भाई ने काट लिया था भाई का सिर, बिहार के हथवा राज की कहानी
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• PATNA 13 May 2025, (अपडेटेड 20 Aug 2025, 11:07 AM IST)
बिहार का हथवा राजपरिवार राज्य के सबसे पुराने राजघरानों में से एक है। लगभग 2500 साल पुराने इस राजघराने का इतिहास कई अहम घटनाओं से भरा हुआ है।

हथवा राज की कहानी, Photo Credit: Khabargaon
कहते हैं, जब लालू प्रसाद यादव पहली बार मुख्यमंत्री बने, तो उन्होंने अपनी मां को भोजपुरी में यह खुशखबरी सुनाई। उनकी मां, गांव की एक सीधी-सादी महिला, समझ ही नहीं पाईं कि 'मुख्यमंत्री' आखिर होता क्या है! तब लालू ने उन्हें समझाने के लिए एक ऐसी हस्ती का नाम लिया, जो उनकी मां की नज़र में ताकत और रुतबे का सबसे बड़ा पैमाना था। लालू ने कहा, 'ई हथवा महाराज से भी बड़ा होला!' (यानी यह हथवा महाराज से भी बड़ा होता है)। किस्सा यहीं खत्म नहीं होता, कहते हैं उनकी मां फिर भी पूरी तरह खुश नहीं हुईं और बोलीं, 'अच्छा ठीक बा, जाए दे लेकिन तहरा सरकारी नौकरी ना नु मिलल?' (अच्छा ठीक है, जाने दो, पर तुम्हें सरकारी नौकरी तो नहीं मिली न?)
क़िस्सा है लेकिन इससे एक बात पता चलती है - बिहार के आम लोगों के मन में हथवा राज और उसके महाराज का दबदबा कितना गहरा था। एक ऐसा राजघराना, जो सदियों तक उत्तर बिहार के एक बड़े हिस्से पर राज करता रहा।
हथवा राज की शुरुआत हुई कैसे? कैसे भूमिहार ब्राह्मणों का एक परिवार बिहार की सबसे ताकतवर ज़मींदारियों में से एक बन गया? मुग़ल बादशाह हुमायूं की हार से हथवा राज का क्या कनेक्शन था? कैसे एक भाई ने दूसरे भाई का सिर काट दिया और परिवार हमेशा के लिए बंट गया और हथवा राज का अंत कैसे हुआ? ये सब जानेंगे इस लेख में।
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हथवा राज की शुरुआत
हथवा राजपरिवार बाघोचिया राजवंश कहलाता है। ये बिहार के सबसे पुराने राजघरानों में से एक माने जाते हैं। हथवा राज की कहानी शुरू होती है ईसा से लगभग 6 सदी पहले। तब यह इलाका कोसल महाजनपद का हिस्सा माना जाता था। शुरू-शुरू में यहां चेरो जनजाति के लोग रहते थे लेकिन वक़्त बदला, पहले राजपूत आए और फिर भूमिहार ब्राह्मणों ने इस इलाके पर अपना दबदबा बना लिया। कहा जाता है कि राजा बीरसेन नाम के एक भूमिहार नेता ने उस राज की नींव रखी जिसे आगे चलकर हथवा राज के नाम से जाना गया। इतिहासकार गिरिन्द्र नाथ दत्त की किताब, ‘हिस्ट्री ऑफ़ हथवा राज’ के अनुसार, तब से लेकर आज तक ‘हथवा राजवंश में लगभग 106 पुश्तें पूरी हो चुकी है।'
हथवा राज नाम क्यों?
दरअसल, मुग़लों के जमाने में बिहार 6 एडमिनिस्ट्रेटिव डिवीजंस में बंटा हुआ था। इन्हें सरकार कहते थे। 6 सरकारों में एक का नाम था सारण। सारण के दो इलाके, सिपह और हुसैपुर, बाघोचिया जमींदारों के अधीन थे। ताहिर हुसैन अंसारी की किताब, 'मुगल एडमिनिस्ट्रेशन एंड जमींदार्स ऑफ बिहार' के अनुसार सत्रहवीं सदी की शुरुआत में हुसैनपुर राजधानी बनी और इसी वजह से यहां के राजाओं को हुसैनपुर का राजा कहा जाने लगा। बाद में जब अंग्रेजों से पंगा हुआ तो राजधानी हथवा ले जाई गई और फिर यह राज हथवा के नाम से ही ज़्यादा मशहूर हुआ। जब यह राज अपने पूरे शबाब पर था तो काफी बड़े इलाके में फैला हुआ था, करीब 561 वर्ग मील में!
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इसमें बिहार के सारण (1350 गांव), चंपारण (24 गांव), मुजफ्फरपुर (11 गांव), और शाहाबाद (15 गांव) जिलों के हिस्से आते थे। इतना ही नहीं, बंगाल के दार्जिलिंग और आज के उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में भी इनकी ज़मींदारी थी। इतने बड़े इलाके की वजह से ये उस वक़्त के सबसे बड़े और असरदार ज़मींदारों में गिने जाते थे।
मुग़लों से कनेक्शन और देवी मां का आशीर्वाद
हथवा राज के शुरुआती राजाओं के बारे में बहुत ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती। वजह यह है कि 1767 में राजा फतेह साही ने जब अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की तो उस दौरान कई ज़रूरी कागज़ात, फरमान और सनदें या तो बर्बाद हो गईं या छीन ली गईं। मौजूदा जानकारी के अनुसार, हथवा राज के जमींदार शुरू में अपने नाम के आगे 'सेन' लगाते थे, जो बाद में 'सिंह', फिर 'मल्ल' और आखिर में 'शाही' बन गया।
एक पुराने राजा जिनका नाम मिलता है, वह हैं राजा जयमल। बात है 1539 की, जब मुग़ल बादशाह हुमायूं, शेर खान (यानी शेर शाह सूरी) से चौसा की लड़ाई हारकर भाग रहे थे। जब हुमायूं की थकी-हारी फ़ौज हथवा के इलाके (कल्याणपुर के पास बिहिया) से गुज़री, तो राजा जय मल ने उनकी मदद की, उन्हें खाना और जानवरों के लिए चारा दिया। हुमायूं तो यह वफादारी नहीं भूले लेकिन शेरशाह सूरी के राज में जय मल को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी। उन्हें भागकर गोरखपुर के जंगलों में छिपना पड़ा और काफी वक़्त तक बागी बनकर रहना पड़ा। बाद में जब हुमायूं ने दिल्ली की गद्दी वापस पाई तो उन्होंने जय मल के पोते, जुबराज शाही को, दादा की वफादारी के इनाम में चार परगने दिए। माना जाता है कि इसी उथल-पुथल के दौर में जय मल को 'मल्ल' (संस्कृत में मतलब पहलवान) की उपाधि मिली।
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जय मल के बाद राजा कल्याण मल (लगभग 1600 ईस्वी) का समय आता है। यह अकबर का राज था और राजा टोडरमल बंगाल-बिहार के वायसराय थे। कल्याण मल पहले राजा थे जिन्हें 'महाराजा' का टाइटल मिला। उन्होंने कल्याणपुर नाम का शहर बसाया और उसे अपनी राजधानी बनाया। आज भी वहां उनके किले के खंडहर और एक बहुत बड़ा कुआं मौजूद है। (जिसका घेरा 50 फीट है)। कल्याण मल ने बड़ी समझदारी से मुग़ल बादशाहत से अपने रिश्ते बनाए रखे। 1580 में जब गाजीपुर के अफगान सूबेदार मासूम खान फरानखुदी ने बगावत की और हारकर कल्याण मल से पनाह मांगी, तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया। ऐसे ही 1582-83 में जब नूर मोहम्मद और ख्वाजा अब्दुल गफूर ने बगावत की और भागकर कल्याणपुर आए, तो कल्याण मल ने उन्हें भी पनाह देने से इनकार कर दिया। इन दोनों मौकों पर मुग़ल बागियों का साथ न देकर, उन्होंने सीधे-सीधे हां कहे बिना ही, मुग़ल बादशाह के प्रति अपनी वफादारी का इशारा दे दिया। कहते हैं कि अकबर उनके इस रवैये से खुश हुए और उन्हें 'राजा' की उपाधि दी। उन्हीं के नाम पर परगना कल्याणपुर कुआड़ी का नाम पड़ा।
कल्याण मल के बाद उनके खानदान के राजा खेमकरण सिंह शाही बहादुर 1625 ईस्वी के आसपास गद्दी पर बैठे। यह जहांगीर और शाहजहां का दौर था। खेमकरण सिंह को मुग़ल बादशाह से 'महाराजा बहादुर' और 'शाही' (यानी शाही रैंक वाला) दोनों टाइटल मिले। 'शाही' उपनाम इसके बाद तो परिवार के साथ हमेशा के लिए जुड़ गया। ये सम्मान बताते हैं कि खेमकरण सिंह ने मुग़ल दरबार से कितने गहरे रिश्ते बना लिए थे। इसी दौर में बिहार के दूसरे बड़े ज़मींदारों, जैसे मझौली, दरभंगा और बेतिया के राजाओं को भी ऐसे टाइटल मिले, जो दिखाता है कि मुग़ल आसपास की ताकतों को अपने साथ जोड़ने की कोशिश कर रहे थे। खेमकरण सिंह ने ही राजधानी कल्याणपुर से हटाकर हुसैनपुर में बनाई, जहां उन्होंने झरही और सियाही नदियों के संगम पर एक मजबूत किला बनवाया। यह किला तब तक हथवा की राजधानी रहा जब तक फतेह शाही की बगावत के दौरान वारेन हेस्टिंग्स के हुक्म पर इसे तोड़ नहीं दिया गया।
जुबराज शाही और देवी मां का वरदान
हथवा के इतिहास में एक और खास राजा हुए जुबराज शाही (लगभग 1719 ईस्वी)। यह वह वक़्त था जब मुग़ल सल्तनत कमज़ोर पड़ रही थी और इलाके की ताकतें सिर उठा रही थीं। जुबराज शाही की सबसे बड़ी कामयाबी थी परगना सिपह पर जीत, जो हमेशा के लिए हथवा राज का हिस्सा बन गया। उन्होंने यह इलाका बड़हरिया के अफगान सरदार राजा काबुल मोहम्मद से छीना, जो इस लड़ाई में मारा गया लेकिन यह जीत आसानी से नहीं मिली थी। कहा जाता है कि काबुल मोहम्मद ने पहले जुबराज शाही को कई बार हराया था और वह हथवा के इलाके पर कब्ज़ा करने लगा था। उसने राजा के पास घमंड भरा पैगाम भेजा कि वह तुरकहा और भुरकहा नाम के दो गांव उसे सौंप दें और सेलारी और भेलारी अपने पास रख लें, वरना वह चारों पर कब्ज़ा कर लेगा।
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इसी लड़ाई से जुड़ी एक दिलचस्प कहानी सुनाई जाती है। कहते हैं, बार-बार हारने के बाद जब जुबराज शाही अपने कुछ साथियों के साथ जंगल में भागे फिर रहे थे, तो देवी भवानी उनके सपने में आईं। देवी ने बताया कि मुसलमानी राज में उनका कितना बुरा हाल है और राजा को मदद का भरोसा दिया। देवी ने कहा, 'जैसे ही तुम अपनी यात्रा शुरू करोगे, तुम्हें बाईं तरफ एक सियार और दाईं तरफ एक सांप दिखाई देगा; सियार को झुक कर नमस्ते करना और सांप को मार देना।'
राजा ने देवी के कहे मुताबिक किया और थावे के पास रामचन्द्रपुर की आखिरी लड़ाई में उन्हें काबुल मोहम्मद पर पूरी जीत मिली। सपने के अनुसार, राजा को थावे के जंगल में, एक पुराने किले में, एक अजीब से पेड़ के नीचे दुर्गा मां की एक मूर्ति मिली। कहते हैं वह पेड़ सदियों बाद भी मंदिर के आंगन में मौजूद था। देवी की मूर्ति का एक पैर बहुत गहराई में ज़मीन में धंसा हुआ था और दूसरा शेर पर टिका था। देवी की इस मदद के लिए शुक्रिया अदा करते हुए, हथवा के राजाओं ने देवी के लिए एक शानदार मंदिर बनवाया और जब भी वह पूजा करने आते, तो रहने के लिए एक महल भी बनवाया। जंगल में सियारों के लिए खाना (बलि) देने की रस्म चलती रही और हर साल चैत्र के महीने में यहां एक बड़ा मेला लगता था। माना जाता है कि जुबराज शाही की जीत और उनके इलाके के बढ़ने को देखते हुए, मुग़ल बादशाह ने उन परगनों को पक्का कर दिया जो हुमायूं ने पहले उनके पुरखों को दिए थे।
फतेह शाही की बगावत और राज का बंटवारा
हथवा राज के इतिहास का सबसे बड़ा ड्रामा और अहम मोड़ था महाराजा फतेह शाही बहादुर का अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह। यह लंबी लड़ाई जो 1767 में शुरू हुई और करीब 20 साल तक चली, न सिर्फ राज का भविष्य तय करने वाली थी, बल्कि इसने राजपरिवार को हमेशा के लिए दो हिस्सों में बाँट दिया।
क्यों हुई थी बगावत?
असल में, यह वह दौर था जब मुग़ल कमज़ोर हो रहे थे और ईस्ट इंडिया कंपनी अपनी ताकत बढ़ा रही थी। 1764 में बक्सर की लड़ाई में बंगाल के नवाब मीर क़ासिम और अवध के नवाब शुजाउददौला की संयुक्त फौज को हार का मुंह देखना पड़ा। इस जीत के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी यानी टैक्स वसूलने का हक़ मिल गया था। 1767 के आखिर में, जब सारण के अंग्रेज रेवेन्यू कलेक्टर ने कंपनी की तरफ से फतेह शाही से लगान मांगा, तो उन्होंने इसे अपनी सत्ता में दखलअंदाजी माना और साफ़ इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, वसूली के लिए भेजी गई कंपनी की फौजों से लड़ाई भी की। हुसैनपुर से खदेड़े जाने के बाद, वह अवध के नवाब के इलाके और बिहार की सीमा से लगे घने जंगलों में चले गए और वहीं से अपना विरोध जारी रखा।
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फतेह शाही कई सालों तक अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बने रहे। इसकी कई वजहें थीं: इलाके का माहौल ठीक नहीं था, जंगल इतने घने थे कि कंपनी की फौजें आसानी से घुस नहीं पाती थीं, अवध के नवाब की अफसरों से साठगांठ थी, और सबसे बड़ी बात, अपने पुराने इलाके के लोगों का उन्हें साथ मिला हुआ था जो कंपनी के नए लगान वसूलने वालों से नाराज़ थे। वह जंगलों से निकलकर अपने पुराने इलाकों में हमला करते, लगान वसूली रोकते और गड़बड़ी फैलाते रहते थे। 1772 में उन्होंने गोविंद राम, जो उनके इलाके का सरकारी लगान वसूलने वाला था, उसकी हत्या कर दी। इससे लगान वसूली पूरी तरह ठप हो गई और अंग्रेजों को समझौता करना पड़ा। फतेह शाही को पटना बुलाया गया और एक भत्ता तय करके हुसैनपुर में शांति से रहने को कहा गया लेकिन यह शांति ज़्यादा दिन नहीं चली। दो महीने के अंदर फतेह शाही फिर जंगलों में लौट गए और अपनी पुरानी हरकतें शुरू कर दीं। इस बार अंग्रेजों ने उनकी ज़मींदारी उनके चचेरे भाई बाबू बसंत शाही को सौंप दी। यह बात फतेह शाही को बहुत बुरी लगी, उन्हें लगा कि उनके भाई ने उनके साथ धोखा किया है।
मई 1775 में, फतेह शाही ने एक बड़ा कदम उठाया। उन्हें खबर मिली कि बसंत शाही गंडक नदी के किनारे जादोपुर में लगान वसूल रहे हैं। फतेह शाही ने रात भर में 1000 घुड़सवारों और 300 बंदूकचियों के साथ 22 मील का सफर तय किया और सुबह होते ही बसंत शाही को घेर लिया। कहा जाता है कि फतेह शाही ने पहले बसंत शाही से कहा कि वह भी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत में शामिल हो जाएं लेकिन जब बसंत शाही ने कंपनी के प्रति अपनी वफादारी की बात कहकर मना कर दिया, तो फतेह शाही ने उन्हें मार डाला। एक दूसरी कहानी यह भी है कि फतेह शाही अपने भाई को पकड़कर छोड़ने वाले थे लेकिन उनके एक नौकर गोपाल बारी और एक रिश्तेदार ने उन्हें ताना मारा, 'इतनी मेहनत से पकड़ने के बाद छोड़ क्यों रहे हो?' इस पर भड़ककर, उन दोनों ने ही बसंत शाही का सिर काट दिया। जिस जगह यह हुआ, वह बाग़ 'मुड़कटीजा बाग़' (यानी कटे हुए सिर वाला बाग़) कहलाया।
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फतेह शाही ने कटे हुए सिर को बसंत शाही की पत्नी के पास हुसैनपुर भिजवा दिया। पत्नी ने पति के सिर को गोद में लेकर चिता पर बैठकर सती होने का फैसला किया। कहते हैं उनकी 13 दासियों ने भी उनके साथ सती होकर जान दे दी। चिता पर बैठने से पहले, उन्होंने फतेह शाही के परिवार को श्राप दिया कि उनके खानदान वाले कभी भी फतेह शाही के परिवार से कोई रिश्ता नहीं रखेंगे। इस श्राप के चलते हथवा के महाराजा जब कभी फतेह शाही के खानदान वालों (जो तमकुही राज के राजा बने) के इलाके से गुज़रते, तो वहां का पानी तक नहीं पीते थे। हुसैनपुर किले में उन 14 सतियों की याद में स्तूप भी बनाए गए, जहां हर साल पूजा होती थी।
बहरहाल, आगे कहानी यूं बढ़ती है कि बसंत शाही की हत्या के बाद अंग्रेजों ने फतेह शाही को पकड़ने की कोशिशें और तेज़ कर दीं लेकिन वह हमेशा बच निकलते रहे। वह अवध के नवाब के इलाके में शरण ले लेते थे, जहां अंग्रेजों का सीधा कंट्रोल नहीं था। वारेन हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से मदद मांगी लेकिन दिखावे के सिवा कुछ नहीं हुआ।
चैत सिंह की बगावत
हथवा राज वर्सेज़ अंग्रेज़ों की लड़ाई में एक बड़ा मोड़ आया 1781। इस मोड़ की वजह बना बनारस। कैसे? बात 1775 की है, जब बनारस का इलाका ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ में आ गया। राजा चैत सिंह ने कंपनी को हर साल करीब साढ़े 22 लाख रुपये लगान देना तय किया। सब ठीक चल रहा था लेकिन फिर कंपनी की लड़ाइयां शुरू हो गईं मराठों और मैसूर से। कंपनी के गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स को पैसों की ज़रूरत पड़ी। उन्होंने राजा चैत सिंह से तय लगान के अलावा और पैसा मांगना शुरू कर दिया, कभी 5 लाख ज़्यादा मांगे, तो कभी 2000 घोड़े मांग लिए।
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राजा चैत सिंह के लिए ये मांगें भारी पड़ने लगीं। जब उन्होंने आनाकानी की तो हेस्टिंग्स नाराज़ हो गए। उन्होंने राजा पर 50 लाख का भारी जुर्माना ठोक दिया और अगस्त 1781 में खुद बनारस पहुंच गए वसूली करने। हेस्टिंग्स ने राजा चैत सिंह को उनके ही महल में कैद कर लिया। यह राजा का बड़ा अपमान था! उनके सैनिकों और लोगों का गुस्सा भड़क गया। उन्होंने हमला बोल दिया, अंग्रेजों को मारा और हेस्टिंग्स को जान बचाकर भागना पड़ा। बाद में अंग्रेजों ने और फौज भेजकर बगावत तो दबा दी लेकिन राजा चैत सिंह को अपनी गद्दी गंवानी पड़ी।
अब बनारस के इस प्रसंग से हुआ ये कि अंग्रेजों का ध्यान उधर बंट गया। हथव राज के फतेह शाही ने इसका फायदा उठाया और गोरखपुर के दूसरे ज़मींदारों के साथ मिलकर 20,000 की फ़ौज जमा की और अंग्रेजों के खाली किए हुए बारागांव स्टेशन पर हमला कर दिया।
अब सोचिए यहां फतेह शाही का मुकाबला किससे हुआ होगा?
धुज्जू सिंह से, यह कौन थे। बसंत साही, जिनका सर कलम कर दिया गया था। धुज्जू सिंह इन्हीं बसंत साही के बेटे की देखभाल करते थे। धुज्जू सिंह ने करीब 1000 लोगों के साथ 18 दिन तक लड़ाई लड़ी और फतेह शाही को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया, हालांकि वह खुद और उनके बेटे बुरी तरह घायल हो गए। बाद में मेजर लुकास की मदद से फतेह शाही को जिले से बाहर खदेड़ दिया गया। इस वफादारी के लिए धुज्जू सिंह को गवर्नर जनरल हेस्टिंग्स ने बनारस बुलाकर सोने की खिलअत (शाही पोशाक) दी और 200 रुपये महीने की पेंशन बाँधी। इसी वफादारी ने तय कर दिया कि हथवा राज अब बसंत शाही के खानदान वालों को मिलेगा, न कि फतेह शाही के खानदान वालों को।
1785 तक, जब इलाके में शांति हो गई, फतेह शाही ने लड़ाई छोड़ दी और गोरखपुर में अपने पुराने इलाके के उस हिस्से में बस गए जो अवध के नवाब के अधीन था। 1808 में, 18 साल की बगावत और 24 साल अकेले रहने के बाद, वह फकीर बन गए। उनके बेटों और पोतों ने कई बार अपनी खोई हुई ज़मींदारी वापस पाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए। फतेह शाही की बगावत हथवा राज के इतिहास में एक ऐसे मोड़ के रूप में याद की जाती है जिसने न सिर्फ परिवार को बांटा बल्कि राज की कमान भी दूसरी शाखा के हाथों में दे दी।
छत्रधारी शाही और नया दौर
फतेह शाही की बगावत के बाद, अंग्रेजों ने बसंत शाही के खानदान वालों को ही हथवा का असली वारिस माना। बसंत शाही के बेटे महेश दत्त की मौत के बाद उनके बेटे छत्रधारी शाही अंग्रेजों की देखरेख में रहे। 1791 में, लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने हुसैनपुर की ज़ब्त की गई ज़मींदारी 5 साल के छत्रधारी शाही को सौंप दी चूंकि वह नाबालिग थे, इसलिए राज का कामकाज कोर्ट ऑफ वार्ड्स की देखरेख में चलता रहा और धुज्जू सिंह उनकी देखभाल करते रहे। 1802 में बालिग होने पर छत्रधारी शाही ने राजकाज संभाला। उन्होंने सबसे पहले राजधानी भुर्थुही से हटाकर हथवा में बनाई और वहां एक शानदार महल और किला बनवाया।
राज उनके हाथ में था, लेकिन उन्हें 'महाराजा बहादुर' की उपाधि 1837 में मिली। छत्रधारी शाही ने कई मौकों पर अंग्रेज़ों की मदद की।1857 की बगावत के दौरान की। 70 साल की उम्र के बावजूद, उन्होंने फ़ौरन हथियारबंद लोगों की एक बड़ी टुकड़ी खड़ी की जिसने नदी घाटों और सरकारी अफसरों के घरों की हिफाज़त की और कई बार बागियों से सीधी लड़ाई भी लड़ी। सारण के कलेक्टर ने रिपोर्ट किया कि जब पड़ोस का गोरखपुर जिला पूरी तरह गड़बड़झाले में डूबा था, तब सारण सीमा का एक भी गांव ऐसा नहीं था जहां गड़बड़ हुई हो और इसकी वजह महाराजा का पूरा साथ था। जब बागियों की एक बड़ी टुकड़ी सीवान के पास सुभानपुर पहुंची, तो महाराजा ने घोड़े और आदमी भेजकर बागियों को हराया।
छत्रधारी शाही एक काबिल शासक और पढ़ाई-लिखाई के शौक़ीन भी थे। उन्होंने अपनी रियासत को बढ़ाया और खजाने में करीब 40 लाख रुपये जमा किए। वह संस्कृत को बहुत बढ़ावा देते थे और उनके दरबार में मिथिला और बनारस से आए कई जाने-माने पंडित रहते थे। इनमें सबसे खास थे राम निरंजन स्वामी, जिन्हें उस ज़माने का सबसे बड़ा ज्ञानी माना जाता था। महाराजा ने उनकी देखरेख में एक संस्कृत पाठशाला खोली जहां पूरे भारत से लगभग 1000 छात्र पढ़ते थे और जिनका सारा खर्च राज उठाता था।
16 मार्च, 1858 को छत्रधारी शाही की मृत्यु हो गई। उनके राज का समय हथवा राज के लिए एक नए दौर की शुरुआत थी - बगावत और उलझन के दौर से निकलकर अंग्रेजों के साथ पक्के और दोस्ताना रिश्तों का दौर। उन्होंने अपनी वफादारी, राज चलाने की काबिलियत और संस्कृति को बढ़ावा देने से वह नींव रखी जिस पर आने वाली पीढ़ियों ने हथवा राज की इमारत खड़ी की।
सर कृष्ण प्रताप शाही
महाराजा सर कृष्ण प्रताप शाही बहादुर, इनका राजकाल 1874 से 1896 तक रहा, इन्हें हथवा राज के सबसे प्रगतिशील राजाओं में गिना जाता है। पिता की मौत के बाद कम उम्र में गद्दी संभालने वाले कृष्ण प्रताप ने पुरानी रस्मों और नई सोच के बीच बढ़िया तालमेल बिठाया। 1874 में बंगाल के लेफ्टिनेंट-गवर्नर सर रिचर्ड टेम्पल ने छपरा में एक बड़ा दरबार लगाकर उन्हें कायदे से गद्दी पर बिठाया। उन्हें कई सम्मान मिले, जिनमें 1889 में मिला 'नाइट कमांडर ऑफ द एक्साल्टेड ऑर्डर ऑफ द इंडियन एम्पायर' (KCIE) का खिताब सबसे खास था, जो दिखाता था कि अंग्रेजों की नज़र में उनका रुतबा कितना ऊंचा था। अंग्रेज़ सरकार उन पर काफ़ी भरोसा करती थी।
1894 में जब बसंतपुर में गाय बचाने को लेकर गंभीर दंगे भड़के तो लेफ्टिनेंट-गवर्नर सर एंथनी मैकडॉनल ने सीधे महाराजा को तार भेजकर कहा कि वह शांति लाने के लिए उन पर भरोसा करते हैं। महाराजा ने फ़ौरन अपने घुड़सवार, सिपाही और बंदूकची भेजकर कमिश्नर फोर्ब्स की मदद की। अंग्रेजों का उन पर इतना भरोसा था कि उन्हें अपने सिपाहियों के लिए इंग्लैंड से 60 नई मस्केट (बंदूकें) मंगाने की इजाज़त मिल गई। कृष्ण प्रताप शाही खुद संस्कृत के अच्छे जानकार थे। उन्होंने संस्कृत की कई कम मिलने वाली किताबों को ठीक करवाकर छपवाया। धर्म को भी उन्होंने खूब बढ़ावा दिया। बनारस में उन्होंने विश्वनाथ मंदिर में भगवान की मूर्ति के कुंड पर चांदी चढ़वाई और अपनी मां के बनवाए गोपालजी मंदिर की देखभाल के लिए पक्की जायदाद दान की।
महाराजा कृष्ण प्रताप ने लोगों की भलाई के कई काम किए। उन्होंने तालाब, सड़कें, कुएं, बांध बनवाए और बाग़ लगवाए। हर सर्दियों में गरीबों को कंबल बांटते थे। जानवरों के लिए भी उनके मन में गहरी दया थी। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई को भी बढ़ावा दिया, मुफ्त स्कूल खोले और बच्चों को वज़ीफे (स्कॉलरशिप) दिए।
उनके राज में हथवा राज का रौब और खुशहाली सबसे ऊंचे मुकाम पर पहुंची। हथवा शहर में शानदार इमारतें बनीं। राज की आमदनी बढ़कर 12 लाख रुपये हो गई और ज़मीन का सर्वे करवाकर किसानों के साथ साफ़-सुथरे कागज़ात बनाए गए। 20 अक्टूबर 1896 को सिर्फ 41 साल की उम्र में जब उनकी मौत हुई, तब राज के खजाने में 65 लाख रुपये नकद थे।
राज का अंत, विरासत और आज का हथवा
सदियों तक चलने वाले इस राज का औपचारिक अंत कैसे हुआ? भारत की आज़ादी के बाद, 1952 में ज़मींदारी उन्मूलन कानून लागू हुआ। इस कानून ने देश भर की ज़मींदारियों को समाप्त कर दिया और इसके साथ ही हथवा राज की प्रशासनिक और भू-राजस्व शक्तियां भी समाप्त हो गईं लेकिन आज भी यह परिवार अपनी विरासत को संजोए हुए है। वर्तमान में हथवा राज के प्रमुख महाराजा बहादुर श्री मृगेंद्र प्रताप शाही हैं। उन्हें बघोचिया भूमिहार राजवंश का 106वां प्रमुख माना जाता है।
आज हथवा का सबसे बड़ा आकर्षण बाग-बगीचों के बीच बना शानदार सफ़ेद महल, 'राज पैलेस' है। यहां पर पहले एक क़िला हुआ करता था। कहते हैं आजादी के बाद इस क़िले की खुदाई में सोने और अशरफी से भरे चांदी के 52 हंडे मिले थे। हथवा राज के इतिहास से जुड़ी एक और दिलचस्प बात बताते हैं आपको।
देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के पिता महादेव सहाय हथवा राज में मुंशी थे। हथवा के पूर्वी छोर पर 1881 में बना ईडन हाईस्कूल है। राजेंद्र बाबू जब छोटे थेए तब कुछ दिन इसी ईडन स्कूल में पढ़ाई की थी, बाद में वह छपरा चले गए। नेशनल अवार्ड जीत चुके डाक्यूमेंट्री फ़िल्म मेकर कमलेश मिश्रा, आउटलुक मैगज़ीन के एक लेख में बताते हैं, 'हथवा का महत्व आज भी ऐसा है कि रेलवे स्टेशन भले ही मीरगंज शहर में है, पर नाम उसका 'हथुआ रेलवे स्टेशन' है! यही नहीं, जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी, तब रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस की सिफारिश पर गोपालगंज जिले को सैनिक स्कूल मिला लेकिन वह स्थापित हुआ हथवा में!'
हथवा राज पैलेस की एक और शान हैं वहां खड़ी 70-80 साल पुरानी विंटेज कारें।
कैरेवन इंटरनेशनल: यह एक अनोखी कार है। इसमें दो पलंग, बाथरूम, किचन, फोन, पंखा सब कुछ है! 1940 में महाराजा ने इसे अमेरिका से मंगवाया था।
ब्यूक: यह लकड़ी से बनी अमेरिकन कार है। 1953 में खरीदी गई इस कार से राज परिवार कश्मीर घूमने गया था। लोग इसे 'कटही कार' भी कहते हैं।
वैक्सहॉल: यह इंग्लैंड की राइट-हैंड ड्राइव कार है, जिसे 1955 में खरीदा गया था। इसका आगे का दरवाज़ा उल्टा खुलता है।
लिंकन: 1948 मॉडल की यह कार कभी अमेरिकी राष्ट्रपति इस्तेमाल करते थे! इसे कोलकाता से खरीदा गया था।
मर्सिडीज: 1954 मॉडल की यह बुलेटप्रूफ कार जर्मनी ने देश के पहले राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को दी थी, जिन्होंने बाद में इसे महारानी दुर्गेश्वरी शाही को तोहफे में दे दिया था।
ये तमाम निशानियां एक बीते दौर की, एक रियासत की जिसने सदियों के उतार-चढ़ाव देखे, एक छोटी सी सरदारी से शुरू होकर, यह रियासत मुग़लों और फिर अंग्रेजों के दौर में बिहार की सबसे ताकतवर ज़मींदारियों में से एक बनी। इसने लड़ाइयां देखीं, बगावतें देखीं, घर की लड़ाइयां झेलीं और सत्ता के बदलते माहौल के साथ खुद को बदला। आज भले ही रजवाड़े खत्म हो गए हों लेकिन हथवा राज का नाम बिहार के इतिहास और लोगों की यादों में ज़िंदा है। लालू यादव वाला किस्सा इसी बात का सबूत है कि कभी इस इलाके में हथवा महाराज का रुतबा ही सत्ता का सबसे बड़ा पैमाना हुआ करता था।
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