शतरंज की दुनिया पर भारत ने कैसे जमा लिया अपना कब्जा?
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• NEW DELHI 02 Aug 2025, (अपडेटेड 04 Aug 2025, 1:02 PM IST)
पिछले एक दशक में भारत ने शतरंज की दुनिया में अपनी धमक दिखाई है। भारत के कई युवा खिलाड़ी बड़े-बड़े दिग्गजों को हरा रहे हैं।

भारत में शतरंज की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
साल 1972, जगह, आइसलैंड की राजधानी रेक्याविक। दुनिया का एक ठंडा, वीरान सा कोना लेकिन उस साल यहां सियासी गर्मी उफान पर थी। वजह? शतरंज का एक मैच, जिसे कहा जा रहा था 'मैच ऑफ़ द सेंचुरी'। एक तरफ थे बोरिस स्पास्की। सोवियत संघ के वर्ल्ड चैंपियन। सोवियत सिस्टम का सबसे चमकदार चेहरा और दूसरी तरफ? रॉबर्ट जेम्स "बॉबी" फिशर। अमेरिका के ब्रुकलिन का लड़का। जीनियस, मगर उतना ही अड़ियल और तुनकमिज़ाज।
फिशर के नखरे दुनियाभर में सुर्खियां बटोर रहे थे। कभी वह कहता कि मैच की कुर्सी ठीक नहीं है। कभी शिकायत करता कि कैमरों की भिनभिनाहट से उसका ध्यान भटक रहा है और कभी इनाम की रकम को लेकर आयोजकों से भिड़ जाता। मैच शुरू होने से पहले ही रद्द होने की कगार पर पहुंच गया। फिशर ने रेक्याविक आने से ही मना कर दिया था। सोवियत खेमे में जीत का माहौल था। उन्हें लगा, यह अमेरिकी छोकरा डर गया। उन्हें बिना खेले ही वॉकओवर मिल जाएगा और पूरी दुनिया के सामने कम्युनिस्ट बुद्धि, अमेरिकी पूंजीवाद पर भारी पड़ेगी लेकिन फिर हज़ारों मील दूर, वाशिंगटन डी.सी. में एक फ़ोन की घंटी बजी। अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, हेनरी किसिंजर और बॉबी फिशर के बीच फ़ोन पर बात हुई। किसिंजर ने कहा, 'बॉबी, अमेरिका चाहता है कि तुम वहां जाओ और उस रूसी को हराओ।'
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यह कोई गुज़ारिश नहीं थी। यह एक आदेश था। शीत युद्ध के एक नए मोर्चे का ऐलान था। उस एक फ़ोन कॉल ने 64 खानों की बिसात को दो महाशक्तियों के बीच जंग के मैदान में बदल दिया था।
आज हम पढ़ेंगे शतरंज की कहानी। कैसे 64 खानों का यह खेल, दो महाशक्तियों के बीच वैचारिक जंग का सबसे बड़ा अखाड़ा बना और कैसे उस जंग का केंद्र धीरे-धीरे मॉस्को की बर्फीली गलियों से खिसककर चेन्नई के गर्म मैदानों तक पहुंच गया? शतरंज की यह कहानी महज एक खेल की कहानी नहीं है। यह सत्ता के बदलने की कहानी है। यह कहानी उस सोवियत किले की है जिसे दुनिया में कोई जीत नहीं सकता था। यह कहानी उस अकेले लड़के की है जिसने उस किले में पहली दरार डाली और यह कहानी उस देश की है, जिसने इस खेल को जन्म दिया और आज एक बार फिर इसकी सल्तनत पर काबिज़ हो रहा है तो चलिए, कहानी की शुरुआत करते हैं एकदम शुरू से।
64 खानों का सफर
आज हम जिस खेल को चेस या शतरंज के नाम से जानते हैं, उसकी कहानी शुरू होती है एक किंवदंती से। कहते हैं, करीब 1500 साल पहले, गुप्त साम्राज्य के दौर में एक राजा हुआ करता था। एक दिन उसके दरबार में एक साधारण सा, मगर बहुत ज्ञानी व्यक्ति आया। उसने राजा के सामने लकड़ी का एक बोर्ड रखा, जिस पर 64 खाने बने हुए थे और साथ में थीं कुछ मोहरें, जो चार हिस्सों में बंटी थीं—पैदल सैनिक, घुड़सवार, हाथी और रथ और इन सबके बीच में था एक राजा। यह एक बोर्ड गेम था। राजा ने खेल के नियम समझे और पहली चाल चली। जैसे-जैसे खेल आगे बढ़ा, राजा को इंटरेस्टिंग लगने लगा। राजा उस ज्ञानी से बहुत खुश हुआ। उसने कहा, 'मांगो, क्या मांगते हो? मैं तुम्हारी कोई भी इच्छा पूरी करूंगा।'
ज्ञानी ने मुस्कुराते हुए कहा, 'महाराज, मुझे ज़्यादा कुछ नहीं चाहिए। बस इस बिसात के 64 खानों को चावल के दानों से भर दीजिए। पर शर्त यह है कि पहले खाने पर आप चावल का एक दाना रखेंगे। दूसरे पर दो। तीसरे पर चार और हर अगले खाने पर पिछले खाने से दोगुने दाने रखते जाएंगे।'
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राजा ने सोचा, यह तो कुछ मुट्ठी चावल का खेल है। उसने तुरंत अपने वज़ीर को हुक्म दिया कि इस ज्ञानी की इच्छा पूरी की जाए। वज़ीर ने चावल के दाने रखवाने शुरू किए। पहला खाना, एक दाना। दूसरा, दो। आठवें खाने तक 64 दाने हुए। सोलहवें खाने तक 32 हज़ार से ज़्यादा। 32वें खाने तक पहुंचते-पहुंचते 200 करोड़ से ज़्यादा दाने हो चुके थे और दरबारियों के पसीने छूट गए। जब हिसाब लगाया गया तो पता चला कि 64वें खाने तक पहुंचने के लिए जितने चावल चाहिए, उतने तो पूरी दुनिया के अनाज के भंडारों को मिलाकर भी जमा नहीं किए जा सकते।
राजा को अपनी गलती का एहसास हुआ। उसे समझ आया कि वह जिस खेल को साधारण समझ रहा था, उसकी गहराई अथाह है। यह सिर्फ एक किंवदंती हो सकती है लेकिन एक बात इतिहासकार मानते हैं: शतरंज का जन्म भारत में ही 'चतुरंग' के नाम से हुआ। 'चतुरंग' यानी चार अंग—पैदल, घोड़े, हाथी और रथ—जो उस समय की भारतीय सेना के चार हिस्से हुआ करते थे।
इस खेल की दीवानगी भारत की मिट्टी में हमेशा से रही है। एक और मशहूर क़िस्सा लखनऊ से जुड़ा है। कहते हैं 1856 में जब अंग्रेज़ों की फ़ौज अवध के नवाब वाजिद अली शाह की सल्तनत पर क़ब्ज़ा करने के लिए लखनऊ में दाख़िल हो रही थी, तब नवाब साहब अपने एक दरबारी के साथ शतरंज की बिसात पर मशगूल थे। वह खेल में इतने डूबे थे कि उन्हें पता ही नहीं चला कि उनकी सल्तनत वाली बिसात हाथ से निकल गई। मुंशी प्रेमचंद ने शतरंज के खिलाड़ी या शतरंज की बाज़ी से हिंदी और उर्दू में कहानी लिखी, वह इसी किंवदंती को छूते हुए निकलती है। 1977 में महान फिल्मकार सत्यजीत रे ने इसपर एक फिल्म लिखी और खुद डायरेक्ट की। 1857 की क्रांति से ठीक पहले अवध में क्या चल रहा था, उस पर प्रेमचंद की कहानी और रे की फिल्म - दोनों को एक बहुत ही महीन और मानीखेज़ काम माना जाता है। बहरहाल बात यह थी कि शतरंज का खेल जटिल होकर भी कितना नशीला, कितना ध्यान खींचने वाला हो सकता है।
कहां से हुई शतरंज की शुरुआत?
हमने आपको अभी बताया कि चतुरंग की शुरुआत भारत से हुई थी लेकिन इसे इसका वर्तमान रूप ईरान में मिला। छठी सदी में जब भारतीय दूत यह खेल ईरान के शाह के दरबार में ले गए, तो वहां इसे हाथों-हाथ लिया गया। ईरान में 'चतुरंग' का नाम बदलकर 'शतरंज' हो गया। खेल का नियम वही रहा लेकिन एक ईरानी जुमला आज तक इस खेल की पहचान बना हुआ है। जब वह राजा को घेर लेते, तो चिल्लाते-'शाह मांद!' (Shah Mate!) मतलब, 'राजा असहाय है।'
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यही 'शाह मांद' बिगड़कर आज 'चेकमेट' बन गया है। ईरान के बाद सातवीं सदी में जब अरब सेनाओं ने ईरान पर फ़तह हासिल की तो शतरंज की बिसात अरब दुनिया में पहुंची। अरब के खलीफ़ा इस खेल के दीवाने हो गए। उन्होंने शतरंज पर किताबें लिखवाईं। इसकी रणनीतियों पर काम किया। वे अरब थे, जो इस खेल को अपने साथ उत्तरी अफ़्रीका और फिर स्पेन के रास्ते यूरोप लेकर गए। यूरोप पहुंचकर शतरंज ने एक नया रूप लिया।
सदियों तक खेल की रफ़्तार धीमी थी। राजा के बगल में जो 'वज़ीर' (जिसे ईरानी 'फ़रज़ीन' कहते थे) होता था, वह एक बार में सिर्फ़ एक क़दम चल सकता था लेकिन 15वीं सदी के आस-पास, यूरोप में खेल के नियमों में एक क्रांतिकारी बदलाव आया। कमज़ोर से वज़ीर को रानी में बदल दिया गया, जो बिसात की सबसे ताक़तवर मोहरा बन गई। वह किसी भी दिशा में कितने भी खाने चल सकती थी। इसी तरह, हाथी (जिसे अरबी में 'अल-फ़ील' कहते थे) की जगह बिशप ने ले ली। इन बदलावों ने खेल को बहुत तेज़, आक्रामक और दिलचस्प बना दिया। यह वही शतरंज था जिसे आज हम खेलते हैं।
एक खेल, जो एक भारतीय राजा का ग़म भुलाने के लिए बना था, वह ईरान के शाहों का पसंदीदा खेल बना, अरब के खलीफ़ाओं की महफ़िलों की शान बना और फिर यूरोप के शाही दरबारों तक पहुंच गया लेकिन 19वीं और 20वीं सदी तक यह खेल कुछ अमीर, शौक़ीन लोगों तक ही सीमित था। यह अभी तक जन-जन का खेल नहीं बना था और न ही यह किसी देश की ताक़त का प्रतीक बना था। यह होना अभी बाक़ी था। 20वीं सदी में एक देश इस खेल को अपनी राष्ट्रीय पहचान, अपनी विचारधारा का सबसे बड़ा हथियार बनाने वाला था और उस देश का नाम था। सोवियत संघ।
लाल बिसात
सवाल यह है कि एक नई-नई बनी कम्युनिस्ट सरकार को जिसके सामने हज़ारों दूसरी चुनौतियां थीं, एक बोर्ड गेम में इतनी दिलचस्पी क्यों थी? आखिर 64 खानों के इस खेल में ऐसा क्या था, जो इसे शीत युद्ध का इतना अहम मोर्चा बना रहा था? इसका जवाब हमें 1917 की रूसी क्रांति के ठीक बाद के दौर में मिलता है। जब व्लादिमीर लेनिन के बोल्शेविकों ने सत्ता पर कब्ज़ा किया तो उनका लक्ष्य सिर्फ़ सरकार बदलना नहीं था। वह एक नया समाज, एक नया इंसान बनाना चाहते थे। एक 'होमो सोवियतिका' यानी 'नया सोवियत मानव', जो तर्क से सोचे, विज्ञान पर यक़ीन करे और अनुशासित हो।
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इस नए इंसान को गढ़ने के लिए उन्हें औज़ारों की ज़रूरत थी और शतरंज उनका सबसे पसंदीदा औज़ार बना। पुरानी, ज़ारशाही वाली आदतें—जैसे ताश खेलना, शराब पीना—बुर्जुआ यानी पूंजीवादी मानी गईं। उनकी जगह शतरंज को बढ़ावा दिया गया। क्यों? क्योंकि यह सस्ता था, सबके लिए था और जैसा कि ख़ुद लेनिन ने कहा था, यह 'दिमाग की जिम्नास्टिक' थी। यह खेल सोवियत विचारधारा से पूरी तरह मेल खाता था। इसमें क़िस्मत का कोई काम नहीं था। सिर्फ़ तर्क, रणनीति और इच्छाशक्ति की जीत होती थी। क्रांति के कुछ ही साल बाद, 1924 में सोवियत संघ ने शतरंज को एक सरकारी मिशन बना लिया और इस मिशन का चेहरा बने-मिखाइल बोट्विनिक।
बोट्विनिक कोई आम खिलाड़ी नहीं थे, वह एक इंजीनियर थे, एक वैज्ञानिक थे। उनका मानना था कि शतरंज सिर्फ़ प्रतिभा का खेल नहीं है। इसे विज्ञान की तरह साधा जा सकता है। कठोर ट्रेनिंग, घंटों का विश्लेषण और एक फ़ौलादी अनुशासन के ज़रिए कोई भी शिखर पर पहुंच सकता है। उनका यह नज़रिया सोवियत सिस्टम के लिए एकदम परफ़ेक्ट था। डेविड शेंक अपनी किताब 'The Immortal Game' में लिखते हैं कि बोट्विनिक सोवियत शतरंज के 'पैट्रियार्क' यानी कुलपिता बन गए। उन्होंने एक ऐसा सिस्टम तैयार किया जो आने वाले कई दशकों तक दुनिया पर राज करने वाला था।
यह सिस्टम क्या था?
इसे आप एक 'चेस फ़ैक्ट्री' कह सकते हैं। इस फ़ैक्ट्री में कच्चा माल थे देश भर के लाखों बच्चे। इन बच्चों को छोटी उम्र में ही 'पायनियर पैलेस' में लाया जाता था। ये सोवियत संघ के सरकारी एक्टिविटी सेंटर थे। यहां बच्चों को शतरंज खेलना सिखाया जाता था, जिनमें थोड़ी भी प्रतिभा दिखती, उन्हें तुरंत सिस्टम का हिस्सा बना लिया जाता। उनके ऊपर देश के सबसे बेहतरीन कोचों को लगाया जाता। इन खिलाड़ियों को किसी बात की फ़िक्र नहीं थी। उन्हें नौकरी करने या पैसा कमाने की चिंता नहीं करनी थी। उनका बस एक ही काम था- शतरंज खेलना और जीतना। वह एक तरह से सरकार के मुलाज़िम थे, जिनका वेतन सोवियत संघ के गौरव को बढ़ाना था।
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इसका नतीजा यह हुआ कि सोवियत संघ ने ग्रैंडमास्टर्स की एक ऐसी फ़ौज खड़ी कर दी, जिसका दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं था। दूसरा विश्व युद्ध ख़त्म होने के बाद से लेकर 1972 में बॉबी फ़िशर के आने तक, वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप एक तरह से सोवियत संघ का घरेलू मामला बन गई थी। बोट्विनिक, स्मिस्लोव, ताल, पेट्रोसियन, स्पास्की—चैंपियन का नाम बदलता था लेकिन देश का नाम वही रहता था। सोवियत संघ। ये खिलाड़ी सिर्फ़ अपने लिए नहीं खेलते थे। David Edmonds और John Eidinow अपनी किताब 'Bobby Fischer Goes to War' में बताते हैं, सोवियत खिलाड़ी एक टीम (Team) की तरह काम करते थे। वह विदेशी विरोधियों के ख़िलाफ़ एक-दूसरे की मदद करते। कई बार तो टूर्नामेंट में आपस में जल्दी से ड्रॉ कर लेते थे, ताकि बाहरी खिलाड़ी के ख़िलाफ़ खेलने के लिए तरो-ताज़ा रहें।
यह एक लाल रंग की अभेद्य मशीन थी और हर जीत को सोवियत प्रोपेगेंडा में एक बड़ी कामयाबी की तरह पेश किया जाता। अख़बारों में सुर्खियां लगती थीं। रेडियो पर ऐलान होता था। शतरंज की बिसात पर मिली एक जीत, समाजवाद की जीत मानी जाती थी।
और हार? हार एक राष्ट्रीय अपमान थी। एक वैचारिक नाकामी। जब कोई सोवियत खिलाड़ी किसी बाहरी से हारता तो उससे पूछताछ होती थी। उसकी देशभक्ति पर सवाल उठाए जाते थे। उस पर भारी मानसिक दबाव होता था।
यह वह किला था, यह वह लाल दीवार थी, जिसे 1972 तक कोई भेद नहीं पाया था। दुनिया मान चुकी थी कि शतरंज पर सोवियत आधिपत्य तोड़ना नामुमकिन है लेकिन हर सिस्टम, चाहे वह कितना भी मज़बूत क्यों न हो, अपनी ख़ामियों के साथ आता है। सोवियत सिस्टम ने जीनियस तो बनाए लेकिन उन पर इतना दबाव डाला कि वह मशीन के पुर्ज़े बनकर रह गए और इसी मशीन से टकराने के लिए दुनिया के दूसरे कोने में एक ऐसा लड़का तैयार हो रहा था, जो किसी सिस्टम का हिस्सा नहीं था। वह ख़ुद एक सिस्टम था। एक ऐसा लड़का, जो इस लाल दीवार में एक स्थायी दरार डालने वाला था।
बॉबी फिशर vs सोवियत संघ
जैसा हमने एपिसोड की शुरुआत में ज़िक्र किया था, इस दीवार में पहली और सबसे गहरी दरार एक अमेरिकी लड़के ने डाली। बॉबी फिशर।
ब्रुकलिन की तंग गलियों में पले बड़े फिशर की पैदाइश एक बेहद ग़रीब परिवार में हुई थी। मां एक कम्युनिस्ट समर्थक थीं। 6 साल की उम्र में बॉबी की बहन ने उसे एक दुकान से लाकर शतरंज का एक सेट दिया और बस, उस दिन के बाद से उस लड़के की दुनिया हमेशा के लिए बदल गई। स्कूल, दोस्त, खेल-कूद, सब पीछे छूट गया। उसकी दुनिया अब सिर्फ़ 64 खानों में सिमट गई थी। सिर्फ़ 15 की उम्र में बॉबी फिशर दुनिया का सबसे कम उम्र का ग्रैंडमास्टर बन गया लेकिन फिशर के जीनियस होने के साथ-साथ उसके अंदर एक गहरा अविश्वास भी था। उसे लगता था कि पूरी दुनिया उसके ख़िलाफ़ है और सबसे ज़्यादा नफ़रत वह सोवियत शतरंज सिस्टम से करता था।
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उसका मानना था कि सोवियत खिलाड़ी बेईमानी करते हैं। उसने 1962 में एक मैगज़ीन में लेख लिखकर खुलेआम उन पर यह आरोप लगाया और कुछ साल के लिए टॉप-लेवल शतरंज से ख़ुद को अलग कर लिया। जब वह वापस आया तो एक तूफ़ान की तरह। 1972 के वर्ल्ड चैंपियनशिप मैच तक पहुंचने के रास्ते में उसने जो किया, वह आज भी एक किंवदंती है। उसने क्वार्टर-फ़ाइनल में ग्रैंडमास्टर मार्क टाइमानोव और सेमी-फ़ाइनल में बेंट लार्सन को 6-0 के स्कोर से हराया। बिना एक भी मैच हारे या ड्रॉ किए। टॉप लेवल के शतरंज में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। यह सिर्फ़ जीत नहीं थी। यह ऐलान-ए-जंग था और फिर आया रेक्याविक का वह ऐतिहासिक मैच।
जैसा हमने बताया, फिशर के नखरे चरम पर थे लेकिन वह सिर्फ़ नखरे नहीं थे। वह दिमागी जंग का एक हिस्सा था। उसने अपने विरोधी, बोरिस स्पास्की को मानसिक रूप से तोड़ने के लिए हर हथकंडा आज़माया। यहां तक कि दूसरा गेम खेलने ही नहीं आया और उसे हारा हुआ घोषित कर दिया गया। सबने सोचा, मैच ख़त्म। फिशर वापस जा रहा है लेकिन यह भी उसकी एक चाल थी। इस एक हरकत ने सोवियत खेमे और आयोजकों पर इतना दबाव डाल दिया कि वह फिशर की हर शर्त मानने को तैयार हो गए। मैच को एक छोटे, बंद कमरे में शिफ़्ट कर दिया गया, जहां कोई दर्शक या कैमरा नहीं था। शांत और शालीन स्वभाव के स्पास्की इस माहौल के लिए तैयार नहीं थे। फिशर ने बिसात के बाहर ही मैच जीतना शुरू कर दिया था और फिर आई वह बाज़ी, जिसे मैच का टर्निंग पॉइंट माना जाता है। गेम नंबर 6।
उस गेम में फिशर ने ऐसी जबरदस्त चालें चलीं कि जब वह जीता तो ख़ुद बोरिस स्पास्की अपनी कुर्सी से खड़े हुए और अपने विरोधी के लिए तालियां बजाईं। एक सोवियत चैंपियन, एक अमेरिकी खिलाड़ी के लिए ताली बजा रहा था, वह भी शीत युद्ध के चरम पर। आख़िरकार, 21 गेम के बाद, बॉबी फिशर वर्ल्ड चेस चैंपियन बन गया। उसने सोवियत संघ के 24 साल के एकछत्र राज को ख़त्म कर दिया था। अमेरिका में वह रातों-रात हीरो बन गया। देश में चेस का बूम आ गया। हर पार्क में, हर क्लब में लोग शतरंज खेलने लगे। यह शीत युद्ध में पश्चिम की एक बड़ी मनोवैज्ञानिक जीत थी।
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बॉबी फिशर ने वह कर दिखाया था जो नामुमकिन माना जाता था। उसने अकेले ही सोवियत शतरंज की सल्तनत को घुटनों पर ला दिया था। अमेरिका को शीत युद्ध में एक हीरो मिल गया था लेकिन दुनिया ये नहीं जानती थी कि जिस शिखर पर पहुँचने के लिए फिशर ने अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दी, वही शिखर उसकी सबसे बड़ी क़ैद बनने वाला था।
साम्राज्य का आख़िरी बादशाह
बॉबी फिशर ने सोवियत संघ की शतरंज की सल्तनत को तोड़ तो दिया लेकिन वह इस जीत के वज़न को संभाल नहीं सका। वर्ल्ड चैंपियन बनने के बाद, वह गायब हो गया। उसने 1975 में अपनी चैंपियनशिप डिफेंड करने से इनकार कर दिया और शतरंज की दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया। फिशर के जाने से जो तख़्त ख़ाली हुआ, सोवियत संघ उसे वापस पाने के लिए बेताब था और यह ताज सीधे उनके नए, लाडले चैंपियन के सिर पर जा सजा। उसका नाम था अनातोली कारपोव। कारपोव हर तरह से फिशर का उल्टा था। वह शांत था, विनम्र था और सोवियत सिस्टम का वफ़ादार सिपाही था। उसकी शैली भी सोवियत विचारधारा जैसी थी—सुरक्षित, ठोस और धीरे-धीरे विरोधी को पीस देने वाली। कारपोव के रूप में सोवियत संघ ने अपनी खोई हुई इज़्ज़त वापस पा ली थी।
उन्हें लगा, सब कुछ अब पहले जैसा हो जाएगा लेकिन वह ग़लत थे क्योंकि सोवियत चेस फ़ैक्ट्री के अंदर ही एक ऐसा लावा पक रहा था, जो जल्द ही फटने वाला था। यह लावा था गैरी कास्पारोव। अज़रबैजान के बाकू में पैदा हुआ लड़का, जो बिसात पर भूखे भेड़िये की तरह झपटता था। लोग उसे 'बीस्ट ऑफ़ बाकू' कहने लगे थे। जल्द ही, दुनिया को शतरंज के इतिहास की सबसे बड़ी दुश्मनी देखने को मिली: कारपोव बनाम कास्पारोव। यह सिर्फ़ दो खिलाड़ियों की जंग नहीं थी। यह सोवियत संघ के अंदर चल रही एक बड़ी लड़ाई का प्रतीक थी। 1984 में उनके बीच पहला वर्ल्ड चैंपियनशिप मैच शुरू हुआ। यह इतिहास का सबसे लंबा और सबसे विवादित मैच बना। 48 गेमों के बाद, जब कारपोव बुरी तरह थक चुके थे, मैच को बिना किसी नतीजे के रद्द कर दिया गया। कास्पारोव ने आरोप लगाया कि सिस्टम अपने चहेते खिलाड़ी को बचाने की कोशिश कर रहा है लेकिन वह कास्पारोव को रोक नहीं सके। 1985 में, 22 साल की उम्र में, गैरी कास्पारोव ने कारपोव को हराकर वर्ल्ड चैंपियनशिप जीत ली। वह इतिहास के सबसे कम उम्र के वर्ल्ड चैंपियन बने।
कास्पारोव सोवियत शतरंज के शिखर का प्रतीक था लेकिन विडंबना देखिए, उसी के दौर में वह सोवियत सिस्टम बिखर गया जिसने उसे बनाया था। 1991 में सोवियत संघ टूट गया। गैरी कास्पारोव, अब एक ऐसे साम्राज्य का आख़िरी बादशाह था, जो अब नक़्शे पर मौजूद नहीं था। कास्पारोव की सबसे बड़ी लड़ाई अभी बाक़ी थी। यह लड़ाई किसी इंसान से नहीं थी। यह लड़ाई थी एक मशीन से। IBM कंपनी के सुपरकंप्यूटर, डीप ब्लू से। 1996 में कास्पारोव ने मशीन को हरा दिया और साबित कर दिया कि इंसान का दिमाग़ अभी भी श्रेष्ठ है लेकिन 1997 में IBM ने डीप ब्लू का एक और ताक़तवर वर्जन तैयार किया।
वह मैच शतरंज से कहीं ज़्यादा था। वह इंसान बनाम मशीन की जंग थी। अपनी किताब 'Deep Thinking' में कास्पारोव लिखते हैं कि उन्हें उस मैच में कुछ अजीब महसूस हुआ। उन्हें लगा कि मशीन कुछ ऐसी चालें चल रही है जो सिर्फ़ एक इंसान ही सोच सकता है। उन्हें शक हुआ कि IBM की टीम पर्दे के पीछे से मशीन की मदद कर रही है। इस मानसिक दबाव में आख़िरी और निर्णायक गेम में कास्पारोव टूट गए। उन्होंने एक ऐसी ग़लती की जो वह शायद सामान्य हालात में कभी नहीं करते और मैच हार गए। यह सिर्फ़ कास्पारोव की हार नहीं थी। यह एक युग का अंत था। सोवियत संघ की लाल बिसात इतिहास बन चुकी थी। अब सवाल यह था कि इस ख़ाली हुई सल्तनत पर अगला बादशाह कौन होगा? दुनिया को पता नहीं था कि जवाब मॉस्को या न्यूयॉर्क से नहीं, बल्कि दक्षिण भारत के एक शहर, मद्रास से आने वाला है।
मद्रास का टाइगर
गैरी कास्पारोव की हार के बाद शतरंज की दुनिया में एक ख़ालीपन आ गया था। एक सत्ता का शून्य। कुछ समय के लिए व्लादिमीर क्रैमनिक जैसे रूसी खिलाड़ियों ने इस ताज को संभाले रखा लेकिन वह पुराना दबदबा, वह एकछत्र राज अब ख़त्म हो चुका था। दुनिया एक नए बादशाह, एक नई दिशा का इंतज़ार कर रही थी और वह दिशा, वह जवाब, दुनिया के उस कोने से आया जहां से सदियों पहले इस खेल की शुरुआत हुई थी। भारत। शहर था मद्रास, जिसे अब हम चेन्नई कहते हैं और खिलाड़ी का नाम था विश्वनाथन आनंद जिसे दुनिया प्यार से 'विशी' बुलाती है।
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विशी की कहानी सोवियत खिलाड़ियों से बिल्कुल अलग थी। उन्हें किसी सरकारी 'पायनियर पैलेस' में ट्रेनिंग नहीं मिली थी। अपनी किताब 'माइंड मास्टर' में आनंद बताते हैं कि उनकी पहली गुरु उनकी मां, सुशीला थीं। यह एक ऐसी प्रतिभा थी जो किसी सरकारी सिस्टम में नहीं, बल्कि एक परिवार के प्यार और सहारे से पनप रही थी और आनंद का खेलने का तरीक़ा भी सबसे जुदा था। सोवियत स्कूल के खिलाड़ी घंटों सोचकर, गहरी और ठोस चालें चलते थे। आनंद इसके ठीक उलट थे। वह बिजली की तेज़ी से सोचते थे। उनकी उंगलियां बिसात पर किसी तूफ़ान की तरह चलती थीं। विरोधी जब तक पहली चाल का असर समझते, आनंद अपनी अगली तीन चालें सोच चुके होते थे।
इसी रफ़्तार की वजह से दुनिया ने उन्हें नाम दिया—'द लाइटनिंग किड'। वह भारत के पहले ग्रैंडमास्टर बने। उन्होंने वर्ल्ड जूनियर चेस चैंपियनशिप जीती। यह वह पहली आहट थी, जो दुनिया को बता रही थी कि शतरंज का भविष्य बदल रहा है लेकिन वर्ल्ड चैंपियन बनना एक लंबा और मुश्किल सफ़र था। आनंद को उन्हीं खिलाड़ियों से लड़ना था, जिनकी कहानियां सुनकर वह बड़े हुए थे—कारपोव (Karpov) और कास्पारोव। उन्होंने दशकों तक चले आ रहे रूसी दबदबे को चुनौती दी और आख़िरकार, साल 2000 में उन्होंने अपना पहला FIDE वर्ल्ड चैंपियनशिप का ख़िताब जीता। यह भारत और पूरे एशिया के लिए एक ऐतिहासिक पल था। बॉबी फिशर के बाद, वह पहले गैर-रूसी खिलाड़ी थे जिन्होंने इस शिखर को छुआ था।
इसके बाद, 2007 से लेकर 2013 तक, आनंद शतरंज की दुनिया के निर्विवाद बादशाह बने रहे। उन्होंने अलग-अलग फॉर्मेट में चैंपियनशिप जीती, जो उनकी काबिलियत का सबूत था। उन्होंने क्रैमनिक और टोपालोव जैसे दिग्गजों को हराकर अपने ताज की हिफ़ाज़त की लेकिन आनंद की विरासत सिर्फ़ उनकी जीती हुई ट्रॉफियों में नहीं है। उनकी असली विरासत है 'द आनंद इफ़ेक्ट'। उनकी सफलता ने भारत में एक क्रांति ला दी। लाखों बच्चों ने, जिन्होंने कभी शतरंज की बिसात को छुआ नहीं था, अब विशी आनंद बनने का सपना देखने लगे। आनंद ने यह साबित कर दिया था कि वर्ल्ड चैंपियन बनने के लिए आपको रूस या यूरोप में पैदा होने की ज़रूरत नहीं है। आप भारत के एक आम मध्यमवर्गीय परिवार से आकर भी दुनिया जीत सकते हैं। उनकी एक जीत ने देश में हज़ारों चेस अकादमियां खुलवा दीं। उन्होंने वह ज़मीन, वह इकोसिस्टम तैयार किया, जिस पर आज की युवा पीढ़ी की फ़सल लहलहा रही है।
कहानी का एक अहम मोड़ 2013 में आया। वर्ल्ड चैंपियनशिप का मैच आनंद के अपने शहर, चेन्नई में हो रहा था और उनके सामने था एक नया, नौजवान चैलेंजर—नॉर्वे का मैग्नस कार्लसन। आनंद वह मैच हार गए। उन्होंने अपना ताज अपने ही घर में खो दिया लेकिन यह एक अंत नहीं था। यह एक तरह से मशाल को आगे बढ़ाने जैसा था। आनंद ने हार को बेहद शालीनता से स्वीकार किया। वह फिशर की तरह गायब नहीं हुए, न ही कास्पारोव की तरह कड़वाहट से भरे। वह खेल के एक सम्मानित 'एल्डर स्टेट्समैन' बने रहे।
शतरंज का मोज़ार्ट
2013 में चेन्नई में जब विश्वनाथन आनंद ने अपना ताज गंवाया, तो वह सिर्फ़ एक खिलाड़ी की हार नहीं थी। वह एक पीढ़ी का बदलना था। आनंद ने जिस मशाल को जलाया था, उसे थामने के लिए एक नया हाथ आगे बढ़ चुका था। यह हाथ था नॉर्वे के एक 22 साल के लड़के का। मैग्नस कार्लसन। नॉर्वे, एक ऐसा देश जिसका शतरंज के इतिहास में कोई बड़ा नाम नहीं था। यह बात अपने आप में एक बड़ा संकेत थी। शतरंज की सत्ता अब किसी एक देश या एक सिस्टम की जागीर नहीं रही थी। वह सोवियत संघ और अमेरिका की राजनीतिक जंग से निकलकर, आनंद के ज़रिए ग्लोबल हो चुकी थी और कार्लसन उसी ग्लोबल युग का पहला सुपरस्टार था।
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शतरंज की दुनिया ने उसे बहुत पहले ही पहचान लिया था। उसे 'शतरंज का मोज़ार्ट' कहा जाता था क्योंकि जैसे मोज़ार्ट के लिए संगीत था, वैसे ही मैग्नस के लिए शतरंज था—एक स्वाभाविक, सहज कला लेकिन कार्लसन हर पिछले चैंपियन से एक मामले में बिल्कुल अलग था। वह शतरंज का पहला 'डिजिटल नेटिव' चैंपियन था। कास्पारोव और आनंद ने कंप्यूटर को एक टूल की तरह इस्तेमाल करना सीखा था लेकिन मैग्नस कार्लसन उस पीढ़ी का था जो कंप्यूटर और इंटरनेट के साथ ही बड़ी हुई थी। उसने सोवियत खिलाड़ियों की तरह मोटी-मोटी किताबों को रटने से ज़्यादा, इंटरनेट पर हज़ारों गुमनाम विरोधियों के साथ ब्लिट्ज़ और बुलेट गेम खेलकर ख़ुद को तराशा था। इसका असर उसके खेल पर साफ़ दिखता था।
सोवियत स्कूल की पहचान थी ओपनिंग की गहरी थ्योरी। कार्लसन का फ़ोकस कहीं और था। वह अक्सर शुरुआत में कोई साधारण सी चाल चलता था, जिससे उसे बस थोड़ी सी बढ़त मिल जाए और फिर, खेल के बीच में या अंत में वह अपनी कंप्यूटर जैसी précision (सटीकता) और पेशंस से विरोधी को धीरे-धीरे निचोड़ देता था। जैसे कोई एनाकोंडा अपने शिकार को जकड़ता है। यह शतरंज का एक नया, बेहद असरदार और क्रूर अंदाज़ था। कार्लसन सिर्फ़ बिसात का बादशाह नहीं बना। वह एक ग्लोबल ब्रांड बन गया। उसने बड़ी-बड़ी फ़ैशन कंपनियों के लिए मॉडलिंग की। टीवी शो पर आया और 'प्ले मैग्नस ग्रुप' नाम की अपनी कंपनी खड़ी की, जो बाद में अरबों की कंपनी बनी। कार्लसन शतरंज का पहला ऐसा खिलाड़ी था जो टाइगर वुड्स या रॉजर फ़ेडरर की तरह एक कमर्शियल सेलिब्रिटी बना।
एक दशक तक उसने वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप पर एकछत्र राज किया और फिर, 2023 में उसने एक ऐसा फ़ैसला लिया जिसने पूरी दुनिया को चौंका दिया। उसने अपनी मर्ज़ी से वर्ल्ड चैंपियनशिप का ख़िताब छोड़ने का ऐलान कर दिया।
क्यों? उसका कहना था कि उसे अब लंबे, कई हफ़्तों तक चलने वाले क्लासिकल मैचों में कोई मज़ा नहीं आता। वह थक चुका है। उसे खेल के तेज़ फ़ॉर्मेट, रैपिड और ब्लिट्ज़ ज़्यादा पसंद हैं, जहां वह आज भी दुनिया का बादशाह है।
नई सुबह, नया सूरज
मैग्नस कार्लसन ने ताज छोड़कर जो दरवाज़ा खोला था, दुनिया की नज़रें इस बात पर थीं कि शतरंज का अगला बादशाह कौन होगा लेकिन जवाब किसी एक नाम में नहीं, बल्कि एक पूरी लहर में आया। एक ऐसी लहर जो भारत के तटों से उठ रही है।
यह विशी आनंद के बाद की पीढ़ी है। नाम सुनिए- डी. गुकेश, आर. प्रज्ञानानंदा, अर्जुन एरिगैसी और निहाल सरीन। यह क्रांति सिर्फ़ लड़कों तक सीमित नहीं है। इसी क़तार में हैं वैशाली रमेशबाबू, जो दुनिया की बेहतरीन महिला खिलाड़ियों में से एक हैं और प्रज्ञानानंद की बहन भी और फिर हैं तानिया सचदेव, जिन्होंने न सिर्फ़ अपने आक्रामक खेल से नाम कमाया, बल्कि चेस कमेंट्री को भारत में कूल बना दिया। उनके बिंदास अंदाज़ और बेख़ौफ़ सवालों ने शतरंज को एक नए दर्शक वर्ग तक पहुंचाया। इसी मिली-जुली ताक़त का नतीजा था कि 2020 में भारत ने ऑनलाइन ओलंपियाड में अमेरिका, रूस और चीन जैसी महाशक्तियों को हराकर गोल्ड मेडल जीता।
ये सिर्फ़ कुछ नाम हैं। इनके पीछे हज़ारों की तादाद में ऐसे बच्चे और नौजवान हैं, जो दुनिया के किसी भी ग्रैंडमास्टर को हराने का दम रखते हैं। इस क्रांति का सबसे बड़ा सबूत दुनिया ने अप्रैल 2024 में देखा। कनाडा के टोरंटो शहर में FIDE कैंडिडेट्स टूर्नामेंट हो रहा था। यह शतरंज का सबसे मुश्किल टूर्नामेंट माना जाता है। इसे जीतने वाला ही वर्ल्ड चैंपियन को चुनौती देता है। उस टूर्नामेंट में भारत के तीन खिलाड़ी हिस्सा ले रहे थे—गुकेश, प्रज्ञानानंद और विदित गुजराथी। यह अपने आप में भारत के बढ़ते दबदबे का सबूत था। पूरी दुनिया की नज़रें इस पर टिकी थीं और तब, सिर्फ़ 17 साल की उम्र में, डी. गुकेश ने इतिहास रच दिया।
उन्होंने वह टूर्नामेंट जीत लिया। वह गैरी कास्पारोव का दशकों पुराना रिकॉर्ड तोड़कर, वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप को चुनौती देने वाले इतिहास के सबसे कम उम्र के खिलाड़ी बन गए। यह सिर्फ़ एक लड़के की जीत नहीं थी। यह 'नए भारत' की जीत थी। यह उस सिस्टम की जीत थी जिसे आनंद ने अपनी मेहनत से सींचा था लेकिन गुकेश का सफ़र यहीं ख़त्म नहीं होना था। कैंडिडेट्स जीतना तो शिखर की चढ़ाई का आख़िरी पड़ाव था। असली इम्तिहान तो दुनिया के सबसे बड़े मंच पर होना था और उस मंच पर गुकेश ने वह कर दिखाया जिसका सपना हर भारतीय देख रहा था।
भारत लिख रहा नई कहानी
डी. गुकेश नए वर्ल्ड चेस चैंपियन बने। चतुरंग का खेल, जो हज़ारों साल पहले भारत में जन्मा था, उसका सबसे बड़ा ताज एक बार फिर घर लौट आया था। मगर कहानी यहां ख़त्म नहीं हुई बल्कि यहां से शतरंज की सबसे नई और शायद सबसे दिलचस्प दुश्मनी की शुरुआत हुई।
यह जंग है, ताज पहने हुए बादशाह, गुकेश और बिना ताज के सुल्तान मैग्नस कार्लसन के बीच।
इस टक्कर की पहली चिंगारी दुनिया ने नॉर्वे चेस 2025 में देखी। वहां एक क्लासिकल गेम में गुकेश ने मैग्नस कार्लसन को हराया। यह हार कार्लसन के लिए इतनी नागवार गुज़री कि उन्होंने ग़ुस्से में टेबल पर हाथ पटक दिया। दुनिया के सबसे शांत और संयमित खिलाड़ी का ऐसा रूप बहुत कम देखने को मिलता है। यह इस बात का सबूत था कि 18 साल का यह भारतीय लड़का अब दुनिया के नंबर एक खिलाड़ी के दिमाग़ पर असर डालने लगा था। इसके बाद आया क्रोएशिया में ग्रैंड चेस टूर 2025। टूर्नामेंट से पहले, कार्लसन ने दिमागी खेल शुरू कर दिया। उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा कि वह गुकेश को टूर्नामेंट के सबसे कमज़ोर खिलाड़ियों में से एक मानकर खेलेंगे। उन्होंने गुकेश की रैपिड और ब्लिट्ज़ खेलने की क्षमता पर सवाल उठाए।
यह एक सीधी चुनौती थी। टूर्नामेंट शुरू हुआ तो गुकेश ने रैपिड सेक्शन में धूम मचा दी। उन्होंने न सिर्फ़ कार्लसन को हराया, बल्कि एक बड़ी बढ़त भी बना ली लेकिन फिर आया ब्लिट्ज़ का तूफ़ान। यहां कार्लसन ने दिखाया कि उन्हें GOAT (Greatest of All Time) क्यों कहा जाता है। कार्लसन ने ज़बरदस्त वापसी की और आख़िर में टूर्नामेंट अपने नाम कर लिया। जीत के बाद कार्लसन ने माना कि वह अपना सर्वश्रेष्ठ खेल नहीं खेल रहे थे लेकिन उन्होंने कहा, 'जब दूसरे खिलाड़ी असाधारण प्रदर्शन न करें तो मेरा साधारण खेल भी जीतने के लिए काफ़ी होता है।'
यह इस बात का ऐलान था कि भले ही चेस का ताज गुकेश ने सिर पर हो लेकिन सल्तनत पर आज भी कार्लसन का ही राज है। शतरंज की कहानी आज एक रोमांचक दोराहे पर खड़ी है। एक तरफ़ है भारत का युवा वर्ल्ड चैंपियन, डी. गुकेश। जो शांत है, मेहनती है और दुनिया के सबसे मुश्किल खिलाड़ी को हराने का जज़्बा रखता है। दूसरी तरफ़ है नॉर्वे का मैग्नस कार्लसन। एक ऐसा खिलाड़ी जो ताज की परवाह किए बिना, अपनी शर्तों पर खेलता है। यह सिर्फ़ दो खिलाड़ियों की जंग नहीं है। यह दो पीढ़ियों, दो शैलियों और शतरंज के भविष्य की लड़ाई है। क्या गुकेश क्लासिकल शतरंज के साथ-साथ तेज़ फ़ॉर्मेट में भी कार्लसन के दबदबे को तोड़ पाएगा? या कार्लसन यह साबित करते रहेंगे कि जब तक वह खेल रहे हैं, दुनिया में सिर्फ़ एक ही किंग है? कहानी का अंत अभी नहीं हुआ है। एक नया अध्याय बस शुरू हुआ है और दुनिया सांस रोके देख रही है कि इस नई, सबसे बड़ी दुश्मनी का अगला अध्याय क्या होगा।
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