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कंपनियों के अधिग्रहण के लिए बैंक से लोन मिलने का क्या होगा असर?

हाल ही में स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने रिजर्व बैंक से कहा है कि बैंकों को किसी कंपनी के अधिग्रहण के लिए फंडिंग करने की छूट होनी चाहिए। जानते हैं कि इसके क्या प्रभाव हो सकते हैं।

Representational Image । Photo Credit: PTI

प्रतीकात्मक तस्वीर । Photo Credit: PTI

कोई भी व्यापार अगर हमें शुरू करना होता है तो हम ज्यादातर किसी बैंक से लोन लेते हैं, लेकिन अगर कोई बड़ी कंपनी किसी अन्य कंपनी को खरीदना चाहती है या उसका अधिग्रहण करना चाहती है अभी तक के नियमों के मुताबिक वह ऐसा नहीं कर सकती। इसीलिए भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) से मांग की है कि घरेलू बैंकों को सीधे M&A (Merger & Acquisition – विलय और अधिग्रहण) डील्स को फंड करने की अनुमति दी जाए। अभी तक भारतीय बैंक नियमों के चलते कंपनियों को सीधे इस तरह के सौदों के लिए कर्ज नहीं दे सकते। ज़्यादातर M&A डील्स की फंडिंग विदेशी बैंकों या प्राइवेट इक्विटी फंड्स के जरिए होती है।

 

सवाल यह है कि अगर यह छूट मिल जाती है, तो इसका असर केवल कंपनियों या कॉरपोरेट हाउसेज़ तक सीमित रहेगा या आम आदमी की जिंदगी पर भी पड़ेगा? दरअसल, M&A डील्स सिर्फ दो कंपनियों के बीच के समझौते नहीं होते, बल्कि ये रोज़गार, बाज़ार में प्रतिस्पर्धा, उपभोक्ता कीमतें, बैंकिंग सेवाओं और निवेश माहौल तक सब कुछ प्रभावित करते हैं। अगर भारतीय बैंक इसमें उतरते हैं तो यह आंकड़ा तेजी से बदल सकता है। लेकिन इसके साथ कई सवाल भी खड़े होंगे—क्या इससे बैंकों पर अतिरिक्त जोखिम बढ़ेगा? क्या उपभोक्ता को फायदा होगा या नुकसान? क्या इससे रोजगार पैदा होंगे या खत्म होंगे?

 

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इसी पृष्ठभूमि में खबरगांव आपको बताएगा कि इस संभावित नीति को अगर रिजर्व बैंक स्वीकार करता है तो इसका क्या असर पड़ेगा?

रोजगार के अवसरों पर असर

M&A डील्स का सीधा असर नौकरी बाज़ार पर होता है। उदाहरण के लिए, 2018 में वोडाफोन-आइडिया के विलय के बाद लाखों उपभोक्ताओं को बेहतर नेटवर्क सुविधा मिली, लेकिन कंपनी ने खर्च घटाने के लिए हजारों कर्मचारियों की छंटनी भी की। यही दोहरा असर किसी भी अधिग्रहण में दिख सकता है।

 

अगर बैंक फंडिंग से M&A डील्स आसान हो जाती हैं, तो कंपनियां अधिग्रहण के बाद तेजी से विस्तार करेंगी। इससे आईटी, फाइनेंस, रिटेल और मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर में नई नौकरियां बन सकती हैं। दूसरी तरफ, कंपनियां कॉस्ट कटिंग के नाम पर कर्मचारियों की संख्या घटाकर अपने मुनाफे को प्राथमिकता भी दे सकती हैं।

 

आम आदमी के लिए इसका मतलब है कि नौकरी के अवसरों में अस्थिरता बढ़ सकती है। जहां एक तरफ नई नौकरियों की संभावना होगी, वहीं नौकरी खोने का डर भी बना रहेगा।

कीमतों पर असर

जब किसी सेक्टर में कई कंपनियां होती हैं तो प्रतिस्पर्द्धा अधिक होती है और उपभोक्ताओं को बेहतर कीमत और सेवाएं मिलती हैं। लेकिन अगर बड़ी कंपनियां बैंक कर्ज के दम पर छोटे खिलाड़ियों को खरीद लेंगी, तो कुछ सेक्टरों में मोनोपॉली (एकाधिकार) या डुओपॉली (दो कंपनियों का दबदबा) बन सकती है।

 

उदाहरण के लिए, टेलीकॉम सेक्टर में रिलायंस जियो के आने के बाद M&A डील्स की बाढ़ आई। कई छोटी कंपनियां बड़ी कंपनियों में विलीन हो गईं। शुरुआती दौर में उपभोक्ताओं को सस्ते डेटा और कॉल दरों का लाभ मिला, लेकिन धीरे-धीरे प्रतिस्पर्धा घटने से कीमतों में बढ़ोतरी भी देखी गई।

 

इसलिए, अगर बैंकों को M&A फंडिंग की अनुमति मिलती है, तो आम आदमी के लिए सेवाओं और उत्पादों की कीमतें बढ़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।

बैंकों की स्थिरता

बैंकों के लिए M&A डील्स में पैसा लगाना जोखिम भरा हो सकता है। ये सौदे अक्सर अरबों डॉलर के होते हैं और लंबे समय तक पैसा फंसा रहता है। अगर किसी डील में गड़बड़ी हो गई या कंपनी अधिग्रहण के बाद कर्ज नहीं चुका पाई, तो बैंक की बैलेंस शीट पर सीधा असर पड़ेगा।

 

इसका असर आम ग्राहकों तक पहुंचता है। जब बैंक का मुनाफा घटता है तो वे इसकी भरपाई लोन महंगे करके, ब्याज दरें घटाकर या अतिरिक्त चार्ज लगाकर करते हैं। 2008 की वैश्विक मंदी में अमेरिका और यूरोप के बैंकों ने यही किया था।

 

भारत में अगर ऐसा हुआ तो आम आदमी को महंगे होम लोन, बढ़े हुए सर्विस चार्ज और कम सेविंग ब्याज दर जैसी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।

छोटे निवेशक

M&A डील्स का असर शेयर बाजार पर हमेशा सीधा होता है। किसी कंपनी के अधिग्रहण की खबर आने पर उसके शेयर तेजी से चढ़ सकते हैं, जबकि दूसरी कंपनी के शेयर गिर सकते हैं। अगर बैंक इस प्रक्रिया में पैसा लगाएंगे, तो शेयर बाजार की हलचल और भी तेज होगी।

 

छोटे निवेशकों (Retail Investors) के लिए यह अवसर और खतरा दोनों है। जिन कंपनियों के शेयर बढ़ेंगे, वहां उन्हें मुनाफा होगा। लेकिन गलत समय पर निवेश करने पर भारी नुकसान भी हो सकता है।

 

यानी M&A फंडिंग की अनुमति मिलने से शेयर बाजार में अस्थिरता बढ़ सकती है, और आम आदमी का निवेश और भी ज्यादा रिस्की हो जाएगा।

बेहतर सर्विस

एक सकारात्मक पहलू यह भी है कि बड़ी कंपनियां अधिग्रहण के बाद अक्सर बेहतर मैनेजमेंट, टेक्नॉलजी और इंफ्रास्ट्रक्चर लेकर आती हैं। इसका फायदा उपभोक्ताओं को मिलता है।

उदाहरण के लिए, एयर इंडिया के टाटा समूह द्वारा अधिग्रहण के बाद एयरलाइन की सेवा गुणवत्ता में सुधार दिख रहा है। इसी तरह अगर बैंक फंडिंग से कंपनियों को अधिग्रहण आसान होगा, तो उपभोक्ताओं को अधिक आधुनिक सेवाएं और बेहतर विकल्प मिल सकते हैं। इसका मतलब है कि आम आदमी को सिर्फ नुकसान ही नहीं, बल्कि फायदा भी हो सकता है।

 

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विदेशी पूंजी पर घटेगी

अभी तक M&A डील्स में ज्यादातर पैसा विदेशी बैंकों और प्राइवेट इक्विटी फंड्स से आता है। अगर भारतीय बैंक इस क्षेत्र में उतरते हैं तो कंपनियां घरेलू पूंजी पर निर्भर होंगी। इससे देश का पैसा भारत में ही घूमेगा और सरकार को टैक्स और विकास योजनाओं के लिए ज्यादा संसाधन मिलेंगे।

 

आम आदमी के लिए इसका अप्रत्यक्ष लाभ यह होगा कि सरकार के पास शिक्षा, स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के लिए ज्यादा संसाधन होंगे।

क्या होना चाहिए

SBI की यह मांग भारतीय बैंकिंग सेक्टर और कॉरपोरेट दुनिया में बड़ा बदलाव ला सकती है। लेकिन यह बदलाव आम आदमी की जिंदगी पर भी असर डालेगा—नौकरी के अवसरों से लेकर जेब पर बोझ तक।

 

जहां एक तरफ इससे घरेलू पूंजी मज़बूत होगी, सेवाओं की गुणवत्ता बेहतर होगी और सरकार को नए संसाधन मिलेंगे, वहीं दूसरी तरफ नौकरी की अस्थिरता, महंगी सेवाएं और बैंकिंग चार्जेज़ बढ़ने की संभावना भी बनी रहेगी।

 

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