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14 साल की जेल और नेपाल के PM तक का सफर, क्या है KP शर्मा ओली की कहानी?

बीते कुछ दशकों में नेपाल का एक नाम काफी चर्चा में रहा है। पढ़िए कि कैसे केपी शर्मा ओली ने 14 साल की सजा होने के बावजूद देश के सर्वोच्च पद हासिल किए।

kp sharma oli

केपी शर्मा ओली की कहानी, Photo Credit: Khabargaon

साल 2020 का मई महीना, पूरी दुनिया कोरोना के कहर से जूझ रही थी। लोग घरों में कैद थे, सड़कों पर सन्नाटा पसरा हुआ था। हर देश अपने लोगों की जान बचाने की जद्दोजहद में था लेकिन इसी खौफ के माहौल में नेपाल की राजनीति में एक ऐसा धमाका हुआ जिसने भारत को सकते में डाल दिया। नेपाल की संसद ने एक नया नक्शा पास कर दिया और इस नक्शे में भारत के वे हिस्से भी शामिल कर लिए गए जिन पर नेपाल पहले से दावा करता आ रहा था। 

 

लिपुलेख, लिम्पियाधुरा और कालापानी– ये तीनों इलाके, जिन्हें भारत अपना अभिन्न हिस्सा मानता है, अब नेपाल के नए नक्शे पर उकेर दिए गए थे। यानी नेपाल सरकार ने भारत को यह साफ जता दिया था कि ये तीनो इलाके उसके हैं। सवाल उठता है कि नेपाल ने यह कदम क्यों उठाया? यह जानने के लिए हमें साल 2019 में चलना होगा, जब भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर में आर्टिकल 370 को निरस्त किया तो उसके बाद जो नया नक्शा जारी किया गया था उसमें कालापानी के कुछ क्षेत्रों को भारत के नक्शे में दिखाया गया था नेपाल ने इसी के बाद साल 2020 में अपना नया नक्शा जारी किया था लेकिन कहानी जितनी साफ लग रही है यह उतनी साफ नहीं है क्योंकि इस फैसले के पीछे नेपाल के एक नेता की गहरी राजनीति थी।

 

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अब आते हैं 2024 में जब 100 रुपये के नए नेपाली नोट के चलते भारत-नेपाल संबंधों में फिर से तनाव आ गया। वजह थी वही विवादित नक्शा जिसे 2020 में नेपाली संसद ने पास किया था उसे अब नेपाल के 100 रुपये के नोट पर छापने को मंजूरी दे दी गई थी और ये नोट छाप कौन रहा था? चीन की एक कंपनी। सवाल यह उठता है कि आखिर भारत के साथ रोटी-बेटी का रिश्ता रखने वाला नेपाल आखिर चीन की गोद में क्यों बैठ गया? क्या इसके पीछे को कूटनीतिक कारण था या वजह कुछ ओर थी क्योंकि पिछले 1.5 दशक में जब-जब भारत और नेपाल के बीच कूटनीतिक संबंधों में खटास आई तो ज्यादातर वक्त सत्ता की चाबी की नेपाल के उसी नेता के हाथ में थी।

 

वह नेता जिसने फैसले और बयानों ने भारत को चुनौती दी, जिसने यह कहकर सबको सकते में डाल दिया कि 'भगवान राम का जन्म भारत में नहीं, नेपाल में हुआ था।' एक ऐसा नेता जिसने प्रधानमंत्री बनने के बाद नेपाल की सबसे अहम परंपरा ही तोड़ दी और अपनी पहली आधिकारिक यात्रा पर भारत जाने के बजाए चीन जाने का फैसला किया। यह सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, बल्कि एक संदेश था कि नेपाल की राजनीति अब नए दौर में प्रवेश कर चुकी है और इस नए दौर का नाम है केपी शर्मा ओली।

 

 

पढ़िए केपी शर्मा ओली की कहानी। कैसे एक आम से परिवार में जन्मा बच्चा, अपनी जवानी में कम्युनिस्ट विचारधारा से ऐसा प्रभावित हुआ कि उसने नेपाल की राजशाही के खिलाफ जंग छेड़ दी और अपनी इसी विचारधारा के चलते उसे 14 साल जेल में काटने पड़े। वह कौन सा आंदोलन था जिसने ओली को जनता का प्रिय नेता बना दिया? एक नेता जो चार बार नेपाल का प्रधानमंत्री बना और उसके हर कार्यकाल में भारत के साथ उसकी दूरियां बढ़ती चली गईं। आखिर ओली की राजनीति को चीन के साथ नज़दीकी क्यों सूट करती है? क्या चीन को वाकई नेपाल की जरूरत है या वजह कुछ और है? सबसे अहम सवाल केपी शर्मा ओली के नेत्रत्व में नेपाल क्या भारत के साथ आ पाएगा?

दादी की कहानियों से क्रांति की राह तक

 

तारीख़ 22 फरवरी 1952, नेपाल के कोसी रीजन के थेराथुम जिले के छोटे से गांव अथराई में एक बच्चा पैदा हुआ। नाम रखा गया—खड्ग प्रसाद शर्मा ओली। ओली अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे लेकिन बचपन में ही उनकी मां का चेचक के चलते देहांत हो गया। मां के जाने के बाद ओली की परवरिश की जिम्मेदारी पिता और दादी पर आ गई। पिता खेतीबाड़ी करते थे और उसी से घर का गुजारा चलता था। पहली पत्नी के देहांत के बाद ओली के पिता ने दूसरी शादी कर ली। इस शादी से ओली को एक सोतेला भाई और तीन बहनें मिलीं।

 

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ओली की शुरुआती पढ़ाई गांव की पाठशाला में ही हुई लेकिन वह बताते हैं कि उन्हें असली शिक्षा किताबों से कम और दादी के संस्कारों से ज्यादा मिली। दादी पढ़ी-लिखी महिला थीं। वही उन्हें अक्षरज्ञान करातीं, कहानियां सुनातीं और सही-गलत का फर्क समझातीं। ओली का ज़्यादातर वक्त दादी के साथ ही बीतता। जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, दादी की आंखों की रोशनी कम होने लगी। तब ओली उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़कर सुनाया करते।

 

साल 1962- यही वह समय था जब ओली की ज़िंदगी ने एक नया मोड़ लिया। थेराथुम का इलाका पहाड़ी था। खेतों की ज़मीन लगातार कटती रहती थी। खेती करना मुश्किल होता जा रहा था। आमदनी घटती गई और घर की हालत बिगड़ने लगी। मजबूरी में उसी साल ओली के पिता ने अपनी सारी ज़मीन बेच दी और परिवार को लेकर झापा जाने का फ़ैसला किया। झापा तराई इलाका था। यहीं खेती-किसानी से ओली का परिवार अपना गुजर बसर करने लगा। इसी बीच, ओली का दाख़िला झापा के पास ही एक स्कूल में करा दिया गया। उस वक्त उनकी उम्र मुश्किल से दस साल थी। पढ़ाई लिखाई तो चलती रही लेकिन धीरे-धीरे उनका मन किताबों से ज़्यादा राजनीति की ओर खिंचने लगा। एक पढ़ने लिखने वाले बच्चे की दिलचस्पी राजनीति में क्यों बढ़ने लगी? इसे समझने के लिए हमें उस दौर में नेपाल की राजनीति के पन्ने पलटने होंगे। 

 

बरसों से नेपाल पर राणा परिवार का राज था। राणाओं ने सत्ता पर पूरा शिकंजा कस रखा था। आम लोग इस शासन से तंग आ चुके थे लेकिन राजा के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। फिर भी, भीतर ही भीतर गुस्से की चिंगारी जल रही थी। 1940 के दशक तक आते-आते यह चिंगारी भड़कने लगी। उसी समय पड़ोसी देश भारत में अंग्रेज़ों के खिलाफ़ स्वतंत्रता आंदोलन तेज़ हो रहा था। भारत की आज़ादी की लड़ाई, उसके नारे और उसकी कहानियां नेपाल तक पहुंच रही थीं और इन्हीं लहरों ने नेपाल की जनता को भी हिम्मत दी। एक नई प्रेरणा दी कि बदलाव मुमकिन है।

भारत की आजादी और नेपाल में राजनीति

 

साल 1947 नेपाल के इतिहास में एक नया मोड़ लेकर आया। उसी साल नेपाली कांग्रेस पार्टी बनी। धीरे-धीरे कई और छोटी-बड़ी पार्टियां भी खड़ी हो गईं, जिनका मकसद था राणा शासन को उखाड़ फेंकना। नेपाल के शाह वंश के राजा त्रिभुवन भी राणाओं की कठपुतली बनते-बनते तंग आ चुके थे। आखिरकार, 1950 में उन्होंने बड़ा फैसला लिया। राजा त्रिभुवन नेपाल छोड़कर भारत चले आए और उन्होंने नई दिल्ली में शरण ली। भारत से ही उन्होंने राणा शासन के खिलाफ उठती आवाजों को अपना समर्थन दिया।

 

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इसी बीच नेपाली कांग्रेस ने भारत की सीमा से सशस्त्र विद्रोह शुरू किया। इतिहास इसे 1950–51 की क्रांति के नाम से जानता है। जनता का गुस्सा, नेपाली कांग्रेस का आंदोलन और भारत का समर्थन- इन तीनों की ताक़त ने मिलकर राणाओं को झुकने पर मजबूर कर दिया। 1951 में ‘दिल्ली समझौता’ हुआ। राणा शासन का अंत हो गया और त्रिभुवन फिर से नेपाल लौटे लेकिन बतौर राजा। उन्होंने वादा किया कि अब नेपाल में लोकतंत्र स्थापित होगा, जहां जनता अपने प्रतिनिधि चुनेगी और अपनी आवाज़ उठा सकेगी। हालांकि, यह पूर्ण लोकतंत्र नहीं था क्योंकि अब भी नेपाल में शासन व्यवस्था राजा के हाथ में ही था। 

 

साल 1955 में त्रिभुवन का निधन हो गया और उनके बेटे महेंद्र गद्दी पर बैठे। चार साल बाद, 1959 में नेपाल का पहला संविधान लागू हुआ और देश में पहली बार आम चुनाव हुए। यह नेपाल की जनता के लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। नेपाली कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज की और बीपी कोइराला देश के पहले लोकतांत्रिक प्रधानमंत्री बने। इस चुनाव में कुछ सीटें कम्युनिस्ट पार्टी और गोर्खा परिषद के पास भी गईं।

 

लोकतंत्र का यह सपना ज़्यादा दिन टिक नहीं पाया। सिर्फ़ एक साल बीता था कि 1960 में राजा महेंद्र ने तख़्तापलट कर दिया। संविधान बर्खास्त कर दिया, सरकार भंग कर दी और राजनीतिक दलों पर पाबंदी लगा दी और नेपाल में शुरू हुआ पार्टीलेस पंचायत सिस्टम। इसमें राजनीतिक दलों को कोई जगह नहीं थी। सत्ता पूरी तरह राजा के हाथों में थी। पंचायतों का ढांचा बनाया गया, मगर ये पंचायतें सिर्फ़ राजा की हां में हां मिलाने का काम करतीं। असहमति जताने वालों को जेलों में ठूंस दिया जाता।

 

यही वह दौर था जब केपी शर्मा ओली बड़े हो रहे थे। साल 1966–67 के आसपास, जब वह महज़ 14–15 साल के थे, दोस्तों के साथ पंचायत सिस्टम की खामियों पर चर्चा करते। ओली का मानना था कि यह व्यवस्था गलत है, क्योंकि इससे आम लोग उनके अधिकारों से वंचित रह जाते। यही वह दौर था जब केपी शर्मा ओली का झुकाव कम्युनिज़म की तरफ बढ़ने लगा। वह अक्सर कहते कि कम्युनिस्ट गरीबों की पार्टी है और इसका समर्थन करना चाहिए। उस समय उन्हें कम्युनिज़्म की गहराई का पूरा ज्ञान नहीं था, मगर जिज्ञासा तेजी से बढ़ रही थी।


ओली की इस जिज्ञासा को राह दिखाई रामनाथ दाहाल ने-जो उनके एक दोस्त के चाचा और दूर के रिश्तेदार थे। रामनाथ एक अनुभवी कम्युनिस्ट थे। उन्होंने ओली का परिचय मार्क्सवाद और लेनिनवाद से कराया, चीन में माओ त्से-तुंग की क्रांति और क्यूबा में चे ग्वेरा के किस्से सुनाए। इंडोनेशिया के सुकर्णो से लेकर यूरोप के दार्शनिकों तक कुल मिलाकर रामनाथ उन्हें दुनिया भर की विचारधाराओं से जोड़ते चले गए। धीरे-धीरे ओली के भीतर कम्युनिस्ट विचारधारा गहरी होती चली गई।

 

साल 1970 में महज़ 18 साल की उम्र में ओली ने नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली। उस वक्त पार्टी गुप्त रूप से काम करती थी, क्योंकि पंचायत सिस्टम में राजनीतिक दल अवैध थे। ओली भी अब गुप्त आंदोलनों का हिस्सा बन चुके थे। 1971 में जब ‘एंटी-बुर्जुआ एजुकेशन मूवमेंट’ शुरू हुआ तो उन्होंने और उनके दोस्तों ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यह आंदोलन शिक्षा को पूंजीवादी प्रभाव से मुक्त करने की मांग करता था। स्कूलों में हड़तालें हुईं, प्रदर्शन हुए। मगर असली तूफान अभी बाकी था और वह तूफान आया साल 1971 में —झापा विद्रोह।

एक विद्रोह और 14 साल की कैद

 

साल 1971 में नेपाल के झापा जैसे तराई इलाके में जमींदारों का आतंक था। लोग पंचायती व्यवस्था और सामंती शोषण से परेशान थे। गरीब किसान और मजदूरों का शोषण आम हो चला था। उनकी जमीनें छीन ली जातीं, मेहनत का पसीना बिना कीमत बहता और विरोध करने पर प्रशासन जेलों में ठूंस देता। लोगों का गुस्सा चरम पर था। यही वह समय था जब नेपाल में कम्युनिस्ट विचारधारा गांव-गांव, खेत-खलिहान तक तेजी से फैलने लगी। उस वक्त एक तरफ चीन में माओ की सांस्कृतिक क्रांति की गूंज थी तो दूसरी तरफ भारत में नक्सलबाड़ी आंदोलन अपने चरम पर था। ऐसे में नेपाल के लोगों को भी लगने लगा कि इस शोषण के खिलाफ अब भाषणों से नहीं बल्कि हथियारों से निपटना होगा।

 

19 साल के केपी शर्मा ओली भी इस लहर से अछूते नहीं रहे। उन्हें भी लगने लगा कि अगर जमींदारों का आतंक खत्म करना है, अगर किसानों को उनका हक दिलाना है तो सशस्त्र विद्रोह ही रास्ता है। इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी का उग्र धड़ा सामने आया, जिसे बाद में 'झापा क्रांतिकारी समूह' कहा गया। इसके नेता थे चंद्र प्रकाश मैनाली, मोहनचंद्र अधिकारी और राधाकृष्ण मैनाली। ओली भी इनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर मैदान में उतर गए। जब झापा आंदोलन का असली चेहरा सामने आया तो उसमें एक ही बात साफ़ झलकती थी- 'क्लास एनिमी' को खत्म करना। यानी ऐसे समूहों को खत्म करना जो गरीब मजदूरों-किसानों का हक छीनते हैं। रणनीति सीधी थी। कार्यकर्ता चुपचाप गांवों में पहुंचते, किसानों और मजदूरों को जोड़ते और फिर जमींदारों के खिलाफ छोटी-छोटी कार्रवाइयां करते। कहीं उनकी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया जाता, कहीं अचानक हमला बोलकर डर का माहौल बनाया जाता।

 

मई 1971 में आंदोलन ने औपचारिक रूप से आग पकड़ी। झापा के कई गांवों में जमींदारों को निशाना बनाया गया। यह शुरुआत भले ही छोटे पैमाने पर थी लेकिन इसकी गूंज पूरे नेपाल में फैल गई। खासकर युवाओं के बीच यह विद्रोह उम्मीद की तरह था क्योंकि पहली बार किसी संगठन ने पंचायत व्यवस्था और जमींदारों के खिलाफ सीधे हथियार उठाने की हिम्मत दिखाई थी लेकिन यह जोश ज़्यादा समय तक टिक नहीं पाया। 1972 आते-आते सरकार ने पूरी ताकत झोंक दी। पुलिस ने गांव-गांव छापेमारी की, सैकड़ों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। कइयों को मौत के घाट उतार दिया गया, इस आंदोलन से जुड़े लोग कई महीनों तक यातनाएं झेलते रहे। सरकार की सख्ती के चलते झापा का यह आंदोलन धीरे-धीरे दम तोड़ने लगा।

 

मार्च 1973 में ओली को सबसे बड़ा झटका तब लगा जब उनके राजनीतिक मार्गदर्शक रामनाथ दहल को पंचायत प्रशासन ने बेरहमी से मार डाला। यह हत्या न सिर्फ ओली बल्कि पूरे झापा आंदोलन के लिए एक गहरी चोट थी। झापा आंदोलन का अंत हो चुका था लेकिन इसने एक नई पीढ़ी को गढ़ दिया था और उसी गढ़ी हुई पीढ़ी में खड़ा था एक नौजवान—केपी शर्मा ओली—जो अब धीरे-धीरे राजनीति के गुर सीख रहा था।
 
झापा विद्रोह की गूंज थम चुकी थी लेकिन उसका असर दूर तक गया। सरकार ने कम्युनिस्टों पर शिकंजा इतना कसा कि कहीं भी, किसी भी समय गिरफ्तारी हो सकती थी। अक्टूबर 1973 में महज़ 21 साल की उम्र में ओली की बारी भी आ गई। वह रौताहट में थे, तभी किसी मुखबिर ने पुलिस को खबर दी और उन्हें घेरकर हिरासत में ले लिया गया। उन पर जमींदार धर्म प्रसाद धाकल की हत्या और सशस्त्र विद्रोह में शामिल होने के गंभीर आरोप लगे। उस दौर में कम्युनिस्ट गतिविधियां अवैध मानी जाती थीं। सरकार हर हाल में विद्रोह को कुचल देना चाहती थी। नतीजा यह हुआ कि अदालत ने ओली को 14 साल जेल की सजा सुनाई। यह सजा उनकी जिंदगी का सबसे लंबा, सबसे कठिन अध्याय साबित होने वाली थी।

 

1973 से 1987 तक, पूरे 14 साल, ओली को नेपाल की अलग-अलग जेलों में कैद रखा गया। कुल 25 बार उन्हें एक जेल से दूसरी जेल में भेजा गया। सबसे कठिन समय रहा काठमांडू की सेंट्रल जेल का गोलघर, जहां उन्हें चार साल तक अकेले जेल में बंद रखा गया, जहां न कोई बात करने वाला था, न कोई सहारा। जेल का वक्त ऐसा था कि 1973 से 1979 ओली को अपने परिवार तक से नहीं मिलने दिया गया। इस दौरान ओली पूरी दुनिया से कट चुके थे। आख़िरकार, साल 1987 में 14 साल बाद, ओली को जेल से रिहा किया गया। कहा जाता है कि यह रिहाई राजा बीरेंद्र के शासनकाल में राजकीय क्षमादान के तहत हुई थी।

 

 नेपाल, ओली और उतार-चढ़ाव

 

जेल से बाहर निकलते ही ओली के भीतर एक आग थी- नेपाल में कम्युनिस्ट आंदोलन को खड़ा करना और लोकतंत्र की जड़ों को गहरा करने की आग लेकिन नेपाल की जमीन पर लोकतंत्र स्थापित करना कोई आसान काम नहीं था। जेल से निकलने के बाद ओली ने अपनी पूरी ताकत कम्युनिस्ट पार्टी को मजबूत करने में झोंक दी। ओली ने लुंबिनी जोन में कार्यकर्ताओं को जोड़ना और गांव-गांव जाकर लोगों को समझाना शुरू किया। उनकी बातें असर करती थीं, जनता की नज़र में वह एक ऐसे नेता थे, जिसने अपने सिद्धांतों के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया।

 

1980 के दशक के आखिर तक लोकतंत्र की लहर पूरे नेपाल में उठने लगी। लोग अब चुप रहने को तैयार नहीं थे। 1989 में ओली ने एक बड़ा कदम उठाया—उन्होंने यूनाइटेड लेफ्ट फ्रंट का हिस्सा बनकर विपक्षी दलों, यहां तक कि नेपाली कांग्रेस के साथ भी हाथ मिला लिया। मकसद साफ़ था—पंचायत व्यवस्था को गिराना।

 

1990 आते-आते सड़कों पर जनता का सैलाब उमड़ पड़ा। काठमांडू की गलियां लोकतंत्र की मांग से गूंज रही थीं। पुलिस की लाठियां, आंसू गैस और गोलियों ने आंदोलन को दबाने की कोशिश की लेकिन लोग इस बार पीछे नहीं हटे। यही था जन आंदोलन-1, जिसके चलते आखिरकार राजा बीरेंद्र को झुकना पड़ा। नया संविधान आया और बहुदलीय लोकतंत्र की शुरुआत हुई। जिसके बाद राजा सिर्फ एक संवैधानिक प्रतीक रह गया। यह ओली और उनके साथियों की बड़ी जीत थी।

 

इस जीत ने ओली को राष्ट्रीय पहचान दिला दी। 1991 में लोकतांत्रिक चुनाव हुए और झापा से वह भारी मतों से जीतकर सांसद बने। यहीं से ओली की राजनीतिक यात्रा शुरू हुई। उसी साल कम्युनिस्ट पार्टियों का विलय हुआ और CPN-UML बनी। ओली इस नई पार्टी की केंद्रीय कमेटी में पहुंचे। राजनीति में उनकी रणनीति और साफगोई ने उन्हें जल्द ही बड़ी पहचान दिलाई। 1994 में वह फिर से सांसद बने और मनमोहन अधिकारी की सरकार में गृह मंत्री का कार्यभार संभाला। युवाओं में उनकी छवि तेज़ी से बढ़ रही थी लेकिन नेपाल की सियासत कब शांत बैठी है? 1996 में माओवादी विद्रोह शुरू हुआ। माओवादियों ने हथियार उठाकर सरकार को चुनौती दी और गांवों में अपनी समानांतर सत्ता चलाने लगे। लोकतंत्र अभी मजबूत हुआ ही था कि यह नई जंग शुरू हो गई। 2001 में हालात और बिगड़ गए, जब काठमांडू के राजमहल में भयानक नरसंहार हुआ। राजा बीरेंद्र, रानी ऐश्वर्या और शाही परिवार के कई लोग मारे गए। आरोप क्राउन प्रिंस दीपेंद्र पर लगे। इस घटना ने पूरे देश को हिला दिया।

 

इसके बाद राजा ज्ञानेंद्र गद्दी पर बैठे लेकिन वह अपने भाई की तरह सिर्फ प्रतीक बनकर रहने को तैयार नहीं थे। धीरे-धीरे उन्होंने सारी सत्ता अपने हाथ में ले ली। 2005 में तब हद पार हो गई— जब ज्ञानेंद्र ने संसद भंग कर दी, नेताओं को कैद किया और प्रेस की आज़ादी पर ताला लगा दिया। नेपाल फिर से राजशाही की गिरफ्त में आ गया। 2006 से लेकर 2024 तक का सफर नेपाल के लिए बेहद नाटकीय और अहम रहा। यही वह दौर है, जब राजशाही का परदा गिरा और गणतंत्र की नई पटकथा लिखी गई।

 

2006 में सड़कों पर बगावत का शोर गूंज रहा था। लोग अब राजा ज्ञानेंद्र की हुकूमत बर्दाश्त करने को तैयार नहीं थे। आंदोलन की आग हर गली और चौक में धधक रही थी। माओवादी, जो वर्षों से जंगलों में बंदूक उठाए लड़ रहे थे, पहली बार मुख्यधारा के राजनीतिक दलों के साथ खड़े दिखे। यह किसी कोने में खामोश समझौता नहीं था, बल्कि जनता के बीच एक ऐलान था—अब राजशाही खत्म होगी। आंदोलन ने इतनी ताक़त पकड़ी कि आखिरकार राजा को झुकना पड़ा। भारत की मध्यस्थता से हुआ शांति समझौता न केवल माओवादी युद्ध का अंत था, बल्कि इससे 240 साल पुरानी राजशाही की नींव भी हिल गई।

 

फिर आया 2008 का वह ऐतिहासिक दिन। संविधान सभा की पहली बैठक में नेपाल को संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र घोषित किया गया। नारायणहिटी पैलेस, जो कभी शाही ताक़त का गढ़ था, अब बस एक म्यूज़ियम बनकर रह गया। ज्ञानेंद्र, जो कभी राजा थे, अब आम नागरिक बन गए। यह जीत तो थी लेकिन आगे का रास्ता आसाना नहीं था।

संविधान लिखने की चुनौती

 

संविधान लिखना सबसे बड़ी चुनौती बन गया। जातीय पहचान बनाम भौगोलिक आधार पर प्रदेश बनाने की बहस ने नेताओं को अलग-अलग खेमों में बांट दिया। कोई भी किसी पर भरोसा करने को तैयार नहीं था। सरकारें आतीं और कुछ ही महीनों में गिर जातीं। प्रचंड हों, बाबूराम भट्टराई हों या झलनाथ खनाल—किसी का भी कार्यकाल स्थिर नहीं रहा। 2012 में जब सुप्रीम कोर्ट ने पहली संविधान सभा को ही भंग कर दिया तो लगा कि शायद नेपाल में लोकतंत्र का सपना अधूरा ही रह जाएगा लेकिन जनता और नेताओं ने हिम्मत नहीं हारी। 2013 में फिर चुनाव हुए। नेपाली कांग्रेस आगे निकली और माओवादी पिछड़ गए। यही वह वक्त था जब केपी शर्मा ओली की आवाज़ तेज़ होने लगी। उन्होंने मधेसी मांगों का विरोध किया और खुद को नेपाली राष्ट्रवाद का चेहरा बना लिया। पहाड़ों में उनके इस तेवर को खूब सराहा गया।

 

फिर 2015 में प्रकृति ने नेपाल को सबसे बड़ा घाव दिया। भूकंप ने हजारों जानें ले लीं और देश को खंडहरों में बदल दिया। इस त्रासदी ने नेताओं को मजबूर किया कि अब संविधान पर सहमति ज़रूरी है। उसी साल सितंबर में नया संविधान लागू हुआ लेकिन इस खुशी के साथ नया संकट भी खड़ा हो गया। मधेसी और तराई के समुदायों ने संविधान को नकार दिया। सीमा पर नाकाबंदी हुई, पेट्रोल और दवाइयां कम हो गईं। नेपाल जैसे घुटनों पर आ गया।

 

इसी दौर में 2015 में ओली पहली बार प्रधानमंत्री बने। उन्होंने भारत पर निर्भरता कम करने और चीन से रिश्ते मजबूत करने की नीति अपनाई। लोग उन्हें एक साहसी नेता के रूप में देखने लगे लेकिन गठबंधन की राजनीति ने उनकी पहली पारी ज्यादा लंबी नहीं चलने दी। 2017 में ओली ने बड़ा दांव खेला। उन्होंने अपने पुराने प्रतिद्वंद्वी प्रचंड के साथ हाथ मिलाकर वाम गठबंधन बनाया। इस गठबंधन ने चुनाव में बंपर जीत हासिल की। 2018 में ओली दूसरी बार प्रधानमंत्री बने और इस बार उनकी कुर्सी मजबूत थी। UML और माओवादी पार्टी के विलय से नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी बनी। ऐसा लगा कि अब राजनीतिक स्थिरता आ गई है।

ओली और प्रचंड की दुश्मनी

 

यह स्थिरता भी ज्यादा लंबी नहीं चली, ओली और प्रचंड की दोस्ती जल्द ही दुश्मनी में बदल गई। पार्टी के भीतर ही सत्ता की जंग छिड़ गई। हालात ऐसे बने कि 2020 में ओली ने संसद भंग कर दी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला पलट दिया लेकिन ओली ने दोबारा संसद भंग कर दी। आखिरकार 2021 में केपी शर्मा ओली को सत्ता छोड़नी पड़ी। इस दौरान उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि भारत उनकी सरकार गिराने की साजिश कर रहा है। उनके इस बयान ने भारत-नेपाल रिश्तों में तल्खी और गहरी कर दी।

 

इसके बाद नेपाल फिर से अस्थिरता के घेरे में घिर गया। 2022 के चुनावों में किसी को बहुमत नहीं मिला। प्रचंड कभी ओली के साथ जाते, कभी कांग्रेस के साथ। गठबंधन बनते और टूटते रहे। मार्च 2024 में प्रचंड फिर ओली की ओर लौटे लेकिन जुलाई आते-आते उनकी सरकार ढह गई। सत्ता का खेल ऐसा पलटा कि ओली चौथी बार प्रधानमंत्री बन बैठे। इस बार उनके साथ नेपाली कांग्रेस थी—यानी वही कांग्रेस, जो कभी उनका सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी हुआ करती थी।

एक नक्शा और भारत-नेपाल का झगड़ा

 

साल 2020 नेपाल की राजनीति में तूफ़ान लेकर आया। उस वक्त प्रधानमंत्री थे केपी शर्मा ओली। अचानक उन्होंने ऐसा कदम उठाया, जिससे नेपाल-भारत रिश्तों में खिंचाव आ गया। ओली ने नया नक्शा जारी किया, जिसमें कालापानी, लिपुलेख और लिम्पियाधुरा—तीनों विवादित इलाके—को नेपाल का हिस्सा दिखा दिया। यह कोई मामूली फैसला नहीं था। ओली ने सिर्फ नक्शा छापा ही नहीं, बल्कि उसे संसद से पास भी करवाया और फिर उसे नेपाल के राष्ट्रीय प्रतीक का हिस्सा बना दिया। हालात ऐसे बन गए कि यह नक्शा अब स्कूल-कॉलेज की किताबों से लेकर सरकारी दफ्तरों तक हर जगह दिखने लगा और जब हाल ही में नेपाल सरकार ने ऐलान किया कि नए 100 रुपये के नोट पर भी यही नक्शा छापा जाएगा तो मामला और भड़क उठा। भारत ने इसे एकतरफा फैसला करार दिया और कड़ा विरोध जताया।

 

अब सवाल यह था कि ओली ने इतना बड़ा दांव क्यों खेला? दरअसल, मई 2020 में भारत ने उत्तराखंड से लिपुलेख पास तक 80 किलोमीटर लंबी सड़क का उद्घाटन किया। भारत का कहना था कि यह सड़क कैलाश मानसरोवर यात्रा को आसान बनाएगी लेकिन नेपाल ने इसे अपनी ज़मीन पर अतिक्रमण बताया। यही वह मौका था, जब ओली ने राष्ट्रवाद का कार्ड खेला और 20 मई को नया नक्शा जारी कर दिया।

 

ओली ने कहा कि यह नक्शा नेपाल की ऐतिहासिक और कानूनी ज़मीन दिखाता है। उन्होंने 1816 की सुगौली संधि का हवाला दिया और कहा जिसमें साफ लिखा है कि महाकाली नदी के पश्चिम का इलाका नेपाल का है। उनके मुताबिक कालापानी और आसपास का इलाका उसी संधि के तहत नेपाल की सरहद में आता है लेकिन असल कहानी इससे गहरी थी। उस वक्त ओली की अपनी कुर्सी डगमगा रही थी। पार्टी के बड़े नेता—प्रचंड और माधव नेपाल—खुले तौर पर उनके खिलाफ हो गए थे। पार्टी टूट की कगार पर थी। ऐसे में ओली को ऐसा मुद्दा चाहिए था, जो उन्हें जनता का हीरो बना दे। नक्शा वही मुद्दा बन गया। संसद ने इसे सर्वसम्मति से पास किया और जनता ने ओली को “राष्ट्रवादी नेता” के तौर पर सराहा। उनका नारा—'हम अपनी मातृभूमि का एक इंच भी नहीं छोड़ेंगे'—लोगों की जुबान पर चढ़ गया।

 

विवाद यहीं खत्म नहीं हुआ। मई 2024 में जब नेपाल ने ऐलान किया कि नए 100 रुपये के नोट पर भी यही नक्शा छापा जाएगा तो भारत ने फिर आपत्ति जताई। यहां तक कि नेपाल के कई पूर्व राजनयिकों ने भी कहा कि यह कदम उकसाने वाला है। मगर ओली के लिए यह एक और मौका था यह दिखाने का कि वह झुकने वाले नेता नहीं हैं।

 

2022 के चुनावी भाषणों में भी ओली ने इस मुद्दे को खुलकर भुनाया। उन्होंने कहा था कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आई, तो वे इन इलाकों को वापस लाएंगे। यानी उन्होंने इस विवाद को सीधा अपनी राजनीति से जोड़ लिया। फिर चर्चा शुरू हुई चीन के रोल की। कई लोग कहते हैं कि जब 2020 में भारत और चीन लद्दाख में आमने-सामने थे, उसी समय नेपाल ने नक्शा जारी किया। शक यह था कि ओली ने चीन के इशारे पर भारत को दबाव में लाने की कोशिश की। ओली ने इसे खारिज किया और कहा कि यह नेपाल का खुद का फैसला है लेकिन 2024 में जब नेपाल ने नए नोट छापने का ठेका एक चीनी कंपनी को दिया तो शक और गहरा गया। यही कंपनी 100 रूपये का वह नोट भी छापने वाली है जिसपर विवादित नक्शा छापने की बात कही जा रही है।
 
कह सकते हैं, नक्शे का यह विवाद ओली की राजनीति का ऐसा दांव था, जिसने उन्हें गिरती हुई स्थिति से दोबारा उठने का मौका दिया। इससे उन्होंने नेपाल की जनता में तो अपनी पैठ बना ली लेकिन इससे भारत-नेपाल रिश्तों में दरार और गहरी हो गई।

नेपाल को चीन के करीब और भारत से दूर ले जाते ओली

 

जुलाई 2024 में जब वह चौथी बार प्रधानमंत्री बने तो सबको यही उम्मीद थी कि ओली परंपरा निभाते हुए सबसे पहले भारत का दौरा करेंगे लेकिन इस बार ओली ने तब अचानक सबको चौंका दिया जब उन्होंने अपने पहले विदेशी दौरे के लिए चीन को चुना। यह सिर्फ एक यात्रा नहीं थी, बल्कि नेपाल की बदलती कूटनीतिक दिशा, ओली की राष्ट्रवादी छवि और चीन के बढ़ते प्रभाव की एक बड़ी कहानी का हिस्सा थी। 

 

नेपाल और भारत का रिश्ता किसी साधारण पड़ोसियों जैसा नहीं है। इसे लोग ‘रोटी-बेटी का रिश्ता’ कहते हैं—यानी शादी-ब्याह, व्यापार, संस्कृति, भाषा, फिल्में, सब कुछ एक-दूसरे में घुला-मिला है। इसी दोस्ती को और मजबूत करने के लिए नेपाल के प्रधानमंत्री पारंपरिक रूप से भारत से ही अपने कार्यकाल की शुरुआत करते हैं लेकिन जब ओली सत्ता में आए, तो भारत की तरफ से कोई न्योता नहीं आया। सितंबर 2024 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान उनकी मुलाकात नरेंद्र मोदी से जरूर हुई लेकिन भारत ने उन्हें औपचारिक निमंत्रण नहीं भेजा। यह खामोशी ओली के लिए इशारा थी और उन्होंने इस मौके की नज़ाकत को नज़रअंदाज़ कर चीन की ओर रुख कर लिया।

 

ओली हमेशा से खुद को एक ऐसे नेता के रूप में पेश करते रहे हैं, जो नेपाल को भारत की छाया से बाहर निकालना चाहता है। 2015 की भारत-नेपाल सीमा नाकाबंदी ने इस सोच को और मजबूत कर दिया। उस दौरान पेट्रोल, दवाइयों और जरूरी सामान की किल्लत ने नेपाल को झकझोर दिया था। ओली ने उस संकट को भारत विरोधी भावनाओं में बदला और चीन के साथ संबंध गहरे करने की शुरुआत की। इस बार भी उन्होंने वही कार्ड खेला—चीन जाकर यह दिखाना कि नेपाल अब सिर्फ भारत पर निर्भर नहीं रहेगा लेकिन ओली का दिसंबर 2024 का चीन दौरा केवल प्रतीकात्मक नहीं था। इसके पीछे उनकी बड़ी रणनीति थी और यह रणनीति थी चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को नेपाल की जमीन पर उतारना। नेपाल ने 2017 में BRI पर दस्तखत किए थे लेकिन सात साल बाद भी कोई बड़ा प्रोजेक्ट शुरू नहीं हो पाया। उल्टा, एकमात्र बड़ा प्रोजेक्ट—पोखरा इंटरनेशनल एयरपोर्ट—नेपाल के गले की हड्डी बन गया। चीन के एक्जिम बैंक से लिए गए भारी-भरकम ब्याज वाले कर्ज से बना यह एयरपोर्ट घाटे में चला गया क्योंकि भारत ने इसके लिए अपने हवाई क्षेत्र का इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं दी। नतीजा—उड़ानें नहीं आ रहीं और नेपाली जनता टैक्स से इसकी कीमत चुका रही है।

 

यहीं से BRI को लेकर संदेह गहराने लगा। श्रीलंका का हंबनटोटा पोर्ट, जो कर्ज चुकाने में नाकामी की वजह से चीन को सौंपना पड़ा, नेपाल के लिए एक डरावनी मिसाल बन गया। नेपाल की गठबंधन सरकार में शामिल नेपाली कांग्रेस ने साफ कह दिया कि अब प्रोजेक्ट्स सिर्फ अनुदान पर ही होने चाहिए, महंगे कर्ज पर नहीं लेकिन चीन अपनी शर्तों पर अड़ा है। वह चाहता है कि नेपाल जल्दी से जल्दी रसुवागढ़ी-काठमांडू सड़क, किमाथांका-हिले सड़क, ट्रांसमिशन लाइन और कीरुंग-काठमांडू रेलवे जैसे प्रोजेक्ट्स शुरू करे।

 

अपनी पहली यात्रा के दौरान ओली की सबसे बड़ी कोशिश यही थी कि चीन पोखरा एयरपोर्ट का 215 मिलियन डॉलर का कर्ज माफ कर दे। अगर ऐसा होता तो वह जनता को दिखा सकते थे कि उन्होंने चीन से बिना शर्त मदद दिलाई। इससे उनकी छवि भी सुधरती और कांग्रेस का विरोध भी कम होता लेकिन चीन ने इस मांग को ठुकरा दिया। बीजिंग का तर्क था—अगर नेपाल को राहत दी गई तो बाकी देश भी ऐसी ही मांग करेंगे और इससे उसकी पूरी BRI रणनीति कमजोर पड़ जाएगी।

 

दरअसल, ओली का चीन दौरा उनके राष्ट्रवादी एजेंडे और आर्थिक मजबूरियों का मिश्रण था। एक तरफ वह नेपाल की जनता को यह दिखाना चाहते हैं कि वह भारत की मदद के बिना भी देश चला सकते हैं वहीं दूसरी तरफ कर्ज और विकास की चुनौतियों से जूझते देश के लिए चीन से मदद मांगना था। नेपाल की अर्थव्यवस्था कोविड के बाद से कमजोर है और बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स के लिए पैसे नहीं हैं। ओली जानते हैं कि अगर BRI प्रोजेक्ट्स शुरू हो गए तो उनकी छवि एक ‘एक्शन मैन’ की बनेगी लेकिन उनकी राह में सबसे बड़ी रुकावट है- नेपाली कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन और चीन की सख्त शर्तें।

 

नेपाल की भौगोलिक स्थिति भी इस कहानी को और जटिल बनाती है। नेपाल का दो-तिहाई व्यापार भारत के साथ है जबकि चीन का हिस्सा सिर्फ 14% है। भारत के कोलकाता बंदरगाह से नेपाल आसानी से व्यापार करता है जबकि चीन के बंदरगाह हजारों किलोमीटर दूर हैं लेकिन 2015 की नाकाबंदी के बाद से नेपाल ने भारत से दूरी बनानी शुरू कर दी। यही सोच ओली जैसे नेताओं को बार-बार चीन की तरफ धकेलती है।

उधर चीन नेपाल को किसी आर्थिक सांझेदार के तौर पर नहीं देख रहा बल्कि वह अपनी कूटनीतिक रणनीति के तहत नेपाल का इस्तेमाल करना चाहता है। नेपाल उसके लिए रणनीतिक महत्व रखता है। तिब्बत से लगे लंबे बॉर्डर और तिब्बती शरणार्थियों की मौजूदगी चीन के लिए चिंता का विषय है। यही वजह है कि बीजिंग नेपाल में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है—फिर चाहे वह BRI प्रोजेक्ट्स के ज़रिए हो या आर्थिक मदद के तौर पर।
 
ओली का चीन दौरा इस बात का प्रतीक है कि नेपाल किस दिशा में बढ़ रहा है। वह इसे अपने राष्ट्रवादी और विकासशील एजेंडे के तौर पर पेश करना चाहते हैं लेकिन सवाल यही है- क्या चीन उनकी मांगें मानेगा या फिर यह दौरा सिर्फ एक दिखावे की कवायद बनकर रह जाएगा? नेपाल की जनता और राजनीति दोनों ही इस जवाब का इंतजार कर रहे हैं।

चीन-नेपाल रेल प्रोजेक्ट

 

अब लगे हाथ उस चीन और नेपाल के बीच उस रेल प्रोजेक्ट की भी बात कर लेते हैं जिसे नेपाल के लिए गेम चेंजर बताया जा रहा है। चीन-नेपाल रेल प्रोजेक्ट नेपाल और चीन के बीच प्रस्तावित एक महत्वाकांक्षी इंफ्रास्ट्रक्चर योजना है, जिसका उद्देश्य काठमांडू को चीन के तिब्बत क्षेत्र के केरुंग से जोड़ना है। इस प्रोजेक्ट से दोनों देशों के बीच सीधी कनेक्टिविटी स्थापित होगी। जून 2018 में नेपाल और चीन ने इस रेल लाइन के लिए सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और तब से यह चर्चा का विषय बना हुआ है। प्रस्तावित रेल लाइन लगभग 72 किलोमीटर लंबी होगी, जिसमें करीब 98.5% हिस्सा ब्रिज और टनल के जरिए बनाया जाएगा। 2018 में चीन की नेशनल रेलवे अथॉरिटी की प्री-फीज़िबिलिटी रिपोर्ट के अनुसार, प्रति किलोमीटर लागत लगभग एनपीआर 3.55 अरब यानी करीब 22 करोड़ रुपये अनुमानित की गई थी।

 

अब तक की प्रगति देखें तो 2019 में दोनों देशों के बीच फीजिबिलिटी स्टडी के लिए नया समझौता हुआ था। इसके बाद 2024 में चीन की टीम ने ऑन-साइट सर्वे पूरा किया और कहा गया कि साल के अंत तक एक्सप्लोरेशन वर्क समाप्त हो जाएगा लेकिन अब तक इसकी रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है। इस बीच प्रोजेक्ट को लेकर विवाद भी गहराता गया है। सबसे बड़ी चिंता इसकी लागत और नेपाल की आर्थिक स्थिति से जुड़ी है। यह प्रोजेक्ट बेहद महंगा है और नेपाल की वित्तीय क्षमता ऐसी नहीं है कि वह चीन से ऊंचे ब्याज दर पर कर्ज़ ले सके। नेपाल का मौजूदा विदेशी कर्ज़ पहले से ही बहुत अधिक है, साथ ही चीन को नेपाल का निर्यात बेहद कम है जबकि नेपाल का 60% से ज्यादा व्यापार भारत के साथ होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि इतनी बड़ी लागत वाले इस प्रोजेक्ट से नेपाल को वास्तविक लाभ कितना मिलेगा।

 

कई विशेषज्ञों का मानना है कि अगर नेपाल इस प्रोजेक्ट के लिए कर्ज लेता है तो यह पोखरा एयरपोर्ट जैसी स्थिति दोहरा सकता है, जहां भारी कर्ज लेकर एयरपोर्ट बनाया गया लेकिन अंतरराष्ट्रीय उड़ानें आज तक शुरू नहीं हो पाई हैं। दूसरी ओर चीन इस प्रोजेक्ट को अपनी बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) का हिस्सा मानता है और माना जा रहा है कि वह कॉन्ट्रैक्ट केवल अपनी कंपनियों को देने की शर्त भी रख सकता है, जिससे नेपाल की स्थानीय उद्योग को कोई लाभ नहीं मिलेगा। फिलहाल नेपाल ने साफ किया है कि वह नए लोन नहीं लेगा लेकिन बिना बड़े फंड के इस प्रोजेक्ट का आगे बढ़ना मुश्किल है। आने वाले समय में होने वाले समझौतों और बातचीत से ही तय होगा कि यह प्रोजेक्ट हकीकत बनेगा या केवल कागज़ों पर ही रह जाएगा।


भगवान राम नेपाल के हैं?

 

ओली भारत को चिढ़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ते। 13 जुलाई 2020 को ओली ने एक कार्यक्रम में कहा कि असली अयोध्या भारत में नहीं, बल्कि नेपाल के बीरगंज के पास थोरी नाम की जगह पर है और भगवान राम का जन्म भी वहीं हुआ था। उन्होंने यह भी कहा कि भारत में अयोध्या को लेकर विवाद है लेकिन नेपाल की अयोध्या को लेकर कोई झगड़ा नहीं। यह बयान सुनते ही भारत में बवाल मच गया। लोग भड़क गए, क्योंकि अयोध्या और भगवान राम हिंदुओं के लिए बेहद पवित्र हैं और यह कहना कि राम नेपाल के थे, कई लोगों की आस्था पर चोट थी।

 

इस बयान के बाद नेपाल में खूब विरोध हुआ। मधेश क्षेत्र में, जहाँ हिंदू आबादी ज्यादा है, लोग सड़कों पर उतरे, ओली के पुतले जलाए गए और हिंदू परिषद ने उनसे माफी मांगने को कहा। जनकपुर, जो सीता का जन्मस्थान माना जाता है, वहां भी लोगों ने ओली के खिलाफ नारेबाजी की। नेपाल के कई सांसदों ने भी कहा कि ओली का बयान गलत था और इससे भारत-नेपाल के रिश्तों को नुकसान पहुंच सकता है। बांग्लादेश में भी 'जाग्रतो हिंदू समाज' ने ढाका में विरोध प्रदर्शन किया और कहा कि ओली ने यह बयान किसी 'अदृश्य ताकत' (यानी चीन) के इशारे पर दिया। 

 

नेपाल सरकार को जल्दी ही अपनी गलती का अहसास हुआ। 14 जुलाई 2020 को नेपाल के विदेश मंत्रालय ने सफाई दी कि ओली का बयान किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं था। उन्होंने कहा कि ओली सिर्फ रामायण के सांस्कृतिक महत्व पर रिसर्च की जरूरत बता रहे थे और उनका इरादा अयोध्या या राम के महत्व को कम करना नहीं था लेकिन यह सफाई ज्यादा काम न आई क्योंकि भारत और नेपाल, दोनों जगह लोग नाराज थे।

 

भारत में भी इस बयान की खूब आलोचना हुई। उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने कहा कि ओली का बयान उनके 'मानसिक दीवालियापन' को दिखाता है। पूर्व सांसद करण सिंह ने इसे 'हास्यास्पद' बताया और कहा कि यह बयान भारत और नेपाल के बीच की दोस्ती को तोड़ने की कोशिश है। भारत के हिंदू संगठनों, खासकर ब्रज क्षेत्र में, ओली के पुतले जलाए गए और नेपाल के साथ कूटनीतिक रिश्ते तोड़ने की मांग उठी।

 

ऐसा ही एक बयान नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने 21 जून 2021 को अंतरराष्ट्रीय योग दिवस के मौके पर दिया जिसमें उन्होंने कहा था कि योग की शुरुआत भारत से नहीं बल्कि नेपाल से हुई थी। उनके इस बयान को लेकर भी नेपाल और भारत दोनों जगह उनकी काफी आलोचना हुई थी। उनके बयान को ऐसे देखा गया जैसे नेपाल की सांस्कृतिक विरासत को भारत ने हथिया लिया हो। हालांकि, इस दौरान उन पर काफी मीम्स भी बने जिनमें कहा गया कि ओली शायद अगली बार दावा करें कि मिल्की वे गैलेक्सी भी नेपाल से शुरू हुई।

BIMSTEC में जब आमने-सामने आए ओली और मोदी

 

रही बात भारत की तो भारत की तरफ से नेपाल के साथ संबंधों को हमेशा वरीयता दी गई है। भारत की सेना में आज भी नेपाल के गोरखा सैनिक भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। नेपाल की भौगोलिक स्थिति की बात की जाए तो इसकी सीमा तीन दिशाओं से भारत से लगती है जबकि एक दिशा चीन अधिक्रित तिब्बत से। यानी कुल मिलाकर बात की जाए तो अपनी ज्यादातर ज़रूरतों के लिए नेपाल भारत पर ही निर्भर है। यही कारण है कि जब इन दोनों देशों के संबंधों में थोड़ी सी भी खटास आती है तो चीन इसका फायदा उठाता है।
 
रही बात प्रधानमंत्री मोदी की तो जब से उन्होंने सत्ता संभाली है तो वह अब तक पांच बार नेपाल का दौरा कर चुके हैं जबकि केपी शर्मा ओली सिर्फ 2018 में ही भारत के दौरे पर आए थे और इन यात्रायों के इतर अगर मुलाकातों की बात की जाए तो पीएम मोदी और ओली की मुलाकात साल 2024 में UNGA शिखर सम्मेलन के दौरान न्ययॉर्क में हुई थी। उस दौरान दोनों मुल्कों के संबंधों में काफी तनाव था लेकिन दोनों नेताओं ने ऊर्जा, प्रौद्योगिकी, व्यापार पर चर्चा की और दोनों मुल्कों में अधिक सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई थी।

 

इसके बाद साल 2024 में रॉयटर्स के हवाले से यह खबर आई थी कि अडानी ग्रुप भारत के पड़ोसी देशों में 10 गीगावाट की विदेशी जलविद्युत परियोजनाओं की योजना बना रहा है। जिसके लिए अडानी ग्रुप 100 बिलियन डॉलर निवेश करेगा। रॉयटर्स की रिपोर्ट के मुताबिक, सूत्रों ने बताया कि अडानी समूह नेपाल, भूटान, केन्या, तंजानिया, फिलीपींस और वियतनाम जैसे देशों में जलविद्युत परियोजनाओं के निर्माण की संभावनाएं तलाश रहा है। यानी नेपाल में भी भारी निवेश की बात सामने आई थी।
 
पीएम मोदी और कोपी शर्मा ओली के बीच दूसरी मुलाकात अप्रैल 2025 में बैंकॉक में 6th BIMSTEC सम्मेलन में हुई। यह मुलाकात ऐसे समय पर हुई जब पिछले कुछ सालों से दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट बढ़ रही थी। पीएम मोदी ने इस मुलाकात को काफ़ी उपयोगी बताया। उन्होंने अपने सोशल मीडिया अकाउंट X पर लिखा, 'भारत नेपाल के रिश्तों को बहुत अहमियत देता है। हमने दोनों देशों की दोस्ती के कई पहलुओं पर बात की, खासकर ऊर्जा, सड़क और डिजिटल कनेक्टिविटी, संस्कृति और टेक्नोलॉजी जैसे मुद्दों पर।'

 

ओली ने भी इस मुलाकात को नज़दीकी और सकारात्मक बताया। उन्होंने X पर लिखा कि उनकी मोदी से बातचीत सार्थक और सकारात्मक रही और अब केपी शर्मा ओली सिंतबर के मध्य में भारत के दौरे पर आने वाले हैं और इस मुलाकात को दोनों देशों के संबंधों में नए अध्याय के तौर देखा जा रहा है।
 
साल 2018 में जब पीएम मोदी नेपाल गए थे तब काठमांडू में आयोजित नागरिक अभिनन्दन समाहरोह में मोदी ने कहा था, 'नेपाल ने युद्ध से बुद्ध का बहुत लंबा सफर तय किया है। पहले यहां बुलेट का बोलबाला था। नेपाल ने बुलेट को छोड़कर बैलेट के रास्‍ते को चुना है। युद्ध से बुद्ध की ये यात्रा है लेकिन मंजिल अभी और दूर है, बहुत आगे तक जाना है। एक प्रकार से कहूं तो अब हम माउंट एवरेस्‍ट का बेसकैंप पहुंच गए हैं लेकिन शिखर की चढ़ाई अभी हमें तय करना है और जिस प्रकार पर्वतारोहियों को नेपाल के शेरपाओ का मजबूत साथ और समर्थन मिलता है उसी प्रकार नेपाल की इस विकास यात्रा में भारत आपके लिए शेरपा का काम करने के लिए तैयार है।'
 
भारत ने तो नेपाल को लेकर अपने इरादे साफ कर दिए हैं अब देखना यह है कि ओली दोनों हाथों के साथ भारत के प्रधानमंत्री को गले लगाते हैं या उनका बायां हाथ पीठ पीछे चीन के लिए आरक्षित रहेगा।

 

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