ्लोरिडा के एक डॉक्टर की। जॉन गोरी (John Gorrie), साल 1851। उनके मरीज मलेरिया के तेज बुखार में तप रहे थे। डॉक्टर गोरी ने उनकी जान बचाने के लिए एक मशीन बनाई जो हवा को ठंडा कर सके लेकिन एक दिन उस मशीन के पाइपों पर कुछ जम गया। वह बर्फ थी। डॉक्टर गोरी ने गलती से बर्फ बनाने वाली मशीन का अविष्कार कर दिया था। उन्हें लगा दुनिया शाबाशी देगी। मगर हुआ उलटा। उनका मज़ाक उड़ाया गया। न्यूयॉर्क के एक बड़े अखबार 'द न्यूयॉर्क ग्लोब' (The New York Globe) ने लिखा, 'एक सनकी डॉक्टर है डॉ. गोरी, जो सोचता है कि वह अपनी मशीन से वैसी ही बर्फ बना सकता है जैसी सर्वशक्तिमान ईश्वर बनाता है।'

 

इस सोच ने तरक्की की रफ्तार धीमी कर दी। यहां तक कि 20वीं सदी की शुरुआत में अमेरिकी कांग्रेस ने अपने लिए ठंडी हवा का इंतजाम करने से मना कर दिया। उन्हें डर था कि वोटर मज़ाक उड़ाएंगे कि हमारे नेता पसीना तक नहीं बहा सकते। दुनिया को गर्मी से लड़ने वाली असली मशीन के लिए अभी और इंतज़ार करना था और यह क्रांति लाने वाला कोई डॉक्टर नहीं, बल्कि एक 25 साल का नौजवान इंजीनियर था। नाम, विलिस कैरियर। कैरियर को इंसानों के आराम की कोई फ़िक्र नहीं थी। उसकी समस्या कुछ और थी। साल 1902, न्यूयॉर्क के ब्रुकलिन में एक प्रिंटिंग प्रेस थी। नाम था सैकेट एंड विल्हेल्म्स लिथोग्राफिंग एंड प्रिंटिंग कंपनी। वहां गर्मी और नमी के चलते बड़ी दिक्कत हो रही थी। कागज़ नमी से कभी सिकुड़ जाता, कभी फैल जाता। इससे रंगीन छपाई में रंगों की लाइनें बिगड़ जातीं। लाखों डॉलर का नुकसान हो रहा था।

 

प्रेस के मालिकों ने कैरियर की कंपनी बफैलो फोर्ज को बुलाया। कहा, इस नमी का कुछ करो। कैरियर ने दिमाग लगाया और एक मशीन बनाई जो हवा को ठंडे पाइपों के ऊपर से गुजारती थी। इन पाइपों में कंप्रेस्ड अमोनिया जैसी ठंडी गैस घूम रही थी। जब गर्म और नमी वाली हवा इन पाइपों से टकराती, तो हवा में मौजूद नमी पानी बनकर अलग हो जाती। प्रेस की समस्या सुलझ गई लेकिन इस प्रक्रिया में एक जादू हो गया। नमी खींचने के साथ-साथ, वह मशीन हवा को ठंडा भी कर रही थी। कैरियर ने ही इस प्रक्रिया को नाम दिया - एयर कंडीशनिंग। यानी हवा को अपनी शर्तों पर ढालना।

 

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तो इस तरह दुनिया को गर्मी से लड़ने वाली मशीन मिली। यह मशीन बनी तो थी एक एक्सीडेंट से कागज और स्याही बचाने के लिए लेकिन इसने इंसानों को गर्मी से बचाना शुरू कर दिया। यह तो बस शुरुआत थी। इस मशीन को अभी लोगों के घरों में नहीं, उनके दिमागों में जगह बनानी थी। इसे 'पाप' के तमगे से निकलकर 'ज़रूरत' का दर्जा पाना था और जब ऐसा हुआ, तो उसने सिर्फ हवा ही नहीं बदली। उसने दुनिया की शक्ल बदल दी।

AC ने कैसे बदली दुनिया की शक्ल?

 

विलिस कैरियर की मशीन ने ठंडी हवा तो बना दी लेकिन यह ठंडी हवा अभी भी कुछ खास फैक्ट्रियों और मिलों में ही कैद थी। आम आदमी की ज़िंदगी में इसका आना बाकी था और जब यह आई तो इसने सबसे पहले उस चीज़ पर हमला किया जिसमें हम रहते और काम करते हैं - हमारी इमारतें। AC से पहले, इमारतें सांस लेती थीं। आर्किटेक्ट्स को गर्मी और हवा का पूरा ध्यान रखना पड़ता था। ऊंची-ऊंची छतें बनाई जाती थीं ताकि गर्म हवा ऊपर उठ जाए। बड़े-बड़े बरामदे होते थे जो सीधी धूप को रोकते थे। आंगन और रोशनदान होते थे ताकि हवा आ-जा सके। अमेरिका के गर्म दक्षिणी इलाकों में तो एक खास तरह का घर बनता था - 'डॉगट्रॉट हाउस' (dogtrot house)। दो कमरों के बीच में एक खुला गलियारा, जहां से हवा सरपट दौड़ती थी लेकिन फिर आया एयर कंडीशनर और उसने आर्किटेक्ट्स से कहा - 'भूल जाओ ये सब पुराने टोटके। अब तुम मेरे भरोसे हो। अब तुम शीशे और स्टील के बंद डिब्बे बना सकते हो। ऐसे डिब्बे जो सूरज की गर्मी को सोखकर भट्टी बन जाएं लेकिन मैं उन्हें अंदर से ठंडा रखूंगा।'

 

इस नई आज़ादी का पहला बड़ा और बदनाम किस्सा जुड़ा है न्यूयॉर्क में बनी यूनाइटेड नेशन्स की इमारत से। दुनिया के सबसे मशहूर आर्किटेक्ट्स में से एक, ली कॉर्बुजिए (Le Corbusier), इस प्रोजेक्ट का हिस्सा थे। उन्होंने चेतावनी दी। कहा, 'न्यूयॉर्क की भयानक गर्मी में बिना सनशेड वाली कांच की दीवारें बनाना खतरनाक है। बहुत खतरनाक।' लेकिन उनकी सुनी नहीं गई। नतीजा? वह शानदार इमारत एक शीशे का कैदखाना बन गई। सूरज की गर्मी से उसके दफ्तर भुनने लगे। अंदर काम करने वाले लोग गर्मी से बेहाल हो गए और उन्होंने अपनी खिड़कियों पर पर्दे डाल दिए। कॉर्बुजिए ने जब यह देखा तो गुस्से से कहा, 'इन्होंने तो इमारत को मुर्दाघर जैसी रोशनी से भर दिया है।'

 

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फिर 1952 में न्यूयॉर्क में ही एक और इमारत बनी जिसने दुनिया को रास्ता दिखाया। नाम था - लीवर हाउस (Lever House)। यह साबुन बनाने वाली एक कंपनी का हेडक्वार्टर था और यह इमारत खुद भी साबुन की तरह चमक रही थी। पूरी तरह से कांच की बनी, अंदर से एयर-कंडीशंड। यह पहली ऐसी इमारत थी जिसकी दीवारें पूरी तरह से शीशे की थीं और कंपनी ने इसका खूब प्रचार किया। इमारत की खिड़कियां साफ करने के लिए एक खास मशीन बनाई गई जो छत से लटकती थी और वह भी कंपनी के ही 'सर्फ' (Surf) ब्रांड साबुन से खिड़कियां धोती थी। यह एक शानदार पब्लिसिटी स्टंट था। लीवर हाउस मॉर्डन होने का  एक प्रतीक बन गया। मॉडर्न होने का, कामयाब होने का और इसके बाद दुनिया भर के शहरों में कांच की ऊंची-ऊंची इमारतें उगने लगीं।
 
AC का असर सिर्फ ऑफिसों पर नहीं हो रहा था। वह हमारी मौज-मस्ती के तरीके भी बदल रहा था। 1920 के दशक में अमेरिका में सिनेमाघर खुल रहे थे और वे अपनी सबसे बड़ी खासियत बताते थे - एयर कंडीशनिंग। लोग फिल्म देखने कम, ठंडी हवा खाने ज़्यादा जाते थे। हॉलीवुड के निर्माताओं ने यह बात पकड़ ली। उन्होंने अपनी सबसे बड़ी, सबसे महंगी फिल्में गर्मी में रिलीज करनी शुरू कर दीं और इस तरह जन्म हुआ 'समर ब्लॉकबस्टर' (summer blockbuster) का। वह परंपरा जो आज भी जारी है लेकिन AC का सबसे हैरतअंगेज असर दिखना अभी बाकी था। उसने एक देश का सियासी भूगोल ही बदल दिया।

 

अमेरिका के दक्षिणी राज्य - फ्लोरिडा, टेक्सस, एरिजोना। इन्हें 'सन बेल्ट' (Sun Belt) कहा जाता है। AC से पहले यहां की भयंकर गर्मी में रहना और काम करना बहुत मुश्किल था लेकिन AC ने इन राज्यों को रहने लायक बना दिया। लाखों अमेरिकी उत्तर के ठंडे, पुराने औद्योगिक शहरों को छोड़कर दक्षिण के इन नए, चमकते शहरों में बसने लगे। आबादी का यह विशाल फेरबदल हुआ, तो सियासत का तराजू भी झुक गया। लेखक स्टीवन जॉनसन (Steven Johnson) तो यहां तक कहते हैं कि इसी बदलाव ने 1980 में रोनाल्ड रीगन (Ronald Reagan) को अमेरिका का राष्ट्रपति बनाने में एक अहम भूमिका निभाई। सोचिए, एक ठंडी हवा देने वाले डब्बे ने व्हाइट हाउस तक का रास्ता तय कर दिया।

 

भारत में कैसे आया AC?
       
AC अमेरिका और यूरोप की शक्ल तो बदल रहा था लेकिन हिंदुस्तान में क्या? यहां कहानी बिल्कुल अलग थी। यहां ठंडी हवा पहले एक शाही मेहमान बनकर आई। फिर वह ताक़त का एक औज़ार बनी और फिर, सालों बाद, वह एक ऐसी ज़रूरत बनी जिसके लिए आम आदमी अपनी जेबें खाली करने को तैयार था।

 

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हिंदुस्तान में AC की कहानी शुरू होती है ब्रिटिश राज के साथ। अंग्रेज़ों के लिए यह सिर्फ आराम की चीज़ नहीं थी। यह हुकूमत करने का एक तरीका था। कलकत्ता की भयंकर गर्मी, जिसे एक अंग्रेज़ ने 'विशाल, बदबूदार भाप का गुसलखाना' कहा था, उसमें गोरे साहब कैसे काम करते? कैसे वे खुद को आम हिंदुस्तानी से अलग और बेहतर दिखाते? जवाब था - एयर कंडीशनिंग। नई दिल्ली और शिमला में बड़े-बड़े साहबों के दफ्तरों में ये मशीनें लगाई गईं। ये एक 'कूल' माहौल बनाती थीं, जो बताता था कि असली हुक्मरान कौन है और जहां अंग्रेज़ साहब, वहां हमारे देसी राजे-रजवाड़े कैसे पीछे रहते? वे पश्चिमी दुनिया की हर नई चीज़ अपनाने में आगे थे।

 

साल 1936, जयपुर के आलीशान रामबाग पैलेस में कैरियर (Carrier) कंपनी ने भारत के पहले AC सिस्टम्स में से एक को इनस्टॉल किया। जोधपुर के उम्मेद भवन पैलेस में भी ठंडी हवा का इंतज़ाम किया गया लेकिन आम जनता तक AC की पहली झलक पहुंची सिनेमाघरों के रास्ते। साल 1933, बॉम्बे। रीगल सिनेमा (Regal Cinema) खुला और वह भारत का पहला पूरी तरह से एयर-कंडीशंड सिनेमा हॉल बना। टिकट पर लिखा होता था - 'कूल्ड बाय आइस्ड एयर'। लोग फिल्म देखने के साथ-साथ गर्मी से बचने के लिए भी आते थे। AC अब मनोरंजन का प्रतीक बन गया था।
 
आज़ादी के बाद तस्वीर बदली लेकिन धीरे-धीरे। तब 'परमिट राज' का दौर था। सरकार ने विदेशी सामान पर भारी टैक्स लगा दिए और देश में फैक्ट्रियां लगाने के लिए लाइसेंस का सख्त सिस्टम बना दिया। इसी माहौल में दो बड़ी भारतीय कंपनियों का जन्म हुआ। 1943 में मोहन टी. अडवानी ने ब्लू स्टार की शुरुआत की, जो शुरू में पुराने AC और फ्रिज ठीक करने का काम करती थी और 1954 में टाटा और एक स्विस कंपनी वोल्कार्ट ब्रदर्स ने मिलकर बनाई - वोल्टास।

 

वोल्टास ने 1954 में ही भारत का पहला देसी रूम AC बनाया। वोल्टास 'क्रिस्टल' (Voltas "Crystal")। यह एक भारी-भरकम विंडो AC था। 1956 में ऐसे आठ 'क्रिस्टल' AC बॉम्बे के तत्कालीन मुख्यमंत्री मोरारजी देसाई (Morarji Desai) के घर पर लगाए गए लेकिन आम आदमी के लिए यह एक सपना था। 70 और 80 के दशक में एक AC की कीमत 15,000 से 30,000 रुपये तक होती थी जबकि एक सरकारी अफसर की महीने की तनख्वाह होती थी दो-तीन हज़ार रुपये। मतलब, AC खरीदना एक गाड़ी खरीदने जैसा था। लोग सालों तक पैसे जोड़ते थे और क्योंकि ये विंडो AC होते थे तो ये घर की दीवार से बाहर झांकते थे। यह सिर्फ एक मशीन नहीं थी, यह पूरी दुनिया को आपकी हैसियत का ऐलान था। रात की खामोशी में जब किसी पड़ोसी के घर के AC के कंप्रेसर की आवाज़ गूंजती, तो वह अमीरी और गरीबी के बीच की लकीर को और गहरा कर देती थी।
 
फिर आया साल 1991। भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खोल दिए। 'परमिट राज' खत्म हुआ। विदेशी कंपनियों के लिए लाल कालीन बिछाया गया और फिर जो हुआ, उसने भारत के AC बाज़ार को हमेशा के लिए बदल दिया। कैरियर (Carrier) जैसी पुरानी कंपनियां और मज़बूत हुईं लेकिन असली खेल बदला दक्षिण कोरिया की दो कंपनियों ने - एलजी (LG) और सैमसंग (Samsung)। ये कंपनियां अपने साथ लाईं नई तकनीक, आक्रामक कीमतें और ज़बरदस्त मार्केटिंग। इन्होंने विंडो AC की जगह स्प्लिट AC (split AC) को लोकप्रिय बनाया। जो शांत थे, ज़्यादा बिजली बचाते थे और घर की दीवार पर भद्दे नहीं लगते थे। 

सबसे बड़ा हथियार था - EMI। यानी आसान मासिक किश्तें। अब एक नौकरीपेशा आदमी भी AC खरीदने का सपना देख सकता था। जो AC कभी सालों की बचत के बाद आता था, अब वह बस एक डाउन-पेमेंट और कुछ कागज़ी कार्रवाई के बाद आपके घर में लग सकता था।


बढ़ती आमदनी, शहरों में बनते कंक्रीट के गर्म जंगल और ऊपर से जानलेवा होती गर्मी ने AC को स्टेटस सिंबल से एक ज़रूरत बना दिया। हिंदुस्तान में ठंडी हवा की लड़ाई अब कुछ अमीरों की नहीं, बल्कि करोड़ों लोगों की लड़ाई बन चुकी थी। इस तरह भारत ने कुछ ही दशकों में एक लंबा सफर तय कर लिया। एक शाही शौक से करोड़ों घरों की ज़रूरत तक लेकिन इस ठंडी हवा के सौदे की एक गर्म कीमत भी थी। एक ऐसी कीमत जो सिर्फ भारत को नहीं, पूरी दुनिया को चुकानी पड़ रही है।

ठंडी हवा, गर्म बहस 

 

दो उदाहरण से समझिए। पहला- जैसलमेर की एक पुरानी हवेली। पत्थर पर पत्थर रखकर बनाई गई दीवारें और दीवारों पर बारीक जालियां तराशी हुई हैं। बाहर सूरज आग उगल रहा है लेकिन अंदर एक सुकून भरी ठंडक है। हवा जब इन जालीदार पत्थरों से होकर गुज़रती है तो उसकी तासीर बदल जाती है। यहां आराम किसी मशीन का मोहताज नहीं। वह दीवारों, आंगन और पत्थरों की सदियों पुरानी समझदारी का नतीजा है।

दूसरा- दिल्ली से सटे गुड़गांव के किसी चमचमाता कांच का ऑफिस। बाहर वही आग उगलती गर्मी है लेकिन अंदर का हाल अजीब है। शीशे की दीवारों से बनी इस इमारत में एक सर्द सन्नाटा है। सेंट्रलाइज़्ड AC अपनी पूरी ताकत से चल रहा है। इतनी ताकत से कि एक कोने में बैठा नौजवान इंजीनियर अपनी शर्ट के ऊपर कंपनी की दी हुई जैकेट पहने कांप रहा है और दूसरे कोने में, कांच की दीवार के पास बैठी उसकी सहकर्मी को पसीना आ रहा है। दोनों के बीच "थर्मोस्टेट की जंग" छिड़ी है।

 

ये दो तस्वीरें सिर्फ दो इमारतों की नहीं, बल्कि दो हिंदुस्तान की कहानी हैं। एक वह, जो गर्मी के साथ जीना जानता था और दूसरा वह, जो गर्मी को हराने की ज़िद में खुद अपनी ही बनाई भट्टी में कैद हो गया है। यह कहानी है एयर कंडीशनर की। उस मशीन की, जिसने सिर्फ हवा ही नहीं बदली, उसने हमारे घर बनाने, शहर बसाने और यहां तक कि ज़िंदगी को महसूस करने का तरीका भी हमेशा के लिए बदल दिया।

जालियां कैसे देती थीं ठंडक?

 

AC के आने से बहुत पहले, हिंदुस्तान की इमारतें मौसम से बतियाती थीं। वे ज़िंदा थीं, वे सांस लेती थीं। कंप्रेसर के शोर से पहले, हमारे पुरखों ने गर्मी को मात देने के नायाब तरीके निकाले थे। इसका सबसे शानदार नमूना है 'जाली'। मुग़ल और राजस्थानी वास्तुकला की यह पहचान सिर्फ सजावट के लिए नहीं थी। पत्थर या लकड़ी पर तराशे गए ये इंट्रीकेट डिज़ाइन असल में एक नेचुरल एयर कूलर थे। जब तेज़ धूप इन पर पड़ती तो ये उसे छानकर नर्म रोशनी में बदल देते। और हवा? जब हवा इन हज़ारों छोटे-छोटे छेदों से होकर गुज़रती, तो 'वेंचुरी इफेक्ट' (Venturi effect) के कारण उसकी रफ़्तार बढ़ जाती और तापमान गिर जाता। कुछ स्टडीज़ तो यह भी बताती हैं कि एक अच्छी जाली सूरज की लगभग 70 परसेंट गर्मी को कमरे में घुसने से पहले ही रोक देती है।
  
सिर्फ जालियां ही नहीं, हमारे घरों का पूरा ढांचा ही एक सोच का नतीजा था। घर के बीचों-बीच एक खुला आंगन होता था। यह सिर्फ तुलसी के पौधे या चारपाई बिछाने की जगह नहीं थी। यह घर का फेफड़ा था। यहां से ताज़ी हवा और रोशनी घर के कोने-कोने में पहुंचती। गर्म हवा हल्की होकर इसी आंगन से ऊपर उठकर बाहर निकल जाती और एक कुदरती वेंटिलेशन का चक्र चलता रहता।
 
बावलियों के बारे में सोचिए। पश्चिमी भारत में बने ये सीढ़ीदार कुएं सिर्फ पानी बचाने का जुगाड़ नहीं थे। ये ज़मीन के कई फुट नीचे बने ठंडे, छांव वाले कम्युनिटी सेंटर थे। धरती खुद एक 'हीट सिंक' की तरह काम करती और पानी की मौजूदगी से होने वाला वाष्पीकरण आसपास के तापमान को काफी कम कर देता। इनके अलावा भी अनगिनत तरकीबें थीं। मिट्टी, पत्थर या ईंट की बनी मोटी-मोटी दीवारें, जो दिन में गर्मी सोखतीं और रात में धीरे-धीरे छोड़तीं। ऊंची छतें, ताकि गर्म हवा ऊपर जमा हो जाए। खिड़कियों पर निकले छज्जे, जो दीवारों पर सीधी धूप पड़ने से रोकते थे। ये वह समझ थी, जहां आराम और टिकाऊपन एक ही सिक्के के दो पहलू थे।

 

भारत में AC का आना सिर्फ एक मशीन का आना नहीं था। यह एक पूरी सोच, एक पूरी संस्कृति का आयात था। आज़ादी के बाद, एयर कंडीशनिंग तरक्की, ताकत और पश्चिमी दुनिया की बराबरी करने का प्रतीक बन गया। दिल्ली का आलीशान अशोका होटल भारत का पहला पूरी तरह से एयर-कंडीशंड होटल बना। यह एक ऐलान था कि हिंदुस्तान अब मॉडर्न हो रहा है।

 

जैसा पहले डिस्कस किया, 1991 में जब भारत ने अपनी अर्थव्यवस्था के दरवाज़े खोले। दुनियाभर की मल्टीनेशनल कंपनियां (MNCs) भारत आईं और वे अपने साथ सिर्फ पैसा और नौकरियां नहीं लाईं। वे अपने साथ ऑफिस बनाने का एक खास तरीका भी लाईं - 'सील्ड बॉक्स'। यानी कांच और स्टील से बने, हर तरफ से बंद डिब्बे, जिन्हें बाहरी दुनिया से कोई मतलब नहीं। बेंगलुरु जैसे शहर, जो कभी अपनी सुहावनी हवा के लिए 'गार्डन सिटी' कहलाते थे, उनकी शक्ल बदलने लगी। शहर में अब पारंपरिक, हवादार इमारतों की जगह कांच के ऊंचे-ऊंचे IT पार्क उग आए थे। इन इमारतों को गर्मी को बाहर रखने के लिए नहीं, बल्कि गर्मी को अंदर कैद करने के लिए डिज़ाइन किया गया था और इस कैदखाने को रहने लायक बनाने का सिर्फ एक ही तरीका था - एयर कंडीशनिंग।

AC से कितना है खतरा?

 

AC ने आर्किटेक्ट्स को एक ऐसी आज़ादी दी जो खतरनाक साबित हुई। अब उन्हें इस बात की फ़िक्र नहीं थी कि इमारत दिल्ली की लू में बन रही है या मुंबई की उमस में। उनके पास हर मौसम का एक ही जवाब था - एयर कंडीशनर। नतीजा यह हुआ कि हमारे शहर अपनी आत्मा, अपनी पहचान खोने लगे। राजस्थान के एक शहर में बनी इमारत वैसी ही दिखती, जैसी केरल के किसी तटीय कस्बे में। इस चलन को आलोचकों ने नाम दिया 'अर्बन प्लेसलेसनेस'- यानी ऐसे शहर जिनकी अपनी कोई जगह, अपनी कोई पहचान न हो।

  
आर्किटेक्ट यतिन पंड्या (Yatin Pandya) का एक आंकलन चौंकाने वाला है। उनके मुताबिक, भारत में आज बन रही लगभग 90% इमारतें अपने इलाके की जलवायु को पूरी तरह नज़रअंदाज़ करके बनाई जा रही हैं। ये 'कुकी-कटर' डिज़ाइन, यानी एक ही सांचे से निकली इमारतें, बनाने में भले ही आसान और सस्ती हों लेकिन ये हमें दशकों तक बढ़ने वाले गर्मी के खतरे में धकेल रही हैं।
 
इस बदलाव का सबसे बड़ा चेहरा बना कांच। कांच की बड़ी-बड़ी दीवारें मॉडर्न होने की पहचान बन गईं लेकिन एक बहुत बड़ी दिक्कत थी। कांच गर्मी को रोकने में बहुत ही बुरा है। वह सूरज की गर्मी को सीधे अंदर आने देता है और यहीं से एक खतरनाक दुष्चक्र शुरू हुआ। कांच की चमचमाती इमारत बनाने का सपना पूरा करने के लिए AC ज़रूरी था लेकिन कांच की वजह से इमारत एक भट्टी बन जाती और उस भट्टी को ठंडा करने के लिए AC को अपनी दोगुनी-तिगुनी ताकत से चलना पड़ता। ज़्यादा AC मतलब ज़्यादा बिजली की खपत।

 

इस बेढंगे डिज़ाइन का असर हम आज अपने दफ्तरों में महसूस करते हैं। ऑफिस के अंदर थर्मोस्टेट वॉर एक आम बात है। कोई AC के ठीक नीचे बैठकर ठंड से परेशान है तो कोई कांच की खिड़की के पास बैठकर पसीने से। यह इस बात का सबूत है कि हम अरबों रुपये खर्च करके भी अपनी इमारतों में सही मायनों में आराम पैदा नहीं कर पा रहे हैं लेकिन इस अंधेरे में, उम्मीद की कुछ किरणें भी हैं। आज के दौर के कई भारतीय आर्किटेक्ट इस अंधी दौड़ पर सवाल उठा रहे हैं। वह वापस अपनी जड़ों की ओर देख रहे हैं। वह उस भूली-बिसरी अक्ल को फिर से ज़िंदा कर रहे हैं, जो हमारे पुरखों के पास थी।

 

चार्ल्स कोरिया (Charles Correa) जैसे महान आर्किटेक्ट ने अपनी पूरी ज़िंदगी यही सिखाया कि इमारतें अपने माहौल से कटकर नहीं जी सकतीं। मुंबई में बना उनका 'कंचनजंगा अपार्टमेंट्स' इसका बेहतरीन उदाहरण है, जहां उन्होंने पारंपरिक बंगलों के बरामदे के आइडिया को एक ऊंची इमारत में इस्तेमाल किया, ताकि हर घर को छांव और हवा मिल सके। आज की पीढ़ी इसी सोच को नई तकनीक के साथ मिला रही है। दिल्ली की एक फर्म CoolAnt ने एक ऐसा कूलिंग सिस्टम बनाया है जो मिट्टी के मटकों के सिद्धांत पर काम करता है। टेराकोटा से बने मधुमक्खी के छत्ते जैसे इस डिज़ाइन पर जब पानी बहता है, तो हवा के संपर्क में आकर वह ठंडा हो जाता है। यह भविष्य की एक झलक है - जहां प्रेरणा अपनी मिट्टी से ली गई है, और उसे तराशने के लिए मॉडर्न तकनीक का इस्तेमाल हुआ है।

 

आर्किटेक्ट विनोद गुप्ता (Vinod Gupta) तो यहां तक कहते हैं कि हम AC की लत के शिकार हो गए हैं, जिसने हमें मौसम के मामूली उतार-चढ़ाव को सहने की क्षमता से भी महरूम कर दिया है। तो रास्ता क्या है? रास्ता AC को पूरी तरह से नकारने का नहीं है। बढ़ती गर्मी में ये कई लोगों के लिए एक ज़रूरत है लेकिन रास्ता इसे अपना मालिक बनाने का भी नहीं है। भविष्य उन इमारतों का है जो पहले अपनी अक्ल का इस्तेमाल करें। जो सूरज की दिशा, हवा का रुख और स्थानीय मैटेरियल की समझ से खुद को ठंडा रखें। और AC? वह बस एक बैकअप की तरह हो, एक सहायक की तरह। जब सारी कुदरती तरकीबें जवाब दे जाएं, तब मशीन अपना काम करे।  

ठंडक का सौदा और गर्म भविष्य 

 

AC की ठंडी हवा ने हमारी ज़िंदगी को बेहतर बनाया। इसमें कोई शक नहीं। एक पुरानी स्टडी के मुताबिक, जब अमेरिकी सरकार के दफ्तरों में AC लगाए गए, तो वहां काम करने वाले टाइपिस्टों की काम करने की रफ़्तार 24 परसेंट बढ़ गई। मतलब, ठंडे दिमाग़ से काम बेहतर होता है। AC सिर्फ काम ही नहीं सुधारता। यह जानें भी बचाता है। जब भी कहीं जानलेवा लू या हीटवेव चलती है, तो AC वाले घरों में मौत का खतरा कम हो जाता है और अर्थशास्त्री तो यह भी कहते हैं कि जिन गर्म देशों में लोग ठंडे माहौल में काम कर पाते हैं, वहां की अर्थव्यवस्था ज़्यादा तेज़ी से बढ़ती है।  तो सब कुछ बढ़िया है, है ना? आराम, प्रोडक्टिविटी, बेहतर अर्थव्यवस्था लेकिन रुकिए। कहानी में एक बहुत बड़ा 'लेकिन' है। एक ऐसा पेच, जो इस पूरी ठंडी कहानी को बेहद गर्म और खतरनाक बना देता है।
 
AC काम कैसे करता है? वह कमरे की गर्मी को खींचकर बाहर फेंकता है। यानी आपके कमरे में ठंडक, तो बाहर और ज़्यादा गर्म और जब एक शहर में लाखों AC एक साथ यही काम करते हैं, तो पूरा शहर ही एक भट्टी बन जाता है। अमेरिका के एरिजोना राज्य के फीनिक्स (Phoenix) शहर में एक स्टडी हुई। पता चला कि AC के इस्तेमाल की वजह से शहर का रात का तापमान 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया था। और ये तो बस एक शहर की बात है। आज दुनिया की लगभग 20 परसेंट बिजली सिर्फ इमारतों को ठंडा करने में खर्च हो जाती है। और ये बिजली बनती किससे है? ज़्यादातर कोयला और गैस जलाकर। यानी और ज़्यादा प्रदूषण और ज़्यादा गर्मी लेकिन 80 के दशक में वैज्ञानिकों ने एक और भी भयानक खतरा खोज निकाला। पता चला कि पुराने AC और फ्रिज में इस्तेमाल होने वाली गैस, जिसे फ्रिऑन (Freon) कहते थे, वह हमारी धरती के सुरक्षा कवच, यानी ओज़ोन लेयर में छेद कर रही है। यह क्लोरोफ्लोरोकार्बन यानी CFCs थे। यह वह छेद था जिससे सूरज की खतरनाक किरणें सीधे धरती पर आ सकती थीं। यह एक ग्लोबल इमरजेंसी थी। यहां इंसानियत ने एक मिसाल कायम की। दुनिया के सारे देश एक साथ आए और 1989 में मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल नाम का एक समझौता हुआ।

 

सबने मिलकर तय किया कि इन खतरनाक CFCs का इस्तेमाल बंद कर दिया जाएगा और यह काम कर गया। आज ओज़ोन लेयर का वह छेद धीरे-धीरे भर रहा है। CFCs से तो हम बच गए लेकिन AC की वजह से होने वाली ग्लोबल वार्मिंग का खतरा आज भी हमारे सामने खड़ा है और इस चुनौती को भारत जैसे देश से बेहतर कौन समझ सकता है, जहां AC की मांग हर साल रॉकेट की तरह बढ़ रही है। इसीलिए अब भारत सरकार कुछ बड़े कदम उठा रही है। आपने AC खरीदते वक़्त उस पर लगे 1 से 5 स्टार वाले स्टीकर तो देखे ही होंगे। ये है BEE यानी ब्यूरो ऑफ एनर्जी एफिशिएंसी (Bureau of Energy Efficiency) की स्टार रेटिंग। इसे 2009 में अनिवार्य कर दिया गया था। इसका मकसद सीधा सा है - आपको बताना कि कौन सा AC कम बिजली खाएगा। 5 स्टार मतलब सबसे कम बिल और इसका असर भी हुआ है। इस रेटिंग के चलते AC पहले से 60 परसेंट तक ज़्यादा बिजली बचाने लगे हैं। 

 

यह तो बस एक कदम था। 2019 में सरकार एक और बड़ा और दूर की सोच वाला प्लान लाई - ICAP, यानी इंडिया कूलिंग एक्शन प्लान (India Cooling Action Plan)। यह अगले 20 साल का रोडमैप है। इसका लक्ष्य सिर्फ ज़्यादा बिजली बचाने वाले AC बनाना नहीं है। बल्कि यह भी है कि हमें AC की ज़रूरत ही कम पड़े। कैसे? इमारतों के डिज़ाइन को सुधारकर, ताकि वह अपने आप ठंडी रहें। ICAP का लक्ष्य है कि 2038 तक देश में कूलिंग की ज़रूरत को 25 परसेंट तक कम किया जाए और इसके लिए इस्तेमाल होने वाली बिजली में 40 परसेंट तक की कटौती हो।
 
कोशिश जारी है लेकिन सबसे बड़ा सवाल और सबसे बड़ी विडंबना वही है। जिस मशीन को हमने गर्मी से बचने के लिए बनाया था, वही हमारी पूरी धरती को गर्म कर रही है।

 

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