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कभी बाढ़, कभी अपराध, क्या है गुरुग्राम के बनने की पूरी कहानी?

गुरुग्राम शहर इन दिनों खूब चर्चा में है। हर बारिश में गुरुग्राम में बाढ़ जैसे हालात हो जाते हैं और पूरा शहर जाम हो जाता है। पढ़िए गुरुग्राम की पूरी कहानी।

gurugram story

गुरुग्राम की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

हरियाणा का शहर गुरुग्राम दिल्ली-एनसीआर का हिस्सा है। दिल्ली में रहने वाले हजारों लोग काम करने दिल्ली जाते हैं और दिल्ली में काम करने वाले लोग कई बार गुरुग्राम में घर खरीद लेते हैं। दिल्ली-गुरुग्राम की इस आवाजाही से पैदा होती है ट्रांसपोर्ट के साधनों, हजारों कार और मेट्रो की जरूरत। ये जरूरतें तब तक कमोबेश पूरी भी होती रहती हैं, जब तक घनघोर बारिश न हो जाए। बारिश होते ही सड़कों पर पानी भर जाता और मेट्रो में भीड़ बढ़ती है तो मेट्रो का सिस्टम भी चरमराने लगता है। इस सबसे में सबसे ज्यादा किरकिरी होती है तो योजनाबद्ध तरीके से बसाए गए शहर गुरुग्राम की। पढ़िए उसी गुरुग्राम की कहानी जो कभी पहले गुरुग्राम था, फिर गुड़गांव बना और फिर से गुरुग्राम बन गया। नाम का यह चक्र पूरा होने में काम का चक्र पूरा होना शायद छूट गया है।

 

यह कहानी उस दौर की है जब भारत में द्वापर युग चल रहा था और महाभारत की कथा अपने चरम पर थी। उस समय दो जगहें सबसे ज़्यादा चर्चा में थीं- कुरुक्षेत्र, जहां युद्ध होना था और हस्तिनापुर, जहां सत्ता का खेल चलता था। हस्तिनापुर में दो राजघराने रहते थे- पांडव और कौरव। पांडवों में सबसे बड़े थे युधिष्ठिर। शांत स्वभाव, गहरी सोच और सच के पक्के। वह राजा थे लेकिन उनके लिए राजगद्दी से ज़्यादा ज़रूरी था धर्म और न्याय। तभी लोग उन्हें सम्मान से ‘धर्मराज’ कहकर बुलाते थे।

 

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हर राजकुमार को जीवन में दिशा दिखाने वाला एक गुरु चाहिए होता है। पांडवों और कौरवों के लिए वह गुरु थे– द्रोणाचार्य लेकिन द्रोणाचार्य सिर्फ़ एक शिक्षक नहीं थे। वह युद्ध की हर चाल, हर हथियार और हर रणनीति के जानकार थे। उन्होंने ही राजकुमारों को धनुष-बाण चलाना सिखाया, तलवार थामना, युद्धनीति समझना और एक योद्धा की तरह सोचने का सलीका दिया। जब सभी राजकुमारों की शिक्षा पूरी हो गई, तो परंपरा के अनुसार बारी आई गुरु दक्षिणा की। युधिष्ठिर ने आदर से झुककर पूछा– 'गुरुदेव, आपकी सेवा में क्या दे सकता हूं?'

द्रोणाचार्य को यही गांव मिला था?

 

द्रोणाचार्य मुस्कराए और बोले– 'मुझे कुछ बड़ा नहीं चाहिए। बस एक छोटा-सा गांव दे दो, जहां मैं अपने परिवार के साथ चैन से रह सकूं।' युधिष्ठिर ने तुरंत हामी भरी और अपने गुरु को एक गांव आदरपूर्वक भेंट कर दिया। जो गांव द्रोणाचार्य को भेंट किया गया उसे नाम दिया गया गुरुग्राम, यानी गुरु का गांव। अब यह तो हुई पौराणिक कथा लेकिन हर कहानी के साथ कुछ सवाल भी चलते हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि इस कहानी का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। न ही कोई पुराना शिलालेख, न ही कोई पुरातात्विक सबूत जिससे यह साबित हो सके कि गुरुग्राम वाकई द्रोणाचार्य को दिया गया था।

 

 

नाम को लेकर एक दूसरी थ्योरी यह कहती है कि इस जगह का नाम शायद इसकी कृषि परंपरा से आया हो। गुड़ यानी एक तरह का मीठा पदार्थ और गांव यानी गांव। यानी एक ऐसा इलाक़ा जहां गुड़ बनता था, जहां खेती-बाड़ी होती थी। हो सकता है पहले यहां खेती से जुड़ी बहुत सी गतिविधियां होती थीं और वही इसकी पहचान बन गई हो।

 

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समय बीतता गया, लोग बदले, भाषा बदली और गुरुग्राम बन गया– गुड़गांव। फिर साल 2016 में हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने इस शहर का नाम फिर से गुरुग्राम कर दिया- उस पुराने नाम पर, जो कभी इसकी पहचान हुआ करता था। किस्सा की इस किस्त में पढ़िए कहानी गुरुग्राम की- उस शहर की, जिसकी ज़मीन पर फसलें लहलहाती थीं, जिसकी कच्ची सड़कों पर कभी बैलगाड़ियां दौड़ा करती थीं। आज वही शहर मिलेनियम सिटी कहलाता है। जानेंगे गुरुग्राम का इतिहास, मुगल दौर से लेकर ब्रिटिश राज तक की दास्तान और वह वक्त जब संजय गांधी ने आम लोगों के लिए सस्ती कार बनाने का सपना देखा।

 

यह सपना भले ही अधूरा रह गया लेकिन उसी ने एक नए शहर की नींव रखी, जहां आज बड़े बड़े कॉर्पोरेट टावर चमकते हैं। बात करेंगे उस अफ़वाह की जिसने DLF को जन्म दिया - और कैसे DLF ने गुरुग्राम की तकदीर बदल दी। जानेंगे भारत की पहली गेटेड कॉलोनी की कहानी, जो यहीं बनी और साथ ही मिलेंगे कैमरा म्यूज़ियम से जो इस शहर की छुपी पहचान है लेकिन हर चमकती चीज सोना नहीं होती। गुरुग्राम की सच्चाई में जल भराव, कूड़े-कचरे का ढेर, पानी की किल्लत और बढ़ती साम्प्रदायिकता भी शामिल है। बात गुरुग्राम में रियल स्टेट में बढ़ती धांधली की भी करेंगे। साथ-साथ बताएंगे कि कैसे यह शहर लाखों की मंथली सैलरी कमाने वालों के लिए भी मुश्किल भरा है? और बताएंगे आपको कि कैसे यह शानदार शहर अब फेल होता नज़र आ रहा है।

 
बाबर से बेगम तक…

 

साल था 1526, एक तुर्क योद्धा, बाबर, समरकंद की सरज़मीं से चला और उसने पानीपत की लड़ाई जीतकर हिंदुस्तान में मुग़ल सल्तनत की नींव रख दी। उसी सल्तनत में गुरुग्राम भी शामिल हो गया। गांव के लोगों को शायद उस वक़्त एहसास तक नहीं हुआ कि उनकी जमीन अब किसी और की जागीर बन चुकी है। जो सूरज हर रोज़ उनके लिए उगता था, अब वह किसी और की छांव में ढलने लगा था। बाबर के बाद ताज उसके बेटे हुमायूं के सिर पर सजा, मगर हिंदुस्तान की गद्दी कभी किसी एक की नहीं रही। जल्द ही एक अफगान सेनापति, शेरशाह सूरी, उभरा और हुमायूं को पराजित करके दिल्ली की सत्ता छीन ले गया। हुमायूं जान बचाकर ईरान भागा, वहीं शिया मत अपनाया और कई साल बाद, 1555 में दोबारा दिल्ली की गद्दी हासिल की।

 

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इन तमाम लड़ाइयों में किसने हथियार उठाया, कौन खेत रहा- इतिहास ज़्यादा कुछ नहीं बताता। मगर इतना ज़रूर तय है कि गुरुग्राम के कई नौजवान मुग़ल फौजों में शामिल हुए। कुछ घर लौटे, कुछ हमेशा के लिए कहीं खो गए। इन्हीं उथल-पुथल भरे दिनों में गुरुग्राम की मिट्टी ने एक वीर सपूत को जन्म दिया- हेमू। रेवाड़ी के एक साधारण हिंदू व्यापारी परिवार में जन्मा यह लड़का धीरे-धीरे एक कुशल सेनानायक बन गया। 1556 में कन्नौज और दिल्ली की लड़ाइयों में उसने मुग़लों को हराया, दिल्ली पर क़ब्ज़ा किया और खुद को सम्राट घोषित कर दिया। एक पल को लगा कि अब हिंदुस्तान की सत्ता एक बार फिर देशी हाथों में लौट आई है लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था। दूसरी पानीपत की लड़ाई हुई और हेमू की आंख में एक तीर आ लगा। वह ज़ख़्मी होकर बंदी बना और फिर वहीं उसका अंत हो गया। उसकी सेना- जिसमें गुरुग्राम और आस-पास के कई गांवों के लोग शामिल थे- उनको भी बेरहमी से कुचल दिया गया। न किसी का नाम बचा और न कोई निशान।

 

पानीपत के पास शोदापुर गांव में हेमू की एक समाधि बनाई गई लेकिन वक़्त के साथ वहां बस झाड़ियां रह गईं, टूटी दीवारें और कुछ बिखरी हुई यादें। गुरुग्राम अपने इस वीर को याद भी न रख सका। गुरुग्राम के इतिहास अगला पड़ाव आता है 18वीं सदी में- एक ऐसा दौर जब भारत में अफगान, मराठा और मुग़ल सत्ता की रस्साकशी में उलझे हुए थे। तभी भारत की ज़मीन पर कदम रखता है एक भाड़े का जर्मन सैनिक- वाल्टर रेनहार्ड्ट सॉम्ब्रे। तलवार के बदले में पैसा लेने वाला योद्धा, जो किसी के लिए भी लड़ सकता था। चतुराई से उसने गुरुग्राम के कुछ हिस्सों- जैसे झारसा और बादशाहपुर पर कब्ज़ा जमा लिया और वहां एक छावनी खड़ी कर दी।

 

असल कहानी तब शुरू होती है जब वॉल्टर की मौत के बाद उसकी दूसरी पत्नी सत्ता संभालती है। जिसका नाम था फरज़ाना, मगर इतिहास उसे ‘बेगम समरू’ के नाम से जानता है। कभी एक तवायफ़ रही यह महिला आगे चलकर एक आज़ाद रियासत की शासक बनी। उसने गुरुग्राम में ऐसा महल बनवाया जो दिखने में तो यूरोपीय लगता था लेकिन उसके अंदर की हर चीज़ हिंदुस्तानी अंदाज में ढली हुई थी। यहीं से बेगम समरू अपना शासन चलाती थीं। 

 

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साल 1839 में जब बेगम समरू का निधन हुआ तो उनकी रियासत धीरे-धीरे अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई। वैसे तो साल 1803 में ही ईस्ट इंडिया कंपनी ने गुरुग्राम पर औपचारिक तौर पर क़ब्ज़ा कर लिया था लेकिन बेगम के रहते अंग्रेज़ पूरी तरह हावी नहीं हो पाए थे। बेगम के जाने के बाद उनका शानदार महल अंग्रेज़ डिप्टी कमिश्नर का दफ़्तर बन गया। 

गुरुग्राम का गांधी?

 

20वीं सदी की शुरुआत में गुरुग्राम की कहानी में एक नया किरदार जुड़ता है- फ्रैंक लुगार्ड ब्रेन। यह अंग्रेज़ अधिकारी साल 1920 में डिप्टी कमिश्नर बनकर यहां आया। इस अधिकारी ने गुरुग्राम को एक आदर्श गांव बनाने की ठानी और अपने विज़न को नाम दिया 'गुरुग्राम प्रयोग'। 


इसके तहत ब्रेन ने गुरुग्राम को बदलने के लिए कई छोटे बड़े प्रयोग कि जैसे 'Grain Storage Box' का निर्माण करवाना ताकि अनाज को लंबे वक्त तक सुरक्षित रखा जा सके। यहां तक कि बैलगाड़ियों के पहियों को लंबे वक्त तक चलाने के लिए उनमें लोहे की पट्टियां लगवाने का काम भी ब्रेन ने शुरू करवाया।
 
ब्रेन ने लड़कियों की पढ़ाई पर भी ज़ोर दिया और गांवों में सहकारी बैंक खुलवाए ताकि लोग उधार और बचत के लिए साहूकारों पर निर्भर न रहें। ये प्रयोग उस दौर में क्रांति से कम नहीं थे। सफाई को लेकर भी ब्रेन काफी सचेत थे उनका कहना था, 'मुझे यह तय करने दो कि लोग कहां शौच करेंगे,  मुझे फर्क नहीं पड़ता कि उनके लिए कानून कौन बनाए!' यानी ब्रेन ने गुरुग्राम की बेहतरी के लिए काफी काम किया। हालांकि, उनके तबादले के साथ ही गुरुग्राम प्रयोग भी थम गया। अब कहानी में 5 दशक आगे बढ़ते हैं। आज़ादी के बाद का भारत और जानेंगे कि कैसे एक सोच एक विज़न ने देखते ही देखते गुरुग्राम को गांव से एक ग्लोबल सिटी में तब्दील कर दिया।

 

संजय की कार स्टार्ट नहीं हुई, पर एक शहर दौड़ने लगा!

 

1970 का दशक। देश एक नए बदलाव के दौर से गुजर रहा था। कहीं औद्योगीकरण की हलचल थी, कहीं युवाओं में कुछ नया करने की बेचैनी। इसी माहौल में एक नौजवान सामने आया-संजय गांधी। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के छोटे बेटे। उम्र ज़्यादा नहीं थी लेकिन इरादे बड़े थे।


संजय का सपना था-एक ऐसी कार बनाना जो आम हिंदुस्तानी चला सके। एक सस्ती, छोटी और भरोसेमंद कार। जिसे हुनमान जी के नाम पर पहचान मिली- मारुति। सपना बड़ा था लेकिन रास्ता आसान नहीं। संजय के पास न तो ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग डिग्री थी, न ही कोई तकनीकी अनुभव लेकिन उनके पास सबसे अहम चीज़ थी- पावर, क्योंकि वह देश की प्रधानमंत्री के बेटे थे। खैर संजय ने गाड़ी का एक प्रोटोटाइप तैयार करवाया लेकिन वह ठीक से चला ही नहीं। बार-बार फेल हुआ। कहा जाता है कि उन्होंने जर्मनी से चोरी-छुपे एक इंजन भी मंगवाया लेकिन उससे भी कुछ खास नहीं हो पाया।

 

फिर भी संजय पीछे नहीं हटे। उनके पास सत्ता थी, राजनीतिक समर्थन था और उनके इरादों के सामने नौकरशाही की हिचक भी टिक नहीं सकी। उन्होंने तय किया कि मारुति की फैक्ट्री गुरुग्राम में ही बनेगी। अब सवाल था- जब फरीदाबाद पहले से एक औद्योगिक इलाका था, तो फिर गुरुग्राम क्यों? वजह साफ थी- ज़मीन। गुरुग्राम में ज़मीन सस्ती थी, दिल्ली से नज़दीक थी और संजय गांधी के लिए रोज आना-जाना भी आसान था। 1971 में मारुति की की स्थापना की गई और संजय गांधी इस कपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर बने।
 
हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल ने इस प्रोजेक्ट में पूरा साथ दिया। प्रशासन ने आसपास के गांवों से  ज़रूरत से ज़्यादा करीब 600 एकड़ उपजाऊ ज़मीन ले ली। बहुत से किसानों को ज़मीन खोने के बदले में ना ठीक से मुआवज़ा मिला, ना ही कोई दूसरा सहारा। जो आवाज़ उठी, वह सरकारी मशीनरी के शोर में कहीं दबा दी गई। हालांकि, संजय गांधी के जीते जी मारुति प्रजेक्ट सफल नहीं हो पाया। कार का डिज़ाइन कई बार बदला गया लेकिन कुछ नहीं हुआ। कपंनी लगातार घाटे में जाती रही और 1977 आते-आते मारुति प्रोजेक्ट पूरी तरह ठप हो गया। फैक्ट्री के गेट पर ताले लग गए, मशीनें जंग खाने लगीं और ‘जनता की कार’ एक अधूरे सपने की तरह धुंध में खो गई लेकिन इस कंपनी की शुरुआत अभी बाकी थी।
 
साल 1981 में जापान की सुज़ुकी मोटर्स भारत सरकार के साथ साझेदारी करती है। उसे वही ज़मीन, वही नाम और वही अधूरी फैक्ट्री मिलती है और फिर, 1983 में पहली मारुति 800 की मुंह दिखाई होती है। देश में पहली मारुति कार के ग्राहक बने हरपाल सिंह जिन्हें खुद इंदिरा गांधी ने मारुति की चाबी सौंपी, जिसके बाद भारत की सड़कों पर यह कार दौड़ती नज़र आने लगी जो बन रही थी गुरुग्राम में। यहीं से शुरू होती है गुरुग्राम की असली कहानी। जहां कभी धान की फसल लहलहाती थी, वहां अब ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री की नींव पड़ रही थी। एक के बाद एक कार कंपनियां, ऑटो पार्ट्स फैक्ट्रियां और इंडस्ट्रियल यूनिट्स बसने लगती हैं।

 

गुरुग्राम अब सिर्फ़ 'गांव' नहीं रहा- वह बन चुका था भारत का 'ऑटो मोबाइल हब'। सोचिए, जो सपना कभी एक असफल परियोजना माना गया, उसी ने इस शहर की रफ्तार तय की। संजय गांधी की वह अधूरी कार, भले खुद न चल पाई हो लेकिन उसने एक ऐसा इंजन ज़रूर शुरू कर दिया, जो आज तक रुका नहीं है। हालांकि, गुरुग्राम शहर की किस्मत पलटने में एक और इंसान का हाथ था। वह कौन थे और उन्होंने ऐसा क्या किया? आइए जानते हैं।

 

एक अफ़वाह ने इमारतें खड़ी कर दीं!

 

1980 के दशक में गुरुग्राम की किस्मत ने सचमुच एक करवट ली। उस वक़्त दिल्ली बुरी तरह भीड़ से जूझ रही थी। ज़मीन इतनी महंगी हो चुकी थी कि बिल्डरों के लिए काम करना मुश्किल हो गया था। ऊपर से नियम-कायदे इतने सख़्त थे कि रियल एस्टेट वालों की हालत पतली थी। ऐसे माहौल में बिल्डरों की नज़रें दिल्ली से बाहर की तरफ़ घूमने लगीं और गुरुग्राम में उन्हें एक सुनहरा मौका दिखा।

 

गुरुग्राम वैसे भी एकदम दिल्ली के बगल में था और सबसे बड़ी बात- यह पालम हवाई अड्डे के बिल्कुल करीब था। बाद में इसी एयरपोर्ट का नाम इंदिरा गांधी के नाम पर पड़ा, जिसे आज हम IGI एयरपोर्ट के नाम से जानते हैं। यहां ज़मीन सस्ती थी और सरकार की नज़र भी ज़्यादा गहराई से नहीं पड़ती थी। तब अचानक एक अफ़वाह उड़ गई कि गुरुग्राम में 'जापान सिटी' बनने वाली है। एक ऐसा हाई-टेक शहर, जहां जापानी ट्रेनें चलेंगी, स्मार्ट बसें होंगी और सारी सुविधाएं विदेशी अंदाज़ की होंगी। अब यह सपना सच्चाई बना या नहीं, यह अलग बात है  लेकिन उस अफ़वाह ने बिल्डरों के दिन बना दिए।
 
इन्हीं बिल्डरों में सबसे बड़ा नाम था- डीएलएफ और उसके पीछे थे एक ज़बरदस्त शख्सियत: के.पी. सिंह। लोग कहते हैं, उनके बोलने में ऐसा असर था कि इंसान सुनते-सुनते सपना देखने लगता। उन्होंने एक छोटे से तंबू से प्लॉट बेचना शुरू किया और उसी जगह ने आगे चलकर 'डीएलएफ सिटी' का रूप ले लिया। के.पी. सिंह लोगों को दिल्ली जैसा सपना दिखाते थे- बड़ी-बड़ी दुकानें, क्लब हाउस, चौड़ी और साफ़ सड़कें और दिल्ली से जोड़ने वाली हल्की रेल। उनका जोर खासकर एनआरआई लोगों पर था, जो विदेश में रहते थे लेकिन भारत में एक आलीशान घर का सपना देखते थे और के.पी. सिंह वह सपना बेचने में माहिर थे।

 

बात यहीं नहीं रुकी। असली खेल तब शुरू हुआ जब उन्होंने गांव-गांव जाकर किसानों से सीधे ज़मीन खरीदनी शुरू की। उन्होंने यह काम सिर्फ़ पैसों के दम पर नहीं किया। वह खुद किसानों से मिलने जाते, उनके घरों में बैठते और उन्हीं की भाषा (ठेठ हरियाणवी) में बात करते। धीरे-धीरे गांव वालों का भरोसा जीतते गए। के.पी. सिंह उन्हें समझाते कि अगर वह ज़मीन बेचकर उसी पैसे को डीएलएफ में फिर से लगाएंगे, तो उन्हें कहीं ज़्यादा फायदा होगा। लोग उन्हें बिल्डर कम, अपना बड़ा भाई ज़्यादा मानने लगे। किसी के बच्चे के स्कूल की बात हो, किसी की बीमारी या कागज़-पत्र का झंझट - वह खुद मदद करते।

 

धीरे-धीरे उन्होंने किसानों का भरोसा पूरी तरह जीत लिया। फिर शुरू हुआ ज़मीन का असली खेल। डीएलएफ ने किसानों से ज़मीन खरीदी और वह भी बिल्कुल पारदर्शी तरीके से- कागज़ी काम साफ़-सुथरा, पेमेंट सीधे चेक से। उस वक़्त यह बड़ी बात थी क्योंकि दिल्ली के रियल एस्टेट में ज़्यादातर सौदे 'काले पैसे' से होते थे। धीरे-धीरे गुरुग्राम की तस्वीर बदलने लगी। एक के बाद एक कॉलोनियां बनने लगीं। खेतों की जगह अपार्टमेंट और ऑफिस टावर उगने लगे। दूर-दूर से लोग यहां घर लेने आने लगे और इस तरह शुरू हुआ गुरुग्राम का शहरीकरण।

पानी की तलाश ने भारत को दी पहली गेटेड कॉलोनी

 

1980 के दशक के बीच का समय था। दिल्ली उस वक्त पानी की भारी किल्लत से जूझ रही थी। उसी दौरान ITC Limited के चेयरमैन अजित नारायण हक्सर अपने होटल मौर्या शेरेटन के लिए पानी का इंतज़ाम करने की कोशिश में जुटे हुए थे। होटल में आने वाले मेहमानों, स्टाफ और रसोई की जरूरतों के लिए लगातार पानी मिलना बहुत जरूरी था। इसी दौरान किसी ने हक्सर को बताया कि गुरुग्राम के पास नाथूपुर नाम के गांव में ज़मीन के नीचे बहुत सारा पानी मौजूद है। यह खबर सुनकर हक्सर खुद नाथूपुर गांव पहुंचे, वहां के लोगों से बात की और करीब 23 एकड़ ज़मीन खरीद ली।

 

कहानी यहीं खत्म नहीं होती। कुछ समय बाद जब हक्सर कैनेडा घूमने गए, तो वहां की एक चीज़ ने उनका दिल जीत लिया। उन्होंने पहली बार गेटेड कॉलोनीज़ का कॉन्सेप्ट देखा। जहां हर सुविधा मौजूद थी और सुरक्षा भी पक्की थी। हक्सर को यह आइडिया इतना पसंद आया कि उन्होंने ठान लिया, 'भारत में भी कुछ ऐसा ही बनाऊंगा!' इसके लिए उन्होंने आर्किटेक्ट रमेश खोसला को बुलाया और प्रोजेक्ट की ज़िम्मेदारी सौंपी। पैसे लगाने के लिए ITC के ही एक डिस्ट्रीब्यूटर राधेश्याम अग्रवाल आगे आए और फिर शुरू हुआ 'गार्डन एस्टेट'का काम। भारत की पहली ऐसी गेटेड कम्युनिटी, जो हर मायने में वेस्टर्न स्टाइल की थी।

 

अब सोचिए, उस ज़माने में जब गुरुग्राम को लोग दूर-दराज़ का वीराना समझते थे, वहां एक ऐसी कॉलोनी बनाई गई जिसमें 24 घंटे बिजली (जनरेटर से), लगातार पानी, स्विमिंग पूल, क्लब हाउस, जिम और लाइब्रेरी जैसी चीज़ें थीं! उस कॉलोनी को बेचने की ज़िम्मेदारी दी गई पैट्रिशिया राउ नाम की एक महिला को। DLF जैसी कंपनियों के मुकाबले गार्डन एस्टेट के प्लॉट महंगे थे लेकिन हक्सर का भरोसा पक्का था। वह कहते थे कि यहां जो सुविधा मिलेगी, वह कहीं नहीं मिलेगी।

 

आख़िरकार साल 1989 में गार्डन एस्टेट बनकर तैयार हो गया और फिर हुआ एक चमत्कार। यहां पैसे वाले लोगों का जमावड़ा बढने लगा। लोगों को यह जगह ऐसी पसंद आई कि धीरे-धीरे यही मॉडल पूरे देश में फैल गया।

जब खेतों ने पहनी कॉर्पोरेट ड्रेस

 

साल 1991 की बात है। भारत आर्थिक सुधारों के दौर से गुज़र रहा था। भारत ने विदेशी कंपनियों के लिए अपनी अर्थव्यवस्था को खोल दिया था। विदेशी कंपनियां तेज़ी से भारत आ रही थीं। जब विदेशी कंपनियां भारत में निवेश के मौके तलाश रही थीं तो उन्हें ऐसी जगह चाहिए थी जहां वे दिल्ली के पास रहें लेकिन ज़मीन और किराए की कीमतें दिल्ली जैसी न हों। गुरुग्राम इसके लिए एकदम सही साबित हुआ। एयरपोर्ट से नज़दीक, जगह खुली-खुली और सरकारी नियम भी उदार होते जा रहे थे। हरियाणा सरकार ने उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए टैक्स छूट, आसान मंज़ूरियां और ज़मीन पर राहत जैसी कई स्कीमें शुरू की थीं।

 

दिल्ली के करीब इन कंपनियों के लिए जो सबसे अहम चीज़ थी वह था यहां का टैलेंट। पढ़े-लिखे युवा, खासकर इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट ग्रैजुएट्स, बड़ी तादाद में यहां मौजूद थे। कंपनियों के लिए यह किसी जैकपॉट से कम नहीं था। 1997 में जनरल इलेक्ट्रिक (GE) ने गुरुग्राम में अपना पहला BPO सेंटर शुरू किया। इस एक क़दम ने मानो बाकी कंपनियों को रास्ता दिखा दिया। GE के बाद IBM, Accenture, Deloitte, PwC जैसी कंसल्टिंग और IT कंपनियाँ ने गुरुग्राम का रूख किया। Microsoft ने 2000 के दशक की शुरुआत में यहाँ अपने ऑफिस की शुरुआत की। फिर 2004 में Google, 2010 के दशक में Amazon, और 2005 के बाद Salesforce जैसे दिग्गजों ने भी गुरुग्राम में अपनी मौजूदगी दर्ज की। गुरुग्राम की तेज़ रफ्तार और आधुनिक सोच ने इसे 2000 के दशक की शुरुआत में 'मिलेनियम सिटी' का खिताब दिलाया।

 

गुरुग्राम जल्द ही सिर्फ़ कॉर्पोरेट हब नहीं, एक पहचान बनने लगा। वैसे, IT से पहले इस शहर की नींव ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री ने रखी थी। 1983 में जब मारुति सुजुकी ने अपना पहला प्लांट यहां लगाया, तब शायद ही किसी को अंदाज़ा रहा हो कि एक दिन यही इलाक़ा देश की मोटर राजधानी बन जाएगा। Hero MotoCorp, Honda Cars और BMW India ने गुरुग्राम को अपना ठिकाना बनाया। FMCG सेक्टर की Nestlé, PepsiCo, Coca-Cola, Unilever और Procter & Gamble जैसी बड़ी कंपनियों ने भी अपने कॉर्पोरेट ऑफिस गुरुग्राम में बनाए।

 

आज 2025 में, गुरुग्राम 250 से ज़्यादा फॉर्च्यून 500 कंपनियों का घर है और सिर्फ़ बड़ी कंपनियाँ ही नहीं-Zomato, OYO, PolicyBazaar, Delhivery जैसे भारतीय स्टार्टअप्स ने भी यहीं से अपनी कहानियां शुरू कीं लेकिन इतनी तरक्की के बाद भी एक ज़रूरी बात थी-आवागमन। एक वक़्त था जब दिल्ली से गुरुग्राम आने-जाने में घंटों लगते थे। ऐसे में दिल्ली मेट्रो की एंट्री ने सब बदल दिया। 2010 में येलो लाइन को मिलेनियम सिटी सेंटर तक बढ़ाया गया। इससे दिल्ली और गुरुग्राम के बीच सफर कहीं ज़्यादा आसान हो गया। फिर 2013 में DLF ने भारत की पहली प्राइवेट मेट्रो, रैपिड मेट्रो, शुरू की, जो ऑफिस जाने वाले हज़ारों लोगों के लिए वरदान साबित हुई। भले ही बाद में इसे बंद करना पड़ा लेकिन DMRC ने इसकी भरपाई कर दी।

 

डीएलएफ ने महसूस किया कि कॉर्पोरेट कर्मचारियों और शहर के निवासियों को केवल ऑफिस स्पेस ही नहीं बल्कि एक ऐसी जगह चाहिए, जहां वे काम के बाद आराम कर सकें, सामाजिक मेलजोल बढ़ा सकें और वर्ल्ड क्लास सर्विसेज़ का मज़ा ले सकें। इस तरह बना साइबर हब, 2013 में शुरू हुआ साइबर हब एक फूड, एंटरटेनमेंट और रिटेल हब के रूप में डिज़ाइन किया गया था। यह 1.8 लाख वर्ग फीट के इलाके में फैला है और इसमें रेस्तरां, कैफे, पब, रिटेल स्टोर और लाइव परफॉर्मेंस स्पेस शामिल हैं। डीएलएफ ने इसे एक वर्ल्ड-क्लास डेस्टिनेशन के रूप में बनाया, जो न केवल कॉर्पोरेट कर्मचारियों, बल्कि फैमिलीज़, टूरिस्ट्स और दिल्ली-एनसीआर के लोगों को अट्रैक्ट करता है।

 

इस चमक के पीछे एक सच्चाई भी है। 2023 में गुरुग्राम में करीब 10,000-12,000 साइबर क्राइम केसेज़ दर्ज हुए-लोगों के अकाउंट से पैसे उड़ाए गए, उन्हें डिजिटल अरेस्ट किया गया और भी तरह-तरह की ऑनलाइन ठगियां हुईं यानी एक तरफ यह जगह टेक्नोलॉजी का गढ़ है, तो दूसरी तरफ साइबर अपराधों का भी अड्डा बनती जा रही है। फिर भी, गुरुग्राम की कमाई में कोई कमी नहीं है। 2022-23 में इस शहर से सरकार का टैक्स कलेक्शन करीब 20,000-25,000 करोड़ रुपये का था। IT, गारमेंट, ऑटो और रियल एस्टेट जैसे सेक्टर यहां की अर्थव्यवस्था को चलाते हैं और लाखों लोगों को रोज़गार देते हैं।

 

DLF साइबर सिटी और उद्योग विहार जैसे इलाकों में ही करीब 3-4 लाख लोग काम करते हैं-कुछ सीधे कंपनी के स्टाफ होते हैं और कुछ सिक्योरिटी, हाउसकीपिंग जैसे कामों में लगे होते हैं। गुरुग्राम में करीब 8-10 लाख लोग अलग-अलग सेक्टरों में रोज़ी-रोटी कमा रहे हैं।


गारमेंट सेक्टर की बात करें तो यहां 2000-2500 फैक्ट्रियां हैं, जो पूरे हरियाणा के गारमेंट उद्योग का लगभग 35-40% हिस्सा हैं। यहां लाखों मज़दूर कपड़े सिलते हैं, पैक करते हैं और इन्हें देश-विदेश में भेजा जाता है। 2023-24 में गुरुग्राम के अकेले गारमेंट सेक्टर ने करीब 12,000-15,000 करोड़ रुपये का एक्सपोर्ट किया।

तो खींच मेरी फोटो!

 

गुरुग्राम में एक म्यूजियो कैमरा नाम से म्यूज़ियम है, जिसमें आदित्य आर्य नाम के एक शख्स ने शुरू किया था। इस स्टूडियो में आपको दुनिया भर के कैमरे देखने को मिल जाएंगे लेकिन इस स्टूडियो में दो कैमरे ऐसे भी हैं जिससे खींची गई तस्वीर शायद हम सबने देखी होगी। इन कैमरों का नाम है 'K-29'। यही वे कैमरे थे जिनसे 1945 में हिरोशिमा पर परमाणु बम गिराए जाने के बाद की तस्वीरें ली गई थीं। हिरोशिमा में परमाणु बम फटने के बाद जो ‘मशरूम क्लाउड’ वाली तस्वीर आप देखते हैं वह K-29 से ही खींची गई थी । सोचिए, वे ऐतिहासिक कैमरे आज गुरुग्राम के इस म्यूज़ियम में रखे हैं और सबसे हैरान करने वाली बात यह है कि आदित्य आर्य को ये कैमरे दिल्ली की एक कबाड़ी की दुकान से मिले थे!कबाड़ी वाले को शायद अंदाज़ा भी नहीं था कि उसके पास कितनी अनमोल चीज़ है लेकिन आदित्य की नजर पहचान गई।

 

कैमरों के साथ-साथ आदित्य ने तस्वीरों को भी सहेजा। उन्होंने भारत के आज़ादी आंदोलन की दुर्लभ तस्वीरें भी इकठ्ठा कीं- जो मशहूर फोटोग्राफर कुलवंत रॉय ने खींची थीं। इन तस्वीरों में गांधी, नेहरू, पटेल जैसे नेता भी हैं और वे आम लोग भी जो देश के लिए सड़कों पर उतरे थे। आदित्य ने इन तस्वीरों को नया जीवन दिया- उन्हें साफ़ किया, फ्रेम किया ताकि लोग उन्हें देखकर उस दौर को महसूस कर सकें। अपनी इसी खूबी के चलते यह गुरुग्राम की पहचान का एक अनोखा हिस्सा बन चुका है।

चमकते गुरुग्राम की धुंधली सच्चाई

 

सुहेल सेठ, जो एक जाने-माने लेखक और कॉलमिस्ट हैं, उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस कॉन्क्लेव में गुरुग्राम की हालत पर खुलकर अपनी बात रखी। उन्होंने इस शहर की खस्ता हालत पर सवाल खड़े करते हुए कहा, 'गुरुग्राम इस देश के लिए शर्म की बात है।' उनके हिसाब से शहर में शराब की दुकानें ट्रैफिक लाइट्स से ज़्यादा हैं और बार की तादाद स्कूलों से भी ज़्यादा। सेठ ने तंज कसते हुए कहा कि हर साल बारिश में यह शहर ‘वेनिस’ की तरह डूब जाता है– फर्क बस इतना है कि यहां की सड़कों पर पानी और कचरे का सैलाब होता है, कोई खूबसूरती नहीं। 

 

सुहेल सेठ की इन बातों में पूरी सच्चाई है। आज गुरुग्राम अपनी तरक्की से भले ही जाना जाता हो लेकिन अगर ज़रा गहराई में झांकें तो इस चमकते शहर की एक और सच्चाई सामने आती है। पानी की किल्लत, ट्रैफिक के जाम, डूबती सड़कें और कूड़े के ढेर। सबसे पहले बात पानी की करें तो यह शहर हमेशा से प्यासा रहा है। यहां कोई बड़ी नदी नहीं है, न ही कोई ऐसी झील जिससे साल भर पानी मिले। ज़्यादातर पानी ज़मीन के नीचे से निकाला जाता है- जिसे हम भूजल या एक्विफर कहते हैं लेकिन जैसे-जैसे शहर फैला, बिल्डिंग्स बढ़ीं और बिल्डरों ने बेतहाशा निर्माण शुरू किया, वैसे-वैसे ज़मीन का पानी भी खत्म होता चला गया।

साल 2017 में एक उम्मीद जगी- एनसीआर वॉटर चैनल से। प्लान था कि यमुना नदी से गुरुग्राम और मानेसर को पानी मिलेगा लेकिन जैसा हमारे यहां अक्सर होता है, यह योजना भी कागज़ों में ज्यादा और ज़मीनी हकीकत में कम नज़र आई। बसई वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट, जो इस पानी को साफ करता है, उसे अक्सर बिजली की कमी और वोल्टेज की दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। इन्हीं वजहों के चलते शहर के कई इलाकों में लोग पानी के टैंकरों पर निर्भर हैं।

 

अब गर्मियों में पानी की किल्लत तो यहां आम बात है लेकिन 2016 में तो हद ही हो गई। जाट आंदोलन के दौरान प्रदर्शनकारियों ने पश्चिमी यमुना नहर तोड़ दी। उसका असर सीधा गुरुग्राम पर पड़ा। DLF फेज़ 1 से लेकर सेक्टर 1, 2, 3 और पुराने शहर तक- दस दिन तक नल सूखे रहे। MCG और HUDA ने टैंकर भेजे लेकिन 50,000 से ज़्यादा परिवारों के लिए यह बहुत कम था। तब जाकर लोगों को समझ आया कि इस शहर की पानी की व्यवस्था कितनी नाजुक है। अब ज़रा ट्रैफिक की कहानी सुनिए। गुरुग्राम का ट्रैफिक जाम भी किसी बुरे सपने से कम नहीं। 28 जुलाई 2016 की तारीख आज भी शहर वाले नहीं भूले हैं। जरा सी भारी बारिश हुई और शहर ठप हो गया। सड़कों पर पानी भर गया, गाड़ियां बंद हो गईं और लोग उन्हें वहीं छोड़कर पैदल घर लौटे। अख़बारों में तस्वीरें छपीं- डूबी हुई गाड़ियां और गुस्साए लोग।

 

इस जाम का असली कारण सिर्फ बारिश नहीं था। यह नतीजा था बरसों से चली आ रही लापरवाही का। ड्रेनेज सिस्टम है नहीं, सड़कों की मरम्मत समय पर नहीं होती और प्लानिंग तो जैसे हुई ही नहीं। गोल्फ कोर्स रोड इसकी सबसे सटीक एग्ज़ाम्पल है। चौड़ी सड़क तो बन गई लेकिन जाम वैसे का वैसा और ऊपर से हर मोड़ पर यू-टर्न- जो पैदल चलने वालों के लिए खतरा बन जाते हैं। बारिश के वक्त हालात और बिगड़ जाते हैं। गुरुग्राम की सड़कें किसी नदी की तरह बहने लगती हैं। गाड़ियों के टायर तक पानी में डूब जाते हैं। इसका कारण है ड्रेनेज का ना होना। मॉल्स और गेटेड सोसाइटीज़ तो खूब बनीं लेकिन पानी निकासी का कोई पुख्ता इंतज़ाम नहीं किया गया और जब पानी भरता है तो लोग फंसते हैं, हादसे होते हैं और पूरा शहर जाम में उलझ जाता है।

 

अब बात करें कूड़े की तो गुरुग्राम की गलियां कचरे से अटी पड़ी हैं। खासकर नाथूपुर जैसे इलाके, जहां मज़दूरों की बस्तियां हैं- वहां गलियों में गंदा पानी और कचरे के ढेर आम बात हैं। लाल डोरा इलाकों में तो सीवर तक नहीं हैं। इससे मच्छर, बीमारियां और गंदगी बढ़ रही है।


MCG यानी म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन ऑफ गुरुग्राम के पास न तो सही बजट है और न ही ज़्यादा अधिकार। HUDA (Haryana Urban Development Authority) और बिल्डर्स भी अपनी ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेते हैं। बिल्डरों ने फ्लैट्स बेचते वक्त एक्सटर्नल डेवलपमेंट चार्ज तो लिया लेकिन सीवर और कूड़े की व्यवस्था पर ध्यान नहीं दिया।

 

अब इन सारी समस्याओं की जड़ तक चलें तो एक ही बात निकलती है- अनियोजित और बेतरतीब विकास। गुरुग्राम को निजी बिल्डरों ने बनाया, जिनका मकसद सिर्फ़ मुनाफा कमाना था। सरकारी एजेंसियां पीछे रह गईं। नतीजा यह कि अमीरों के लिए तो एयर कंडीशन्ड सोसाइटीज़ हैं लेकिन आम लोगों के लिए न पानी है, न साफ सड़कें, न ही साफ हवा।

 

खून-पसीने की कमाई... सीमेंट और धांधली में दफ़न!

 

गुरुग्राम में अब घर खरीदना काफी मुश्किल हो चुका है। जिसकी सबसे बड़ी वजह है यहां प्रॉपर्टी के आसामान छूते रेट, कोई वक्त था जब मकान खरीदने के लिए गुरुग्राम में 6,000-7,000 रुपये प्रति वर्ग फीट हुआ करता था लेकिन अब यह रेट 20,000 प्रति वर्ग फुट तक पहुंच चुका है और ये तो वह मकान हैं जो आपके और हमारे जैसे लोग खरीदना चाहते हैं यानी मिडिल क्लास जनता लेकिन अब ये भी उनकी पहुंच से बाहर पहुंच चुके हैं। DLF के एक पुराने प्रॉजेक्ट DLF क्रेस्ट की ही बात करें तो 2013 में ही यहां मकान की कीमत 4-5 करोड़ थी जो अब 9-10 करोड़ तक पहुंच चुकी है और अगर कोई फ्लैट ऐसी जगह है जहां न सड़क है न सुविधाएं वहां भी रेट 1.5 करोड़ से कम नहीं है यानी यह शहर इस कदर महंगा हो चुका है कि कोई अगर 20 से 25 लाख रुपये सालाना भी कमाता है तो वह गुरुग्राम में घर खरीदने का सोच भी नहीं सकता।
 
घरों के बढ़ते हुए रेट के पीछे सिर्फ इसकी डिमांड ही वजह नहीं है, बल्कि बिल्डर ट्रेडर नेक्सस भी काफी काम करता है। बिल्डर अपना प्रॉजेक्ट लॉन्च करता है और ट्रेडर उस प्रेजेक्ट में पैसा लगाकर फेक डिमांड क्रिएट करते हैं। इसे एक एग्ज़ाम्पल से समझते हैं- मान लीजिए बिल्डर ने एक हाउसिंग प्रॉजेक्ट लॉन्च किया और एक यूनिट का प्राइस 5 करोड़ रुपये रखा। अब एक आम इंसान जो 5 करोड़ रुपये खर्च कर सकता है वह एक यूनिट खरीदेगा लेकिन एक ट्रेडर जिसके पास 5 करोड़ रुपये है वह बिल्डर को 1-1 करोड़ देकर 5 फ्लैट बुक करेगा लेकिन वह यह खरीदेगा नहीं वह इसे थोड़े वक्त के लिए होल्ड करेगा, इससे मार्केट में यह इल्यूज़न क्रिएट किया जाता है कि प्रॉजेक्ट लॉन्च होते ही पूर सोल्ड आउट हो गया। जिससे ग्राहकों का इंटरेस्ट इस प्रोजेक्ट में बढ़ेगा और रातों-रात फ्लैट की कीमतें बढ़ने लगेंगी और यह ट्रेडर 5 करोड़ के फ्लैट को 6 से 7 करोड़ में आगे बेच देगा जिसपर उसने सिर्फ 1 करोड़ ही खर्च किया था और इस तरह ग्राहकों को महंगी कीमत पर मकान बेचकर ये लोग मुनाफा कमाते हैं और प्रॉपर्टी के रेट्स को और ज्यादा बढ़ा देते हैं।
 
गुरुग्राम में Uber Luxury Market भी लगातार बूम कर रही है। पिछले साल DLF Camellias में एक पेंटहाउस 190 करोड़ रुपये में बिका। Info-x Software Tech Pvt Ltd के डायरेक्टर ऋषि पार्थी ने यह पेंटहाउस खरीदा और जिस पर 13 करोड़ रुपये की स्टैंप ड्यूटी भरी गई। 16,290 वर्ग फुट का पेंटहाउस था यानी 1.8 लाख रुपये प्रति वर्ग फीट के कार्पेट एरिया पर यह डील हुई। रिपोर्ट्स की मानें तो इतना रोट तो मुंबई में भी नहीं है। लोधा मालाबार में तीन फ्लैट एक साथ बिके थे जिनके लिए 263 करोड़ रुपये दिए गए थे लेकिन वहां भी डील 1.4 लाख रुपये प्रति वर्ग फुट के कार्पेट एरिया के हिसाब से हुई थी और अब तो यह करोड़ों रुपये की डील्स भी गुरुग्राम में आम हो गई हैं। साल 2024 में DLF ने तीन दिन के अंदर 1,000 लग्जरी फ्लैट्स बेच दिए।

 

अब लगे हाथ उन मिडिल क्लास लोगों की बात भी कर लेते हैं जिन्होंने जैसे तैसे घर तो खरीद लिया लेकिन अब वे गुरुग्राम के खर्चे नहीं उठा पा रहे। लिंकडिन पर विभव नाम के एक शख्स का पोस्ट यह सच्चाई बताने के लिए काफी है, जिन्होंने 3 करोड़ रुपये में गुरुग्राम में एक फ्लैट खरीदा और फिर उन्होंने Standard of Living मेंटेन करने के लिए खर्चों की एक लिस्ट गिनाई। इसमें मकान की EMI से लेकर बच्चों की पढ़ाई और मेड की सैलरी तक का ब्रेकअप दिया गया है जिसके मुताबिक इस शख्स को गुरुग्राम में सांस लेने के लिए भी 7.5 लाख रुपये हर महीने की ज़रूरत है।

 

ऊपर से, रियल एस्टेट सेक्टर में धोखाधड़ी भी एक बड़ी चिंता है। पिछले कुछ सालों में ऐसे केस तेजी से बढ़े हैं - जैसे प्रोजेक्ट्स में देरी, बिना लाइसेंस के बिल्डिंग बेचना या निवेशकों के पैसे का गलत इस्तेमाल करना। साल 2010 में जहां करीब 130 केस दर्ज हुए थे, वहीं साल 2019 में यह आंकड़ा 600 के पार चला गया। RERA (Real Estate Regulatory Authorities) के आने के बाद हालात कुछ सुधरे ज़रूर हैं लेकिन भरोसे का संकट बना हुआ है, खासकर आम लोगों के बीच।

 

रही बात रेंट की तो गुरुग्राम में अच्छी जगह एक बढ़िया आलीशान घर किराये पर चाहिए तो उसके रेंट की तो कोई सीमा ही नहीं है 1 से 4 लाख रुपये तक कुछ भी देना पड़ सकता है और यह मैं महीने का रेंट बता रहा हूं। वहीं मिडिल क्लास आदमी के लिए गुरूुग्राम के ठीक-ठाक एरिया में 1BHK का रेंट 25 हज़ार के करीब है और PG में खारे के साथ 14 से 18 हज़ार रुपये देने पड़ सकते हैं।
 
यानी इस मिलेनियम सिटी में जहां हर वक्त ट्रैफिक जाम है, पानी की किल्लत है, बारिश में बुरे हाल हैं वहां रहने से लेकर खाने और यहां तक कि पढ़ाई के लिए भी आदमी को इतना पैसा चाहिए जो एक आम शख्स अफोर्ड नहीं कर सकता है। यही वजह है कि वे एम्पलॉई जिनकी सैलरी 30 से 40 लाख रुपये सालाना है, वे भी अब घर की तलाश में नोएडा की तरफ मूव कर रहे हैं और नौकरी करने गुरुग्राम जा रहे हैं।

  
गगनचुंबी इमारतों के पीछे अपराध का जाल

 

रियल एस्टेट और साइबर क्राइम से जुड़ी धोखाधड़ी के बारे में तो हम आपको पहले ही बता चुके हैं अब लगे हाथ उन अपराधों पर भी नज़र मार लेते हैं जिन्होंने गुरुग्राम में सुरक्षा को लेकर बड़ी बहस छेड़ दी। 2017 में गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में 7 साल के प्रद्युम्न ठाकुर की हत्या ने बच्चों की सुरक्षा पर गहरी बहस छेड़ दी। शुरुआत में बस कंडक्टर को दोषी ठहराया गया लेकिन बाद में सीबीआई जांच में एक 11वीं कक्षा के छात्र को आरोपी पाया गया। 2018 में एक जज की पत्नी और बेटे को उनके ही अंगरक्षक ने गोली मार दी- वह भी खुले बाजार में। ये घटनाएं सिर्फ अपराध नहीं थीं, ये उस भरोसे की हत्या थीं जो समाज ने स्कूल और कानून व्यवस्था पर किया था।

 

शहर के इतिहास में 2007-08 का किडनी रैकेट शायद सबसे डरावना मामला था। डॉ. अमित कुमार के नेतृत्व में गुरुग्राम के एक निजी अस्पताल में सैकड़ों अवैध किडनी ट्रांसप्लांट किए गए। गरीब लोगों को लालच या धोखे से उनकी किडनी निकाल ली जाती थी और विदेशियों से मोटी रकम लेकर उनका ट्रांसप्लांट किया जाता था। यह रैकेट इतना बड़ा था कि पुलिस को सीमा पार नेपाल तक जाकर आरोपी को पकड़ना पड़ा। इस स्कैंडल ने गुरुग्राम के हेल्थ सेक्टर की छवि पर गहरा दाग छोड़ा।

 

महिलाओं के खिलाफ अपराध भी चिंता का विषय हैं। हरियाणा की महिला अपराध दर दिल्ली के बाद दूसरी सबसे ज्यादा है और गुरुग्राम इसका अहम हिस्सा है। कई बार शहर के सबसे पॉश इलाकों से भी छेड़छाड़, पीछा करने या घरेलू हिंसा के केस सामने आते हैं- जो यह दिखाता है कि शहर की चकाचौंध हर किसी के लिए सुरक्षित नहीं है। इसके अलावा रैश ड्राइविंग और एक्सिडेंट से जुड़े वीडियोज़ भी अक्सर गुरुग्राम से वायरल होते रहे हैं और अक्सर नशे में धुत्त इन रईसज़ादों की कार का शिकार कोई आम शख्स बन जाता है।

 
सांप्रदायिक तनाव से झुलसता गुरुग्राम 

 

ग्ररू ग्राम की एक और डार्क साइड है साम्प्रदायिक तनाव और सामाजिक खाइयां, जो वक्त के साथ और गहरी होती जा रही हैं। 2018 में कुले में नमाज़ पढ़ने को लेकर हिंदू संगठनों ने इसका विरोध किया जिसके चलते गुरुग्राम में सामाजिक तनाव बढ़ने लगा था। इन घटनाओं के वीडियोज़ भी सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुए थे जिसके बाद से ही दोनों समुदायों में दूरी बढ़ने लगीं। साल 2021 में एक और घटना ने ज़ख्म को और गहरा कर दिया- जब एक वीडियो में पुलिस अधिकारी को नमाज़ अदा कर रहे लोगों को लात मारते देखा गया। इसने न सिर्फ़ पुलिस की निष्पक्षता पर सवाल खड़े किए, बल्कि शहर की सहिष्णु छवि पर भी धब्बा लगाया।

 

साल 2023 में नूंह जिले में भड़की हिंसा जब गुरुग्राम तक पहुंची तो हालात और बिगड़ गए। धार्मिक शोभायात्रा के दौरान भड़की हिंसा में कई जाने गईं और गुरुग्राम के कुछ इलाकों में समुदाय विशेष की दुकानों पर हमले किए गए और आगज़नी की घटनाएं भी सामने आईं। सेक्टर 70A में मस्जिद के इमाम की हत्या और मोहल्लों में चिपकाए गए धमकी भरे पोस्टर ने डर का माहौल और बढ़ा दिया। इन घटनाओं ने दिखाया कि गुरुग्राम की ऊपरी चमक के नीचे सांप्रदायिक तनाव भी जगह बना रहा था।
 
हालांकि, इस दौरान एकता की मिसाल भी देखने को मिली जब साल 2018 में गुरुग्राम नागरिक एकता मंच द्वारा आयोजित एक अंतर धार्मिक इफ्तार ने इंसानियत की एक खूबसूरत मिसाल पेश की। इस आयोजन में शामिल थे यशपाल सक्सेना, जिनके बेटे अंकित की हत्या महज़ इसलिए कर दी गई थी क्योंकि वह एक मुस्लिम लड़की से प्यार करता था लेकिन यशपाल ने नफ़रत के बदले माफ़ी और समझदारी को चुना। उन्होंने कहा, 'मैं नहीं चाहता कि मेरे बेटे की मौत को साम्प्रदायिक रंग दिया जाए।' उनका यह कदम एक मजबूत संदेश बन गया कि ज़ख्मों को नफ़रत नहीं, इंसानियत से भरा जा सकता है।

 

गुरुग्राम की कहानी सिर्फ ग्लास टॉवर्स और ट्रैफिक जाम की नहीं है। यह उस संघर्ष की भी कहानी है, जहां लोग सामाजिक तनाव से जूझते हुए भी भाईचारे की उम्मीद बनाए रखते हैं। चुनौतियां हैं, फर्क भी है लेकिन साथ ही ऐसे लोग भी हैं जो नफरत के बीच मोहब्बत की ज़मीन तैयार कर रहे हैं। शायद इसी में इस शहर की असली ताकत छिपी है।

 
सिनेमा के पर्दे पर कैसा दिखता है गुरुग्राम?

 

यहां हम दो फिल्मों का ज़िक्र करना चाहते हैं- पहली अरविंद अडिगा की किताब 'द व्हाइट टाइगर' पर बनी फिल्म 'द व्हाइट टाइगर' और दूसरी 'NH10'- ये दोनों फिल्में हमें बताती है कि गुरुग्राम की असल तस्वीर सिर्फ इमारतों में नहीं आस पास के इलाकों में भी है। 'द व्हाइट टाइगर' की कहानी बलराम हलवाई की है, जो बिहार के एक छोटे गांव से निकलकर गुरुग्राम आता है, बलराम, जो अपने अमीर मालिक अशोक का ड्राइवर बनता है, रोज़ उस खाई को महसूस करता है जो एक अमीर और एक ग़रीब के बीच है। दिनभर वह मालिक की सेवा करता है, उनके साथ चलता है लेकिन बराबरी कभी महसूस नहीं कर पाता।

 

गुरुग्राम में बलराम जैसे हजारों लोग हैं- बिहारी, ओड़िया, यूपी से आए मज़दूर और ड्राइवर-जो इस शहर की मशीनरी को चलाते हैं लेकिन खुद मशीन का पेंच बने रहते हैं। DLF फेज़ 1, 2 और 3 में बने बड़े-बड़े बंगलों में रहने वाले लोगों की ज़िंदगी और नाथूपुर जैसी कॉलोनियों में रहने वालों की ज़िंदगी एक ही शहर में होते हुए भी दो अलग-अलग दुनियाओं जैसी लगती है और इस व्यवस्था को चुनौती देने की गलती में बलराम अपने मालिक का ही कत्ल कर देता है। अडिगा इस कहानी के ज़रिए हमें दिखाते हैं कि गुरुग्राम सिर्फ़ एक स्मार्ट सिटी नहीं है, यह असमानता की एक जीती-जागती मिसाल है।

 

दूसरी तरफ, फिल्म 'NH10' गुरुग्राम की एक और परत को सामने लाती है। फिल्म की शुरुआत होती है मीरा और अर्जुन से-एक शहरी, पढ़े-लिखे, मॉडर्न कपल जो एक रोड ट्रिप पर निकलते हैं। शुरू में सब कुछ ठीक लगता है लेकिन जैसे ही वह NH10 हाइवे पर एक गांव के पास रुकते हैं, कहानी एकदम बदल जाती है। वह एक ऑनर किलिंग के गवाह बन जाते हैं और धीरे-धीरे उस गांव की सच्चाई में फंसते चले जाते हैं। ये गांव गुरुग्राम के बिल्कुल पास है लेकिन यहां की सोच सदियों पुरानी है-जहां खाप पंचायतें आज भी कानून से ऊपर हैं और जात-पात के नाम पर जान लेना इन्हें आम बात लगती है।

 

इस फिल्म में गुरुग्राम के दो चेहरे दिखते हैं- एक वह जिसमें मीरा और अर्जुन जैसे लोग रहते हैं, जिनकी ज़िंदगी कॉर्पोरेट ऑफिस, कैफे और ट्रैफिक सिग्नलों के बीच चलती है और दूसरा वह, जहां पुराने नियम और पितृसत्तात्मक सोच आज भी हावी है। मीरा जैसे लोग सोचते हैं कि वह इन सबसे दूर हैं लेकिन असलियत यह है कि यह दोनों दुनिया एक-दूसरे से बहुत ज़्यादा दूर नहीं हैं। बस एक हाइवे का फर्क है और कभी-कभी वह हाइवे भी काफी नहीं होता।

 

इन कहानियों का मकसद सिर्फ़ मनोरंजन नहीं है। यह हमें झकझोरती हैं, सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या तरक्की सिर्फ़ ऊंची इमारतों और मेट्रो से आती है? या फिर असली तरक्की तब होती है जब हर आदमी, चाहे वह बलराम हो या मीरा, इस शहर में सुरक्षित और बराबरी की ज़िंदगी जी सके?

 

खैर यह तो हुई फिल्मी नज़र से गुरुग्राम की तस्वीर लेकिन सोचिए एक शहर जो पूरे हरियाणा की GDP में 60% कॉन्ट्रिब्यूट करता है, वह आज भी बुनियादी ढांचे के लिए तरस रह है, जिसकी सबसे बड़ी वजह है प्लानिंग का न होना। यहां पहले गगनचुंबी इमारतें बनीं फिर इनफ्रास्ट्रक्चर पर काम शुरू हुआ और सोचिए जो शहर इतना कमाता है वहां के बुनियादी ढांचे में सुधार को लेकर कितना पैसा खर्चा जा रहा है उसका कोई स्पष्ट आंकड़ा मौजूद नहीं है। ऊपर से अब गुरुग्राम की सोसाइटीज़ के आगे एक और संकट खड़ा हो गया है कचरे के निस्तारण को लेकर, रिपोर्ट के मुताबिक बांग्लादेशियों को पकड़ने के लिए चलाई जा रही मुहिम के चलते बंगाली लेबर भी डरकर शहर से बाहर जा रही है जिसके चलते कचरा उठाने वालों की कमी हो गई है और अगर यही हाल जारी रहा तो गुरुग्राम की बड़ी-बड़ी सोसायटीज भी कचरे का ढेर बन जाएंगी, यानी कुल मिलाकर बात इतनी है कि गुरुग्राम जितना खूबसूरत बाहर से दिखाई देता है इसकी सच्चाई थोड़ी अलग है। इसी वजह से शायद सोहेल सेठ जैसे बिज़नेसमैंन और पढ़े लिखे लोग आज खुलकर इस शहर के बारे में बोलने लगे हैं और नेताओं की आंख में आंख डालकर कहते हैं- 'Gurugram is an absolute Shame on this country', तो यह थी गुरुग्राम शहर की पूरी दास्तान।

 

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