कहानी शोले की, जिसने सिनेमा की तकदीर बदल दी
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• NEW DELHI 27 Jul 2025, (अपडेटेड 27 Jul 2025, 12:15 AM IST)
शोले उस दौर में आई थी, जब बॉलीवुड में फिल्मों का क्रेडिट, निर्देशक और हीरो मार ले जाते थे। शोले के बाद नजरिया ही बदल गया था। पढ़िए सत्यम तिवारी और पल्लव गोयल का लिखा यह किस्सा।

शोले की कहानी। (Photo Credit: Khabargaon)
1970 का दशक, हिंदी सिनेमा के उस दौर के नाम रहा, जब कई क्रांतिकारी फिल्में बनी। बॉलीवुड ने कई हिट पर हिट मल्टी स्टारर फिल्में दीं। यह, वह दौर था जब फिल्मों में हिंसक दृश्य खूब दिखाए जाते थे, गाने ऐसे बने कि आज तक कॉफी टेबल पर होने वाली बातचीत में उनका जिक्र होता है। रोडवेज बसों और ऑटो में भी इस दौर के गाने खूब बजते हैं। 1970 ने फिल्म जगत को क्या नहीं दिया?
यह वही दौर था जब सिनेमा की दुनिया में एक नया सितारा उभरा, जिसे एंग्री यंग मैन का नाम मिला। डायलॉग लिखे गए कि 'जब तक बैठने को न कहा जाए शराफत से खड़े रहो, ये पुलिस स्टेशन है तुम्हारे बाप का घर नहीं।' यह कहानी, एंग्री यंग मैन या अमिताभ बच्चन की नहीं है। कहानी उस सुनहरे दौर के सुनहरे किस्सों का है।
1975 से कुछ महीनों पहले का वक्त था। 30 साल से कुछ कम उम्र के एक लड़के को बैंगलोर की फ्लाइट पकड़नी थी; मगर फ्लाइट बोर्ड करने से पहले एक काम था जिसे निपटाना था, जिसे वो जाने कब से टाल रहा था। काम क्या था? कुछ लिखना था, क्या लिखना था? एक फिल्म का सीन; दिमाग में सब सेट था, बस कागज पर उतारना था। अगर 2025 होता तो वॉट्सऐप पर एक वॉयस नोट भेजने भर से भी काम हो गया होता पर बात 60 साल पहले की है।
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कार की बोनट पर लिख दी कहानी
खैर, यह 30 साल से कुछ कम उम्र का लड़का एयरपोर्ट पर था। उसने आने में देर कर दी थी और उधर से बुलाया जा रहा था चलिए बोर्डिंग शुरू होने वाली है टिकट दिखाइए आईडी दिखाइए वगैरह वगैरह। लड़के ने एक कागज लिया एक गाड़ी के बोनट पर रखा और पेन से कुछ लिखने लगा। एयरलाइंस एक पैसेंजर के लिए जितना इंतजार कर सकती हैं, बस उतनी देर में कागज पर वह सीन पूरा किया जा चुका था जो 1970 के दशक की बेस्ट फिल्म और इंडियन सिनेमा की टॉप 10 फिल्म में से एक का कालजयी सीन बन गया। लड़के ने कागज का रुक्का थमाया अपने अस्टिटेंट को और एयरपोर्ट के अंदर चला गया।
यह लड़का था कौन? वही, जिसने एंग्री यंग मैन का कैरेक्टर लिखा। अरे वही, जिसने 'मेरे पास मां है' वाला ऐतिहासिक सीन लिखा। यह लिखने वाले शख्स कोई और नहीं बल्कि जावेद अख्तर थे। दिलचस्प बात यह है कि एंग्री यंग मैन, मेरे पास मां है या ईवन डॉन जैसी फिल्में जावेद ने अकेले नहीं लिखीं थीं, उनके साथ थे एक और महारथी- सलीम खान; सलीम-जावेद की जोड़ी, जिसने 1970 के दशक में बॉलीवुड पर राज किया।
शोले की स्क्रिप्ट लिखते वक्त सलीम-जावेद के मन में एक 'मल्टीस्टारर' बनाने की कोई मंशा नहीं थी। जैसे-जैसे वह स्क्रिप्ट बनती गई, इन दोनों को ये एहसास होता गया कि इस फिल्म में ऐसे करैक्टर डेवेलप होते जा रहे हैं जिसमे हर करैक्टर में एक बड़ा एक्टर लिया जा सकता है। जावेद साहब का यह सोचना था कि जब यह पहले से सोचकर लिखा जाता है कि बहुत सारे बड़े एक्टर फ़िल्म के अंदर लेने हैं तो फिर कहानी जबरदस्ती बनाई जाती है, यह एकदम माकूल बात है। लेकिन शोले की कहानी इस तरह बिल्कुल नहीं बनाई जा रही थी।
कैसे बड़ी होती गई शोले की कहानी?
जब इस कहानी को शुरू में लिखा जा रहा था तो सिर्फ 'ठाकुर' और 'इन दोनों लड़कों' की कहानी तक यह फिल्म सीमित थी। पर जैसे-जैसे स्क्रिप्ट डेवेलप होती गई तो इसका कैनवास फैलता गया और इसमें बहुत सारे साइड कैरेक्टर्स भी बड़े अच्छे आते गए और हीरोइनों के चरित्र भी उम्दा बन गए। इस स्क्रिप्ट के खत्म होते ही सलीम-जावेद को यह एहसास हुआ कि इसे तो बहुत बड़े पैमाने पर बनाया जा सकता है। जीपी सिप्पी का इस स्क्रिप्ट के साथ एक प्रोडूसर की तरह जुड़ना सोने पर सुहागा था और उन्होंने दिल खोलकर पैसा भी खर्च किया। सलीम जावेद की सिप्पी के साथ 'सीता और गीता' के सुपरहिट हो जाने के बाद ये दूसरी फिल्म होने जा रही थी। उस वक्त जब इतनी बड़ी फिल्म मार्केट भी नहीं हुआ करती थी तब इस फिल्म के पूरा होते-होते लगभग 3 करोड़ रुपया खर्च किया जा चुका था। लोग तो यहां तक कहने लगे थे कि 'न जाने सिप्पी साहब को ये क्या हो गया है?'
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अब थोड़ा सा शोले की बनावट के गलियारे में घूमने के बाद आते हैं उस सीन पर जिसे लिखा गया था इंटरवल शूट होने के बाद। पहले के ज़माने में फिल्में, सीरीज में होती थीं। मतलब जैसे-जैसे स्क्रिप्ट आगे बढ़ती थी, वैसे-वैसे शूटिंग आगे बढ़ती थी। शुरुवाती सीन से फिल्म की शूटिंग होती थी और अंतिम सीन पर फिल्म का भी पैकअप हो जाता था। अब इंटरवल तक फ़िल्म ख़त्म होने के बाद सिप्पी साहब और दोनों लेखकों की बात हुई 'वीरू' के किरदार को लेकर। सभी ने कहा कि इस कैरेक्टर में यहां तक आते-आते वजन कम सा लग रहा है। मीटिंग खत्म हुई और यह तय हुआ कि इंटरवल के बाद एक सीन लिखा जाएगा जो आगे के शेड्यूल में शूट कर लेंगे। शूटिंग चलती रही और बात आई-गई सी हो गई।
एयरपोर्ट पर लिखा गया कालजयी सीन
जावेद अख्तर बताते हैं कि शूटिंग के दिन एक्टर्स के साथ काम में, ट्रैवल में और गप्पों में ही बीत गए। अब आया वह दिन जब अगले ही दिन वो सीन शूट होना था। जावेद साहब ने सोचा कल शूट है तो सुबह जल्दी उठकर लिख लेंगे। पर ऐसा हो ना सका। वह सुबह जल्दी उठकर सीन लिखने लगे और शूटिंग का समय नज़दीक आता गया। |
अब वह सीन की लिखाई गाड़ी तक पहुंच गई जब जावेद साहब एयरपोर्ट के लिए निकले। सीन लिखते-लिखते इतना समय लगा कि एयरपोर्ट भी पहुंच गए पर सीन पूरा नहीं हो पाया। अब आया बोर्डिंग का समय और पीछे से उन्हें आवाज़ आने लगी कि 'साहब अपना बोर्डिंग पास निकाल लीजिए वरना प्लेन छूट जाएगा।'
जावेद साहब इस सीन के समापन की ओर ही थे और यह सीन पूरा होने जा रहा था 'गाड़ी के बोनट' पर।
यह सीन पूरा किया उन्होंने अपने फेयर करने वाले अस्सिटेंट को पकड़ाया और कहा कि इसे फेयर करके दे देना। उन्होंने इस सीन की पहले ड्राफ्ट की लिखाई के बाद वापिस मुड़कर तक नहीं देखा और यह सीन जस का तस उसी दिन शूट कर लिया गया।
कैसे ऐतिहासिक बना यह सीन?
शोले फिल्म में ही गाना है 'कोई हसीना जब रूठ जाती है।' इस गाने के बाद शोले में आता है वीरू और जय का एक सीन जिसमे वीरू जय से बसंती के लिए अपना 'इज़हार ए इश्क' करता है और बताता है कि वह बसंती से शादी करना चाहता है। जय यह सब सुनने में दिसचस्पी नहीं दिखाता है।
वीरू जय से कहता है कि वह 'मौसी' के पास जाए और वीरू के रिश्ते की बात इस ढंग से करे कि मौसी खुद ब खुद शगुन लेकर आ जाए। जय इस नौटंकी से उकता कर कहता है कि वह मौसी से अपने ढंग से जाकर बात कर लेगा।
फिर आता है जय और मौसी का सीन जहां जय मौसी से बसंती की शादी को लेकर बात कर रहा है और वीरू के शराबी और जुआरी होने के साथ उसके निर्दोष होने की गवाही दे रहा है। बसंती से शादी हो जाने के बाद जुए और शराब की आदत छोड़ देने की बात मौसी से कही जाती है!
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अब मौसी कहां मानने वाली थीं। वह कहती हैं कि 'शराब और जुए की आदत आजतक किसी की नहीं छूटी।' जय अपने ही अंदाज़ में चुटकी लेते हुए ये भी कह देता है कि वीरू का किसी गाने-बजाने वाली के घर चक्कर भी लगता है। मौसी हाए-तौबा करते हुए यह कह देती है कि भले ही बसंती सारी उम्र कुंवारी बैठी रहे लेकिन वह ऐसे आदमी यानी वीरू के साथ बसंती को कतई ब्याहने वाली नहीं हैं।
उपमा या मुहावरा देते हुए- जो सलीम जावेद की राइटिंग का अहम हिस्सा था, मौसी कहती हैं कि वह 'सगी मौसी हैं, कोई सौतेली मां नहीं!' इस पर जय कहता है कि 'उसके इतने समझाने पर भी मौसी न माने तो अब बेचारा वीरू पता ही नहीं क्या करेगा?'
अब आता है कि वह सीन, जिसे जावेद अख्तर साहब ने गाड़ी के बोनट पर पूरा कर पहला ड्राफ्ट ही आगे दे दिया था। वीरू टंकी पर चढ़कर चिल्ला रहा है, 'कूद जाऊंगा, फांद जाऊंगा, मर जाऊंगा, हट जाओ!' सभी गांव वाले नीचे खड़े यह तमाशा देख रहे हैं। वीरू फिर से कहता है कि वह ठीक वही कर रहा है जो 'मजनू ने लैला के लिए किया था, रांझा ने हीर के लिए किया था, रोमियो ने जूलियट के लिए किया था। सुसाइड...।'
अब उसमें गांव के दो गांव वाले लगे हैं यह बताने में कि सुसाइड होता क्या है। दूसरा गांव वाला कहता है कि अंग्रेज लोग जब मरते हैं तो उसे सुसाइड कहते हैं। पहले गांव वाले का जरूरी सवाल आता है कि अंग्रेज लोग क्यों मरते हैं। यह जावेद साहब ने तंज कसा था।
वही गांववाला वीरू से पूछता है कि 'तुम सुसाइड क्यों करना चाहते हो?' इसके जवाब में जो डायलॉग लिखा गया, वह यह था, 'तुम लोगों के आंसू निकल जाएंगे इस दुख भरी कहानी को सुनकर।'
वह अपनी कहानी को अंग्रेजी उपन्यासकार शेक्सपियर ट्रेजडी के तर्ज पर शुरू करता है और कहता है कि उसकीकहानी बड़ी दुखभरी है। इस कहानी में इमोशन है, ड्रामा है, ट्रेजडी है। और फिर वह ये बात सबके सामने रखता है कि इस बसंती से उसका लगन यानी शादी होने वाली थी लेकिन इसकी बुड्ढी मौसी ने बीच में भांजी मार दी। वीरू शराब के नशे में गांव वालों से बात करता है। यह बेहद कॉमिकल सीन था। वह गांव वालों को आखिरी सलाम कहता है। इतने में गांव वालों के बीच से भागती हुई बसंती आती है। यह कॉमिक सीन मुकम्मल हो जाता है।
वह पहले दिखे दोनों गांव वालों की एक छोटी सी बातचीत जिसमें वीरू का 'गुडबॉय' सुनकर वह दोनों आपस में बात करते हुए कहते हैं कि 'यह गुडबॉय क्या होता है?' फिर से वही दूसरा गांववाला कहता है कि 'अंग्रेज़ जब जाते हैं तो गुडबॉय कहते हैं।' इस तरह की लिखावट आने वाली कल की कई फिल्मों की बुनियाद बनी। हेराफेरी जैसी फिल्मों में भी जाने-अनजाने में भी इसका इस्तेमाल हुआ। खैर फेमस टंकी वाले सीन का जिक्र करना जरूरी है।
वीरू टंकी से कूदने से पहले यह ऐलान करता है कि 'गांववालों मैं जा रहा हूं। भगवान मैं आ रहा हूं!' एक पैर सामने बने लकड़ी के बुर्ज से कूदने के लिए बाहर निकाल देता है। बसंती यह सब देखकर विचलित हो उठती है और गांववाले वीरू से रुक जाने की गुहार लगाने लगते हैं। और वह 'रुक जाऊं' बोलकर रुक भी जाता है। कहने लगता है 'तुम लोग ज़ोर देते हो तो मैं रुक जाता हूं।' इस सीन का एक अहम शॉट जिसमें बसंती जय के सामने जाकर खड़ी होती है। जय चाय पी रहा है और पीछे वीरू टंकी पर चढ़ा हुआ है। यह शॉट, इस पूरे सीन को विजुअली कई गुना ऊपर ले जाता है। एक तरह से इस सीन की विजुअल समरी बन जाता है।
फिर कोई नहीं लिख पाया ऐसी कहानी
कई फिल्म पोस्टर बनाने वालों ने इस शॉट को अपनी रिफरेंस लाइब्रेरी में शामिल किया है। अब बसंती जाकर जय को उसकी दोस्ती का फ़र्ज़ याद दिलाती है और उसे कहती है कि 'देखो तुम्हारा दोस्त कहां चढ़ गया। तुम कैसे दोस्त हो, तुम यहीं बैठे हो।' जय चाय की चुस्की लेते हुए टंकी की तरफ देखता है और कहता है कि 'कुछ नहीं होगा। जब दारू उतरेगी तो ये भी उतर जाएगा।'
बसंती जय को 'पत्थरदिल दोस्त' बताते हुए टंकी की तरफ भागती है और जय आराम से चाय की एक और चुस्की खींचता है। वहां वीरू जान देने की बात पर अड़ा हुआ है और गांववालों को ये बताता है कि 'जहां भी कोई प्रेमी जान देता है वहां पर भयंकर किस्म की मुसीबतें आती हैं।
गमगीन मंजर में जावेद अख्तर कॉमेडी वहां पैदा करते हैं, जब गांव की भीड़ में एक आदमी वीरू से चिल्ला कर पूछता है कि कैसी मुसीबतें आएंगी। ऑडियंस यहां तक लोट-पोट हो चुकी होती है लेकिन मजा तब आता है, जब वीरू बोलता है, 'अकाल, सूखा, चेचक, हैजा फैल जाएगा और यह सब होगा इस बुढ़िया यानी मौसी की वजह से।' वीरू धमकी देता है कि सभी गांववाले देख लें 'व्हेन आई डेड, पुलिस कमिंग, पुलिस कमिंग, बुढ़िया गोइंग टू जेल, चक्की पीसिंग, एंड पीसिंग एंड पीसिंग।'
यह डायलॉग आज भी लोगों की जुबान पर है। इसी सीन का एक हिस्सा है कि गांव का ही एक आदमी मौसी को डर में समझाता है कि मौसी को तुरंत हां कर देनी चाहिए वरना यह खुदकुशी कर लेगा। मगर मौसी तो मौसी हैं। अभी भी अड़ी हुई हैं और कहती हैं कि 'दीनानाथ जी, मैं कैसे हां कर दूं?'
वीरू वहां फिर ऊंचे स्वर में ललकारता है कि गांववालों को इस बुढ़िया से कोई दरखास्त करने की ज़रूरत नहीं है। वह अब रुकेगा नहीं। वह अपनी जान देकर ही रहेगा।
फिर वहां शुरू होता है काउंट डाउन, 1,2,3…। बसंती घबराकर मौसी को हां करने की सिफारिश करने लगती है।
फिर अपना गांववाला कहता है कि 'मौसी, हां कर दो वरना कोर्ट-कचहरी का चक्कर हो जाएगा।' मौसी इस घबराहट में कहती है कि वो कभी कोर्ट कचहरी नहीं गई। चिल्लाकर वीरू से ठहरने को कहती है और अपनी रज़ामंदी दे देती है। सभी जैसे ही 'आ जाओ, आ जाओ' का सम्यक गान करने लगते हैं तो वीरू चिल्लाकर कहता है कि मौसी से कौन शादी करेगा, मुझे तो बसंती से शादी करनी है!'
बसंती से अब रहा नहीं जाता और वह अपनी प्रेम पुकार भरकर अपने ऊंचे स्वर में कहती है कि वह वीरू से शादी करने को तैयार है और वो नीचे आ जाए।
'कॉमेडी ओवर द टॉप जेनर' की पहली पंक्ति वीरू के मुंह से निकलती है कि जिसे आज भी लोग बोल-चाल की भाषा में इस्तेमाल करते नज़र आते हैं। वह लाइन थी, 'सुना तुमने भाइयों, मौसी भी तैयार है बसंती भी तैयार है। इसलिए मरना कैंसिल।'
वीरू अपने शराब के नशे को संजोते हुए नीचे उतरने लगता है। उतरते-उतरते उसकी शराब उतर नहीं पाती और वह वहीं टंकी के बुर्ज पर लेट जाता है। इस सीन का लास्ट शॉट आता है, जय का यह सारा तमाशा देखते हुए और अपने टिपिक एंग्री यंग मैन एक्सप्रेशन देते हुए।'
हीरो नहीं, लेखकों को मिला हिट का क्रेडिट
अब और दो साल पीछे चलते हैं जब शोले बस एक चार लाइन का आइडिया थी, 1973 में, सलीम-जावेद साथ में लगभग 5 फिल्में लिख चुके थे, जिसमें जंजीर भी शामिल था। जहां से अमिताभ बच्चन को एंग्री यंग मैन का टाइटल मिला था। और जंजीर ही वह फिल्म थी जिसके बाद सलीम-जावेद ने इंडस्ट्री को ये बताया था कि दोस्त, राइटर बाप होता है-
हुआ यह था कि जंजीर रिलीज हुई और सुपरहिट भी हुई।
मुंबई की सड़कों पर, सिनेमा हाल्स में जो पोस्टर लगे थे वह कुछ ऐसे थे, 'प्रोड्युसर डायरेक्टर प्रकाश मेहरा का नाम, अमिताभ, प्राण और जया की तस्वीरें अब सलीम-जावेद का सबसे बड़ा सवाल था कि भाई क्रेडिट कहां है?
फिर वह हुआ जो हिन्दी सिनेमा में पहले कभी नहीं हुआ था। सलीम-जावेद ने एक पेंटर हायर किया और रातों-रात हर शहर में जंजीर के जितने पोस्टर लगे थे उसपर 'सलीम-जावेद' लिखवा दिया। पेंटर ने शायद थोड़ी चढ़ाई हुई थी तो हुआ यह कि सलीम-जावेद कहीं प्राण के मुंह पर लिख दिया गया, कहीं अमिताभ के हाथों पर।
इस मीटिंग के बाद क्या हुआ था वह तो आपने जान लिया, शोले की शूटिंग हुई, 3 करोड़ से ज्यादा के बजट वाली फिल्म अब बन कर तैयार थी।
शोले के लास्ट सीन की कहानी
रिलीज से पहले एक और मजेदार चीज थी। शोले का लास्ट सीन याद है? जिसमें गब्बर को फाइनली पुलिस ले जाती है, लेकिन असल में यह सीन नहीं लिखा गया था। फर्स्ट ड्राफ्ट में सलीम जावेद ने लिखा था कि गब्बर के साथ वही होगा जो ठाकुर के साथ हुआ था; उसके हाथ काट दिए जाएंगे लेकिन इसे बदल दिया गया। यह तय हुआ कि गब्बर को पुलिस के हवाले कर दिया जाएगा। न्याय मिल जाता है।'
पहले पिटी, फिर क्या हुआ?
खैर फिल्म रिलीज हुई, और पहले हफ़्ते की समरी में एक लाइन में बोलें तो फिल्म पिट सी रही थी। बॉक्स ऑफिस पर भीड़ उमड़ नहीं रही थी। लोगों ने फिल्म क्रिटिक्स ने चौतरफा नकार दिया था। कुछ ने कहा कि बहुत हिंसक है, कुछ ने कहा कि सीन अच्छे नहीं हैं, कुछ ने कहा कि फिल्म ही बोरिंग है।
सोमवार तक सुपरहिट थी फ्लॉप फिल्म
फिर हुई एक इमरजेंसी मीटिंग जिसमें सलीम-जावेद, सिप्पी, अमिताभ बच्चन थे। सिप्पी साहब ने तो यह तक कह दिया था कि एंडिंग बदलते हैं, अमिताभ के चरित्र वीरू को जिंदा रखते हैं; पर सलीम जावेद ने कहा कि अगले सोमवार तक इंतजार कीजिए। सलीम-जावेद ने तो एक ट्रेड पेपर में एक ऐड तक निकाल दिया कि ये फिल्म हर क्षेत्र में 1 करोड़ रुपये कमाएगी, इसे अपनी कहानी पर भरोसा न होने की बजाय अति आत्मविश्वास से भरा दावा कहा गया।
जावेद अख्तर खुद कहते हैं कि हम गलत थे। शोले ने हर इलाके में उससे कई ज़्यादा कमाई की। मंडे आते आते शोले सुपरहिट बन चुकी थी, लोग यार दीवाने हो गए थे, अमिताभ बच्चन (जय), धर्मेन्द्र (वीरू), जया भादुरी (राधा), हेमा मालिनी (बसंती), गब्बर, ठाकुर और यहां तक की छोटे किरदार जैसे सूरमा भोपाली, मौसी, इमाम साहब, कालिया और सांबा जैसे कैरेक्टर देखते ही देखते लोगों की आम जिंदगी का हिस्सा बन गया।
एक दौर ऐसा भी था कि खास दोस्तों और एक साथ पैदा हुए जुडवां भाइयों को लोग जय और वीरू ही कहने लगे थे। पॉलीडोर ने तो शोले के डायलॉग्स के विनाइल रिकॉर्ड्स बना कर बेचने शुरू कर दिए थे। लोग शोले के डायलॉग सुनने लगे थे ग्रामोफोन्स पर। शायद यहीं से वो चलन चला, जब फिल्म के डायलॉग्स को आगे जाकर रिकॉर्ड्स में बेचा जाने लगा। माने शोले से एक नया ट्रेंड भी शुरू हुआ था।
ऐसी फिल्म जिस पर आज भी स्टडी करते हैं लोग
एक बात और होती है शोले के बारे में कि यह तो कॉपी थी। यह सीन वहां से लिया वह सीन वहां से लिया। ऐसी बातें आज भी इतनी बड़ी सक्सेसफुल फिल्म होने के बावजूद लोग करते ही हैं। सलीम खान ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वह वेस्टर्न सिनेमा के फैन थे। इतने बड़े फैन कि खुद को जेम्स डीन समझते थे। उन्होंने यह भी बताया था कि शोले की प्रेरणा भी उन्हें 'द मैग्नीफिशियंत सेवन, द फाइव मैन आर्मी, वन्स अपॉन ए टाइम इन द वेस्ट और द दर्टी डोजेन जैसी फिल्म से आया था।'
शोले में सीन भी अलग-अलग फिल्मों से लिए गए थे। जैसे जय-वीरू जो बार बार हर फैसला सिक्का उछाल के लेते हैं, वो भी ग्रे कूपर की फिल्म गार्डन ऑफ इविल से प्रेरित थी।
लेकिन, शोले की रिलीज के 50 साल बाद जो भी शोले या सिनेमा के दीवाने हैं, जो सिनेमा को आकादिम तौर पर पढ़ते हैं, जो फिल्म्स बनाते हैं, उन सब लोगों का यही मानना है कि शोले की सक्सेस यह थी कि सलीम-जावेद ने कैसे उस सीन को भी रामगढ़ का बना दिया जो शायद पहले कहीं और, किसी और फिल्म में हो चुका था। वह राइटिंग, वह डायलॉग्स, गाने, एक्टिंग, चरित्रीकरण, यह सब तो असली ही था।
चरित्रों के नाम भी सलीम खान की निजी जिंदगी के किरदारों से आए थे। सलीम खान से जब इस बात पर सवाल किया गया था कि शोले के सीन या स्टोरीलाइन पहले की फिल्मों से ली गई है तो उन्होंने यही कहा था कि असली कुछ भी नहीं है। जो कि एकदम सही बात है, कोई आइडिया नया नहीं होता। शोले की आलोचना या उस फिल्म को लेकर बातें करने वालों के अपने तर्क हो सकते हैं पर इस बात को कोई नहीं नकार सकता कि शोले भारतीय सिनेमा की सबसे शानदार फिल्मों में से एक थी, जिसने आने वाली हजारों फिल्म्स के लिए एक ऐसी संभावना तैयार की, जिसमें निर्देशक प्रयोग करने से घबराते नहीं हैं।
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